नफरत की राजनीतिक बहस और सांप्रदायिक सद्भाव व दोस्ती की दास्तान – डा. सुभाष चंद्र

ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
– फ़ैज अहमद फ़ैज

लंबे संघर्ष के बाद भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति मिली, लेकिन औपनिवेशक शासक देश को दो टुकड़ों में विभाजित करके एक स्थायी घाव दे गए। विभाजन की स्क्रिप्ट बेशक औपनिवेशिक शासन ने लिखी थी, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की साम्प्रदायिक राजनीति के साथ-साथ कांग्रेस की रणनीतिक गलतियों का भी इसमें योगदान रहा है।

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों ही धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। दोनों ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत के समर्थक थे। दरअसल सत्तापिपासु साम्प्रदायिक शक्तियां धार्मिकता की चादर से अपने बर्बर व अमानवीय चरित्र को छुपाने का काम लेती हैं। बड़ी चालाकी से लोगों की धार्मिक आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिक रंग देने में कामयाब हो जाती हैं। साम्प्रदायिकता दो धर्मों की लड़ाई नहीं है बल्कि कुछ वर्गों के राजनीतिक-आर्थिक हितों की टकराहट है। मसलन मुस्लिम लीग के 14 सूत्री मांग-पत्र में एक भी मांग धार्मिक नहीं थी। सारी मांगें राजनीतिक थी। समुदायों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते, कुछ लोगों के सत्ता-व्यापारिक हित टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वालों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वालों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। घृणा की इसी राजनीति ने देश को विभाजन की ओर धकेला।

देश-विभाजन को साम्प्रदायिक समस्या के हल के तौर पर स्वीकार किया गया था, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं बल्कि एक नई समस्या की शुरुआत थी। भारत-पाकिस्तान के बीच संबंध हमेशा तनावपूर्ण ही रहे। दोनों देशों में कट्टरपंथी साम्प्रदायिक ताकतें इससे खुराक लेकर फलती-फूलती हैंं। देश-भक्ति व राष्ट्रवाद को धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों से जोड़कर साम्प्रदायिक व युद्धोन्माद पैदा करती हैं फिर भारत-पाक के बीच चाहे क्रिकेट मैच हो या कोई अन्य मसला। बेशक इसमें औपनिवेशिक शक्तियों के व्यावसायिक हित निहित हैं, लेकिन नुक्सान तो दोनों देशों के आवाम का होता है।

यद्यपि आबादियों के स्थानान्तरण विभाजन की अनिवार्य शर्त नहीं थी, लेकिन तत्कालीन नफरत भरे साम्प्रदायिक माहौल में करोड़ों की आबादी को अपने वतन से जुदा होना पड़ा। विभाजन का सबसे ज्यादा असर पंजाब और बंगाल पर हुआ। पंजाब से बहुत बड़ी आबादी पाकिस्तान की ओर चली और पाकिस्तान क्षेत्र से हिंदोस्तान की ओर। नफरत का ऐसा माहौल बना कि धर्म के आधार पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। लाखों की संख्या में लोग मारे गए।  लूट-पाट व मार-धाड़ ने बसे बसाए लोगों को रातों-रात सड़कों पर ला पटका। खाते-पीते लोग दाने-दाने को मुहताज हो गए। लेकिन सब कुछ समाप्त नहीं हुआ था, लोगों में इंसानियत जिंदा थी और कितने ही लोगों ने अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरे धर्म के लोगों की जान बचाई।

जिस तरह दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी ने यूरोप के साहित्य को प्रभावित किया था उसी तरह विभाजन की त्रासदी ने भारतीय साहित्यकारों को प्रभावित किया। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बंगला भाषा के अनेक साहित्यकारों ने इस दर्द को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया। यशपाल, भीष्म साहनी, सआदत हसन मंटो, राही मासूम रजा, अबुदस्समद, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, अज्ञेय, असगर वजाहत,  सुजान सिंह, खुशवंत सिंह, अमृता प्रीतम, रजिया सज्जाद जहीर, जोश मलीहाबादी जैसे समर्थ रचनाकारों ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति की है। सैंकड़ों कहानियां व उपन्यास इस विषय पर लिखे गए, फिर भी यह त्रासदी शब्दों में सिमट नहीं पाई। ‘तमस’ जैसे टी वी धारावाहिक तथा ‘गर्म हवा’ जैसी कई फिल्में बनीं। कितनी ही फिल्मों में इसका संदर्भ स्वाभाविक तौर पर आ जाता है मसलन ‘भाग मिल्खा भाग’  फिल्म में।

विभाजन के बाद से अब तक इस विषय पर विभिन्न विधाओं में निरंतर लेखन हो रहा है। इसका एक ही कारण है कि यह दर्द निरंतर रिसता रहा है। किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उस समय की बात छेड़ दो तो उसकी आंखे नम हो जाती हैं। पाकिस्तानी लेखिका अनम ज़कारिया  ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के कुछ हिस्सों में विभाजन के बाद से रह रहे पहली और दूसरी पीढ़ी के 600 पाकिस्तानियों से बातचीत की। इनका दस्तावेजीकरण अपनी किताब ‘द फुटप्रिंट्स ऑफ पार्टीशन’ में किया है। उनका अनुभव भारत और पाकिस्तान के बीच में नफरत की वर्तमान राजनीतिक बहस से इतर प्रेम, भाईचारे, सांप्रदायिक सद्भाव और दोस्ती की दास्तां है।

भारत-पाकिस्तान की सरहद पर सेनाओं की झड़पों तथा दोनों देशों के शासकों के तल्ख बयानों और कट्टरपंथी-साम्प्रदायिक शक्तियों की भड़काने वाली टिप्पणियों के विपरीत लोग मिलजुल कर रहना चाहते हैं। दोनों देशों की शासन सत्ताएं चाहे परस्पर शत्रु समझती रहें पर दोनों देशों के आवाम अभी भी सरहद को कृत्रिम मानते हैं और अपने वतन से जुडऩा चाहते हैं।

दरअसल यह विभाजन बेहद कृत्रिम व अस्वाभाविक था। राजनीतिक तौर पर भारत और पाकिस्तान बेशक दो देश बन गए हैं, लेकिन दोनों का इतिहास व संस्कृति एक है। विभाजन के समय  राजनीतिक विवशता के कारण बेशक लोगों को अपनी जगह छोडऩी पड़ी, लेकिन दिलों में अभी भी उस मिट्टी से प्यार है।  पाकिस्तान से आए यात्री भारत के किसी गांव में अपने पुरखों की धरती को चूमते हैं या अपनी बोली सुनने के लिए फोन करते हैं अथवा भारत से पाकिस्तान में अपने गांव जाने की चाह उमड़ती है तो वह मात्र एक सैलानी की चाह नहीं होती। उसमें एक विशेष भावना होती है  नम आंखें उन भावनाओं को व्यक्त करती हैं।

हरियाणा क्षेत्र में गांव-गांव, कस्बे-कस्बे में मुस्लिम आबादी थी विभाजन के दंगों से जो असुरक्षा का वातावरण बना उसमें लोगों को अपने घर छोड़कर जाना पड़ा। पाकिस्तान के विभिन्न भागों से लोग यहां आए, बहुत से कैंप बने। लेकिन इनका यहां स्वागत नहीं हुआ था। जहां उन्हें जगह मिली वहां स्थानीय लोगों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया, बल्कि वक्त के मारों के प्रति हिकारत का भाव था।  इनके सामने अपने को पुन:स्थापित होने का सवाल था। बेशक लंबे संघर्ष व मेहनत से व्यापार व अन्य धंधों में अपनी जगह बना ली, लेकिन शरणार्थी होने का दंश निरंतर झेलना पड़ा है।

विभाजन पर इतना कुछ लिखा गया है, फिर भी हमें विशेष अंक की आवश्यकता इसलिए महसूस हो रही थी कि हरियाणा क्षेत्र के संदर्भ में विभाजन की त्रासदी के विभिन्न पहलुओं पर कम लिखा गया है और जो लिखा गया है उस पर उतनी चर्चा नहीं हुई, जो होनी चाहिए। हरियाणा क्षेत्र की घटनाओं पर आधारित सामग्री को रखा है जो विभाजन की त्रासदी की भयावहता के साथ यह भी दर्शाती है कि बर्बरता के घुप्प अंधेरे में भी इंसानियत का दीवा टिमटिमाता रहा है और इस दीवे की रोशनी ने ही मानवता का रास्ता प्रशस्त किया है।

इस अंक में

ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी ‘सरदार जी’, बलबीर सिंह मलिक की कहानी ‘भगवाना चौधरी’, नरेश शर्मा की ‘वो रात को लाहौर चले गए’, सुरेश बरनवाल की ‘रेलगाड़ी’ तथा ज्ञानप्रकाश विवेक व रामकिशन राठी के संस्मरण हैं।

विभाजन की पृष्ठभूमि पर प्रख्यात विचारक असगर अली इंजीनियर का आलेख  प्रकाशित कर रहे हैं जो विभाजन पर विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के रुख को स्पष्ट कर देता है। राजेन्द्र सिंह सोमेश का ‘देश विभाजन में हरियाणा’ आलेख  हरियाणा में विभाजन के प्रभाव को उजागर करता है। दलित चिंतन में डा. सुभाष चंद्र का  ‘डा. आम्बेडकर और विभाजन’ आलेख है।

रेडक्लिफ ने जिस तरह से आनन-फानन में भारत-विभाजन किया उसकी सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति की अंग्रेजी के प्रख्यात कवि डब्ल्यू एच आडन ने अपनी कविता ‘पार्टीशन’ में जिसका अनुवाद यहां दिया है। हरभगवान चावला की कविताएं त्रासदी को अभिव्यक्त करती हैं।

विभाजन के दौरान पानीपत की घटनाओं के चश्मदीद मौलाना लिकाउल्लाह द्वारा 1963 में उर्दू में लिखे  गए  बयान का अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं जो तत्कालीन घटनाक्रम में कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं के ढुलमुल चरित्र को भी उजागर करती है।

महेंद्र प्रताप चांद तथा अमृतलाल मदान के यात्रा-वृतांतों से स्थापित होता है कि दोनों मुल्कों के लोगों में एक दूसरे के प्रति बेहद प्रेम व आदर भाव है।

चंद्र त्रिखा की नानक चंद, हरभगवान चावला की जट्टूराम तथा अरुण कैहरबा की हरिचंद गणगोत्रा से की गई बातचीत में विभाजन के  भयावह अनुभवों की झलक है और उनसे यह भी प्रकट होता है कि बरसों बीत जाने पर अपनी जन्म भूमि के प्रति लगाव है। उदयभानु हंस का  ‘मानवीय मूल्यों के रक्षक भी थे कुछ लोग’ विभाजन के दौरान की इंसानियत को स्पष्ट करता है।

धर्मेंद्र कंवारी का अनुभव आधारित आलेख ‘हम सब शरणार्थी…’ विभाजन के बाद हरियाणा में आए ‘शरणार्थियों’ के प्रति स्थानीय लोगों का रवैया स्पष्ट करता है तो विपिन सुनेजा का आलेख ‘कुछ सुनी हुई, कुछ देखी हुई’ उनके संघर्ष की ओर संकेत करता है।

पाकिस्तान के प्रख्यात शायर उस्ताद दामन के जीवन और साहित्यिक सरोकारों से परिचित कराता एस.के.सेठी का आलेख है।

हरियाणा के लोक कवियों विशेषकर मुंशीराम जांडली, हरिकेश पटवारी, तथा रामकिशन ब्यास के ‘कम्मो कैलाश’ सांग से रागनियां हैं। लोक कवियों की रचनाओं में इस त्रासदी की भयावहता का जिक्र है और तत्कालीन राजनीतिक शक्तियों व व्यक्तियों की भूमिका की ओर संकेत भी किया है।

टेक चंद का आलेख ‘बदलती देह भाषा और  पितृसत्तात्मकता’ पॉप कल्चर के उभार तथा सपना विवाद पर प्रकाश डालता है।

उम्मीद है कि यह अंक विभाजन से उपजे दर्द के बहाने से धार्मिक-साम्प्रदायिक विद्वेष के भयावह परिणामों को समझने में मदद करेगा।

– संपादकीय देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10)

सुभाष चंद्र

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज -3-4

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