जीना इसी का नाम है -गीता पाल

गीता पाल 

         जैसे ही मैंने क्लास में कदम रखा और पूछा, मॉनीटर कौन है? लड़कों की तरफ से आवाज आई – जी चन्दा। बहुत ही साधारण, पतली, छोटा कद, सांवली, एकदम मरियल लड़की मेरे सामने खड़ी थी। चंदा 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी, लेकिन देखने में किसी भी सूरत में 8वीं कक्षा से ज्यादा नहीं लगती थी। चाक मांगा तो चन्दा ही भागकर ले आई। हाजिरी रजिस्टर लाने की भी उसी की जिम्मेवारी थी। कापी में काम अगर पूरा था तो चन्दा का ही। टेस्ट लिया तो क्लास में चन्दा के ही सबसे ज्यादा नंबर थे। अक्सर लड़के-लड़कियां स्कूल का काम चन्दा की कापी लेकर ही पूरा करते। लड़के लोग बड़ी सहजता से चन्दा के साथ हंसी मजाक भी कर लेते थे, क्योंकि चन्दा बड़े घर की बेटी नहीं थी।

                मुझे चन्दा के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। चन्दा के पिता यू.पी. के गांव मीरपुर जिला आजमगढ़ के रहने वाले हैं, लेकिन चन्दा का जन्म चंडीगढ़ की एक बस्ती मौली जागरान, चरन सिंह कालोनी में हुआ था। कहने को यह बस्ती चंडीगढ़ में है, लेकिन कीचड़ भरी गलियां एक-एक या दो कमरों के मकान, न सीवरेज, न पानी का पूरा इन्तजाम। यहां रहने वाले ज्यादातर  मजदूरी या छोटा-मोटा धंधा करते हैं। ज्यादातर लोग यू.पी. या बिहार से कमाने के लिए आए हैं, जिसमें कबाड़, पान वाला, तम्बाकू वाला, तांत्रिक, चायवाला, गोल गप्पे की रेहड़ी वाला, चूडिय़ां बेचने वाला, बिन्दी लिपस्टिक वाला आदि लोगों की भीड़ है। ज्यादातर औरतेंं अपनी छोटी-छोटी लड़कियों के साथ सुबह ही घरों में काम करने के लिए निकल पड़ती हैं।

                चन्दा के पिता मजदूरी (सफेदी करने का काम) करते थे तथा मां पड़ोस के एक प्राईवेट स्कूल में झाडू लगाने का काम। तीनों बहन-भाई इसी स्कूल में पढऩे लगे, क्योंकि हैडमास्टर ने बच्चों की फीस माफ कर दी थी। हैडमास्टर की बदली होते ही स्कूल में नई आया को रख लिया गया, जिसका नतीजा ये हुआ कि बच्चों को सरकारी स्कूल में डालना पड़ा। लगातार धूल भरे माहौल में काम करने के कारण पिता को दमे की शिकायत होने लगी। काम करने की मजबूरी व नजदीक अस्पताल न होने के कारण बीमारी बढ़़ती गई। कुछ दिनों बाद वे टी.बी. की बीमारी का शिकार हो गए। कभी दम घुटता, कभी बुखार तो कभी खांसी फिर भी वे काम पर जाते रहे। इलाज की सुविधा न होने के कारण बीमारी और बढ़ती गई।

                चन्दा करीब छह साल की रही होगी कि पिता की मृत्यु हो गई। इस घटना की उसे धुंधली सी याद है। ये बताते-बताते वह मुझसे लिपट कर रोने लगी। ये कहते हुए कि उस समय मुझे मौत के बारे में कुछ भी पता नहीं था और मैं छोटे बच्चों के बीच में बेपरवाह खेलती रही। परिवार का सारा भार अब मां के ऊपर थ।  मां ने अब चाय-अण्डे की रेहड़ी लगानी शुरू की। मां चाय बनाती और चन्दा अण्डे बेचती। कोई उसे घूरता, कोई डांटता, कोई मजाक करता तो कोई ताना मारता, मगर चन्दा ने इसकी कोई परवाह नहीं की। मां का उसे बड़ा सहारा था। दिन में स्कूल जाती, शाम को मां का हाथ बंटाती, घर का काम निपटा रात को पढ़ाई करती। चन्दा ने ठान लिया था कि परिस्थितियां चाहे जैसी हों, वह पढ़ाई नहीं छोड़ेगी और एक दिन अपने पांव पर खड़ी होकर अपने परिवार को भी संभालेगी।

                तीन-चार साल तक यह सिलसिला जारी रहा। इसी दौरान एक घटना और घटी। एक आदमी जो मां की रेहड़ी के नजदीक बाल काटने का काम करता था। उसने मां से नजदीकियां बढ़ा ली और एक दिन मां के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया। मां को भी लगा कि परिवार संभल जाएगा। दोनोंं की सहमति से शादी हो गई। दो-तीन साल ठीक से गुजरे। दूसरी शादी से चन्दा की मां ने तीन और बेटियों को जन्म दिया। पति की इच्छा थी कि लड़का पैदा हो जाए। अत: चौथी सन्तान लड़का पैदा हुआ।

                चन्दा की मुसीबतें अब बढ़ गई हैं। हर साल बच्चा पैदा होने के कारण मां भी अब बीमार रहने लगी। खून की कमी हो गई, बार-बार बुखार आना व घुटनों में दर्द रहने लगा। मां का चाय बनाने का काम अब छूट गया। पिता की कमाई से सात बच्चों का गुजारा नहीं चल पाता।

                चन्दा ने स्कूल टाईम के बाद घरों में सफाई का काम करना शुरू कर दिया है। अपनी बहन को भी वह साथ ले जाने लगी। पढ़ाई किसी भी कीमत पर वह छोड़ना नहीं चाहती। 10वीं कक्षा तक चन्दा के घर में बिजली नहीं थी। लालटेन या मोमबती लगाकर ही पढ़ाई की। चन्दा सहेली के घर जाकर लाईट में पढ़ती और बहुत बार स्ट्रीट लाईट में भी।

                चन्दा ने 10 जमा 2 की पढ़ाई सेक्टर-6 पंचकूला के सरकारी स्कूल से  कक्षा में प्रथम रहकर की । चंदा ने अपनी बी.ए. की पढ़ाई पंचकूला के राजकीय  महिला महाविद्यालय से की। कालेज में वह विभिन्न तरह की लड़कियों के सम्पर्क में आई। अब सफाई का काम छोड़ दिया और वह पंचकूला के एक काल सेंटर में पार्ट टाईम काम करने लगी। हालांकि उसे काम के घंटे ज्यादा और पैसा बहुत कम मिलता है। लेकिन फिर भी उसे यही काम अच्छा लगता है। यहां के माहौल में के  व्यक्तित्व का विकास भी हुआ है।

                आज चन्दा राजकीय  महाविद्यालय सैक्टर एक पंचकूला में एम.ए. अर्थशास्त्र की फाइनल ईयर की छात्रा है और जिन्दगी की जद्दोजहद में जीती चली जा रही है। उसने काल सैंटर की नौकरी छोड़ दी है और एक ब्यूटी पार्लर में पार्टटाइम काम करती है।

                नए पिता ने शराब पीना शुरू कर दिया। हर रोज घर में झगड़ा व गाली-गलौच आम बात हो गई है।  छ: बहन-भाइयों की देखभाल, बीमार मां की जिम्मेदारी भी उस पर आन पड़ी है।

                11वीं कक्षा से चन्दा मेरे सम्पर्क में है। अच्छा बुरा मुझसे सांझा कर लेती है। किताबों आदि की सहायता अध्यापक लगातार करते रहे हैं। दाखिले के समय कभी-कभी उसकी मदद मैं भी कर देती हूं पर ज्यादा कुछ नहीं। कितना भी आर्थिक अभाव रहा, लेकिन उसने मुझसे पैसा कभी नहीं मांगा-कितनी स्वाभिमानी है यह लड़की! इससे मेरी नजरों में चन्दा का कद और भी बढ़ जाता है।

                चन्दा ने विषम से विषम परिस्थितियों  में भी जीना सीख लिया है। चन्दा शादी करना नहीं चाहती। बस एक ही जीने का मकसद है उसे अपने पांवों पर खड़ा होना है। बहन भाईयों को भी इस लायक बनाना है कि वे भी अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें और अपने पांव पर खड़े होकर स्वाभिमान की जिन्दगी जी सके। दोस्तो जीना इसी का नाम है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर 2016 से फरवरी 2017, अंक-8-9), पेज- 107
 

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