हरियाणा के पचास सालः क्या खोया, क्या पाया – डा. सुभाष चंद्र

इनआमे-हरियाना

हमें जिस रोज से हासिल हुआ इनआमे-हरियाना।
बनारस की सुबह से खुशनुमा है शामे-हरियाना।

न क्यों शादाब हो हर फ़र्दे-खासो आमे हरियाना।
तयूरे-बाग़ भी लेते हैं जबकि नामे-हरियाना।

नसीमे-रूह परवर चल पड़ी है सहने-गुलशन में,
न हो क्यों बुलबुलें शैदा असीरे-दामे-हरियाना।

फरोग़ इतना कहां हासिल हुआ है अहले-आलम को,
कहां कम है अरूजे-आस्मां से बामे-हरियाना।

अयां है इसके हर ज़र्रे से दिन को तूर का आलम
है शब के इससे बढ़कर चर्ख नीली फ़ामे-हरियाना।

रहेंगे किस तरह इस मयक़दा में तश्नालब साक़ी
कि हम भी तो हैं रिन्दाने-मये आशामे-हरियाना।

मिटा देंगे हम अपनी हस्ती-ए-फ़ानी को ऐ नैरंग
न आने देंगे हम लेकिन कभी इल्ज़ामे-हरियाना।

यह नज़म 1966 में रेवाड़ी के मशहूर शायर मरहूम नैरंग सरहदी ने लिखी थी और पहली बार 26 जनवरी 1967 को रेवाड़ी में हुए गणतंत्र दिवस समारोह में गाई गई थी। (इसे विपिन सुनेजा साय़क ने उपलब्ध कराया है) हरियाणा से जो अपेक्षाएं थी उसे इसमें पिरोया है

हरियाणा इस वर्ष स्वर्ण जयंती का जश्न मना रहा है। यद्यपि इस जश्न में लोगों का जोश स्वत: स्फूर्त नहीं है, बल्कि सरकार द्वारा पहल की गई है। जश्न के साथ यह अवसर पिछले पचास सालों में हरियाणवी समाज ने क्या खोया क्या पाया पर गहन विचार करने का भी है।

1857 में हरियाणा के लोगों ने पहले स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़ कर भाग लिया था, जिससे नाराज होकर अंग्रेजों ने हरियाणा क्षेत्र को दिल्ली से अलग करके पंजाब के साथ जोड़ दिया था। तभी से इस क्षेत्र की सरकारी तौर पर अवहेलना होती रही। सरकारी तौर पर विकास की उत्प्रेरक संस्थाओं का अभाव ही रहा।

पिछले पचास सालों में निसंदेह हरियाणा ने बहुत से क्षेत्रों में गर्व करने लायक उपलब्धियां हासिल की हैं। प्रतिव्यक्ति आय, कृषि-उत्पादन, बिजली-सड़क व संचार साधनों के बाद खेलों में हरियाणा ने अभूतपूर्व प्रगति किया है। लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक विकास के बावजूद सांस्कृतिक पक्ष की अनदेखी हुई है। मानव विकास के सूचकांक भी असंतुलित विकास की ओर संकेत करते हैं। मानव विकास सूचकांक में हरियाणा छठे स्थान पर है। लेकिन यदि इसमें से आय के घटक को निकाल दिया जाए तो हरियाणा बारहवें स्थान पर खिसक जाता है। असल में खडंजे-पडंजे को ही विकास मान लिया गया और मानव-संसाधनों का विकास उपेक्षित ही रहा। भौतिक ढांचे पर तो ध्यान दिया, लेकिन समाज की आत्मा उपेक्षित रही।

आर्थिक व ढांचागत विकास के सांस्कृतिक रूपांतरण के अभाव में हरियाणा का सामाजिक ताना-बाना संकटग्रस्त हैं। जिसकी अभिव्यक्ति असंतुलित लिंगानुपात, इज्जत के नाम पर हत्या व दुलीना-गोहाना-मिर्चपुर जैसी दलित उत्पीड़न की दिल दहला देने वाली घटनाओं में हो रही थी। रही सही कसर जाट आरक्षण के दौरान जातिगत हिंसा, लूटपाट व आगजनी ने निकाल दी। मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या, नशे का बढ़ता प्रचलन, आर्थिक संकट के चलते खुदकुशी व आध्यात्मिक आस्था में भारी गिरावट के बावजूद बाबाओं, गुरुओं और डेरों में उमड़ता जन सैलाब  सामाजिकता व बौद्धिक जिजीविषा के क्षरण के ही संकेतक हैं।

                हरियाणा के समाज को लेकर दो तरह की बौद्धिक प्रवृतियां व प्रतिक्रियाएं हैं। एक के अनुसार हरियाणा नं. वन है जिसमें चहुं ओर विकास की गंगा बह रही है।  संस्कृति के नाम पर खण्डहरों में तब्दील होते किलों-हवेलियों, बावडिय़ों-पनघटों, परिधान-आभूषणों के क्षरण का अखंड रुदन है और अतीत का गौरवगान है। दूसरी में सांस्कृतिक मूल्यों की गिरावट व सोच के पिछड़ेपन की आत्यंतिक व्याख्या हैं और परंपरा से विलगाव है। दरपेश सामाजिक चुनौतियों से जुझने के लिए आर्थिक-सांस्कृतिक पक्षों पर समग्रता में घोर आत्ममंथन जरूरी है।

                अपने अस्तित्व के समय से ही कुछ राजनेता व बुद्धिजीवी हरियाणा की एकरूप व एकदम परिभाषित की जाने वाली विशिष्ट पहचान खोजने के प्रयास करते रहे हैं। इस प्रयास में हरियाणा की क्षेत्रीय, भाषायी व सांस्कृतिक विविधता को दुत्कारा है, जबकि विविधता हरियाणा की कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत है। दरअसल किसी एकरूप पहचान गढऩे की बजाए इसकी विभिन्न विशिष्टताओं में मौजूद एकसूत्रता को उद्घाटित करने की जरूरत है।  हरियाणवी समाज व संस्कृति के निर्माण में  वैदिक-अवैदिक मतों शैवों-बौद्धों-नाथों-योगियों-सूफी-संतों-सिक्ख गुरुओं आदि विभिन्न धर्मों-मतों, संस्कृतियों-परंपराओं का योगदान रहा है। संकीर्णता-कट्टरता और अंधविश्वास-पाखंड़ों का भी बोलबाला नहीं रहा। विभिन्न संस्कृतियों के तत्वों से बनी संस्कृति में किसी शुद्ध संस्कृति की खोज हरियाणा के जनजीवन के लिए घातक ही साबित होगी।

                पिछले पचास सालों में हरियाणा के समाज का पूरी तरह कायाकल्प हो गया है। इस बदलाव में कुछ महत्वपूर्ण समाप्त हो गया है और बहुत कुछ अवांछित शामिल हो गया है। तीस-चालीस साल पहले के सामाजिक संबंध-रिश्तेनाते, जनजीवन के दृश्य, खेती-किसानी में काम आने वाले औजार-उपकरण, खाना बनाने के ढंग-स्वाद शताब्दियों पुराने लगते हैं। शहर के बाजारों के स्वरूप, काम-धंधे और व्यापार के तौर-तरीकों में भी स्पष्ट बदलाव हैं। पुराने बाजारों की महक और बहियों वाले साहूकार-बणिये की जगह बड़े-बड़े शोरूम और मेगा-माल ले रहे हैं। घरों के नक्शे और उनकी आंतरिक सज्जा एक अलग ही समाज की सूचक है। जीवन का हर पहलू क्रांतिकारी ढंग से बदला है और इस बदलाव का पुराने से विशेष मोह नहीं है। इसीकारण शायद वर्तमान पीढ़ी का पचास साल पहले के समाज व संस्कृति से पूर्णत: बिछोह है।

                बाहरी आवरण में आमूलचूल परिवर्तन आया ही है, सामाजिक सोच में भी उल्लेेखनीय बदलाव हुआ है। समाज की अमानवीय सामंती प्रथाओं व गैर-बराबरी की समस्त संरचनाओं का शोषित-वंचित-दलित वर्गों की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध हो रहा है तो समाज के प्रगतिशील तत्वों का भी इन्हें समर्थन मिल रहा है।

                वेशभूषा-खानपान की आदतों में भारी परिवर्तन है। धोती-पगड़ी केवल रस्म अदायगी के समय की पोशाक रह गई है। ‘देसां में देस हरियाणा जित दूध दही का खाणा’ वाले क्षेत्र में सामाजिक उत्सवों और बाजार में फास्ट फूड़ के खोमचों पर टूट पड़ने वाली भीड़ रूचियों में आए परिवर्तन को ही दर्शाती है। ‘शहर की दलाली, मुंह चिकणा पेट खाली’ की कहावत ने गांव तक पैर पसार लिए हैं। उजले कपड़े और चेहरे की चमक अनिवार्यत: खुशहाली के लक्षण नहीं हैं।

                संस्कृति की पोटली की मूल्यवान धरोहर को कहानियों-कथाओं-गीतों तथा अन्य कला-माध्यमों के जरिये ही अगली पीढ़ी को सौंपा जाता रहा है। लेकिन  सामाजिक उत्सवों पर गाए जाने वाले गीत मनोरंजन व अपने जीवन की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति न रहकर सगुन की रस्म निभाने का साधन मात्र रह गए हैं। और उनकी जगह ले रहे हैं – हिंसा, उन्माद व कामुकता को बढ़ावा देते वाले पॅाप गीत। युवा ही नहीं अधेड़ों और बुजुर्गों की जुबान पर भी ये चढ़ गए हैं।

                मनोरंजन के साधनों के साथ उसका चरित्र भी बदल रहा है। परस्परता मनोरंजन की अनिवार्यता नहीं रही। मशीन, इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स और मास कल्चर के सानिध्य में विकसित होता नागरिक बाजारोन्मुख है, न कि समाजोन्मुख। खिलौने, कार्टून व धारावाहिक ही नये नागरिक को निर्मित कर रहे हैं। इसका अपने परिवार, समाज व परिवेश से भावनात्मक-संवेदनात्मक संबंध नहीं बन रहा। कहा जा रहा है कि बुजुर्गों को तो बाबाओं और डेरों के गुरुओं ने बींध लिया है और युवाओं को मोबाइल-इंटरनेट ने।

                गांव के प्रवेश पर गड़े विकास पट में पंचायत घर, पशु-अस्पताल, दूध डेरी, कोप्रेटिव सोसाइटी आदि का जिक्र तो है, लेकिन पुस्तकालय-वाचनालय विकास पट का हिस्सा नहीं बने। जिस ढांचागत विकास को हरियाणा की उपलब्धि माना जाता था। वो ढांचा अब जर्जर हो रहा है। सरकारी ढांचे के प्रति लोग उदासीन ही रहे। जिनको इसकी हिफजत करनी थी वे ही इनकी ईंटें उखाड़कर ले गए।  ग्रामीण समाज की आपसदारी समाप्त प्राय: है। बगैर पक्षपात के सच बात कहने का साहस करने वाले लोगों का सर्वथा टोटा होता जा रहा है। जैसे समाज का नैतिक साहस व बल चुक गया है। हरियाणा की परंपरागत कृषक जातियों का खेती से मोहभंग हो रहा है। छोटी जोत, फसल की बढ़ती लागत और उचित मूल्य न मिलना तो कारण हैं ही। किसानों के एक बड़े हिस्से ने खुद काम करना लगभग छोड़ दिया है। श्रम से दूरी से एक लंपट वर्ग भी पैदा हुआ है जो कमजोरों पर अपना रौब गांठता है। चिंता की बात है कि यही लंपट तत्व अंतर-सामुदायिक झगड़ों-झपटों में जाति-नायक भी बन जाता है। जाति व लठ आधारित राजनीति की खुराक भी यही वर्ग  है।

                हरियाणा के समाज के समक्ष गंभीर चुनौतियां हैं और  समाधान है सर्वागींण व सर्व समावेशी विकास। यदि विकास  सिर्फ कुछ व्यक्तियों, कुछ घरानों या कुछ क्षेत्रों का ही हुआ तो समाज में कभी खुशहाली व शांति से नहीं आ सकती। रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि जिसको अपने पैरों तले दबा कर रखा है वो आपके पैर जकड़ लेगा और आपको ऊपर नहीं उठने देगा। इसलिए सबके विकास के लिए जरूरी है सबका विकास। इस अवसर पर हरियाणा को दूसरी पारी आरंभ करने की जरूरत है। परंपरागत तौर पर मुख्यधारा की भूमिकाओं से वंचित वर्ग अपार ऊर्जा स्रोत हैं। अपनी क्षमताओं को साबित करने की बेचैनी भी इन वर्गों में दिखाई दे रही है। सरकार-प्रशासन,नागरिकों-सामाजिक संगठनों, साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों सबको तेजी से बदल रहे हरियाणा के समाज को सही दिशा में ले जाने के हरसंभव प्रयास करने होंगे।

                ‘देस हरियाणा’ का यह यह संयुक्तांक (8 व 9) हरियाणा की स्वर्ण जयंती के अवसर पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्या खोया – क्या पाया पर केंद्रित है। इसमें हरियाणा के समाज, खेती-बाड़ी, शिक्षा-सेहत, सामाजिक न्याय, साहित्य, मीडिया, शहर-देहात, लोकधारा पर आलेख हैं। हम लेखकों के आभारी हैं उनकी प्रतिबद्धता से ही यह संभव हो सका है। उम्मीद है कि उत्सवी माहौल में यह अंक हरियाणा समाज के समक्ष दरपेश चुनौतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करेगा।

जैसा भी है अंक आपके हाथों में है।

सुभाष चंद्र

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर 2016 से फरवरी 2017, अंक-8-9), पेज-3-4

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