कविता
मस्तिष्क के
किसी कोने में
चिपके हैं
कई प्रश्रचिन्ह
और
मैं उदास हूं
भीड़ के पास हूं
जो
निरी तेज
दर्द में लिपटी हुई
रक्त के धब्बों से
गले तक लिथड़ी हुई
चीजों को धकेल कर
आकाश में घोलती है
मैं भी पिल गया हूं
भीड़ में ठिल गया हूं
अधमरी लकड़ी-सा
दोहरा हो गया हूं
आकाश
किसी के बाप का नहीं
धरती सबकी है
हवा को मत बांधो
धूप को भी
संकरी गली के
हर छोर तक जाने दो
गाने दो
हरेक मौसम को
खुलकर गाने दो
पानी की बूंदों को
गलियारे तक जाने दो
बल्बों की रोशनी को
महलों से झोंपड़ी तक
आने दो, आने दो
वे देह
जिनकी आंतें
विवशता की ठंड से
सिंकुड़ कर ऐंठ गई
उन्हें
प्यार की गर्मी दो
अन्यथा
उनका मन
घृणा से कुण्ठित हो
जीवन से तंग आ
अधिकार की खातिर
विद्रोह के द्वार पर
धरना देगा
मारेगा, मरेगा
फिर
मौसम भयावना होगा
कुरूप होगा
तब
सभी कुछ
अस्त-व्यस्त हो बिखरेगा
जो
संभवत: उचित नहीं
अत:
स्वयं जियो
और
दूसरों को जीने दो
क्योंकि
यहां ‘सब’ किसी का नहीं
‘सब’ सबका है
सभी को हंसने दो
गाने दो
आखिर
सभी तो आदमी हैं।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर 2016 से फरवरी 2017, अंक-8-9), पेज- 75