हरियाणवी कविता
म्हारी बुग्गी गाड्डी के पहिये लोहे के सैं
जमां चपटे बिना हवा के
जूए कै सेतीं जुड़ रहे सैं
मण हामी इसे म्हं बैठ
उरै ताईं पहोंच लिए
रेज्जै का पहरा करे सै म्हारै कुरता
अर बां उपराण सांम्हीं राख्या करां,
थोड़ी-थोड़ी हांण म्हं समाहीं जाया करां
इस झोटा बुग्गी तैं रेत भोत उड़े सै
अर फेर ये म्हारी ढाळ के फिड्डे लीतर सैं
बस इननैं पायां मैं ऊळझाकीं हाम चाल्या करां,
इसकै आगे टांकी लाग रही सैं अर पाछे तैं फिड्डी कर राखी सैं।
मण ईब तो गर्मियां के दिन सैं
पायां म्हं कीम कोनी, तो भी कोई बात कोनी
घणी बार तो हामीं ऊघाणे पाईं हांडी जाया करां सां
जद पाट रहे जूते समरणे दे राखे हों।
सारी हाण थावर नैं शहर जाया करूं सूं
अर ओड़े वा भी अपणई काक्कै सेतीं आया करै,
शहर म्हं हामीं बुग्गी की छायां मैं बैठ जाया करां
हामीं दोनों अर मेरा बुग्गी आळा झोटा।
इस पुरानी बुग्गी म्हं बैठकीं घरीं उलट आलिए
राह म्हं सड़क के घण्खरे लट्टू फूटग्ये
अर मेरी बुग्गी कै कोये भोंपू भी कोनी
घरीं ऊलटे आये पाछै
थोड़ी हाण पादरा होये पाछे
फेर ऊंट सेतीं खेत मैं जाणा सै
ऊंट भी मड़ी बार हरे म्हं मुंह मार आवैगा।
खेत म्हं थोड़ी हाण हाळ बाऊंगा
थोड़ा जोटा मार कीं टीक्कड़ पाडूंगा
फेर बणी तैं पाणी ल्याऊंगा
ऊंट नैं प्याऊंगा
अर जोहड़ी म्हं गोता मारूंगा
गाम म्ह रहण का योऐ तरीका सै
उरे कोए भी अमीर कोनी
कोये भाजा-दौड़ी कोनी
हामीं धरती के मजे ले-ले कीं चाल्या करां सां।
सांझ नैं मूंज की खरोड़ी खाट पै
हुक्का पींदीं हाण
श्यामीं दिखै सै पूंछ मारदी,
अर जुगाळी करदी मैस,
ठाण म्हं लोट मारदा ऊंट,
अर पछण्डे मारदा बाछड़ा
इसतैं बढ़ीया किमें नजारा कोनी
सैं-सैं करदी काळी रात नैं।
कदे-कदे शहर के लोगां पर दया आवै सै
जिननै कदे गोबर तैं लिबड़े ठाण म्हं
बाल्टी भर दूध कोनी काढ्या
वे तो ठाणकै धोरै कै भी कोनी लिकड़ सकैं फेर नीकडू दूध किसा
चांदणी रात म्हं हाळ का जोतणा
ठाले बखतां म्हं मूँज कूटणा,
बाण बाटणा,
बटेऊ कुहाण का मज़ाए न्यारा सै गामा म्हं
मैं किते और नीं रहणा चाहंदा
अगले जन्म मैं राम मनै योए गाम दिए
इसे गाम पाणे इब बहोत मुसकल सैं।
सारे शहर ऐ शहर होगे
मनै तो बस मेरा गाम ऐ फेर अर फेर चाहिये सै।
फेर अर फेर चाहिये सै ।
फेर अर फेर चाहिये सै।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर 2016 से फरवरी 2017, अंक-8-9), पेज- 109