दीपक बिढान – किसान

 कविता


पके अनाज की मंद-मंद गंध,
और पक्षियों का शोर
शादी के मंडप सा माहौल।
फसल का असल रंग
उसे वो बता रहेे हैं,

जिन्होंने नही पकड़ी कभी हाथ दरांती
बेबसी में वो,
सिर झुकाए गर्दन हिला रहा।

नीम के नीचे,
हाथों मेंं चेहरा पकडे
एक अधपके बालों वाला आदमी।

दूर तक फैले खेतों को देख
उसके मन में शमशान सी खामोशी
लहू की बूंद-बूंद को पसीने में तबदील कर,
जो पैदा किया,
उसके बदले आज आंसू मिल रहे हैं।

घर आया
घरवालों ने पूछा,

क्या लाया ?
हिस्से में आए
गुस्सा और झुंझलाहट।
छोटी गुडिया आके गर्दन से लिपट गयी
आंखों का रंग देख पीछे हट गयी
चूल्हे के सहारे लगे
भाई को रोता देख
बिन कहे सब कुछ समझ गयी।
मैली सी चुन्नी का सिरा,
दांतों में दबाए,
एक औरत जवानी को घसीटती,
कुछ बुडबुडाती,
बच्चों को,
भीतर ले गई ।
हवा ही उल्ट दिशा चल रही है,
कुछ सोने की थाली में खाने वालों ने
मिट्टी के चूल्हे तोडे हैं।
रही सही कसर इन मरजाणों ने नशे में पड़,
अपने भाग खुद फोड़े हैं ।

खेत में इक रोज
अचानक जमीं बोली,
अब क्या करेगा ?
वह मुस्कुराया
जिन औजारों से
अनाज पैदा किया
वो बनेंगें हथियार
फसलें पानी से नहीं,
खून से पका करेंगी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (नवम्बर 2016 से फरवरी 2017, अंक-8-9), पेज- 40
 

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