आग -सुरेश बरनवाल

कविता


यह घटना थी
या वारदात
या युद्ध।
बहुत कुछ जला था तब हरियाणा में
दुकानें, इन्सानियत
मासूमियत
स्कूल, किताबें।
जिन्होंने दुकानें जलाईं
वह नहीं हो सकते थे पिता
एक पिता जानता होता है
बिना कमाए घर लौटना
बच्चों का अपराधी हो जाना होता है
जिसकी सजा
चाह कर भी मर नहीं सकना है।
जिन्होंने मानवता रौंदी
डर उपजाया
आंसुओं को कुचला
वह इन्सान नहीं हो सकते
एक इन्सान जानता है
प्रेम से हट जाना
मरने से बदतर है।
जिन्होंने किताबें जलाईं
उनपर लानत भी शर्मसार है
क्योंकि यह वह लोग थे
जिन्होंने नहीं पढ़ी थीं किताबें।
वह घटना नहीं थी
वह तो निरा युद्ध था।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज-33
 

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