मजदूर बनाम राष्ट्र -सुरेश बरनवाल

कविता


यह भी तो एक युद्ध है
कि एक मजदूर
दिन भर की दिहाड़ी के बाद
आधा राशन लिए घर लौटता है।
उसके बच्चे
हर रोज युद्धभूमि में उतरते हैं
हसरतों को मारते हैं।
यह ऐसा युद्ध है
जिसमें
दो राष्ट्र तो नहीं लड़ते
पर एक राष्ट्र
फिर भी हार जाता है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज-33

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