युद्ध की विभीषिका -सुरेश बरनवाल

कविता


युद्ध की विभीषिका
इससे मत गिनो
कितने मरे
कितने घायल हुए
कितना रक्त बहा।
युद्ध की विभीषिका
इससे गिनो
कितने जिन्दा आदमी
मर चुके लोगों की लाश ढोते
खुद लाश बन गए
उनकी आंखों से
कितना आंसू बहा।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज-33

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