माटी – सुरेश बरनवाल

कविता


नहीं
अब चाक नहीं चलते कुम्हारों के
गीली माटी अब नहीं महकती
पहिया नहीं घूमता
हमारी पृथ्वी सा
न ही कुम्हार के हाथ
माटी से सने मिलते हैं
धूप में नहीं सूखतीं
अब छोटी दिपलियां
कोरे मटके के पानी का स्वाद
जीभ नहीं महसूस करती अब।
तुम्हें नहीं पता
देश के रेगिस्तानों से
कितनी ही रेत उड़ती है रोज
कुम्हारों के मकानों तक आती है
और
उसके आंगन को सूना देख
फिर रेगिस्तान लौट जाती है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज-34

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