कविता
युद्ध के दौर में
विद्रोह, क्रोध, हिंसा
बारूद, बन्दूक
और शरीर के चिथड़े
मिल जाते थे हर राह
टूटे भग्नावशेष
कब्रगाह बन गए थे
इन्सानी सभ्यता के।
सभी कुछ समाप्त था
सिवाय नफरत के।
आज तक कोई नहीं गिन सका
हर युद्ध में
कितने इन्सान
नाम में तब्दील हो गए
कितनी लोरियां चीखें बन गईं
कितने गीत रूदन हो गए
कितना प्रेम पत्थर हो गया।
पर टूटी सड़कों पर नंगे पांव चलते कुछ लोग
खून से सने रूमालों को उठा लेते थे
उन्हें धोकर सूखाते थे
और पढ़ते थे उसपर लिखे नाम।
दरवाजों पर ठिठकी कितनी आंखों में
इन्तजार लरजता था
बाहें बरबस खुल जाती थीं
कोई आएगा और इनमें समा ही जाएगा।
कितने हाथ पानी लिए
सड़क के किनारे खड़े होते थे
क्या पता
कब कोई थका प्यासा सैनिक
आंखों से पानी मांग ले।
सैनिकों की हुंकार के साथ
उनके मुंह से
बरबस निकल जाता था कोई नाम
और सामने से गोली मारने वाला
अकबका कर ठिठक जाता था
वैसा ही कोई नाम
उसे भी याद आ जाता था।
कितनी ही औरतें होंठों पर
तब भी लिपस्टिक लगाती थीं
क्या पता अभी दरवाजा खुले
और प्रेमी उसे पुकारता भीतर आ जाए।
कितने ही बच्चे
गोद में लिए जाने के लिए
सूनी सड़कों को तकते
दरवाजे से चिपके खड़े होते थे।
कितनी मांए
अधपकी रोटी तवे पर छोड़
खुद धुंआ होती हुई
खिड़कियों से बाहर झांक आती थीं।
हर औरत के लिए
हर घायल
उनका भाई, पिता, बेटा, प्रेमी हो जाता था।
उफ्! इतना प्रेम
इतना इतना प्रेम
पनपता था
युद्ध के दौर में।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज-33