चिंतन के इन्द्रधनुषी रंगों से सजा काव्य

राधेश्याम भारतीय

(डॉ मुकेश अग्रवाल कविता संग्रह की समीक्षा)


आयुर्वेेद एवं योगा में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ मुकेश अग्रवाल जहां चिकित्सा के क्षेत्र में मुकाम हासिल कर रहे हैं, वहीं साहित्य में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। इनका प्रथम काव्य-संग्रह ‘सिर्फ  एक मानव हूं मैं’ इसका प्रमाण है। इस संग्रह में कवि ने बहुत खुबसूरती के साथ समाज के भी विविध रूपों को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की समस्त रचनाओं को पांच भागों में बांटा है जिनमें आत्म एवं व्यक्ति चिंतन, प्रेम एवं नारी चिन्तन, समाज एवं राष्ट्र  चिन्तन ,प्रकृति एवं पर्व चिन्तन और विविध चिन्तन हैं। डॉ साहब के लिए काव्य सृजन लोक ख्याति अर्जित करने का माध्यम नहंीं है बल्कि मनुष्य को चिन्तन-मनन, एवं संवेदनशील प्राणी के रूप में देखना ही उनका लक्ष्य है। उनका मानना है कि हम सब मानव हैं और मानव वही है जिसमें मानवीय गुण विद्यमान हों। जिनमें संकीर्ण सोच की जगह व्यापक सोच हो, जो विश्व बंधुत्व की भावना में विश्वास रखें।तभी उन्होंने लिखा है-

मै आकाश बनना चाहता हूं-कमरा नहीं
समुद्र बनना चाहता हूं -घड़ा नहीं।
मैं चाहता हूं -एक नई व्यवस्था,
एक नया समाज, एक नया आंगन।

कवि समाज की गली-सड़ी व्यवस्था में बदलाव चाहता है। वह एक  समतावादी समाज देखना चाहता है, जिसमें सबको अपना जीवन स्वाभिमान के साथ जीने का अवसर मिले और और एक ऐसा आगंन हो जिसमें देश के युवाओं के सपनों को पर लगें, वे सफलता की बुलन्दियों को छुएं।

आत्म एवं व्यक्ति चिंतन में ‘अधूरापन’ कविता है जो यह अहसास करवाती है कि जब तक मनुष्य में अधूरापन है, तब तक हम सही मायने में मानव नहीं बन सकते। इस अधूरेपन से तभी छुटकारा पाया जा सकता है, जब मनुष्य भोग के स्थान पर त्याग की भावना को तवज्जो दे।

प्रेम और नारी चिन्तन में प्रेम और नारी के महत्व को रेखांकित किया गया है। इनमें डॉ साहब के कॉलेज समय की कविताएं हैं। ये कविताएं आज भी तरोताजा-सी जान पड़ती हैं। इन कविताओं को पढ़कर किसी को भी अपने कॉलेज के दिनों की याद आ सकती है। एक बानगी देखिए-

खूबसूरत हो तुम, भोली हो तुम।
प्यारी-प्यारी मिश्री की गोली हो तुम।

डॉ साहब ने नारी के विविध रूपों पर भी बहुत खूब लिखा है। चंद पंक्तियां मां को समर्पित हैं-

कभी मां बन के
अपनी ममता बरसाती हो तुम,
खुद भूखी रहकर
अपने बच्चे को रोटी खिलाती हो तुम।
सूखे में लिटाकर मुझे,
खुद गीले में लेट जाती हो तुम।।

डॉ साहब ने भारतीय संस्कृति  को उसकी विशेषताओं के साथ उजागर किया है। कविता ‘सांझा चुल्हा’ इसका उत्कृष्ट उदाहरण जान पड़ता है-

सांझ में जब सांझा चुल्हा जलता है
बड़ी पतली की कढ़ाई में,
काठ का चम्मच हिलता है,
तो बन जाता है एक स्वादिष्ट मिश्रण भावनाओं का।

इस भाग में नवनिर्माण, आज वतन के नाम पर,  स्वस्थ चिंतन , तिरंगा हमें पुकार रहा है आदि कविताएं अपने ओजस्वी एवं प्रेरणादायी रूप के कारण जहां देशप्रेम की भावना का आविर्भाव करती हैं, वहीं युवाओं को नवसृजन के लिए भी प्रेरित करती हैं। कवि लिखता है-

शहीदों के सपनों को
पूरा कर दिखलाना है,
धर्म नीति पर चलकर हमको,
भारत को स्वर्ग बनाना है।

प्रकृति मनुष्य के जीवन का अंग है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रकृति अपने खजाने से बिना भेदभाव किए अपना सर्वस्व सभी पर लूटाती रहती है। और मनृष्य भी इस प्रकृति को जिस रूप में देखना चाहे उसी रूप में दिखाई पड़ती है। कवि ने हिमालय की अनुपम छटा को इन शब्दों में बांधने का प्रयास किया है।

प्रकृति की अद्भुत छटा है,
दूधिया बर्फ की चादर से,
ढका हिमालय है।
कतारों में पेड़ चिनार के
कुछ यूं लहरा रहे हैं
जैसे किसी चित्रकार ने
कुची से चित्र उकेरा है।

विविध चिंतन में कवि ने आयुर्वेद की महिमा का गुणगान किया। उन्होंने कविता ‘दिनकर’ में परम श्रद्धेय दिनेश जी के प्रति भी अपने मन के उद्गार व्यक्त किए हंै।

आज का नौजवान, आओ मर्द बन जाएं, दुग्ध पान जैसी कविताएं मनुष्य को चिंता एवं चिंतन को बाध्य करती हैं।

इस काव्य संग्रह में भाषा शैली की बात करें तो अलंकार, भावानुरूप स्वयं ही आते गए हैं। अभिधा शक्ति के साथ-साथ लक्षणा एवं व्यंजना के भी दर्शन होते हैं।

अंत में इतना कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएं एक स्वस्थ, चिंतनशील, मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत समाज बनाने में सहायक सिद्ध होंगी। और यह संग्रह साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान बनायेगा इसी आशा और विश्वास के साथ डॉ साहब को हार्दिक बधाई।

पुस्तक – सिर्फ  एक मानव हूं मैं
रचनाकार – डॉ. मुकेश अग्रवाल
प्रकाशक – अनुज्ञा बुक्स शाहदरा दिल्ली

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2017, अंक-12), पेज- 63

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