नरेश कुमार 'मीत’ – आजादी

लघु-कथा


शुक्ला जी सुबह उठकर पौधों को निहार रहे थे कि उन्हें गमले के पीछे कुछ फडफ़ड़ाहट सी सुनाई दी। उन्होंने गौर से देखा तो एक तोता उसके पीछे छिपने की कोशिश कर रहा था। रात में तेज तूफान आया था उसी दौरान यह आंगन में गिर गया था। शुक्ला जी ने पास जाकर पुचकारा तो इसने कातर दृष्टि से उन्हें देखा परंतु उड़ न सका। किसी हिंसक जीव का चारा न बन जाए, ये ख्याल आते ही करुणा से भरे वे उसे अंदर ले आए। बच्चे इसे देखकर बहुत खुश हुए और पालने की जिद्द करने लगे। मम्मी से एक पिंजरा मंगवाकर ही माने।

अब यह उनके परिवार का ही एक सदस्य बन गया था। पूरा परिवार उसका बड़ा ख्याल रखता था। घर मे कुछ भी खाने पीने की चीज आती तो मिट्टू का हिस्सा सबसे पहले निकाला जाता था। मिट्टू भी उनमें इतना घुलमिल गया था कि कभी उनके कंधे पर बैठता, कभी हाथ पर बैठकर अठखेलियां करता, उनको चोंच से काटने का स्वांग करता। अब धीरे-धीरे वह बड़ा होता जा रहा ।जब बच्चे स्कूल चले जाते तो वह पिंजरे में बैठा आकाश को निहारा करता। दूसरे परिंदों को उड़ते देख व्याकुल हो जाता। कभी टें-टें की आवाज से अन्य तोतों को पुकारता। यूँ तो यहाँ उसके लिए बढिय़ा फल पानी सब बिना प्रयास के ही और आवश्यकता से भी ज्यादा उसे मिलते थे। उसके आगे हमेशा खाने ढेर लगा रहता था। मगर ज्यों-ज्यों वह बड़ा हो रहा था उसकी व्याकुलता बढ़ती जा रही। वह पिंजरे में अपने पंख फडफ़ड़ाता, कभी उसमे दौड़-दौड़कर चक्कर लगाता तो कभी पिंजरे को चोंच से काटने की कोशिश करता। एक दिन मौका मिल ही गया। जैसे ही उसे पिंजरे से निकाला गया तो वह फुर्र से उड़ गया। बंटी सेब हाथ मे लिए देखता ही रह  गया,आंखों से ओझल होने के बाद भी।

अब मिट्ठू के पास न फलों का ढेर था,न पानी और न आशियाना। अब उसके पास मनचाही उड़ान भरने के लिए खुला आकाश और प्रकृति की अपार संपदा थी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त, 2017), पेज – 40

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