मंगत राम शास्त्री
इसा गीत सुणाओ हे कवि! होज्या सारै रम्मन्द रोळ,
उट्ठे चोगरदै घमरौळ
इसा राग्गड़ गाओ हे कवि!
माच्ची उथल-पुथल सारै कोए झूठ और साच पिछाणै ना
आप्पा-धाप्पी मची चुगरदै दया-हया कोए जाणै ना
सारै को मदहोस्सी छार्यी बुद्धि रही ठिकाणै ना
आपणी डफली राग भी आपणा कोए किसे की ताणै ना
इसा रंग जमाओ हे कवि! होज्या सारै गाद्दळ घोळ,
दिक्खै सब किमे गोळ-मटाळही
इसा डुण्डा ठाओ हे कवि!
धक्का-मुक्की होण लागर्यी कोए किसे की नहीं सुणै
इसी कसुत्ती होई मिलावट दूध और पाणी नहीं छणै
दगाबाज होर्ये सारे झाड़ै कोए किसे की नहीं गुणै
हाहाकार माचर्यी सारै भय का वातावरण बणै
इसा छंद बणाओ हे कवि! खुलज्यां ढके-ढकाए ढोल,
पाट्टै सबकी पट्टी पोल,
इसा नारा लाओ हे कवि!
होर्यी झीरमझीर व्यवस्था नहीं बच्या कोए जिम्मेदार
छीना-झपटी होर्यी सारै लम्पट फिरग्ये घर-घर-द्वार
न्याय नीति का भाण्डा राज की होर्यी बण्टाधार
कोए पारखी बच्या नहीं उरै खळ और खाण्ड बिकै एक सार
इसा शोर मचाओ हे कवि! कोन्या सुणै किसे का बोल,
रहज्यां धरे-धराए मोल,
इसा झूठ चलाओ हे कवि!
इतनी चकाचौंध बढ़ग्यी उरै आंख मिचैं चमकार्यां म्हैं
धर्म का डण्डा चलै राज पै शक्ति बढ़ी इजारयां म्हैं
भीड़ के आग्गै चाक्की पीस्सै कानुन बैठ चौबर्यां म्हैं
क्यूं खोएं अर्थ फिरै कविताइ नाच्चै राज इशार्यां म्हैं
इसा राग बजाओ हे कवि! करज्या मंगतराम मखोल,
फेरबी पाट्टै कोन्या तोल,
इसा भ्रम फैलाओ हे कवि!
इसा गीत सुणाओ हे कवि!…………..।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त, 2017, अंक 12) पेज -50