कविता
पूंजीवादी समाज के प्रति
इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अन्त शुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बन्ध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर जाल
केवल एक जलता सत्य दन, टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ’ दुर्गन्ध
तेरी रेशमी वह, शब्द-संस्कृति अन्ध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे हृास में भी रोग कृमि है उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता से धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ
(संभावित रचनाकाल 1940-42। तारसप्तक में प्रकाशित)