जनवादी कविता की विरासत-डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

हिन्दी में आठवें दशक के दौरान जनवादी कविता का स्वर ही प्रमुख रहा है, कई नए हस्ताक्षर इधर जनवादी कविता के क्षेत्र में उभर कर आए हैं, किंतु प्रगतिशील साहित्यधारा से जुड़े हुए बहुत सारे प्रतिष्ठित कवियों ने भी इस दौरान सक्रिय रह कर जनवादी कविता को सशक्त बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, यदि आज जनवादी कविता का प्रभाव-क्षेत्र बढ़ रहा है, तो उसका श्रेय मुख्य रूप से नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह एवं शील जैसे हमारे पुराने जनवादी  कवियों को जाता है, जिन्होंने स्वतंत्रता-आंदोलन  के साथ-साथ उभर कर आने वाले जनवादी साहित्य की ऊष्मा को अपनी रचनाओं के माध्यम से बरकरार रखा अैर इस प्रकार जनवादी साहित्य में नया उभार लाने के लिए आवश्यक भाव-भूमि तैयार की है। आज के जनवादी कवि का प्रेरणा-स्रोत वास्तव में उन जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में ही विद्यमान है जो स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान जनमानस में उभर कर आए थे।

आजादी की लड़ाई के दौरान प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने इन जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों को मेहनतकश लोगों की खुशियों और अभिलाषाओं से जोड़कर उन्हें व्यापक सार्थकता प्रदान की, इन जनतांत्रिक मूल्यों की हमारी विरासत को स्वस्थ रूप में ग्रहण करने तथा उसे बरकरार रखने की जिम्मेदारी को छठे दशक के दौरान जिन प्रगतिशील रचनाकारों ने निभाया, उन्होंने तत्कालीन समाज में होने वाले परिवर्तनों को सही जांच-परख करने का प्रयत्न किया है, इन रचनाकारों में मुक्तिबोध की दृष्टि सबसे अधिक पैनी थी, इसलिए उन्होंने यह अच्छी तरह पहचान लिया था कि विरासत में मिले जनतांत्रिक मूल्यों में कुछ अधूरापन और ढीलापन है, जिसके कारण इनके नाम पर हमारे समाज में होने वाले परिवर्तनों से आम लोगों के जीवन में खुशहाली आने के बजाए बदहाली ही बढ़ती जा रही थी, कमजोर तबकों का शोषण और उत्पीड़न खत्म होने के बजाय और भी गंभीर रूप धारण कर रहा था। आर्थिक विकास की गति बहुत मंद थी और इससे उत्पादन में जो थोड़ी-बहुत वृद्धि हो रही थी, वह भी चंद लोगों के बीच सिमट कर रह जाती थी, गरीबी और बेरोजगारी की समस्याएं अधिक विकट होती जा रही थी। इसलिए मुक्तिबोध ने यह महसूस किया कि तत्कालीन वस्तु-स्थिति की असलियत को हम ठीक तरह तभी पहचान सकते हैं, जबकि विरासत में मिले हुए जनतांत्रिक मूल्यों को पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं वैज्ञानिक रूप प्रदान करें। वे यह भी समझ गए थे कि सही जनवादी मूल्यों के आधार पर नये समाज की स्थापना तभी हो सकेगी जब मेहनतकश लोग सामूहिक संघर्षों के लिए तैयार हों और सत्ताधारी वर्गों के आतंक का मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए कटिबद्ध हो।

स्वतंत्रता-आंदोलन की विरासत के इस स्वस्थ जनवादी रूप को कायम रखने और उसे हम तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम मुक्तिबोध के अलावा जिन पुराने कवियों ने किया है, उनमें ये तीनों कवि प्रमुख हैं, जिनके सद्यप्रकाशित कविता-संग्रहों की चर्चा इस लेख में की जाएगी, वैसे तो दृष्टिकोण और संवेदना संबंधी सीमाएं कुछ हद तक इन तीनों जनवादी रचनाकारों में देखी जा सकती हैं, किंतु उनकी वास्तविक उपलब्धियोंं की पहचान बनाकर ही हम आज अपनी जनवादी साहित्यिक विरासत से ठीक तरह से जुड़ सकते हैं। प्रगतिशील साहित्यधारा की शक्ति को पहचानने के लिए उसकी मूल धारणा को ध्यान में रखना जरूरी है।

त्रिलोचन, नागार्जुन और शील के कविता-संग्रह हमें यह अवसर प्रदान करते हैं कि जनवादी साहित्यधारा के मूल प्रेरणा-स्रोत को पहचानते हुए हम प्रत्येक रचनाकार की विशिष्टता को भी रेखांकित कर सकें और इस प्रकार यह स्पष्ट कर सकें कि जनवादी साहित्यधारा अपने अंदर कितनी विविधता एवं सम्पन्नता समेटे हुए हैं।

त्रिलोचन का कविता-संग्रह ‘ताप के ताए हुए दिन’ जनवादी साहित्यधारा के जो गुण हमारे सामने प्रस्तुत करता है, उसकी आज की जनवादी कविता को विशेष रूप से जरूरत है। इन रचनाओं के माध्यम से हम एक ऐसे कवि-व्यक्तित्व से सम्पर्क स्थापित करते हैं, जिसकी मानसिक स्वस्थता, नैतिक दृढ़ता और दृष्टिकोण की वस्तुपरकता हमारे अंदर आत्मीयता और आदर की भावना जागृत करती है। इन रचनाओं के माध्यम  से बोलने वाला कवि अपनी धरती की गंध तो पहचानता ही है, इसके साथ-साथ वह इस देश के मेहनतकश लोगों के बीच खड़ा दिखायी देता है और उनके मुहावरे और उनके तेवर को अपनाए हुए है। जन-जीवन के ताप से तायी हुई इन रचनाओं की भाषा ऊपर से इतनी सरल और सामान्य लगती है कि कुछ लोगों को वह सपाट एवं ओजहीन गद्य की भाषा लगे, किन्तु वास्तव में त्रिलोचन की कविता की भाषा में जनभाषा की मार्मिकता और उसकी अनेक अर्थ-भंगिमाएं सघन रूप में विद्यमान है। जनभाषा की शक्ति को सहज रूप में समेट लेने वाला यह कवि अपनी रचनाओं में इस बात का यथेष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है कि वह मेहनतकश लोगों की केवल भाषा ही नहीं अपनाए हुए हैं, बल्कि उनकी सहज कर्मठता दुर्दम जिजीविषा तथा उनके गहन आत्मसम्मान को भी अपनी संवेदना में समेटे हुए है, ताप के ताये हुए दिन का कवि मध्यवर्गीय निजबद्धता एवं अहंवादिता से पूर्णतया मुक्त है। कविता उसके लिए आत्म-प्रक्षेपण का माध्यम नहीं, बल्कि बहुजन समुदाय के सामान्य जीवन की केंद्रीय सच्चाइयों को, उनके स्वाभाविक उल्लास और पारस्परिक आत्मीय स्नेह को तथा उनकी सामान्य पीड़ाओं और विवशताओं को बिना किसी प्रकार की लाग लपेट अथवा सजावट के सहज-सरल और संक्षिप्त ढंग से प्रस्तुत करने का एक ऐसा प्रयास है जो ऊपर से भले ही बड़ा आसान नजर आता हो, परन्तु वास्तव में कठिन साधना की अपेक्षा रखता है।

त्रिलोचन की कविता में चटकीलापन अथवा बड़बोलापन नहीं मिलता, भावावेश अथवा बोझिल दार्शनिकता से भी वह पूर्णतया मुक्त रहती है, फेंटेसी का रंगारंग ताना-बाना अथवा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की महीन कताई भी यहां दिखायी नहीं देगी, जो पाठक ‘नयी कविता’ और ‘अकविता’ में भावात्मक सजगता और बौद्धिक प्रौढ़ता की अभिव्यक्ति देखने के आदी हैं, उन्हें यह सीधी-सादी गद्यात्मक कविता अपनी ठोस वस्तुपरकता और परिपक्ता के बावजूद एकदम फीकी और बदरंग लगेगी। किंतु हिन्दी कविता की उस केंद्रीय परंपरा को, जो जनभाषा और जनजीवन से जुड़ी रहती है और जहां चीजों को उनके सही नाम से पुकारा जाता है तथा समाज के पेचीदा रिश्तों को एक स्थिर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनके सही रूप में पहचाना जाता है, त्रिलोचन ने अपनी इन रचनाओं में जीवित रखा है।

किसी लेखक की कविता वास्तविक स्वरूप को जांचने के लिए हम केवल विषय-वस्तु के चुनाव के आधार पर कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। चुने हुए विषयों को किस दृष्टि से उठाया गया है तथा अभिव्यंजनात्मक ढंग से उन्हें किन महत्वपूर्ण मुद्दों का वाहक बना दिया गया है, कवि की भावभूमि और उसकी बौद्धिक क्षमता की छाप इन विषयों पर किस प्रकार की पड़ती है-इन सभी बातों के आधार पर रचना के वास्तविक कथ्य की जांच-परख होती है।

ऊपर से देखने पर लगेगा कि त्रिलोचन अपनी अधिकांश रचनाओं में  पृथ्वी, आकाश, बरसाती रात, बसंत, सरसों का फूल, सुगंध, दूब, ताप के ताये हुए दिन, केले के पत्ते, काई, झापस आदि साधारण विषयों को चुनते हैं, जिनके अंतर्गत सामाजिक जीवन की पेचीदगियों का समावेश नहीं हो सकता। हमारे सामूहिक जीवन की प्रमुख समस्याएं और राजनीति के ज्वलंत प्रश्न त्रिलोचन की रचनाओं की सतह पर नहीं दिखायी देते। यदि ‘संबंधों के हवामहल’, ‘कहां हैं वे लोग’ जैसी कुछ कविताओं और ‘चुनाव के दिन’, ‘काठ के हवामहल’ और ‘घर वापसी’ जैसे कुछ सॉनेटों में कवि सामाजिक जीवन की कुछ झलकियां देता भी है, तो हमें लग सकता है कि ये झलकियां अतिसंक्षिप्त और अपर्याप्त है और इनके माध्यम से कवि तत्कालीन सामाजिक जीवन के केंद्रीय मुद्दों से नहीं टकरा पाता। ‘नग ई मेहरा’, ‘चित्रा जाम्बोरकर’ और ‘छोटू’ जैसी किंचित लंबी कविताओं को पढ़ कर भी संभवत: कुछ पाठक यह महसूस करते रहेंगे कि यहां भी सामाजिक जीवन के आसानी से समझ में आने वाले मसलों और अति सरल अनुभवों को ही मुख्यत: प्रस्तुत किया गया है। परन्तु त्रिलोचन की कविता के बारे में इस प्रकार की धारणा उसे ठीक तरह से न समझ पाने का परिणाम हो सकती है।

            कविता चाहे सरसों के फूल को विषय बनाती हो या तीन साल के किसी बच्चे को लेकर लिखी गई हो, उसका सारतत्व जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि चुनी हुई विषयवस्तु को कवि ने किस रूप में निभाया है और पात्रों, परिस्थितियों और विवरणों को किस प्रकार की नयी सार्थकता प्रदान की है, उस विषय वस्तु से जुड़े हुए भाव किस प्रकार के हैं, रचना में कवि ने किस प्रकार का जीवन-दृष्टिकोण अपनाया है, क्या वह अपने-आपको बनाए रखने की कोशिश करता है अथवा तत्कालीन सामाजिक यथार्थ से टकराने तथा जहां तक संभव हो, उसे बदल डालने का निर्णय ले लेता है। यदि त्रिलोचन की रचनाओं की जांच-परख हम इस आधार पर करें, तो उनकी सार्थकता एकदम बदली हुई दिखायी देगी, छोटे-छोटे विषयों पर हल्की-फुल्की कविताएं दिखायी देने के बजाय वे जनजीवन की मार्मिक झलकियां प्रस्तुत करने वाली महत्वपूर्ण रचनाएं नजर आएंगी। ‘सहस्रदल कमल’ जैसी साधारण-सी दिखायी देने वाली रचना को ही लीजिए :

जब तक यह पृथ्वी रसवती है
और
जब तक सूर्य की प्रदक्षिणा में लग्न है,
तब तक आकाश में
उमड़ते रहेंगे बादल मंडल बांध कर;
दौड़ेगा प्रवाह
इस ओर उस ओर चारों ओर;
नयन देखेंगे
जीवन के अंकुरों को
उठ कर अभिवादन करते प्रभात का।
बाढ़ में
आंखों के आंसू बहा करेंगे,
किंतु जल थिराने पर,
कमल भी खिलेंगे
सहस्रदल।

जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसकी गति को नियंत्रित करने वाले नियमों की सहज पहचान इस कविता में व्यक्त होने वाले अनुभव का आधार है। इसके साथ ही हमें कविता यह अहसास भी कराती हुई चलती है कि इन्हीं नियमों की अनिवार्य लॉजिक के अंतर्गत प्रकृति और मनुष्य का जीवन बार-बार नया और भरापूरा होता रहेगा। विपदाएं और बाधाएं आएंगी, किंतु इसी लॉजिक के तहत वे अंतत: विलुप्त हो जाएंगी। मनुष्य के भीतर और उसके आसपास जीवनोन्मुखी शक्तियां बार-बार उभरती रहेंगी। इस प्रकार हमारे अंदर यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि मनुष्य के जिंदा बने रहने की प्रवृत्ति प्रबल है और प्राकृतिक शक्तियों से इस प्रवृत्ति का कोई आधारभूत अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि प्राकृतिक शक्तियों की ही यह एक सघन अभिव्यक्ति है। हमारे इस जीवन में आंसू हैं और बाढ़ भी, किंतु जीत आखिर सृजनात्मक शक्तियों की होती है। इस प्रकार का निष्कर्ष किसी अंधविश्वास अथवा छूंछी आशावादिता का सूचक नहीं, क्योंकि यहां वह ऐसी विवेकपूर्ण और अनुभवसम्मत सोच का परिणाम है जो इस दुनिया के यथार्थ की हमें पहचान कराती है। कवि का लहजा फतवे देने या दर्शन बघारने का कभी नहीं होता। वह न तो अपने अहं को स्थापित करना चाहता है और न ही पाठक के अहं को सहलाना। कवि का लहजा निरंंतर सधा हुआ, आत्म विश्वासपूर्ण और वस्तुपरक बना रहता है और वह बड़ी तल्लीनता के साथ तथ्यों को पकड़ता और उनके पीछे काम करने वाले नियमों को पहचानता चलता है। जरूरत से ज्यादा विस्तार के साथ चीजों को खोल कर रख देने अथवा अनावश्यक ब्योरे देने की चेष्टा कवि नहीं करता। नपे-तुले शब्दों में काम की बातें कह दी जाती हैं और हम महसूस करने लगते हैं कि यथार्थ की एक मार्मिक तस्वीर हमारे सामने उभर कर आ रही  है। रचना का कुल प्रभाव यह पड़ता है कि जिंदगी के संघर्ष में अधिक धैर्य और विश्वास के साथ शामिल होने के लिए हम तैयार हो जाते हैं।

तथ्यों को इस तल्लीनता के साथ देखने और उनके माध्यम से यथार्थ के केंद्रीय पक्षों को छू लेने के लिए जरूरी है कि कवि बेहद ईमानदार, जागरूक और स्थिर स्वभाव का हो। ग्राम-समाज में बसने वाले किसानों की उच्चतम तथ्यात्मकता और हमबद्धता को त्रिलोचन अपनी कविता की भाषा और भावों में अक्सर छू लेते हें। जिस किसी स्थिति का चित्रण त्रिलोचन करना चाहते हैं, वह पूरे पैनेपन के शब्दबद्ध कर दी जाती है। कवि उस समय केवल एक माध्यम बनकर रह जाता है, जिससे सच्चाई अपने असली रूप में हमारे सामने आ जाए। इस प्रकार की वस्तुपरकता कोई साधारण अभ्यास नहीं है।

जो वस्तुपरक तल्लीनता कवि प्राकृतिक और सामाजिक जीवन की झलकियां देते समय अपनाता है, लगभग वैसी ही वस्तुपरकता वह अपने व्यक्तित्व का चित्र देते समय भी बनाए रखता है। यहां न तो अतिरिक्त आत्मसम्मोहन की गंध आती है और न ही भावना की। प्रकृति ने कवि को जैसा स्वभाव दे दिया और उसका जैसा भी विकास अब तक हो पाया है, उसे अपने नपे-तुले शब्दों में ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया है, यहां विनम्रता है, धैर्य है, साहस है, स्नेह-भावना और हास-परिहास है, किंन्तु भावुकता नहीं, अतिरिक्त पुरुष होने की खुमारी नहीं है। इस प्रकार की ईमानदारी, तथ्यपरकता, सादगी, विनोदप्रियता, मानसिक स्वस्थता और बौद्धिक सजगता तथा इस प्रकार का धैर्य और दृढ़ विश्वास हमें जनवादी कविता में ही सुलभ हो सकता है। इस दृष्टि से ताप के ताये हुए दिन की रचनाएं एक ऐसा मानदंड प्रस्तुत करती हैं, जिसे आज के नए जनवादी कवियों को ध्यान में रखना चाहिए।

त्रिलोचन की संवेदना और दृष्टिकोण संबंधी कुछ सीमाएं भी इस संग्रह की कविताओं से स्पष्ट होती हैं। वे हमारे देश के मेहनतकश लोगों की उस भावभूमि को मुख्यत: व्यक्त करते हैं जो कठिन परिस्थितियों में भी जिंदा बने रहने के लिए उन्हें एक सुरक्षात्मक रवैया अपनाने को मजबूर करती है। निर्णायक संघर्ष के लिए आक्रामक रुख अपनाना इस प्रकार की भावभूमि के रहते कठिन हो जाता है। इस प्रकार की धैर्यपूर्ण सहनशीलता व्यक्ति को फौलाद या चट्टान जैसा तो बना देती है, उसे विकृतियोंं में पड़ने अथवा टूट जाने से भी बचाती है और उसकी मानवीयता को एक न्यूनतम बिंदू से नीचे नहीं जाने देती, किंतु इससे व्यक्ति में विकास और विस्तार की संभावनाएं कम हो जाती हैं। वस्तुस्थिति की समझ की दृष्टि से तो त्रिलोचन आम किसान-मजदूर की चिंतनशक्ति से बहुत आगे हैं और इसीलिए वस्तुस्थिति के चित्रण में वे इतना पैनापन और इतनी मूर्तता ला पाते हैं; किंतु उनकी भावभूमि मुख्यत: एक ऐसे किसान-मजदूर की है जो एकदम चौकन्ना और सुरक्षात्मक जीवन जीता है, दूध से जला होने के कारण छाछ को भी फूंक-फूंक पीता है और प्रौढ़ हो जाने के बाद अपनी सारी आयु में लगभग एक जैसा दृढ़ और स्थिर बना रहता है। त्रिलोचन की रचनाओं में अधिक विविधता और फैलाव नहीं मिलता है, वे सतर्क बने रहते हैं, सोच-समझ  कर कदम रखते हैं और तेजी के साथ व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया में  से गुजरते नहीं दिखाई देते। हमारे जीवन की जो सामान्य और ज्यादा समय तक ज्यों की त्यों बनी रहने वाली सच्चाइयां हैं। उनकी पकड़ तो इस कवि की रचनाओं में मजबूत है, पर इससे जीवन की जो तस्वीर हमारे सामने उभर कर आती है, वह यदि गद्यात्मक और औसात-सी लगे तो स्वाभाविक ही है। जिंदगी के अनापेक्षित झटके, भौंचक्का कर देने वाले साक्षात्कार, रोमांचकारी उद्घाटन, आसमान को धरती पर उतार लाने वाले तथा स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन ला देने वाले घटनाचक्र-यह सब ऐसा कवि सीधे-सीधे प्रस्तुत नहीं कर सकता, उसकी संवेदना की सुरक्षात्मक स्थिरता उसकी सीमा बन जाती है, जिसके कारण महत्वपूर्ण मानवीय अनुभवों की ऊंचाइयों और गहराइयों से इस कवि की रचनाओं में हमारा सीधा सम्पर्क स्थापित नहीं हो सकता।

जिस ‘मैटर-आफ-फैक्टनेस’ का कॉलरिज ने वड्र्सवथ की कुछ रचनाओं के संदर्भ में जिक्र किया है, वही ‘मैटर-आफ फैक्टनेस’ त्रिलोचन के कवि-व्यक्तित्व के प्रमुख गुण और उसकी सीमाओं को भी व्यक्त करती है। वड्र्सवर्थ तो अपनी रचनाओं में कई बार ऊंचाइयों और गहराइयों को छू जाता है, उसकी कल्पना तो कई बार ज्वलंत हो उठती है, ङ्क्षकंतु त्रिलोचन के कवि का मानसिक ताप बीच के बिंदु से ज्यादा इधर-उधर नहीं होता और उनकी कल्पनाशक्ति सरहदों को नहीं छूती। मुक्तिबोध और त्रिलोचन की कविता में जो बहुत बड़ा अंतर है, उसे अन्य कई बातों के अलावा इस आधार पर भी आसानी से समझा जा सकता है।

नागार्जुन की कविता मेंं जनवादी संवेदना का एक बिल्कुल भिन्न पहलू सामने आता है। त्रिलोचन जहां अपनी रचनाओं में एक मेहनतकश व्यक्ति की धैर्यपूर्ण एवं सुरक्षात्मक  सहनशक्ति को लक्षित करते हैं, वहां नागार्जुन इस तबके के लोगों के उन्मुक्त उत्साहों और निर्बाध आवेशों को तथा निरंतर घटित होने वाली राजनीतिक घटनाओं की ओर उनकी सजग सामूहिक प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते हैं। राजनीतिक-सामाजिक फलक पर जो कुछ भी घटित होता है, चाहे वह किसी व्यक्ति-विशेष का प्रधानमंत्री बनना हो या किसी विदेशी राजनीतिक नेता की भारत-यात्रा, आम चुनाव हों या जय प्रकाश नारायण द्वारा चलाया जाने वाला ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के लिए अभियान, कोई जल्सा-जुलूस हो या हरिजनों पर की जाने वाली अमानवीय हिंसा की घटना इससे मेहनतकश लोगों के अंदर जो सनसनी फैलती है और इसकी और स्वत:स्फूर्त रूप में उनकी जो सामूहिक प्रतिक्रिया उभर कर आती है, उसे नागार्जुन पूरी तन्मयता और सजगता के साथ व्यक्त करते हैं। जिस प्रकार साधारण जनसमुदाय पग-पग पर चकित-मुद्रित अथवा स्तंभित होता रहता है और जिस प्रकार गुस्से में आकर वह किसी को भी आड़े हाथों लेने लगता है, जल्दी ही उत्तेजित और फिर जल्दी ही शांत हो जाता है, उसी प्रकार नागार्जुन का कवि भी इन सामूहिक प्रतिक्रियाओं को एक ऐसी काव्यभाषा में व्यक्त करता है, जो मूलत: जनभाषा और जनमुहावरे पर आधारित हैं। चिंतन में नागार्जुन स्पष्ट रूप से वामपंथी हैं और उन्हें पूर्ण विश्वास है कि देश में खुशहाली तभी आ सकेगी, जब किसान-मजदूर एकजुट होकर इंजारेदार पूंजीपतियों और भू-स्वामियों के शोषक-उत्पीड़क गठबंधन को तोड़ देंगे। किंतु अपनी कविता में नागार्जुन ऐसे निष्कर्षों पर तार्किक विश्लेषण के आधार पर नहीं पहुंचते। भावात्मक रूप से वे मेहनतकश लोगों के साथ पूरी तरह जुड़े हुए हैं और उनके दिल की धड़कन को तुरंत महसूस करते हैं। उनका रुझान बड़े स्वाभाविक ढंग से हमेशा उधर ही हो जाता है, जिधर बहुजन समुदाय के हितों की पुष्टि होती हो। इसके लिए उन्हें कोई सचेष्ट प्रयास नहीं करना पड़ता। लोगों की भाषा में उनकी अपनी बात को अनायास ही कहते जाना नागार्जुन जैसे जनकवि के लिए बड़ी मामूली बात है। परन्तु क्योंकि साधारण मेहनतकश लोगों की सामूहिक प्रतिक्रियाओं में कई बार कुछ भ्रांतियां और अंतर्विरोध बने रहते हैं तथा घटनाओं के चक्र के साथ-साथ उनकी प्रतिक्रियाएं भी काफी कुछ बदलती रहती हैं, नागार्जुन की रचनाओं में भी हम ऐसे बदलाव बहुत बार पाते हैं।

नागार्जुन की समय-समय पर बदलती रहने वाली स्थापनाओं को लेकर कुछ पाठक काफी विचलित भी हो जाते हैं और उनकी कविता के जनवादी चरित्र को ठीक से पहचानने में दिक्कत महसूस करते हैं। किंतु नागार्जुन की सभी प्रतिक्रियाओं में यह बात एकदम स्पष्ट बनी रहती है कि वे अपनी स्थापनाओं को  निजी अवसरवादिता के कारण नहीं, बल्कि बहुजन समुदाय के साथ अपने भावात्मक लगाव के कारण बदलते रहते हैं। वैसे सार-रूप में उनकी प्रतिक्रियाएं कभी अधिक गलत होती भी नहीं और उनकी पक्षधरता पर उनके दिशाभ्रमों से कोई विशेष आंच नहीं आती। मेहनतकश जनता की सामूहिक भाव-मुद्राओं को ऐसा स्पंदनशील वाहक हिंदी कविता मेंं कोई दूसरा कवि मुश्किल से ही मिलेगा। नागार्जुन को हम जनमानस की बदलती हुई दशाओं और प्रतिक्रियाओं का बैरोमीटर कह सकते हैं।

हिन्दी क्षेत्र में जनवादी आंदोलनों ने ज्यों-ज्यों जोर पकड़ा है और बहुसंख्यक जनता के जागरूक हिस्सों की समझ साफ होती गयी है, त्यों-त्योंं नागार्जुन की रचनाओं का जनवादी तेवर भी निखरता चला गया है। वैसे आजादी के बाद के तीस सालों की समूची राजनीति के जनविरोधी स्वरूप को नागार्जुन लगभग आरंभ से ही प्रखरता के साथ महसूस करते रहे हैं और इस राजनीति के छद्म को उजागर करने के लिए वे तीखे व्यंग्य का सहारा लेते रहे हैं। इधर जब वे बुुर्जुवा राजनीति के तहत तानाशाही आतंक जोर पकड़ने लगा है, नागार्जुन अपनी रचनाओं में बड़े कारगर ढंग से इसका विरोध करने लगे हैं। शोषक-शासक वर्गों की ओर से बहुसंख्यक जनता पर होने वाले प्रहारों को नागार्जुन विशेष रूप से रेखांकित करते रहे हैं। सही जनतांत्रिक मूल्यों और हमारी परंपरागत संस्कृति के स्वस्थ पहलुओं की नागार्जुन के पास ऐसी गहरी पकड़ है कि उनकी मदद से वे आज के समाज में जो कुछ भी छद्म है, उसे बड़े प्रभावशाली ढंग से उद्घाटित करते हैं। जनभाषा को आधार बनाने के साथ-साथ वे अपनी कविता में अनेक ऐसे बिंबों, मिथकों और आख्यायिकाओं को बड़े कारगर ढंग से प्रयोग में लाते हैं, जो जनमानस की सहज उपज होते हैं और जनस्मृति में रचे-बसे रहते हैं। उनका लहजा अक्सर एक ऐसे फक्कड़ गायक का-सा होता है, जो सभी निजी जिम्मेवारियों से मुक्त होता है और जनमानस को उद्धेलित करने वाली जहां कहीं कोई घटना हो जाती है, उसे सीधे-सीधे ग्रहण करने के लिए पहुंच जाता है।

‘तुमने कहा था’ कविता-संग्रह की बहुत सारी रचनाओं में कांग्रेस पार्टी के शासन की बुर्जुआ राजनीति के पाखंड का भंडाफोड़ किया गया है। कुछ अन्य रचनाओं में जनता पार्टी के दौर की बुर्जुवा राजनीति को व्यंग्य का लक्ष्य बनाया गया है। इन कविताओं को सतही तौर पर पढऩे से ऐसा लग सकता है कि नागार्जुन की दृष्टि सामने दिखायी देने वाले राजनीतिक व्यक्तियों पर ही टिकी रह जाती है और वे इन नेताओं की व्यक्तिगत दुर्बलताओं एवं चारित्रिक विरूपताओं को ही अपने व्यंग्य का लक्ष्य बना कर संतोष कर लेते हैं, इन नेताओं की गतिविधियों  को निर्धारित करने वाली व्यवस्था पर वे अपना ध्यान केंद्रित नहीं करते। परन्तु उनकी कविता के बारे में इस प्रकार की धारणा भ्रामक है। व्यंग्य का वास्तविक लक्ष्य-बिन्दु नेहरू, गांधी, इंदिरा गांधी, राजनारायण अथवा मोरारजी देसाई आदि नहीं होते, बल्कि उनके क्रियाकलापों के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था के जनविरोधी स्वरूप पर ही आक्रमण किया जाता है। शासक-शोषक वर्गों की राजनीति के विभिन्न जनविरोधी पहलुओं को सहज रूप में स्पष्ट करने के लिए ही प्रमुख राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की गतिविधियों को पाठक के सामने रखा जाता है। ‘तुम रह जाते दस साल और’ कविता में नेहरू-युग की बुर्जुवा राजनीति के उस पक्ष को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है, जिसके अंतर्गत मेहनतकश लोगों की झूठी उम्मीदों के सहारे भरमाया जाता रहा और निहित स्वार्थों को पनपने का खुला मौका मिलता रहा। उदाहरण के लिए ये पंक्तियां देखिये :

महलों की महंगी बिजली से डरती संध्या डरता प्रभात
जमती अशोक के सिंहों पर बेशर्म उल्लुओं की जमात

            —

तन जाता भ्रम का जाल और
तुम रह जाते दस साल और

इसी प्रकार ‘तीनों बंदर बापू के’ कविता में भी बुर्जुवा राजनीति के पाखंड और फरेब पर तीखा व्यंग्य किया गया है।

छील रहे गीता की खाल
उपनिषदें हैं इनकी ढाल
उधर सजे मोती के थाल
इधर हमें सतजुगी दलाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल
मूंड रहे दुनिया-जहान को तीनों बंदर बापू के
चिढ़ा रहे हैं आसमान को बंदर बापू के

यहां चोट किसी व्यक्ति-विशेष पर नहीं, राजनीति की बुनावट पर है, परन्तु साधारण पाठक को आसानी से समझ में आ जाए, इसलिए नागार्जुन कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की प्रमुख मुद्राओं को व्यंग्य का माध्यम बना लेते हैं। इस संग्रह में बुर्जुवा व्यक्तियों की प्रमुख मुद्राओं को व्यंग्य का माध्यम बना लेते हैं। इस संग्रह  में बुर्जुवा राजनीति पर सबसे करारी चोट ‘अब तो बंद करो हे हेवी यह चुनाव का प्रहसन!’ रचना में हुई है। यहां कवि ने देवी, चंडी, सुर्पनखा, सुर-असुर, नट, नागर, बंदर, गीदड़, भालू, मोर आदि सहजग्राह्य बिंबों, रूपकों और मिथकों  के माध्यम से इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद देश की संसदीय राजनीति में जो गिरावट आयी है और जनतांत्रिक पद्धतियों का जो अवमूल्यन हुआ है, उस पर बड़ा चुभता हुआ व्यंग्य किया है। एक ओर देश की समस्याएं बढ़ती गयीं, दूसरी ओर शोषण का शिकंजा मजबूत होता गया और जनता के प्रतिरोध को तानाशाही ढंग से दबाया जाने लगा। इस प्रकार जनतांत्रिक प्रणाली एक हास्यास्पद दिखावा बनने लगी।

प्रतिपक्षी की सुस्त पड़ गये, जाने क्या है कारण
निर्वाचित प्रभु पूजा करते, गुण गाते हैं चरण
संविधान की रुई रूपहली भद्रलोक धुनते हैं
देवि, तुम्हारे स्टेनगनों से तरुण मुंड भुनते हैं।

इन सभी कविताओं में तत्कालीन वस्तुस्थिति के अनेक प्रमुख पक्ष जैसे महंगाई, बेरोजगारी, राजनीतिक छल-कपट, जनतांत्रिक अधिकारों का हनन और हिंसा का विस्तार, शोषक वर्गों के साथ जुड़े हुए पिछलग्गू तबकों में बढ़ती हुई मूल्यहीनता आदि स्पष्ट रूप में उभर कर आते हैं और ‘तानाशाही रंगमंच पर प्रजातंत्र के अभिनय’ की केंद्रीय सच्चाई रेखांकित हो जाती है। कुल मिलाकर हमें यही लगता है कि राजनीति के ढांचे की कवि की समझ काफी हद तक सही है। यदि व्यंग्य-रचनाएं कहीं-कहीं सतही और हल्की-फुल्की लगती हैं तो इसलिए कि यहां व्यक्त होने वाले भावावेगों में पर्याप्त गहराई अथवा गंभीरता नहीं है।

नागार्जुन क्योंकि मुख्यत: जनमानस को तरंगित कर देने वाले भावावेगों को व्यक्त करने वाले कवि हैं, जहां कहीं ये भावावेग क्षणिक महत्व के मुद्दों से जुड़े होते हैं, वहां कवि की व्यंग्य-रचना अधिक प्रभावशाली नहीं होती। वैसे तो समझ का दोष भी नागार्जुन की कुछ रचनाओं में मिलता है, किंतु उनकी कविता का मूल्यांकन हमें वहां व्यक्त होने वाले भावों को परख कर ही करना चाहिए, यद्यपि ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ कविता-संग्रह में नागार्जुन व्यंग्य की कुछ पद्धतियों को त्याग देते हैं, फिर भी इस संग्रह की अधिकांश रचनाओं की भाव-गंभीरता उन्हें प्रभावशाली बनाए रखती है। ज्यों-ज्यों देश में तानाशाही प्रवृत्ति जोर पकड़ती गयी है, कवि भावगंभीर होकर इस प्रवृत्ति के दबाव से पैदा होने वाली लोगों की मन:स्थिति का और ज्यादा संयम के साथ जायजा लेने लगा है। बिहार-आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण नागार्जुन को कुछ महीने जेल में रहना पड़ा। जेल के अनुभवों ने उनके कवि स्वर में अच्छा-खासा परिवर्तन ला दिया। वे अब किंचित तटस्थ होकर भावों को व्यक्त करने लगे और आसपास की घटनाओं को सर्वप्रथम उनकी पूर्ण विशिष्टता में पहचानकर ही रचना के अंदर लाने का प्रयास करने लगे।

‘सिके हुए दो भुट्टे’, ‘छोटी मछली शहीद हो गयी’, ‘नेवला’, ‘खेल गयी होली इस साल’, ‘खटमल’, ‘इन सलाखों से टिका कर भाल’, ‘कब होगी इनकी दीवाली’, ‘हरिजन-गाथा’, आदि इस नये तेवर की कुछ प्रमुख रचनाएं हैं। यहां कवि व्यंग्य-चित्र प्रस्तुत करने के लिए छद्म-प्रशंसा और छद्म-अराधना का तरीका नहीं अपनाता, बल्कि चीजों को उनके सही आकार में सीधे-सीधे देख चुकने के बाद उनमें प्रतीकात्मक अर्थ भरने की कोशिश करता है। ऐसा नहीं है कि पहले वाली शैली का यहां पूर्णतया लोप हो गया हो। व्यंग्य को प्रखर बनाने के लिए झूठे ताम-झाम का ताना-बाना बुनने और फिर उसे तहस-नहस कर देने में यह प्रवृत्ति कुछ दबी हुई रहती है। इससे नागार्जुन की कविता की ठसक भले ही कम हो गयी हो, उसमें सघनता अधिक आ गयी है।

नागार्जुन की कविता की यह एक सीमा है कि वे क्षणिक भावावेशों को भी कई बार अनुचित महत्व दे देते हैं और नये-नये अनुभव ग्रहण करने तथा नये-नये अभियानों में शरीक होने का उतावलापन उनमें काफी मात्रा में दिखायी देता है। इसलिए किसी स्थिति-विशेष के अंदर टिक कर उसकी अंतरंग जानकारी प्राप्त करने की साधना कवि के लिए बहुत कठिन हो जाती है और पत्रकारिता की सी चटपट अभिव्यक्ति-शैली अपना लेने का खतरा उसके सामने बना रहता है। ‘खिचड़ी विप्लव देखना हमने’ की बहुत-सी रचनाओं में इस प्रवृत्ति पर काबू पाने में कवि काफी हद तक सफल हुआ है। सम्पूर्ण क्रांति के अभियान में वास्तविक सारतत्व कितना था–इस सवाल का सामना करने पर नागार्जुन को लगता है कि इस आंदोलन में उनकी भागीदारी में सच्ची संघर्षधर्मिता के साथ-साथ ‘क्रांति विलास’ पाने की ललक भी शामिल थीं। ‘क्रांति सुगबुगायी है’, ‘अगले पचास वर्ष और’, ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’, ‘कब होगी इनकी दीवाली’ आदि अनेक ऐसी रचनाएं हैं, जिनमें नागार्जुन केवल भाववेगों को ही व्यक्त नहीं करते, बल्कि तर्कपूर्ण आत्म विश्लेषण का भी सहारा लेते हैं। ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ जैसी रचनाओं में कवि तत्कालीन सामाजिक स्थिति को परिभाषित करने के लिए भी इस प्रकार के विश्लेषण को अपनाने का प्रयास करता है।

नागार्जुन की कविता की वह कमजोरी भावों और स्थितियों को चखने या उनमें विलास ढूंढने की उनकी प्रवृत्ति से जुड़ी हुई है, पूरी तरह कहीं भी लुप्त नहीं हो पाती। ऐसी प्रवृत्ति उन जनसमूहों की मानसिकता में अक्सर देखी जा सकती है, जो विकट परिस्थितियों में बने रहकर भी जीवन में रस ढूंढने के लिए मजबूर हों। वैसे तो मूल रूप में या यह जिंदा बने रहने और उल्लास खोजने की स्वस्थ मानवीय प्रवृत्ति का ही एक रूप है, किंतु इससे कई बार हमारी संघर्षशीलता कमजोर पड़ जाती है और हम किसी भी स्थिति को यथावत स्वीकार करके उसकी सीमाओं के भीतर ही अपनी स्वतंत्रता की शर्तें ढूंढने लगते हैं। कभी-कभार तो वस्तुस्थिति की ओर अपनाए जाने वाले हमारे रवैये में भी कुछ अंगभीरता आ जाती है और विकट परिस्थितियों की चुभन हमारे लिए कम हो जाती है। ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ की रचनाओं से लगता है कि कवि समझने लगा है कि इस प्रकार की भावप्रणाली में ऐसे जनसमूहों की नैतिक काहिली विद्यमान रहती है जो संघर्ष के ताप से गुजर कर पूरी तरह निखरे नहीं है। वह अब सतर्क हो गया है कि उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं में भी भ्रांतिपूर्ण आश्वासन की कुछ मात्रा बनी रहती है। ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के अभियान में शरीक होने की मानसिकता का वर्णन करते हुए अब कवि कह सकता है कि-

मिला क्रांति में भ्रांति विलास
मिला भ्रांति में शांति विलास
मिला शांति में क्रांति विलास
मिला क्रांति  में भ्रांति विलास

लहजे में आत्मसंतुष्टि की पुट तो इन पंक्तियों में भी देखी जा सकती है, पर कवि पहले से अधिक सजग हो गया लगता है। ‘सत्य’, ‘अहिंसा’ और ‘हरिजन-गाथा’ जैसी रचनाओं में भी जनविरोधी व्यवस्था द्वारा जनमानस पर किए जाने वाले आघातों को प्रस्तुत करते समय कवि काफी सजगता से काम लेता है। मानव-जीवन के प्रति कवि की आस्था अभी भी कायम है और उसके सुंंदर और स्वस्थ पहलुओं से उसका लगाव अभी भी बहुत गहरा है, किंतु अब वह अपने-आपको भुलावे में नहीं रखना चाहता। ‘खल गयी होली इस साल’, ‘प्रतिबद्ध हूं’, ‘फिसल रही चांदनी’ तथा ‘हरे-हरे नए-नए पात’ जैसी अनेक रचनाओं में हम देखते हैं कि कवि का जीवनोल्लास, प्रकृति के रंग-रूप से उसका लगाव, सहज मानवीय स्नेह-भावना से अभिभूत हो जाने की उसकी क्षमता अभी भी उतनी ही प्रबल है, जितनी पहले थी, पर अब कवि सतर्क हो गया है और जानता है कि तत्कालीन परिस्थितियों में हम इन सभी चीजों को संकुचित रूप में ही अनुभव कर पाते हैं। आज की परिस्थितियों को संघर्ष द्वारा बदल डालने के बाद ही हम अपने जीवन में स्वस्थ मानवीयता पूरी तरह ला सकते हैं। प्रकृति की सृजनात्मक शक्तियों को दमनकारी शक्तियां दबाए नहीं रख सकती, परन्तु सामाजिक जीवन में इन शक्तियों को मात देने के लिए मेहनतकश लोगों को सामूहिक संघर्ष करना पड़ेगा। इसमें उन्हें सफलता मिलेगी, इस ओर कवि पूर्णतया आश्वस्त है। ‘तुमने कहा था’ संग्रह में छपी एक रचना की इन पंक्तियों से नागार्जुन की जनवादी कविता का निखरा हुआ रूप एकदम स्पष्ट हो जाता है:

जली ठूंठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक

इस प्रकार त्रिलोचन की रचनाएं जहां हमें जनमानस की सुरक्षात्मक दृढ़ता और सहज-सजगता से परिचित कराती हैं, वहां नागार्जुन की रचनाएं हमें बहुसंख्यक जनता की सर्जन-क्षमता, व्यंग्यात्मक ऊर्जा तथा जीवन के प्रति उसके निष्ठापूर्ण उत्साह की झलक देती हैं।

शील की रचनाओं से हमें जनवादी कविता का एक अन्य विशिष्ट रूप दिखायी देता है। आर्थिक मांगों और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जब किसान-मजदूर वर्ग संगठित और लामबंद होकर संघर्ष करने लगता है तो कविता भी इस संघर्ष में एक महत्वपूर्ण हथियार का काम दे सकती है। संघर्ष की तत्कालीन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उस समय ऐसी रचनाएं  लिखी जाती हैं जहां शत्रु वर्गों के चरित्र को उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथकंडों को सहज-सरल ढंग से कुछ अंतिम निष्कर्षों के रूप में प्रस्तुत किया गया हो, या फिर मेहनतकश लोगों के अपने अनुभवों को स्पष्ट और स्मरणीय भाषा में उनके सामने कुछ नुक्तों की शक्ल में इस प्रकार रखा जाता है कि उन्हें वे तुरंत समझ सकें। यहां जोर स्थितियों और अनुभव के विश्लेषण अथवा नाट्यात्मक चित्रण पर न होकर आसानी से ग्रहण किए जा सकने वाले निष्कर्षों और कथनों पर होता है। इन निष्कर्षों और कथनों में अक्सर नारों की-सी गूंज और प्रासंगिकता होती है। पहले से समझ में आयी हुई बातों को सहज, स्पष्ट और स्मरणीय ढंग से थोड़े-से शब्दों में लोगों के सामने रख देने के साथ-साथ इस प्रकार की कविता संघर्षरत लोगों में जोश भर देने, उनकी साहसिकता और उनके आत्मविश्वास को जगाने और दृढ़ बनाने, शत्रु वर्गों के खिलाफ नफरत और गुस्से की भावना को तीव्र बनाने, आपसी भाईचारे की भावना को उभारने आदि का काम भी किया जाता है। इस प्रकार की कविता कई बार ऐसे समूहगानों का रूप लेती है, जिन्हें जल्से-जलूसों में अथवा संघर्ष के किसी भी नाजुक बिंदु पर इस्तेमाल किया जा सकता है। इस प्रकार की कविता का एक दूसरा रूप कविता-पोस्टर का हो सकता है।

शील के कविता-संग्रह ‘कर्मवाची शब्द हैं ये’ की अधिकांश रचनाओं का स्वरूप वही है, जो कविता हथियार बन जाने पर अख्तियार कर लेती है। इस प्रकार की अच्छी रचनाएं लिखने के लिए जरूरी है कि लेखक की राजनीतिक समझ एकदम साफ हो और संघर्ष के ताप से गुजरने के बाद उसकी संवेदना में परिपक्वता आ चुकी हो। इसके अलावा आत्मविश्वास लेखक के अंदर निश्चयात्मकता के बिंदु तक पहुंच चुका है। मध्यवर्गीय लिजलिजापन और संशयवादिता यहां घातक सिद्ध हो सकती है। यदि रचनाकार मेहनतकश जनता के संघर्षधर्मी, लामबंद जत्थों की समझ और भावनाओं को आसानी से ग्रहण की जा सकने वाली भाषा में रख सकता है, तो उसकी रचनाएं  साहित्यिक दृष्टि से मूल्यवान होंगी। इस संग्रह में शील की बहुत-सी रचनाएं समूहगान अथवा कविता-पोस्टर के रूप में काफी प्रभावशाली लगती हैं। ‘प्रश्न : :?’ कविता की इन पंक्तियों को देखिए :

लूट रहे सामंत पुलिस की छाया में
किसका है यह राज, तिजारत किसकी है?
किसका यह सिद्धांत सियासत किसकी है-
पतनोन्मुखी विकास शरारत किसकी है?

यहां वस्तुस्थिति के कुछ मुख्य बिंदुओं को लयात्मक भाषा में रख दिया गया है ताकि उन्हें तुरंत ग्रहण किया जा सके और वाद-विवाद की गुंजाइश ही न रहे, इस प्रकार कविता-पोस्टर ‘नाचती राधा नौ मन तेल’ की ये पंक्तियां देखिए:

गये योंं ही सत्ताइस वर्ष,
मिला कब स्वतंत्रता का हर्ष,
समस्याएं जो कल थीं आज,
बनी सुरसा, है व्यथित समाज।
कीमतें छलतीं वस्तु अभाव,
शोषकों का है यही स्वभाव।
इन्हीं हाथों शासनतंत्र,
पढ़ रहे राजपुरोहित मंत्र।
बढ़ाता कलह संसदी शोर
बताता एक-दूजे को चोर।
बिक रही पुलिस, बिक रहा न्याय,
क्रांति बिन कोई नहीं उपाय।

इस प्रकार मुख्य नुक्तोंं को याद रखने लायक भाषा में प्रस्तुत करने वाली अनेक रचनाएं शील के इस कविता-संग्रह में मिल जाएंगी, किंतु जहां भाषा कृत्रिम और बोझिल हो जाती हो और विचार किताबी लगते हों, वहां इस प्रकार की कविता एकदम प्रभावहीन हो जाती है। प्रस्तुत संग्रह में शील की इस प्रकार की कुछ कमजोर रचनाएं भी मिल जाएंगी। जहां कवि विश्लेषणात्मक लहजा अपना लेता है, वहां वह अपनी सक्षमता के दायरे से बाहर जाता हुआ नजर आता है। शील के उदाहरण से नये जनवादी कवियों को प्रेरणा और सबक दोनों ही मिल सकते हैं।

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