आलेख
कविता की भाषा का जन-भाषा से किस प्रकार का सम्बन्ध हो इस प्रश्न पर हम यहां केवल जनवादी कविता के संदर्भ में ही विचार करेंगे। कविता की भाषा के सवाल को उछालकर कई बार प्रतिगामी तत्व साहित्य के वास्तविक मुद्दों से हमारा ध्यान हटा देने का प्रयास किया करते हैं। वास्तव में कवि की जीवन-दृष्टि और उसके उद्देश्यों से अलग करके हमें इस मसले पर बहस नहीं करनी चाहिए। गौर करने लायक हमारे सामने सवाल यह है कि जो कविता देश के करोड़ों-पीडि़त लोगों के अनुभवों को वाणी प्रदान करती हो तथा उनके अंदर अपनी वास्तविक स्थिति की सही समझ पैदा करती हो उसका जनभाषा से किस प्रकार का रिश्ता होना चाहिए। दूसरे शब्दों में एक ऐसे कवि को जो गरीब किसान-मजदूर और निम्न मध्यवर्गीय जनसमूहों की पीड़ाओं को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखता है, एक स्वस्थ मानवीय जीवन जीने के उनके उत्साह को सशक्त रूप में व्यक्त करता है, उन्हें शोषित-पीडि़त रखने वाली व्यवस्था के असली स्वरूप को उनके सामने नग्न करता है, उनके विभ्रमों को तोड़कर तथा उनके साहस को जगाकर उन्हें सामूहिक संघर्ष में जुट जाने के लिए तैयार करता है, जनभाषा को किस रूप में और कहां तक अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाना चाहिए?
एक जनवादी कवि को जनभाषा का सहारा लेने की मुख्यत: इसलिए जरूरत पड़ती है कि वह अपनी बात को उन लोगों तक पहुंचाना चाहता है जिनका साहित्य से बहुत थोड़ा सम्पर्क होता है। यदि एक साहित्यकार चाहता है कि गरीब और कम पढ़े लोग उसकी रचनाओं को पढ़कर या सुनकर उनसे प्रभावित हो सकें तो उसे उनके मुहावरे को अपनाना होगा तथा साहित्यिक भाषा की उस परम्परा को तोड़ना होगा तथा जिसके अनुसार साहित्य कुछ गिने-चुने लोगों को रसविभोर करने की वस्तु बनकर रह जाता है। विशेषकर उन कविताओं में जो किसी आंदोलन के समय किसान-मजदूर जनसमूहों को संबोधित करके लिखी जाती हैं, कवि को यह कोशिश करनी होगी कि वह अपनी बात को बहुत ही सुलझे हुए और सरल ढंग से कहे और प्रचलित मुहावरों, लोकधुनों तथा लोक कथाओं का सहारा ले। इस प्रकार की रचनाओं का एक निश्चित उद्देश्य होता है। यहां कवि किसी स्थिति का अन्वेषण अथवा सूक्ष्म विश्लेषण नहीं कर रहा होता। वह वास्तव में यहां कुछ ऐसे ठोस निष्कर्षों को ही जनता के सामने रखना चाहता है, जिन्हें वह स्वयं पूर्ण विश्वास के साथ प्रतिपादित करता है और उन्हें जनता भी तुरंत समझ सकती है, क्योंकि वे उसके अपने आधारभूत अनुभवों की कसक लिये हुए होते हैं। ऐसी रचनाएं वास्तव में तत्कालीन आंदोलन में संघर्ष का एक हथियार बन जाती हैं। इस प्रकार की अच्छी जनवादी रचनाओं के लिखने के लिए जरूरी है कि लेखक का भावबोध और चिंतन पूर्णतया जनवादी रूप धारण कर चुका हो और उसकी निम्न मध्यवर्गीय निजबद्धता, संशयात्मकता आदि संघर्ष के ताप के कारण मिट चुकी हों। नागार्जुन ने इस प्रकार कई अच्छी रचनाएं लिखी हैं, इधर जनवादी गीतकारों ने भी सर्वहारा की चेतना को प्रखर बनाने वाले तथा संघर्षरत जनता में जोश भर देने वाले कुछ अच्छे समूहगान लिखे हैं। वास्तव में आज की स्थिति में इस प्रकार की रचनाओं की बहुत जरूरत है। इनका विशेष साहित्यिक मूल्य तो होता ही है, किन्तु उनकी मुख्य सार्थकता उनके तात्कालिक प्रभाव में देखी जानी चाहिए।
सीधी, सरल और नपी-तुली भाषा में आम जनता तक अपनी बात पहुंचा सकने के अलावा एक जनवादी कवि को जनभाषा का इसलिए भी सहारा लेना होता है कि इससे वह स्वयं भावनात्मक धरातल पर जनता के बहुत करीब आ जाता है। मेहनतकश जनता की परिस्थितियों के साथ जुड़ने की प्रक्रिया का यह एक आवश्यक अंग है कि यह उनके सोचने-समझने और महसूस करने के माध्यम को भी अपना ले। कोई आदमी केवल गरीब लोगों की भाषा को सीख लेने मात्र से उनका अपना नहीं हो जाता, सही प्रकार की भावात्मक एकता के लिए यह जरूरी है कि रचनाकार अपनी नियति को मेहनतकश जनता की नियति के साथ पूर्णतया जोड़ दे और अपने वास्तविक जीवन में उनकी समस्याओं और संघर्षों के भागीदार हो। परन्तु इस प्रकार का निर्णय ले लेने के बाद मेहनतकश जनता की भाषा को अपनाना उनके साथ जुड़े होने का एक अच्छा चिन्ह होगा। ऐसी स्थिति में उसके लेखन का जनवादी स्वर अधिक प्रामाणिक लगेगा। इसलिए जब कभी कवि को मजदूरों और किसानों के जीवन का चित्रण करना हो तो उसे शिक्षित तबकों की भाषा की परिधि से बाहर निकल कर जहां कहीं आवश्यक है, क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का प्रयोग भी कर लेना चाहिए। विशेषकर उस समय जबकि रचना में कुछ विशिष्ट किसान मजदूर पात्रों को भी प्रस्तुत किया जा रहा हो। ऐसे पात्रों के भावों और विचारोंं को उनकी अपनी भाषा में रखने से चित्रण में मूर्तता तो आती ही है, इसके साथ ही उनकी ओर कवि की आत्मीय भावना भी लक्षित हो जाती है। वे दूर से एक झलक भर देखे हुए लोग न रहकर जाने-पहचाने और अपने होकर कविता में उतरते हैं। वैसे तो कुछ गैर-जनवादी लेखक भी कोरी रूमानियत में आकर लोक सम्पर्क का बिल्ला लगाने की खातिर कुछ क्षेत्रीय बोलियों और लोकधुनों की झलक बानगी के रूप में अपनी रचनाओं में दे देते हैं। परन्तु इस प्रकार की रूमानी आंचलिकता और लोकवाद में तथा एक जनवादी कवि द्वारा मेहनतकश जनता के साथ स्थापित की जाने वाली भावात्मक एकता में जो अंतर होता है, उसे पहचानना कठिन नहीं है। किसान-मजदूर वर्ग से लिए गए पात्रों को बड़ी आत्मीयता के साथ उनकी अपनी भाषा से कुछ शब्द लेकर चित्रित करने के प्रयास जब-तब बहुत सेे जनवादी कवियों ने किए हैं। उदाहरण के लिए धूमिल की ‘लोकसाय’, मनमोहन की ‘सेष कुसल हैं’ और ज्ञानेन्द्रपति की ‘अपना बधवा’ कविताओं का जिक्र किया जा सकता है। धूमिल ने ‘लोहसाय’ में ठेलू व अन्य ग्रामीण पात्रों का चित्रण करने के लिए जिस भाषा को अभिव्यक्ति-माध्यम बनाया है, उसमें बीच-बीच में ऐसे शब्द आते ही हैं, जिन्हें ये पात्र स्वयं भी अपने जीवन में प्रयोग करते होंगे (‘टेम’, ‘जुगाड़ जमाना’, ‘गांव-गिरांव’, ‘सलाम-रमरम्मी’), इसके अलावा कविता के अंत में एक पात्र टेकू की बात को लगभग उसके ही शब्दों में रख दिया गया है।
इधर उधर देखकर
धीरे से कहता है टेकू बनिहार
-‘हंसुये पर ताव जरी ठीक तरे देना
कि धार मुड़े नहीं आजकल
छिनार निहाई ने
लोहे की मनमाफिक हनने के लिए
हथोड़े से दोस्ती की है’
सब ठठाकर हंसते हैं
ठेलू मतलब दहाकर मुसकाता है।
और आंच लहकाता है।
टेकू के शब्दों से तथा बोलचाल की अन्य शब्दावली से कविता के पात्रों से हमारा निकट सम्पर्क बन जाता है और वे अपनी पूर्ण मानवीयता के साथ सजीव हो उठते हैं। ग्रामीण मुहावरे की मदद से पात्रों के इस प्रकार के आत्मीय और सजीव चित्रण के उदाहरण हम श्रीराम तिवारी की कविताओं में भी देख सकते हैं।
जनभाषा का प्रयोग उन रचनाओं में भी जरूरी हो सकता है, जहां केंद्रीय पात्र तो कवि का प्रतिनिधित्व करने वाला ही व्यक्ति हो, किंतु सामाजिक परिस्थितियां किसान-मजदूर या निम्न मध्यवर्गीय से संबंधित हों और कवि उन्हें जांच-परख कर अपने पर उनके तीव्र को प्रस्तुत करना चाहता हो। यहां वह महसूस कर सकता है कि मेहनतकश जनता के जीवन की विशिष्टता को कई बार क्षेत्रीय बोली के मुहावरे का प्रयोग किए बिना नहीं स्पष्ट किया जा सकता। जनभाषा के रूप में कवि को विभिन्न प्रकार के भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम मिल जाता है। जो लोग वर्षों से एक विशेष प्रकार की जिंदगी जीते रहे हैं वे उसकी सम्पूर्ण वास्तविकता को अपने अलग-अलग व्यक्तिगत प्रयासों से भले ही ठीक तरह से शब्द-बद्ध न कर पाए हों, किंतु उनके सामूहिक प्रयासों से धीरे-धीरे ऐसे बहुत सारे उपयुक्त शब्द, मुहावरे और आख्यान आदि उभरकर सामने आते हैं जो उनके जीवन के मुख्य पहलुओं को सही-सही परिभाषित कर देते हैं। मेहनतकश जनता के जीवन की विशिष्टताओं को पहचानने में इन प्रचलित मुहावरों और सूक्तियों का बड़ा महत्व रहता है। भाषा एक सामाजिक एवं सामूहिक उपलब्धि है। कोई भी साहित्यकार अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए केवल अपने निजी प्रयासों से एक नई भाषा नहीं खड़ी कर सकता। अक्सर होता यही है कि जनभाषा में बिखरी पड़ी अर्थ भंगिमाओं को समेट कर कवि उन्हें एक बार फिर सजीव और कारगर बना देता है। विश्व के सभी महान कवियों में यह विशेष योग्यता रही है कि वे अभिव्यक्ति-माध्यम के रूप में अपने क्षेत्र की जनभाषा की संभावनाओं को पहचानते थे और लोक-मुहावरों से संचित अर्थ-वैभव को आत्मसात करके अपनी अभिव्यक्ति को जानदार बना सकने की क्षमता रखते थे। सामाजिक जीवन के कुछ जाने-पहचाने किंतु आधारभूत पहलुओं को थोड़े शब्दों में मूर्त रूप में व्यक्त करने का सामथ्र्य जनभाषा में विशेष रूप से होता है। क्योंकि एक जनवादी लेखक का मुख्य उद्देश्य सामाजिक जीवन के सारभूत तत्वों को अच्छी तरह समझना होता है, इसलिए उसे उन मुहावरों और सूक्तियों से बहुत मदद मिलेगी, जिनमें पीढिय़ों के अनुभव के निचोड़ को स्मरणीय रूप दे दिया जाता है। जो बात अक्सर किताबी भाषा में घुमा-फिरा कर और बहुत सारे शब्दों में कमजोर ढंग से कही जाती है उसे कई बार जनभाषा के मुहावरे में कुछ नपे-तुले किंतु धारदार शब्दों में बड़े प्रभावशाली ढंग से कहा जा सकता है। पुराने प्रगतिवादी कवियों त्रिलोचन की रचनाओं में तथा इधर श्रीराम तिवारी, विजेंद्र, ज्ञानेन्द्रपति, अक्षय उपाध्याय तथा मनमोहन जैसे कवियों की रचनाओं में हम इसके अनेक उदाहरण देख सकते हैं कि जनभाषा से सम्पर्क बने रहने पर अभिव्यक्ति कैसे प्रखर, कसी हुई और लचकदार हो जाती है। अपनी कविता ‘मानलो/ तो फिर?’ में अक्षय उपाध्याय एक छोटे किसान की स्थिति पर गौर करते हुए यह जता देना चाहते हैं कि अपने हकों की रक्षा के लिए उसे शोषकों के विरुद्ध लड़ाई शुरू करनी होगी। इस बात को कवि किस प्रकार जनभाषा के मुहावरे में सरल और सधे हुए ढंग से कहता है यह इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:
यह मानकर
कि अब हद हो गई है। पानी
सर से ऊंचा चढ़ गया है। सिर पर
मूतने जैसी स्थिति के बदले
तुम्हें
उनसे खेतों को छीनना ही होगा।
जो बात कवि यहां ‘पानी का सर से ऊंचा चढऩा’, ‘सिर पर मूतना’ जैसे मुहावरों के बल पर जोरदार शब्दों में कह रहा है, उसे वह शायद जनभाषा से कटी हुई शैली में आसानी से न कह पाता। इसी प्रकार मनमोहन की कविता ‘नंगे सवालों के आमने-सामने’ में भी जगह-जगह जनभाषा के मुहावरों का असरदार प्रयोग हुआ है। विजेन्द्र को भी अपनी कई रचनाओं में आंचलिक शब्दावली का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि उनके प्रयोग के बिना उन सामाजिक परिस्थितियों की विशिष्टता को ठीक तरह से नहीं अंकित किया जा सकता था जिन पर कविता में हमारा ध्यान केंद्रित किया जाता है, परन्तु यहां यह खतरा पैदा हो सकता है कि क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का प्रयोग एक प्रदर्शन मात्र बन कर न रह जाए। कविता के संसार में आंचलिक शब्दों के प्रयोग की अनिवार्यता स्पष्ट दिखाई देनी चाहिए और उनके कारण पाठक का ध्यान कवि के कौशल की ओर नहीं, बल्कि परिस्थिति की किसी मुख्य विशिष्टता की ओर जाना चाहिए।
यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि एक जनवादी लेखक जनभाषा पर यांत्रिक रूप से निर्भर नहीं करता। ऊपर कविता की भाषा में जनभाषा से लिए गए मुहावरों और सूक्तियों के योगदान का जिक्र किया गया है। ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि आमतौर पर इन मुहावरों और सूक्तियों के माध्यम से व्यक्त होने वाली ‘समझ’ सामान्य ज्ञान की बहुत सारी अतार्किकताओं तथा सरलीकरणों से ग्रस्त होती है। इस समझ के आधार पर जहां एक तरफ कवि सामाजिक जीवन की कुछ मुख्य विशिष्टताओं को पहचानने लगता है वहां दूसरी तरफ इससे यह खतरा भी पैदा हो जाता है कि चीजें जैसी ऊपर से दिखाई दे रही हैं कहीं उन्हें वह उसी रूप में न स्वीकार कर ले। जनभाषा को अभिव्यक्ति का आधार बनाने का यह अर्थ कदापि नहीं होना चाहिए कि कवि आम आदमी के विभ्रमों को तथा उसकी चेतना में आए झूठे सच को जोड़ता है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह उनके चेतना के स्तर को भी अपना ले, उसका तो यह मुख्य प्रयास रहता है कि वह आम आदमी की चेतना को पहले से कहीं अधिक प्रखर बना सके ताकि उसे सही दृष्टिकोण प्रदान करके उसके सोचने-समझने के ढंग को और अधिक वैज्ञानिक और तर्कसम्मत बना सके। इसलिए जनभाषा को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाते समय उसे इस बात से सावधान रहना है कि उसका अपना चिंतन स्तर आम आदमी का चिंतन स्तर बनकर न रह जाए। जाहिर है कि आम आदमी के मुकाबले उसकी भाषा-क्षमता भी अधिक होगी और उसके बौद्धिक विकास का स्तर भी कुछ ज्यादा ही होगा। उसकी रचना की भाषा में इसीलिए आम आदमी की भाषा की तुलना में बौद्धिक सतर्कता अधिक होगी, वहां बिम्बों का प्रयोग भी अधिक होगा और शब्दों के अर्थों में बहुस्तरीयता होगी। जहां एक ओर जनभाषा में पाई जाने वाली अर्थभंगिमाओं को वह अपने लिए उपयुक्त पाएगा, वहां दूसरी ओर वह साहित्यिक रचनाओं में सुलभ भाषागत प्रयोगों, जिनमें शब्द प्रचलित से भिन्न अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। इससे साहित्यिक रचनाओं की भाषा में और साधारण जीवन की भाषा में कुछ अंतर आ जाना निश्चित है। इसके अलावा साहित्य में वास्तविक जीवन के सारभूत तत्वों की सघन एवं प्रखर अभिव्यक्ति होती है। इस सघनता और प्रखरता को प्राप्त करने के लिए रचनाकार प्रचलित शब्दों को एक विशिष्ट अर्थभंगिमा प्रदान करता है। धूमिल की रचनाओं में हम देखते हैं कि उनकी भाषा बोलचाल की भाषा से मिलती-जुलती होते हुए भी उसमें कहीं अधिक ओजपूर्ण, फड़कती हुई और स्मरणीय होती है और शब्दों की व्यंजनाशक्ति भी वहां बहुत अधिक होती है। जैसा कि पहले दी गयी पंक्तियों से जाहिर है छिनार निहाई ने लोहे को मन-माफिक हनने के लिए हथोड़े से जो दोस्ती कर ली है, उसका केवल सीधा अर्थ ही उस स्थल पर, पूरा अर्थ नहीं है। इन शब्दों की लाक्षणिकता से ठेलू और टेकू की सामाजिक परिस्थिति की विडम्बना की ओर भी हमारा ध्यान जाता है। अरुण माहेश्वरी के शब्दों में धूमिल की भाषा में ‘सहजता का वह रूप है जो व्यापकता की हर परिधियों को समेटने में सक्षम है।’ कविता के बाहर जरूरी नहीं जनभाषा की सहजता इस प्रकार की सक्षमता भी लिए हुए हो। मुक्तिबोध की रचनाओं से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि वैचारिक गंभीरता और भावनाओं की पेचीदगी के कारण कविता की भाषा की व्यंजनाशक्ति आमतौर पर काम आने वाली भाषा की तुलना में बहुत अधिक होती है। यदि जनभाषा की व्यंजना-शक्ति कवि के हाथों और अधिक सघन और प्रखर रूप में उभरकर नहीं आती तो कुल मिलाकर रचना सपाट बनी रह सकती है।
साहित्यिक रचनाओं की भाषा में और साधारण जीवन की भाषा में इस प्रकार का वाजिब अंतर होने के बावजूद यदि कविता की भाषा को जनभाषा के करीब लाने का नारा कभी-कभी बहुत जरूरी हो जाता है तो इसीलिए कि साहित्य और जीवन के भेद की दुहाई देकर कुछ प्रतिक्रियावादी लोग साहित्यकार को जनजीवन से एकदम काट देने की कोशिश करते हैं। जो कुछ शासक वर्गों के हित में पड़़ता है, उसे तो शुद्ध रूप में साहित्यिक मान लिया जाता है और जो उनके विरुद्ध पड़ता है उसे अनघड़, अभद्र, खुरदरा, कुरूप और गैर साहित्यिक घोषित कर दिया जाता है। साहित्य को जनजीवन से अलग करने और उसे शासकवर्ग के लिए एक चुनौती न बनने देने की इस योजना के अंतर्गत साहित्य की भाषा की विशिष्टता और अनुपमता पर विशेष बल दिया जाता है। ऐसी स्थिति में एक जनवादी कवि जनजीवन की धड़कन को अच्छी तरह तभी महसूस कर सकता है जबकि वह शुद्ध साहित्यिकता के नाम पर फैलाए गए भाषा के उस जंजाल को तोड़ देता है, जिसके कारण सामाजिक जीवन की वास्तविकता छिपी रह जाती है। यह भाषा का तिलिस्म वास्तव में एक गैर-वस्तुवादी अथवा रहस्यवादी जीवन दर्शन के प्रचार का माध्यम बनता है। ऐसे समय सौंदर्याभिरुचि के नाम पर अभिव्यक्ति पर लगाए गए प्रतिबंधों को तोड़ने का असली मतलब होता है इस रहस्यवादी दृष्टिकोण को चुनौती देना। इसीलिए जनभाषा का सवाल वास्तव में वस्तुवादी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के साथ घनिष्ट रूप में जुड़ा हुआ है। जब समाज के प्रगतिविरोधी तत्व असलियत को छुपाने की, उसे विकृत रूप में पेश करने की अथवा सामाजिक जीवन में तीव्र होते अन्तर्विरोधों को चेतना की परिधि से बाहर रखने की कोशिश करते हैं तो जनभाषा का सहारा लेना एक तरह से अंधेरे बंद कमरे से बाहर निकल कर जीवन से सीधे साक्षात्कार करने का सवाल बन जाता है। दरअसल जनभाषा से सम्पर्क बनाने की बात विशेष रूप से उठायी ही तब जाती है, जब कविता की भाषा बोलचाल की भाषा से कटकर कृत्रिम और अमूर्त हो चुकी हो, चाहे ऐसा कवियों द्वारा अटपटे बिम्बों का प्रयोग करके फेन्टेसी की दुनिया खड़ी करने के प्रयासों से हुआ हो या फिर उनकी तर्कहीन आवेशपूर्ण मानसिकता के कारण। ‘नयी कविता’ के दौर में रचनाकार धीरे-धीरे एक शांत, धवल बिम्बलोक में कुछ इस प्रकार खो गया कि तत्कालीन सामाजिक जीवन के उग्र तनाव भी उस तक पहुंचते-पहुंचते एक धीमी सी सिहरन मात्र बनकर रह जाते थे। प्रयोगवाद से नयी कविता के दौर तक साहित्य में जोर पकड़ती हुई रूपवादी प्रवृत्ति का विरोध जनभाषा के माध्यम से जनजीवन के साथ सम्पर्क स्थापित करके ही किया जा सकता था। किन्तु निम्न मध्यवर्गीय मोहभंग की अस्वस्थ मानसिकता के कारण तथा साम्राज्यवादी विकृत संस्कृति के प्रभाव के कारण ‘नयी कविता’ के विरोध में स्वस्थ जनवादी कविता के उभरने में कुछ समय लगा। इस बीच अकविताओं के रुग्ण व्यर्थताबोध और नकारवादी आक्रोश का प्रकोप हिन्दी कविता पर छा गया और जनवादी दृष्टिकोण को अपनाकर साहित्य रचना करने वाले लेखकों को उनके अराजक स्वच्छन्दतावाद से भी टक्कर लेनी पड़ी। ‘नयी कविता’ के दौर में प्रतिष्ठित शुद्ध साहित्यिकता की परम्परा को तो अकवितावादियों ने एक तरह से तोड़ दिया, परन्तु उनके दनदनाते आक्रोश से स्थिति में कोई रचनात्मक परिवर्तन आ जाने के बजाए साहित्यिक मूल्य ही खतरे में पड़ गए। कविता करने में और शब्दों के साथ मनमानी ऊल-जलूल खिलवाड़ करने में बहुत कम अंतर रह गया तथा कविता की भाषा का भोंथरापन बढ़ता चला गया। इसलिए स्वस्थ जनवादी कविता के विकास के लिए यह जरूरी हो गया कि ‘नयी कविता’ की बर्फीली निश्चलता और अकविता की रुग्ण, सनसनीखेज अतिनाटकीयता दोनों को ही खत्म किया जाए। इस बिन्दु पर जनवादी कविता की शुरुआत इसीलिए तर्कप्रधान वक्तव्यवादी रचनाओं के माध्यम से हुई। यहां मुख्यत: जोर इस बात पर रहा कि वस्तुवादी दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए कविता को एक लंबी बहस का रूप दिया जाए। अकवितावादी मानसिकता को मात देने के लिए विश्लेषणात्मक पद्धति का संयम बनाए रखना और कविता को गद्य के करीब लाना जरूरी हो गया। ‘सपाटबयानी’ की शैली में लिखी गई इन कविताओं में कवि अक्सर अपने-आप से संवाद करता हुआ एक तीव्र आत्मसंघर्ष से गुजर कर कुछ सही निष्कर्षों तक पहुंचता दिखाई देता है। कई बार इन निष्कर्षों को एक काल्पनिक विरोधी व्यक्ति से छेड़े गए वाद-विवाद के माध्यम से भी प्रस्थापित किया जाता है। इस प्रकार इन रचनाओं में एक मुख्य पात्र अपने-आप से या किसी दूसरे व्यक्ति से निरंतर बहस करता हुआ चेतना में छायी हुई धुंध को छांटता है और अपने दृष्टिकोण को तर्कसम्मत बनाए रखकर अटपटे बिम्बों की अमूर्तता और भावावेश के नशीलेपन से छुटकारा पाता है। इस प्रकार की कविता में निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वस्तुपरक जांच-परख होती है। यहां एक निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया जाता है और वक्ता के विचारों के प्रवाह को ज्यों का त्यों शब्दबद्ध करने की कोशिश की जाती है। गद्य की भाषा में और इस प्रकार की कविता की भाषा में कोई आधारभूत अंतर नहंी रहता। गद्य की भाषा में जब आत्मसंघर्ष से जुड़ी हुई भावनाओं की ऊष्मा और तर्क-वितर्क की बौद्धिक ऊर्जा घनीभूत होकर औसत से अधिक हो जाए तो यह कविता का रूप ले लेती है। हिन्दी की जनवादी कविता का एक बहुत बड़ा भाग वास्तव में इस प्रकार के आत्मसंघर्षपूर्ण संवाद की शैली में लिखी गई रचनाओं में ही मिलता है। कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, धूमिल, ज्ञानेन्द्रपति, श्रीहर्ष, वेणुगोपाल, अक्षय उपाध्याय, कुमार विकल आदि बहुत से जनवादी कवि अच्छी वक्तव्यवादी कविताएं लिखते रहे हैं। जहां कवि का स्वर संयत और सधा हुआ बना रहता है, कविता के वक्ता और उसकी तत्कालीन परिस्थिति की विशिष्टता को पूरी तरह उभार दिया जाता है। भावनाओं का विकास और तर्क-वितर्क का सिलसिला एक-दूसरे से जुड़ा रहता है तथा शब्दों के चुनाव में बोलचाल की भाषा की ताजगी, लचक और अर्थ-भंगिमा कायम रहती है, वहां ऐसी कविता ऊंचे साहित्यिक स्तर को छू लेती है। परन्तु सामयिक जीवन की सम्पूर्ण वास्तविकता को मूर्त रूप मेें प्रस्तुत करने के लिए इस प्रकार की कविताओं को और अधिक नाट्यात्मक होना पड़ेगा। दूसरे शब्दों मेंं एक ही पात्र के स्थान पर कविता में कई प्रातिनिधिक पात्रों के दृष्टिकोणों और उनकी नियतियों की टकराहट को प्रस्तुत करना होगा। इससे इस प्रकार की कविता में एकांगिकता और अनुचिन्तनात्मक ठहराव के जो दोष कई बार आ जाते हैं, उनसे बचा जा सकेगा। जब कभी एक जनवादी कवि कुछ ऐसे पात्रों को जो एक साथ ही विशिष्ट भी हैं और सामान्य भी ऐसी परिस्थिति में रखकर जहां हमारे युग के बहुत सारे केंद्रीय सवाल तीव्रता से महसूस किए जा सकते हैं, उनके निजी मुहावरे और तेवर को कायम रखते हुए बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करेगा, जब वह केवल ऐसे बिम्बों का प्रयोग करेगा जो उस परिस्थिति में से ही उभर कर आते हैं तथा अपने दृष्टिकोण को पूर्णतया वस्तुपरक और भौतिकवादी बनाए रखे, तभी उसकी रचनाओं में अधिकतम अर्थवत्ता, लचक, प्रखरता आ पाएगी।
ऊपर कही गयी बातों के मुख्य नुक्तों को दोहराते हुए हम कह सकते हैं कि कविता की भाषा और जनभाषा के संबंध पर गौर करते समय हमें जिन पहलुओं पर विशेष ध्यान देना होगा वे हैं : प्रेषणीयता, मेहनतकश जनता के साथ भावनात्मक एकता की स्थापना, जनभाषा की अर्थभंगिमाओं को आत्मसात करने की आवश्यकता, गद्य की विश्लेषणात्मक शैली को अपनाने की आवश्यकता और नाट्यात्मकता। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर हम ठीक निष्कर्षों तक पहुंच सकते हैं।