असगऱ वजाहत से डा. हैदर अली की बातचीत

संवाद


                        हिंदी के सुप्रसिद्ध और ख्याति प्राप्त लेखक हैं असगऱ वजाहत। बहुत कम रचनाकार ऐसे होते हैं जो साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में अव्वल दर्जे की रचना दे पाते हैं। लेकिन असगऱ वजाहत ने ये कारनामा किया है. नाटक में ‘जिन लाहौर नई देख्या ओ जम्याई नई’, उपन्यास में ‘सात आसमान’, ‘यात्रा संस्मरण में ‘चलते तो अच्छा था’ तथा ‘पाकिस्तान का मतलब क्या’, और मूलत: वे कहानीकार तो हैं ही। उनकी दर्जनों कहानियां (केक, मैं हिन्दू हूं, तमाशे में डूबा देश, शाह आलम कैंप की रूहें तथा डेमोक्रेसिया आदि आदि) बहुत ही चर्चित और प्रशंसनीय रही हैं। उन्होंने अपने लेखन से साहित्य को नए आयाम दिए हैं। फिल्मों के लिए पटकथा लिखने के अलावा धारावाहिक और दस्तावेजी फिल्मों के निर्देशक भी रह चुके हैं। 30 से अधिक पुस्तकों के रचियता असगऱ वजाहत की रचनाओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके नाटक ‘जिन लाहौर नई देख्या’ का मंचन अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दुबई तथा पाकिस्तान आदि देशों में भी हुआ है। यह नाटक हिंदी साहित्य में मील का पत्थर बन चुका है। आप बीस से अधिक देशों की यात्राएँ कर चुके हैं। हिंदी अकादमी के प्रतिष्ठित पुरस्कार श्लाका सम्मान, राष्ट्रपति अवार्ड, संगीत नाटक अकादमी के अलावा दर्जनों साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मान आपको मिले हैं। असगऱ वजाहत का सम्पूर्ण लेखन धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक ताक़तों से लडऩे की प्रेरणा देता है यानी सांस्कृतिक-सामाजिक सद्भाव उनके लेखन की रीढ़ है. इस अनूठे और निराले रचनाकार से साहित्य के कुछ महत्वपूर्ण और ज्वलंत मुद्दों पर बात की है युवा लेखक डॉ हैदर अली ने। – सं.


हैदर अली : आपने साहित्य की सभी विधाओं में लेखन किया है. साहित्य में आप यात्रा आख्यान लिखने, नाटककार, उपन्यासकार तथा कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनमें आपका दिल किस में सबसे अधिक रमता है? और क्यों?
असगऱ वजाहत : ये विषय वस्तु के आधार पर तय होता है। कुछ ऐसे विषय होते हैं जिसमें कहानी अच्छी हो सकती है और कुछ में नाटक या उपन्यास। यानी विषय विधा को तय करता है, कि रचना कौन सी विधा में अच्छी लिखी जा सकती है। अब जैसे गाँधी के मरने के बाद क्या स्थिति हुई और अगर वो जिंदा होते तो क्या होता? इस विषय के लिए नाटक ही उपयुक्त विधा लगी, सो गांधी-गोडसे.कॉम लिखा गया। वैसे भी हर विधा में कुछ रचनाएँ अच्छी और कुछ बुरी हो जाती हैं। लेखन का कार्य कोई मशीनी तो है नहीं। अत: सभी चीज़ें अच्छी मिलती हैं मसलन विषय, विधा तभी वो रचना अच्छी बन पाती है। अच्छी रचना का मतलब ये होता है कि पाठक उसे लम्बे समय तक सराहे तथा याद रखे, उसे ही अच्छी रचना माना जाना चाहिए।

हैदर अली: अक्सर देखा गया है कि रचनाकार सालों से शहर में रहते हैं फिर भी उनके लेखन में शहर कम, गाँव अधिक रहता है यानी एक प्रकार का नास्टेल्जिया, इसकी क्या वजह है?
असगऱ वजाहत: शहरों का इतिहास खासतौर से उत्तर भारत में बहुत पुराना नहीं है। लगभग 100 साल का मान सकते हैं, जबकि गाँव और कस्बों का इतिहास और जीवन बहुत पुराना है। वहाँ का जीवन स्थायी है जबकि शहरों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अब देखिये दिल्ली में 90 प्रतिशत लोग बाहर के हैं, जबकि गाँव में 20-20 पीढिय़ों से लोग एक साथ रह रहे हैं, एक दुसरे के सुख-दु:ख से जुड़े होते हैं। अत: वहाँ के जीवन का रूप अधिक स्थाई है। और दूसरी बात ये है कि गाँव में जो परिवर्तन होता है वो धीरे-धीरे होता है, उसे देखना सरल है, जबकि शहर में उसे देखना मुश्किल। जहां तक नोस्टेल्जिया की बात है तो अपना अतीत आपको बार-बार याद आता है।

हैदर अली: ये देखने में आता है कि अक्सर मुस्लिम लेखकों के लेखन में साम्प्रदायिकता की समस्या बार-बार आ जाती है। चाहे राही मासूम रजा हों या क़ुर्रतुल-ऐन-हैदर हों, और आपके साथ भी ऐसा होता है। इसकी मुख्य वजह क्या है?
असगऱ वजाहत: साम्प्रदायिकता की समस्या का सबसे अधिक प्रभाव मुस्लिमों पर ही पड़ता है। वही उससे ज्यादा प्रभावित और प्रताडि़त रहे हैं। लेखक सबका होते हुए भी किसी एक वर्ग से बिलोंग करता है। अत: उस नाते वह उन समस्याओं को करीब से देखता है और कभी-कभी उससे प्रभावित भी होता है। अब जो उसके करीब होगा, जो उससे प्रभावित होगा वही तो लिखेगा। अत: ये एक प्रकार से अपनी जि़म्मेदारी निभाने वाली बात है। लंदन में बैठ कर तो साम्प्रदायिकता पर नहीं लिखेगा।

हैदर अली:  साहित्य में राजनीति, खासतौर से पुरस्कारों के चयन में ऐसा सामने आता है। बहुत सारे लोग इस बात पर अचम्भा करते हैं कि आपको अब तक साहित्य अकादमी क्यों नहीं मिला? आप इसे किस रूप में लेते हैं?
असगऱ वजाहत: पुरस्कारों में अगर पक्षधरता न हो तो बहुत अच्छा है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। बहुत सी संस्थाएं प्रायोजित पुरस्कार देती हैं। निर्णय बहुत द्घड्डद्बह्म् नहीं होते हैं। लेकिन प्रयास किया जाना चाहिए कि सही रचना को सम्मान मिले। पुरस्कार देने वाली कमेटी की एक ह्वठ्ठस्रद्गह्म्ह्यह्लड्डठ्ठस्रद्बठ्ठद्द होती है, वह अपनी समझ के आधार पर तय करती है। कभी निर्णय सही और कभी इतने सही नहीं होते, पर सबसे पहले तो लेखक का लिखा हुआ सामने आये तभी तो वो देखेगी, तो मुख्य है लेखन।

हैदर अली: मैंने पढ़ा है और एक बार आप से किसी सेमीनार में सुना भी कि आप हिंदी को रोमन में लिखने के हिमायती हैं। कहने का मतलब है कि ऐसा करने के खिलाफ नहीं हैं।
असगऱ वजाहत: परिवर्तन शाश्वत है, जब समाज में, मनुष्य में, फैशन में, आचार-विचार में परिवर्तन आ जाता है तो भाषा में क्यों नहीं? वो भी समाज का हिस्सा है, उसे भी मनुष्य ही बोलते हैं। हम ये नहीं सोचते कि जो लिपि हम आज लिख रहे हैं 1000 साल पहले वो नहीं थी और 1000 साल बाद वो नहीं होगी। अत: परिवर्तन को उपयोगी बनाएं, लिपि के परिवर्तन को संचालित किया जाए, ज़बरदस्ती नहीं। फेसबुक, वाटसप, मेल आदि में बहुत सारी हिंदी रोमन में लिखी जाती है तो क्या उसके प्रति उदासीन बने रहेंगे या उस परिवर्तन को समझेंगे। उसे ढंग से समझने और संचालित करने की ज़रुरत है।

हैदर अली:  आप फेसबुक पर काफी सक्रिय रहते हैं। खूब पोस्ट डालते हैं, उन पर आने वाले प्रश्नों पर प्रतिक्रिया देते हैं। कुछ लोग भद्दे कमेंट करते हैं। इस पर आप कि क्या राय है?
असगऱ वजाहत:  मैं एक लेखक के साथ कभी-कभी अपने आप को एक्टिविस्ट भी मानने लगता हूँ। मेरे इस द्वंद्व को फेसबुक से संतोष मिलता है। आप कहेंगे कैसे? जब फेसबुक पर कुछ लिखता हूँ, तो उसे 500 से ज्यादा लोग देखते हैं। 100 के आस-पास अपनी सहमति, असहमति या राय देते हैं। कुछ लोग उसे शेयर करते हैं। कुछ लोग गालियाँ भी देते हैं। पोस्ट डालने के दो चार घंटे बाद ही पता चल जाता है कि आपकी बात को लोग कैसे लेते हैं यानी इसमें आप फ़ौरन संवाद कायम करते हैं। लोगों से संवाद ज़रूरी है। फेसबुक से मुझे भी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती रहती हैं।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2017, अंक -12), पेज – 19 से 20

More From Author

नरेश कुमार 'मीत’ – आजादी

कहानी का रंगमंच -पंकज कुमार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *