हरियाणा में आम जनता तक पहुंचने के लिए रागनी एक कारगर माध्यम दिखाई देती है। क्योंकि पिछले पचास-साठ सालों के दौरान कुछ प्रमुख लोक-प्रतिभाओं ने इसके विकास में विशेष भूमिका निभाई है, इसलिए रागनी आज हरियाणा में लोक-साहित्य के किसी भी अन्य रूप की तुलना में अधिक जीवन्त और प्रचलित विधा बन गयी है। जब आम लोगों की लालसाओं और पीड़ाओं तथा सामाजिक जीवन की प्रमुख समस्याओं से जुड़े हुए उनके अनुभवों को प्रस्तुत करने के लिए रागनी जैसा एक सशक्त माध्यम सामने दिखाई देता हो तो जनवादी रचनाकारों के मन में इस बात का उठना बड़ा स्वाभाविक हो जाता है कि लोगों के दिल और दिमाग को छूने के लिए इस विधा का सहारा लिया जाए। पर ऐसा सोचते समय उन्हें यह जरूर याद रखना होगा कि रागनी की परम्परा में काफी कुछ ऐसा भी है जो लोक चेतना और लोक-संवेदना की रूढिय़ों को ही व्यक्त करता है और लोगों के अन्दर एक ढर्रे में बंधे रहने की मानसिकता को पोषित करता है। इस प्रकार रागनी का इस्तेमाल करने वाले जनवादी रचनाकार यह खतरा तो मोल लेते ही हैं कि आम लोगों की भावनाओं और उनकी सोच में जो विकृतियां पहले से मौजूद हैं उन्हें काटने की बजाए और मजबूत बना दें। परन्तु इसके बावजूद यह सही है कि लोक साहित्य पर आधारित अन्य विधाओं की मानिन्द रागनी के माध्यम से मेहनतकश जनता की सर्जनात्मक शक्तियों की अभिव्यक्ति भी होती है। इसीलिए रागनी में, ऐसी संभावनाएं पर्याप्त मात्रा में मौजूद है जिनकी बदौलत हम आम जनता की सोच को निखारने और उनकी भावनाओं को संवारने के लिए, इसका इस्तेमाल कर सकें। रागनी परम्परा में ऐसी संभावनाएंं विशेष रूप से इसलिए भी मौजूद हैं क्योंकि स्वतन्त्रता-आंदोलन के साथ-साथ उभर कर आने वाले नवोन्मेष के अभाव के अन्तर्गत हरियाणा की आम जनता के अन्दर जिस नई सर्जनात्मक शक्ति का विकास हुआ उसकी अभिव्यक्ति रागनियों के माध्यम से भी होती दिखाई देती है।
लोक-साहित्य में कभी स्पष्ट रूप में तो कभी सूक्ष्म रूप में व्यवस्था द्वारा पोषित संस्कारों का प्रभाव कुछ हद तक तो बना रहता ही है। इसलिए हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि हरियाणा की रागनी-परम्परा में आम जनता की सोच का वही रूप ज्यादा मुखरित होता दिखायी दे जो उसे भाग्यवाद, परलोकवाद, अथवा चमत्कारवाद की ओर ले जाता हो, लोक-साहित्य में ऐसी सोच हमें अक्सर देखने को मिलेगी जिसके तहत लोग अपनी समस्याओं का कोई जादुई अथवा काल्पनिक हल निकाल कर तृप्ति का अनुभव कर सकें अथवा अपनी पीड़ा को सहलाकर उसकी कसक को कम करने का कोई आसान तरीका निकाल सकें।
लोक-साहित्य के माध्यम से आम लोगों के हर्ष और उल्लास की भावनाओं तथा उनकी चिन्ताओं और मजबूरियों की प्राय: कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति होती है कि वे तत्कालीन व्यवस्था के लिए कोई गम्भीर चुनौती न प्रस्तुत करती हों। लोक-साहित्य में जहां हमे यह पता लगता है कि तत्कालीन जीवन परिस्थितियों में आम जनता पर क्या बीत रही है वहां इसके माध्यम से अक्सर आम लोगों को मानसिक राहत पाने का ऐसा सुरक्षित अवसर भी मिल जाता है, जिससे वे अपनी मौजूदा परिस्थितियों की सीमाओं के भीतर ही जिन्दा रहने के लिये रजामन्द बने रहें और इन परिस्थितियों को बदलने के लिए संघर्षरत होने की कोशिश न करें। लोक-साहित्य में जहां शोषित-पीडि़त जनता के जीवन की तल्खियों और पीडि़ाओं की झलक मिलती है वहां ऊपर से थोंपी हुई कुछ ऐसी मान्यताओं को भी यहां सहज स्वीकृति प्रदान की जाती है जो लोगों की चेतना को कुन्द बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती है। इस प्रकार जहां लोक-साहित्य की शक्ति इस बात में निहित है कि उसके माध्यम से जनमानस की पीड़ाओं और उल्लासों से हमारा निकट सम्पर्क स्थापित होता है वहां इसके साथ ही लोक-साहित्य की हमें यह सीमा की दिखाई देगी कि यहां अक्सर लोक-संवेदना का वही रूप प्रस्तुत हो पाता है जिसे सत्ताधारी वर्ग ने अपने हितों के अनुकूल ढाल लिया हो। लोक-साहित्य में कभी स्पष्ट रूप में तो कभी सूक्ष्म रूप में व्यवस्था द्वारा पोषित संस्कारों का प्रभाव कुछ हद तक तो बना रहता ही है। इसलिए हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि हरियाणा की रागनी-परम्परा में आम जनता की सोच का वही रूप ज्यादा मुखरित होता दिखायी दे जो उसे भाग्यवाद, परलोकवाद, अथवा चमत्कारवाद की ओर ले जाता हो, लोक-साहित्य में ऐसी सोच हमें अक्सर देखने को मिलेगी जिसके तहत लोग अपनी समस्याओं का कोई जादुई अथवा काल्पनिक हल निकाल कर तृप्ति का अनुभव कर सकें अथवा अपनी पीड़ा को सहलाकर उसकी कसक को कम करने का कोई आसान तरीका निकाल सकें। रागनी के स्थापित स्वरूप को समझने का प्रयास करते समय हमें लोक-साहित्य के इस कमजोर पक्ष को ध्यान में रखना होगा। पिछले कुछ अर्से से व्यावसायिकता के दबाव के तहत तथा सिनेमाई प्रभावों के कारण रागनी की परम्परा में और भी अधिक बिगाड़ पैदा हो गया है। रागनी जिस रूप में आज प्रचलित हैं उसमें श्रोताओं के अन्दर स्थूल यौन-भावनाओं को उद्दीप्त करने की फूहड़ कोशिशें ही प्रमुख होती जा रही हैं। रेडियो और दूसरे प्रचार माध्यमों से जो रागनियां प्रचलित-प्रसारित होती हैं उनमें भी पलायनवाद, उपभोक्तावाद और छिछली भावुकता को खुराक देने वाली सामग्री की ही प्रधानता रहती है।
इन हालात में यह जरूरी हो जाता है कि आम जनता की संवेदना में खोट पैदा करने के लिये लगातार हो रही इन कोशिशों का डट कर विरोध किया जाये और फूहड़ रागनियों के जहर को काटने के लिए रागनी परम्परा के स्वस्थ पक्ष को आधार बनाकर उसे जनवादी मोड़ दिया जाये। इस काम में हमें कहां तक सफलता मिल सकती है। यह जानने के लिए परम्परागत रागनी की कुछ सामान्य विशेषताओं का जिक्र करना वाजिब होगा।
सांग लोकमंच से खेला जाने वाला ऐसा संगीत-नाटक होता है जिसमें मुख्य पात्रों के अभिनय-कौशल पर न हो कर कुछ सरल सुपरिचित लयों और धुनों के आधार पर निर्मित गीतों श्रोताओं के सामने प्रभावशाली ढंग से गा देने की उसकी योग्यता पर होता है। सांग का कथानक आमतौर पर गीतों अथवा रागनियों को लड़ी में बांधे रखने वाला सूत्र मात्र ही होता है। सांग के रूप में मंचित होने संगीत-नाटक में न तो पात्रों के विशिष्ट व्यक्तित्व उभारने के लिये विस्तारपूर्वक कथोपकथन का सहारा लिया जाता है और न ही उनकी मानसिक उलझनों को चित्रित करने वाले हाव-भावों, तर्क-वितर्कों अथवा व्याख्यान की बारीकियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
यद्यपि व्यावसायिकता के दबाव में आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं में और कुछ अन्य आयोजनों में गाई जाने वाली रागनियों में हमें ऐसी रागनियां भी जायेंगी, जो फुटकर और स्वतन्त्र रचनाएं कही जा सकती हैं, परन्तु रागनियों का विकास मुख्यत: सांगों के महत्वपूर्ण अंशों के रूप में ही हुआ है। सांग लोकमंच से खेला जाने वाला ऐसा संगीत-नाटक होता है जिसमें मुख्य पात्रों के अभिनय-कौशल पर न हो कर कुछ सरल सुपरिचित लयों और धुनों के आधार पर निर्मित गीतों श्रोताओं के सामने प्रभावशाली ढंग से गा देने की उसकी योग्यता पर होता है। सांग का कथानक आमतौर पर गीतों अथवा रागनियों को लड़ी में बांधे रखने वाला सूत्र मात्र ही होता है। सांग के रूप में मंचित होने संगीत-नाटक में न तो पात्रों के विशिष्टï व्यक्तित्व उभारने के लिये विस्तारपूर्वक कथोपकथन का सहारा लिया जाता है और न ही उनकी मानसिक उलझनों को चित्रित करने वाले हाव-भावों, तर्क-वितर्कों अथवा व्याख्यान की बारीकियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। कथानक की सार्थकता इस बात में ही मुख्यत: देखी जाती है उसके माध्यम से श्रोताओं के सामने कुछ ऐसे मर्म स्थलों को लाया जा सके जिनके सन्दर्भ में में गायक-अभिनेता का रागनी गाने लग पड़ना उचित दिखाई दे। इतिहास के किसी खण्ड से प्रचलित लोक-कथाओं से या तत्कालीन सामाजिक जीवन से ही एक ऐसे घटनाक्रम सांग के किस्से के रूप में चुन लिया जाता है जहां मार्मिक स्थलों का समावेश किया जा सके। इनमें स्थलों से जुड़ी हुई सामान्य भावनाओं को लयबद्ध प्रस्तुत करने वाले सांग के गीतों को ही हम रागिनियों के रूप में जानते हैं। इन रागनियों के बलबुते पर ही अच्छा सांग जनमानस में व्याप्त अनेक प्रमुख भावों की झलक देने वाला आईना बन जाता है। भले ही कहानी के मुख्य-पात्र राजा-रानी आदि रहे हों या किसी प्रकार की विशिष्टïता के धनी व्यक्तित्व हों, पर कथा में ढल जाने के बाद उनकी निजी विशिष्टता लगभग खत्म हो जाती है और वे जनमानस में व्याप्त कुछ, सामान्य भावनाओं और चिन्तन-बिन्दुओं के निखरे हुए और प्रज्जवलित बिम्ब बनकर रह जाते हैं। सांग के उन हिस्सों में जिन्हें हम रागनियों के रूप में जानते हैं। मुख्य तत्व तो भावनाओं का ही रहता है – ऐसी भावनाओं का जो किसी व्यक्ति की निजी विशिष्टïता और अन्तरंगता को व्यक्त नहीं करतीं बल्कि उसके हम-बद्ध सामूहिक व्यक्तित्व को लक्षित करती है। ग्रामीण समाज की जीवन-परिपाटियों में कुछ विशेष पड़ावों पर उभर कर आने वाली केन्द्रीय समस्याओं से जुड़ी हुई ऐसी भावनाओं को ही रागनियों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है जो सामान्य और सुस्थिर रूप प्राप्त कर चुकी हों। क्योंकि रागनी मंच पर से श्रोताओं के सामने गाई जाती हैं, इसलिये यहां भावनाओं को सुलझा कर आसानी से पकड़े जा सकने वाले मुहावरे में रखकर और सुपरिचित लयों और धुनों में बांध कर प्रस्तुत किया जाता है ताकि यहां व्यक्ति होने वाली भावनाओं में सभी श्रोताओं की साझेदारी तत्काल स्थापित हो जाये और वे रागनी को अपने दिल की धड़कन को व्यक्त करने वाली रचना के रूप में स्वीकार कर लें। भावनाओं की सार्वजनिकता और अभिव्यक्ति की सुगमता में ही रागनी की मुख्य शक्ति निहित है। लोक-साहित्य की अन्य विधाओं की तरह रागनी में हमें जो दोहराहट या एक दूसरे के साथ आसानी से जुड़ते चले जाने वाले विवरणों की कड़ी-सी दिखाई देती है, उसकी उपयोगिता को हमें रागनी की इन विशेषताओं के सन्दर्भ में ही समझने की कोशिश करनी चाहिये। इस प्रकार की पद्धति अपनाने से रागनी में जनता की कुछ सामान्य भावनाओं की सघन और तरल अभिव्यक्ति कर देना संभव हो जाता है। मानसिक पेचीदगियों और वैचारिक गुत्थियों को प्राय: रागनी से बाहर ही रखा जाता है। व्यक्ति की ऐसी विलक्षणता को भी रागनी में प्राय: स्थान नहीं मिलता जो उसे एक प्रतिनिधि पात्र समझे जाने में बाधक हो। रागनी चाहे लखमीचन्द की हों या मेहरसिंह की, मांगेराम की हों या धनपत सिंह की वहां ग्रामीण जनता की इन भावनाओं को मुख्य रूप से प्रस्तुत किया जाता है जो सामान्य और सुस्थिर रूप प्राप्त कर चुकी हों। इन्हें यहां जनता के अपने मुहावरे में कुछ सुपरिचित लयों के आधार पर इस प्रकार व्यक्त किया जाता है कि लेखक अथवा गायक के स्थान पर हमें पूरे समुदाय की सांझी आवाज ही सुनायी देने लगती है।
भावनाओं की सार्वजनिकता और अभिव्यक्ति को सुगमता के अलावा रागनी की एक अन्य विशेषता है उसकी नाट्यात्मक स्मरणीयता। जो भावनाएं रागनी के माध्यम से व्यक्त होती हैं वे किसी घटनाक्रम के निर्णायक पड़ाव पर पहुंच जाने की स्थिति को अक्सर सूचित करती हैं। इस निर्णायक पड़ाव पर पात्रों की मन:स्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। आम तौर पर इस मन:स्थिति से जुड़ी हुई भावनाओं को ही रागनियों के माध्यम से मुखरित किया जाता है। वैसे तो सांग के लिए उठाए गए किस्से की ही यह विशेषता होती है कि उसके माध्यम से सामाजिक जीवन में उभर कर आने वाली किसी केन्द्रीय समस्या को व्यक्त किया जा सके। कुछ नाट्यात्मकता तो रागनी की इस पृष्ठभूमि से उत्पन्न हो जाती है। फिर इस प्रकार के विशिष्टï घटनाक्रम के निर्णायक पड़ाव पर पात्रों के मन में उभर कर आने वाली भावनाओं के उत्कर्ष बिंदुओं को ही प्रस्तुत करने की रागनियों में कोशिश की जाती है। रागनी के अंदर इस प्रकार नाट्यात्मक स्मरणीयता का गुण उत्पन्न हो जाता है।
सुस्थिर और सामान्य भावनाओं की सुगम एवं प्रखर अभिव्यक्ति के साथ-साथ रागनी के माध्यम से जीवन परिस्थितियों और मानवीय व्यवहार के बारे में कुछ ऐसे निष्कर्ष भी सहजग्राह्य रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं जिनके पीछे पीढिय़ों के संचित अनुभवों का आभार होता है और जिन्हें जांचने-परखने की अथवा तर्क-विर्तक द्वारा समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। ज्यों ही ये स्थापनाएं लयबद्ध होकर श्रोताओं के सामने आती है, वे उन्हें रागनी में उभारी जाने वाली भावनाओं के प्रभाव में आकर तथा अपने परंपरागत संस्कारों के आधार पर तुरंत ह्रïदयगंम कर लेते हैं। इस प्रकार रागनी में गीतात्मकता, सुगमता और नाट्यात्मकता के साथ-साथ एक प्रकार की सारगभिंता भी आ जाती है यद्यपि यह सारगर्भिता मुख्यत: ग्रामीण समाज के संचित अनुभव के वक्त पर निकाले गए ऐसे सामान्य निष्कर्षों की प्रस्तुत करनेे से आती है जिन्हें लगभग हर व्यक्ति समाज की सांझी समझदारी के रूप में पहले ही आत्मसात किए हुए हो।
कुछ रागनियों में वार्तालाप के माध्यम से हो विरोधी दृष्टिकोणों के बीच टकराव भी कई बार दिखाई देता है पर वास्तव में यह टकराहट किसी नए चिंतित और व्यवहार के भटकावों को रेखांकित करनेे का ही एक नाटकीय तरीका है। भावनाओं के टकराव और असामान्य व्यवहार से जुड़ी हुई मन:स्थितियों की अभिव्यक्ति के पीछे भी लगभग इसी प्रकार का उद्देश्य प्राय: विद्यमान रहता है। रागनी के माध्यम से अन्तत: ग्रामीण समाज की सामान्य भावनाएं और सांझी समझदारी ही व्यक्त होती है और इन भावनाओं और इस समझदारी से विचलन को केवल अपवाद के रूप में ही स्थान मिलता है।
रागनी की इन सामान्य विशेषताओं को ध्यान में रख कर ही हम परंपरागत रागनियों की उपलब्धियों और सीमाओं का तथा जनवादी रचनाकारों द्वारा इस क्षेत्र में किए जाने वाले प्रयासों का सही जायजा ले सकते हैं।
सांगों में उठाये जाने वाले किस्सों में अक्सर प्राकृतिक विपत्तियों और सामाजिक मर्यादाओं को निभाने के लिए किए जाने वाले बलिदानों की ही प्रधानता रहती है। इन सांगों की रागनियों में धीरज और साहस के साथ पीड़ा झेलते जाने वाले व्यक्ति के आत्मबल को विशेष गरिमा प्रदान की जाती है। सामाजिक कुरीतियों के शिकार होने वाले मेहनतकश लोगों की विद्रोह की भावना तथा उनकी स्वाभाविक उल्लास भावना और जिजीविषा की भी कभी-कभार इन रागनियों में अभिव्यक्ति होती है, परन्तु मुख्य जोर तो धैर्यपूर्ण सहनशीलता और आत्म-बलिदान पर ही बना रहता है। जात-पांत, छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना को कायम रखने वाली सामन्तवादी मूल्य व्यवस्था के अमानवीय स्वरूप को यहां उजागर नहीं किया जाता बल्कि उसे प्राकृतिक और स्वाभाविक मानकर स्वीकार करते जाने पर ही बल दिया जाता है। इसी प्रकार पितृसत्तात्मक-सामाजिक ढांचे के तहत स्त्रियों के साथ होने वाले व्यवहार की क्रूरताओं को भी छद्म-गरिमा से ढंके रहने दिया जाता है।
यदि लखमीचंद या मेहरसिंह की रागनियां लोगों के दिलों में अब तक कर किए गए हैं तो इसीलिए कि वहां लोगों की पीड़ाओं, विवशताओं और प्रताड़नाओं को, उनकी इच्छा-आकांक्षाओं पर होने वाले कुठाराघातों की लयात्मक ढंग से ऐसे जीवंत मुहावरे में पेश किया गया है कि श्रोताओं पर फौरन असर हो। यदि सामाजिक व्यवहार के स्थापित नियमों के तहत किसी गरीब आदमी को किसी विधवा स्त्री को, किसी बिना मां-बाप ने किसी बड़ी आयु के आदमी के साथ शादी के बंधन में बांध दिया है, मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा हो और अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर यातनाएं सहनी पड़ रही हों तो इन सबकी पीड़ा को इन रागनियों में सघन रूप में सीधे-सादे शब्दों में हमारे सामने ला दिया जाता है। किसान जीवन पर प्रकृति का प्रकोप, निरन्तर पड़ता रहता है और सदियों से चले आ रहे सामूहिक ढांचे के तहत प्रतिष्ठित आदर्शों और परम्पराओं को निभाते जाने में लोगों को बड़ी-बड़ी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं। इसीलिए सांगों में उठाये जाने वाले किस्सों में अक्सर प्राकृतिक विपत्तियों और सामाजिक मर्यादाओं को निभाने के लिए किए जाने वाले बलिदानों की ही प्रधानता रहती है। इन सांगों की रागनियों में धीरज और साहस के साथ पीड़ा झेलते जाने वाले व्यक्ति के आत्मबल को विशेष गरिमा प्रदान की जाती है। सामाजिक कुरीतियों के शिकार होने वाले मेहनतकश लोगों की विद्रोह की भावना तथा उनकी स्वाभाविक उल्लास भावना और जिजीविषा की भी कभी-कभार इन रागनियों में अभिव्यक्ति होती है, परन्तु मुख्य जोर तो धैर्यपूर्ण सहनशीलता और आत्म-बलिदान पर ही बना रहता है। जात-पांत, छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना को कायम रखने वाली सामन्तवादी मूल्य व्यवस्था के अमानवीय स्वरूप को यहां उजागर नहीं किया जाता बल्कि उसे प्राकृतिक और स्वाभाविक मानकर स्वीकार करते जाने पर ही बल दिया जाता है। इसी प्रकार पितृसत्तात्मक-सामाजिक ढांचे के तहत स्त्रियों के साथ होने वाले व्यवहार की क्रूरताओं को भी छद्म-गरिमा से ढंके रहने दिया जाता है।
यद्यपि सांगों के बहुत सारे किस्से इतिहास के किसी खण्ड से उठाये होते हैं, फिर भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझ सकने वाली इतिहास-दृष्टि का विकास इन रागनियों के माध्यम से नहीं हो पाता। सामाजिक ढांचे को देवी-शक्तियों द्वारा बनाई हुई ऐसी चीज मान लिया जाता है जो व्यक्तियों के निर्णयों या व्यवहारों से अप्रभावित रहती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन के बारे में जिस सांझी समझदारी को परम्परागत रागनियों द्वारा स्वीकृति प्रादान की जाती है उसके अन्दर सहज समझ (ष्टशद्वद्वशठ्ठ ह्यद्गठ्ठह्यद्ग) का सतहीपन और उसकी अनेकों विसंगतियां हमेशा बनी रहती हैं। रूढिग़्रस्त समाज में रहने वाले व्यक्तियों की संवेदना में जो भौंथरापन और संकुचितता आ जाती है उनका प्रभाव भी रागनियों में व्यक्त होने वाली भावनाओं में स्पष्टï दिखायी देता है। सामाजिक रूढिय़ों की संकुचितता के कारण लोगों की अधिकांश लालसाएं कुंठित और विकृत हो जाती हैं तथा उनका उल्लास सूख जाता है। कुछ ही भावनाएं ऐसी बची रहती है जिनकी परंपरागत रागनियों में मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति होती है, पर पारिवारिक संबंधों की पवित्रता तथा परंपरागत मूल्यों को बनाए रखने के लिए दी जाने वाली कुर्बानियां तो इन रागनियों में विशेष रूप से प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, परन्तु स्त्री-पुरुष संबंधों की उचित कल्पना के अभाव में इन रागनियों में व्यक्त होने वाली प्रेम संबंधी भावनाएं अक्सर स्थूल, शारीरिक आकर्षक और ललचाई वासना की सतह से ऊपर नहीं उठ पातीं। हरियाणा की ग्रामीण जनता के मानस पर भक्ति आंदोलन की साहित्य परंपरा का कुछ प्रभाव आवश्य रहा है। इससे पुराने आदर्शों की पुनस्र्थापना के संदर्भों में तथा मौजूदा व्यवस्था के अन्तर्गत आम लोगों की पीड़ा को व्यक्त करने वाले सन्दर्भों में रागनी विशेष रूप से प्रभावशाली बन जाती है परन्तु प्रेम-प्रसंगों की रागनियों के अन्दर प्रधानता होते हुए भी प्रेम-संबंधी भावनाएं अक्सर यहां भौंथरे रूप में ही व्यक्त हो पाती हैं, मेहनतकश जनता के अन्दर हमेशा बना रहने वाला जीवन के प्रति उल्लास अथवा जैविक प्रवृत्तियों का तीव्र आग्रह तो इन रागनियों में दिखाई देता है, परन्तु रीतिकालीन साहित्य की कृत्रिम रतिलीला के संस्कार लोकमानस से फूट पड़ने वाले स्वाभाविक प्रेम-उल्लास को भी दूषित कर देते हैं। क्योंकि स्वतन्त्रता आंदोलन द्वारा उभारे जाने वाले नवोन्मेष की लहर की अभिव्यक्ति भी रागनी के माध्यम से हो रही थी। इसलिए परम्परागत मूल्यों की स्थापना, पीड़ा को झेलते रहने की सहनशीलता और प्रेम और इश्क की भौंथरी अभिव्यक्ति के अन्दर से ही हमें कई बार रागनी की परम्परा में एक अन्य स्वर भी सुनाई देता है जिसमें व्यक्ति की मानवीय गरिमा की मांग है, शोषण और दमन के विरोध में खड़ा होने का आग्रह है और सामाजिक पारिवारिक संबंधों को ज्यादा संगत रूप देने की जरूरत का अहसास है। रागनी परम्परा के इस आंतरिक स्वर को जो भक्तिकालीन साहित्य आंदोलन के सकारात्मक प्रभाव को तथा स्वतन्त्रता-आंदोलन की हलचल को लक्षित करता है, पहचानना आसान काम नहीं है, विशेषकर लखमीचन्द जैसे रचनाकार की रागनियों में जो स्वतन्त्रता आंदोलन द्वारा केन्द्र में लाए जाने वाली चुनौतियों से सचेत रूप में नहीं टकरा रहे थे।
परम्परागत रागनियों में लखमीचन्द की रागनियां इसलिए सबसे ज्यादा प्रभावशाली नजर आती हैं, क्योंकि आम जनता के मुहावरे की उनकी पकड़ बहुत प्रखर थी और जनता की आधारभूत प्रवृत्तियों को लयबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने में उनकी दक्षता असाधारण थी। सचेत रूप से परिवर्तन-विरोधी होते हुए भी लखमीचंद गहरे स्तर पर अपने युग की चुनौतियों को महसूस करते थे और कथ्य के रूप में तत्कालीन मुद्दों से न टकराते हुए दीखने पर भी परोक्ष रूप में अपने समय की चुनौतियों की झलक वे अपनी रचनाओं में दे जाते हैं।
परम्परागत रागनियों में लखमीचन्द की रागनियां इसलिए सबसे ज्यादा प्रभावशाली नजर आती हैं, क्योंकि आम जनता के मुहावरे की उनकी पकड़ बहुत प्रखर थी और जनता की आधारभूत प्रवृत्तियों को लयबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने में उनकी दक्षता असाधारण थी। सचेत रूप से परिवर्तन-विरोधी होते हुए भी लखमीचंद गहरे स्तर पर अपने युग की चुनौतियों को महसूस करते थे और कथ्य के रूप में तत्कालीन मुद्दों से न टकराते हुए दीखने पर भी परोक्ष रूप में अपने समय की चुनौतियों की झलक वे अपनी रचनाओं में दे जाते हैं। इन रचनाओं की काव्यात्मकता इसीलिए बढ़ जाती है। लोक-जीवन से उठाये गये साधारण बिम्बों और रूपकों की इस प्रकार की लाक्षणिकता से उनकी रागनियों की काव्यात्मक सघनता बढ़ जाती है। मेहरसिंह की अच्छी रागनियां भी लखमीचन्द की उपलब्धियों के स्तर को छू लेती हैं। पर इन दोनों की रागनियों के कुल प्रभाव में कुछ अन्तर भी बना रहता है जिसे स्पष्टï किया जाना चाहिये। अपनी बहुत-सी रागनियों में लखमीचन्द का रुझान अतीतमुखी नजर आता है। भाग्यवाद और रहस्यवाद का पुट भी वहां काफी मात्रा में मिलता है। जब लखमीचन्द अपनी रागनियों की रचना कर रहे थे तो उस समय देश में स्वतन्त्रता-आंदोलन काफी जोरों पर था और समाज में नये मूल्य अपनाने का तथा पुरानी रूढिय़ों को तोड़ने का काफी उत्साह था। परन्तु राजनैतिक मसलों को लखमीचन्द अपनी रागनियों से अलग रखते हैं और सचेत रूप में वे सामाजिक परिवर्तन की समूची प्रक्रिया के विरोध में अपने आपको खड़ा कर पाते हैं। मेहरसिंह की रचनाओं में अतीत-गामिता और रहस्यवादिता की प्रवृत्ति निस्बतन कम है अलबता उनकी रागनियों का मुख्य स्वर भी संघर्ष का न होकर सुरक्षात्मक सहनशीलता का ही बना रहता है। वैसे तो जैसा कि पहले कहा जा चुका है समूची रागनी परम्परा के विकास और विस्तार के पीछे जिन सांस्कृतिक उभार का दबाव था उसकी उत्पत्ति ही स्वतन्त्रता आंदोलन की बदौलत हुई थी और इसलिए रागनी परम्परा की मुख्य शक्ति भी इस बात में निहित है कि जाने-अनजाने यहां उन चुनौतियों से टकराया जा रहा है, जिन्हें स्वतन्त्रता आंदोलन ने केन्द्र में ला खड़ा किया था। परन्तु रागनी परम्परा की जिस धारा का प्रतिनिधित्व लखमीचन्द करते हैं उसके अन्दर वे मुद्दे सचेत रूप में नहीं उठाये जाते जो स्वतंत्रता आंदोलन के विकास के साथ महत्वपूर्ण हो उठे थे। मेहरसिंह की रागनियों में तात्कालिकता कुछ अधिक स्पष्टï रूप में दिखाई देती है और दृष्टिïकोण भी वहां लखमीचन्द की रचनाओं की तुलना में ज्यादा वस्तुवादी लगता है।
जनवादी रागनी के पीछे काम करने वाला एक मुख्य उद्देश्य होता है शोषण और अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में बदलाव लाने के लिये मेहनतकश जनता को सक्रिय बनाना। इसलिये एकजुटता, संघर्षशीलता और आशावादिता की भावनाओं को तथा परिवर्तन के लिए उत्साह को इस प्रकार की रचनाओं में विशेष स्थान मिलेगा। ऐसे विचार-बिन्दुओं को भी यहां विशेष स्थान मिलेगा जो मेहनतकश लोगों के संचित अनुभवों से निकाले गये सही निष्कर्षों के रूप में उनकी सांझी सोच का हिस्सा बन गये हैं।
आज जब हम जनवादी रागनी को अपनी आंखों के सामने-उभरते देखते हैं तो इस नई रंगत की रागनी के लिखने वालों को याद दिलाना चाहेंगे की रागनी की समूची परम्परा की शक्ति को ग्रहण करें और उनकी कमजोरियों को सचेत रूप से काटने का प्रयोग करें। रागनी की असली जान, ठेठ लोकभाषा के मुहावरों में सीधी-सादी लय अपनाने में और ऐसे मर्म-स्पर्शी कथा प्रसंगों के चुनाव में होती हैं ” जो लोगों के मन में रच-बस गये हों। इन सबके सहारे ही रागनी लोगों की भावनाओं को, उनकी पीड़ाओं तथा दबी हुई अभिलाषाओं को सुगम और सरल ढंग से प्रस्तुत करने में सफल होती हैं। रागनी की मर्यादाओं को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि इन नई प्रकार की रचनाओं में भी मुख्य जोर भावनाओं को व्यक्त करने पर हो न कि तर्क-वितर्क या बहस-मुबाहसे पर हों, जो भावनाएं नई रागनी के माध्यम से व्यक्त होंगी वे परम्परागत रागनी में व्यक्त होने वाली भावनाओं से काफी भिन्न होगी। मेहनतकश जनता की सांस्कृतिक विरासत में संघर्ष और विद्रोह की धारा भी हमेशा विद्यमान रहती है और कर्मठता एवं श्रमशीलता उसमें एक आवश्यक अंग के रूप में पायी जाती है। जनवादी रागनी में इन भावनाओं और क्षमताओं पर विशेष बल दिया जायेगा। आम लोगों की असफलताओं की पीड़ा को व्यक्त करते समय भी यह ध्यान रखा जायेगा कि भाग्यवाद, चमत्कारवाद, नायकवाद अथवा निष्क्रिय सहनशीलता के संस्कारों से इन पीड़ा को मुक्त रखा जाये। इसके अलावा स्त्री-पुरुष संबंधों के सन्दर्भ में व्यक्त होने वाली भावनाओं में फूहड़पन और स्थूलता के जो अवशेष हरियाणा की आम जनता की संवेदना में अभी भी बाकी हैं उन्हें सर्तकता के साथ दूर करना होगा और इन भावनाओं में निखार लाना होगा। जब तक ऐसा करने में पर्याप्त सफलता नहीं मिल जाती। इन प्रसंगों को रागनी में उठाने से परहेज करना चाहिए। जनवादी रागनी के पीछे काम करने वाला एक मुख्य उद्देश्य होता है शोषण और अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में बदलाव लाने के लिये मेहनतकश जनता को सक्रिय बनाना। इसलिये एकजुटता, संघर्षशीलता और आशावादिता की भावनाओं को तथा परिवर्तन के लिए उत्साह को इस प्रकार की रचनाओं में विशेष स्थान मिलेगा। ऐसे विचार-बिन्दुओं को भी यहां विशेष स्थान मिलेगा जो मेहनतकश लोगों के संचित अनुभवों से निकाले गये सही निष्कर्षों के रूप में उनकी सांझी सोच का हिस्सा बन गये हैं। जनवादी रागनी लिखने वालों को इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि आम लोगों की चेतना के स्तर को ऊपर उठाने के उत्साह में कोरी नारेबाजी को तुकबन्दी के रूप में पेश न कर दिया जाए आम जनता की भावनाओं में निखार लाने और उसकी संवेदनागत संकुचितताओं को दूर करने की प्रक्रिया सीधी सपाट नहीं होती। इस काम को पूरा करने के लिए यह जरूरी नहीं कि शोषक वर्गों और शोषित जनता के बीच बढ़ते हुए राजनैतिक संघर्ष को ही सीधे-सीधे रचना की विषयवस्तु बना दिया जाए। आम लोगों की स्थिति क्या है और उसके बारे में कौन सी प्रतिक्रियाएं गलत और कौन सी सही हैं, गलत प्रतिक्रियाओं के संस्कार हमारे अंदर कैसे पनपाए जाते हैं? और उनसे छुटकारा कैसे पाया जा सकता है? इन सवालों के प्रति श्रोता के अंदर भावनात्मक जागरुकता पैदा कर देना भी जनवादी रागनी लिखने वालों के लिए काफी है। इसके अलावा एक नसीहत देने वाले दृष्टा या वक्ता के रूप में आम जनता से मुखातिब होने की बजाय उसे एक ऐसे व्यक्ति की हैसियत से बोलना चाहिए जो लोगों के बीच रह कर उनकी भावनाओं में साझेदारी कर रहा है। रागनी को तर्क-वितर्क से बोझिल बना देने से भी उसका प्रभाव कमजोर पड़ जाता है, जनवादी रागनी लिखने वाले रचनाकारों को यह ख्याल रखना चाहिए कि मेहनतकश जनता की चेतना के विकास की समूची प्रक्रिया को एक रचना के माध्यम से पूरी कर दिखाने की वेसब्री न दिखाएं। रागनी में कथा-प्रसंग भी ऐसा चुना जाना चाहिए जिस से मेहनतकश जनता व्यापक रूप में प्रभावित हुई हो। इसके लिए आजादी की लड़ाई से कोई घटना उठाई जा सकती है या रोजाना की जिंदगी में घटने वाली ऐसी किसी घटना को चुना जा सकता है जिसमें मेहनतकश लोगों ने अन्याय और विपत्तियों का डट कर मुकाबला किया हो। पुरानी रूढिय़ों को तोड़ने में किसी साहसी व्यक्ति द्वारा की जाने वाली पहलकदमी को भी रागनी का आधार बनाया जा सकता है। क्योंकि जनवादी रागनी अभी अपने विकास के आरंभिक चरण में है, उसमें अभी उतनी प्रखरता या संस्पर्शिता नहीं आ पाती है जितनी कि पुराने किस्म की अच्छी रागनियों में विद्यमान रहती हैं। पर शुरुआत काफी अच्छी है। लोगों की दुखती रग को पकड़ने तथा उनकी संवेदना के स्वस्थ पक्ष को उभारने की यहां सही कोशिश होने लगी है। अगर उपदेश देने के अंदाज को छोड़कर स्वस्थ मानवीय भावनाओं की सहज और सुगम अभिव्यक्ति पर ही जोर दिया जाये तो अच्छा रहेगा। विषयवस्तु के चुनाव में भी कुछ और एहतियात बरतने की जरूरत है ताकि ऐसा न लगे कि लगभग सारी की सारी रागनियां चन्द एक राजनैतिक मुद्दों को ही बार-बार उठा रही है। फिर भी अब तक की उपलब्धियों के आधार पर जनवादी रागनी के विकास के बारे में आश्वस्त होना गैर वाजिब नहीं है।
DHM Channel पें गौहर खानकी हिंदू भजन रागिनी सुनी | तो जिग्यासा हुई हरयानवी रागनी क्या चीज होती है ? मैं महाराष्ट्रसे हूँ | देसी भासामें रूचि रखता हूँ | होते हुए यह विवेचन पढने माला | बहुत खुषी हुई |
रौशनी खान , हरयानवी रागनी गायिका की मुलाकित सुनी | गौहर खान नहीं !