जातिवाद जनविरोधी राजनीति का एक औजार – डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

            एक सामाजिक ढांचे के तौर पर ग्राम-समाज या विलेज कम्युनिटी ऐतिहासिक विकास का प्रतिफलन है। इसके उभरकर आने के बाद इतिहास में इसको बनाए रखने की भरसक कोशिशें हुई हैं। ग्राम-समाज का ढांचा नीचे से न बदले और उनमें जो भी बदलाव हो, वे सिर्फ  ऊपर से हों और शासकों की जरूरतों के अनुसार ही हों। इसके  लिए ग्राम-समाज को अपने से बाहर के व्यापक समाज से अलग-थलग रखा गया। इस अलगाव को बनाए रखने में जाति शासन-तंत्र के हाथों में एक सर्वाधिक कारगर वैचारिक औजार रही है।

            जाति को आसानी से धार्मिक जामा पहनाया जा सकता है। असल में जाति एक तरह की कबीलाई संरचना है। कबीलाई समाज के विकास के चरण में, जो सामाजिक प्रतिक्रियाएं होती हैं  –  खान-पान, ब्याह-शादी आदि जो रिवाज होते हैं  – उनमें एक तरह की सामुदायिक हिस्सेदारी होती है और इनका धार्मिक महत्व भी समझा जाता है। कबीलाई समाज में प्रकृति के विरुद्ध सामूहिक संघर्ष करते हुए उस दौर के मनुष्य ने एक सामुदायिक पहचान हासिल की थी। इस सामुदायिक व्यक्तित्व को जो अभिव्यक्ति कबीले में रहकर प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष के दौरान मिलती थी, उसी आत्मसंतोष को बाद में जाति के धार्मिक और सामाजिक क्रिया कलापों से  हासिल करने की कोशिश की गई। आर्थिक आधार टूटने पर भी जाति इस कबीलाई सामुदायिक व्यक्तित्व को कायम रखती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण पिछड़े समाज में जाति की भावनात्मक अपील इतनी ज्यादा होती  है कि यह ‘जादू’ की तरह असर करती है। इसीलिए कबीलाई विकास के बाद ऊपर कर आने वाली धार्मिक सामाजिक व्यवस्थाओं में बाकायदा प्रचार के माध्यम से, शास्त्रों के माध्यम से, जाति की इस संरचना को बरकरार रखने की सचेत कोशिश की गई। उसका एक मुकम्मिल दर्शन गढ़ा गया। यानी चेतना को सोची-समझी योजना के अनुसार इस तरह ढाला गया कि इसकी पुनप्र्रतिष्ठा होती रहे। जाति इस तरह सामुदायिक व्यक्तित्व की कबीलाई संरचना होने के कारण एक बहुत सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा भावनात्मक शोषण बहुत ही आसान है। असल में यह अफीम की तरह काम करती है। ग्राम समुदाय में खून के रिश्तों की बड़ी जगह है जो कि खुद एक कबीलाई संरचना है। यह सुलभ संरचना है, बनानी नहीं पड़ती और इसमें पोटैंसी (क्कशह्लद्गठ्ठष्4) बहुत है। इसलिए जात-पांत अपने आप नहीं टूट सकती। टूटने की स्थितियां पैदा होने पर भी इसके अनुकूलन की, नए हालात  में ढल जाने की ही अधिक संभावना रहती है।

            जाति व्यवस्था के बने रहने में हमारे समाज में उत्पादकता के निम्न स्तर और छोटे पैमाने के उत्पादन की बड़ी भूमिका रही है। इसके अलावा प्रकृति की कृपा पर लोगों की निर्भरता और हमेशा बनी रहने वाली लाचारी ने भी इसको तर्क दिया है। अपनी राजनीतिक आवश्यकता के कारण शासकों द्वारा ऊपर से इस पिछड़ी संरचना को लगातार पोषण मिला। उधर नीचे एक बंटे हुए और कमजोर समाज के चलते इसे कोई बड़ी चुनौती न मिल सकी।

            कबीलाई समाज की एक खास बात होती है कि इन्सान अपने खोल में बंद और बाहर की दुनिया से उदासीन रहता है। इस तरह जाति एक मानसिक नाकाबंदी (मैंटल ब्लोकेड) भी पैदा करती है, जिसके कारण आदमी बाहर की हर संभावना से कतराता है। वह अपनी संकीर्ण भावनाओं के दायरे में बंद रहता है और समाज के व्यापक हिस्सों के प्रति संवेदनशून्य बना रहता है। लोगों को बौद्धिक व भावनात्मक स्तर पर निष्क्रिय और कूपमण्डूक बनाकर ही जाति व्यवस्था को कायम रखा गया है। यानी पार्थक्य (इन्सुलेशन) का यह सांचा सामाजिक स्तर पर ही नहीं, व्यक्तिगत स्तर पर भी बनाए रखा गया। धर्मशास्त्रों की मदद से ही नहीं, बल्कि चेतना और भावनाओं को संकीर्ण बनाकर भी जाति को कायम रखा गया है। न दिखाई देने वाली दीवारें लोगों के बीच खड़ी कर दी गईं, ताकि लोग संगठित न हो सकें। जाति का यही वैचारिक पक्ष है।

            अंग्रेजों के जमाने में और पहले भी जब-जब  मंडी का विस्तार हुआ तो इस तरह की संकीर्ण चेतना को चुनौती मिली। मध्य युग (मुगल काल) में शहरों में वाणिज्य से जुड़े शहरी दस्तकारों और तिजारती लोगों ने एक नई संस्कृति और भाषा विकसित की जो इन संकीर्ण सांचों को तोड़ती थी। अंग्र्रेजों ने ग्राम समाज की स्वत: सम्पूर्णता को तो तोड़ा, लेकिन साथ ही यहां के दस्तकारों को तबाह किया और दरिद्रीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी। निचले स्तर पर जीवनयापन का आधार और भी संकुचित कर दिया। पहले जो लगान का एक हिस्सा क्राफ्ट्स पर खर्च होता था, अब बाहर जाने लगा और आर्थिक उत्पीड़न बेहद बढ़ गया। इसके अलावा अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर एक ऐसा वर्ग पैदा किया जो परजीवी, अमानवीय और समाज से अलग-थलग था। 1848 के बाद से यूरोप में पूंजीपति वर्ग जनतांत्रिक मूल्यों, वैज्ञानिक चिंतन और नए विचारों के प्रति आशंकित हो गया था और प्रतिगामी तत्वों से हाथ मिलाने लगा था। हिन्दुस्तान में आकर भी उसने ऐसे तत्वों को खोजना शुरू किया और यहां के पुराने ढांचे को बनाए रखना जरूरी समझा।

            अंग्रेजी शासन ने समस्त भारतीय जनता में साम्राज्यवाद विरोधी भावना पैदा करके एकजुट होने की जरूरत और संभावना तो पैदा की, लेकिन इस एकता का जो प्रारूप राष्ट्रीय आंदोलन में उभरा वह सभी धर्मों, सभी जातियों के गठबंधन और सहयोगियों का था और उसमें पुनरुत्थानवाद का अंश काफी था। जातियां टूटें इसके बजाए वे  बनी रहीं, बल्कि उनका विस्तार हुआ। जाति, देश और धर्म के सुधार और उद्धार की बातें एक साथ हुई। राष्ट्रीयताओं में एकता पर बल दिया गया, इसके साथ ही जातियों की एकता भी मजबूत की गई। उनका आधार क्षेत्र बढ़ाने की भी कोशिशें हुईं। जाति वंशानुगत या रक्त संबंधों पर आधारित इकाई न हो कर वस्तुत: एक क्षेत्रीय इकाई है। अलग-अलग क्षेत्रों में बसने वाली एक या एक जैसी जातियों में भाषा, खानपान, रीति-रिवाज बहुत अलग-अलग किस्म के हैं, फिर भी उन्हें एक करने की कोशिश, राष्ट्रीय आंदोलन के युग में हुई। समाज सुधार और अछूतोद्धार के अधिकांश आंदोलनों ने पुरानी संस्थाओं को तोड़ने के बजाए नई जरूरतों के अनुकूल ढाल लिया। पुराने ढांचे की कठोरता को कम करके उनमें एक लचीलापन पैदा कर लिया पर उन्हें बनाए रखा। जात-पांत के उत्पीड़न को चुनौती देने वाले आंदोलनों की अपील और मोबिलाईजेशन भी प्राय: जाति के दायरे में ही, जाति को केंद्र बनाकर ही हुई। उन्होंने ऊंच-नीच की भावना पर भले ही आघात किया हो पर उनकी लड़ाई जाति व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने तक सीमित होकर रह गई।

            जातिवाद सिर्फ एक पिछड़ी हुई सामाजिक संरचना ही नहीं है, बल्कि आज के युग में खासतौर पर वह जनविरोधी राजनीति का एक रूप है, एक नियमित औजार है। जाति के इस तरह के इस्तेमाल की संभावनाएं इस संरचना की कुछ ऐतिहासिक विशेषताओं से जुड़ी हुई हैं।

            ग्राम समाज की संरचना के दो-तीन पहलू थे। एक तो यह कि उसमें भूमि का असमान वितरण था और अधिक संख्या भूमिहीनों की थी। जाति व्यवस्था, भूमिहीनों को भूमिहीन बनाए रखने और दबाए रखने और कम या ज्यादा जमीनें रखने वालों को भूमिहीनों के खिलाफ एकत्र रखने की दुहरी जरूरत पूरी करती थी। ग्राम समाज अपने बाहर के समाज और ऊपर के शासन के मुकाबले एक इकाई की तरह था, लेकिन भीतर से विभाजित था। इसके अलावा निचले स्तर पर उत्पादकता का, हुनर का स्तर नीचा था, सिर्फ जीवनयापन लायक था, लेकिन उसी से इतना ‘सरप्लस’ खींचा जा सकता था कि शासन का ढांचा चल सके। जब लोहे का इस्तेमाल काश्तकारी में हुआ और जंगल साफ किए गए तो नई बसावटें हुई। जंगल में रहने वालों को हराकर भूमिहीन बनाया गया। जाति का विकास इस प्रक्रिया से जुड़ा रहा है। शासनतंत्र की नीति रही कि श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के बजाए, उत्पादन का क्षेत्रीय विस्तार किया जाए, सिंचाई आदि की कुछ सुविधाएं दे दी जाएं। नीचे छोटी-छोटी इकाईयां फैलती गईं और ऊपर उपभोक्ता केंद्रों, सेना और राज्य का भारी ढांचा उस पर टिका रहा। नीचे के ढांचे में अंदर से इतनी ताकत नहीं आ सकती थीं कि वह कोई बड़ी चुनौती दे सके – क्योंकि वह भीतर से विभाजित था और उसमें शासनतंत्र का एक ऐसा नुमाइंदा भी बैठा था जो ग्राम-समाज का नेतृत्व भी करता था। भूमि बेइंतहा होने के बावजूद भूमिहीनों का होना और जबरन बंधे रहना इस तरह के ‘सैटलमैंटस’ (settlements) की शारीरिक विशेषता थी और जाति-व्यवस्था इसे मुमकिन बनाती थी। यह भी लगता है कि जब वंशानुगत इकाईयां (लीनीएज की यूनिट) क्षेत्रीय (टैरीटोरियल) रूप लेती हैं तो जाति बन जाती हैं। यानी रक्त संबंध और जन्म-जन्मांतर का भाईचारा टूटकर एक धार्मिक किस्म की सामाजिक संस्था का रूप ले लेता है।

            जातियों के फैलाव को कुछ लोग दस्तकारियों और पेशों के फैलाव से जोड़ते  हैं, तो कुछ लोग रक्त के सम्मिश्रण और वर्णसंकर जातियों के विस्तार से। यह गलत है। असल में जातियां सभ्य समाज, टिकाऊ खेती और पशुपालन पर आधारित सामाजिक ढांचे के फैलाव की देन हैं। इस फैलाव के दौरान कमजोर कबीलों को अपने अंदर समाविष्ट करके उन्हें एक स्तरीकृत (hierachial) ढांचे में जगह दे दी गई। उनकी आंतरिक एकरूपता और सामाजिक विशेषताओं को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। वर्ण व्यवस्था का मतलब यही स्तरीकृत ढांचा था, न कि कुछ जातियां। इस पूरे संतुलन की विशेषता यह थी कि इसके भीतर से कोई चुनौती खड़ी होना बहुत कठिन था। परस्पर असमानता को चुनौती दिए बिना, अपनी आंतरिक एकरूपता को विचलित किए बिना, शासनतंत्र के अंतर्गत इसका विस्तार होता रह सकता था। यही हुआ। कई बार इस ढांचे में विरोध का स्वर भी उठा। कई बार पूरे के पूरे ग्राम समाज शासनतंत्र के खिलाफ खड़े हुए, पर थोड़े हेर-फेर के साथ उन्होंने फिर उसी तरह का ढांचा बना लिया। इस ढांचे में (मसलन मध्यकाल में) कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इसमें पतन के काल भी हैं और उत्थान के भी, लेकिन मोटे तौर पर यह ढांचा आधुनिक काल तक चला आता है।

            आजादी के बाद के दौर में हमारे शासक वर्ग का भारतीय जनता के साथ विरोध बढ़ता चला गया है। जनता को दबाने-कुचलने और बांटे रखने में ही उसका हित उन्हें दिखाई देता है। पूंजीपति वर्ग में इजारेदार वर्ग, जिसका जन विरोधी चरित्र सबसे मुखर है, उसका गलबा दिनोंदिन बढ़ता गया है। भूस्वामी वर्ग से उनका गठबंधन मजबूत होता गया है। ग्राम समाज के दिनों का पुराना तर्क किसी न किसी रूप में अभी भी काम कर रहा है कि जनता की उत्पादक शक्तियों को कमजोर बनाए रखो। लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाकर या बाजार का विस्तार करने के बजाए भूस्वामियों से समझौता करके और मुनाफा बढ़ाकर यहां का पूंजीपति वर्ग अपना विकास करना अधिक सुरक्षित समझता है। उसकी जरूरत है कि लोगों की चेतना को न उभरने दिया जाए, उनकी एकजुटता न बनने दी जाए। पिछड़ेपन और संकीर्णताओं को खत्म  करने के बजाए पनपाना, बढ़ाना उनकी राजनीतिक जरूरत बन गई है। इसीलिए राजनीति में जाति की घुसपैठ लगातार बढ़ती जा रही है।

हरियाणा में साम्प्रदायिक, धार्मिक विभेद अपेक्षाकृत कम होने के कारण शासक वर्गों की विभाजनकारी राजनीति का मुख्य औजार जाति है। यह नहीं सोचना चाहिए कि जहां छोटी-छोटी जातियां अधिक हों और बड़े भूस्वामी अपेक्षाकृत कम हों तो वहां जाति का प्रभाव कम होगा। यहां का छोटा किसान इसीलिए भूमिहीन के मुकाबले धनी किसान के करीब अपने को ज्यादा मानकर चलता है।

            जब तक क्रांतिकारी विकल्प और संभावनाएं निखर कर ठोस रूप नहीं लेती और लोगों को काल्पनिक लगती हैं, तब तक व्यापक जनता में जात-पांत के तर्क का असर किसी न किसी रूप में रहेगा। जात-पांत एक तरह का अवसरवादी और तात्कालिक विकल्प है। जब संघर्ष का रास्ता लोगों को दूर का लगता है, तब तक छोटे-छोटे लाभों के लिए वे ऐसे ही झूठे, लेकिन सहज सुलभ लगने वाले तरीकों के फेर में पड़ते हैं। यही कारण है कि जो  लोग जात-पांत की विचारधारा में यकीन नहीं करते, वे भी इसके कुचक्र में फंस जाते हैं। जब तक लोग इतिहास के निर्माता की भूमिका नहीं संभालते, संघर्ष का रास्ता चुन नहीं लेते, तब तक जाति राहत का झूठा सुख देने का सहज सुलभ माध्यम नजर आएगी। कई लोगों के लिए तो जाति लगभग विधि का विधान है, स्वयं सिद्ध है जिसे किसी प्रमाण की जरूरत नहीं। उससे बेहतर किसी सामाजिक संरचना की कल्पना भी उन्हें दुर्गम लगती है। जाति उन्हें उसी तरह स्वाभाविक लगती है जैसे दिन का निकलना। जो चीज दूसरी प्रकृति बन गई हो उसकी कृत्रिमता को बताना, यह बताना कि यह आपके वास्तविक व्यक्तित्व से बाहर की कोई चीज है, एक कठिन काम है। यह ठीक है कि लोगों के दैनिक अनुभव में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो जात-पांत की अतार्किकता और असंगतता दिखला सकती हैं। लेकिन हर बार वे अपने अनुभव से तार्किक निष्कर्ष ही नहीं निकालते। जाति लोगों के काम नहीं आती धोखा सिद्ध होती है तब भी लोग उस सांचे में ही निष्कर्ष निकालते हैं। क्योंकि सांचा बना हुआ है। निष्कर्ष निकालने की भी पद्धतियां बन जाती हैं। जब तक पुरानी पद्धतियां नहीं टूटतीं और नई पद्धतियां विकसित नहीं होती, तब तक लोग अपने अनुभव से भी अतार्किक निष्कर्ष ही निकालते हैं। जात-पांत का विचार अपने आप नहीं टूट सकता। लोगों को खींच कर उससे बाहर निकालना पड़ेगा। श्रमजीवी वर्ग तक अपनी ऐतिहासिक भूमिका के बारे में अपने-आप सचेत नहीं हो जाता, मध्यवर्ग से तो यह उम्मीद की ही नहीं जा सकती।

            सिर्फ कुछ सतही या प्रतीकात्मक तरीकों से जाति का उन्मूलन करने की बात सोचना ख़ामख्य़ाली है। मसलन, कुछ लोग अंतर्जातीय विवाह को जाति को समाप्त करने का उपाय बताते हैं। राजनीतिक बदलाव का कोई व्यक्तिगत विकल्प या हल नहीं है। सामाजिक समस्या को व्यक्तिगत निर्णय से नहीं सुलझाया जा सकता। इसका मतलब सिर्फ यह होगा कि जाति बनी रहे और एक सुरक्षा वाल्व भी लगा दिया जाए। स्वागत योग्य कदम होते हुए भी अंतर्जातीय विवाह से जाति-व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता। जाति व्यवस्था की समाप्ति बुनियादी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक बदलाव के साथ जुड़ी है और गहरे विचारधारात्मक संघर्ष की मांग करती है।

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ओम प्रकाश ग्रेवाल

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल
(1937 – 2006)

हरियाणा के भिवानी जिले के बामला गांव में 11 जुलाई 1937 को जन्म हुआ।भिवानी से स्कूल की शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त की।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। कला एवं भाषा संकाय के डीन तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डीन एकेडमिक अफेयर रहे।

जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं महासचिव रहे। जनवादी सांस्कृतिक मंच हरियाणा तथा हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के संस्थापकों में रहे। साक्षरता अभियान मे सक्रिय रहे।

‘नया पथ’ तथा ‘जतन’ पत्रिका के संपादक रहे।

एक शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों, शिक्षक सहकर्मियों व शिक्षा के समूचे परिदृश्य पर शैक्षणिक व वैचारिक पकड़ का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया। हिंदी आलोचना में तत्कालीन बहस में सक्रिय थे और साहित्य में प्रगतिशील रूझानों को बढ़ावा देने के लिए अपनी लेखनी चलाई। नव लेखकों से जीवंत संवाद से सैंकड़ों लेखकों को मार्गदर्शन किया।

वे जीवन-पर्यंत साम्प्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, सामाजिक अन्याय, स्त्री-दासता के सांमती ढांचों के खिलाफ सांस्कृतिक पहल की अगुवाई करते रहे। प्रगतिशील-जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता उनके व्यवहार व लेखन व वक्तृत्व का हिस्सा हमेशा रही।

गंभीर बीमारी के चलते 24 जनवरी 2006 को उनका देहांत हो गया।

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