जॉर्ज लूकाच -डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

साहित्यिक मसलों की मार्क्सवादी दृष्किोण से व्याख्या करने वाले समर्थ आलोचकों में लूकाच का नाम आता है। किन्तु उनकी कुछ मुख्य स्थापनाओं के बारे में मार्क्सवादी चिन्तकों में काफी मतभेद भी रहा है। साहित्य में आधुनिकतावाद तथा बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद के संबंध में उनकी अवधारणाओं को भी इसी कोटि में रखा जा सकता हैं हिन्दी-साहित्य के विवेचन में हम इन धारणाओं का कहां तक सहारा ले सकते हैं, इसका निर्णय करने से पहले हमें इनका ठीक-ठीक अर्थ समझ लेना चाहिए। क्योंकि लूकाच ने इन अवधारणाओं का प्रतिपादन यूरोप के बुर्जुआ-साहित्य में यर्थाथवाद की पहचान बताते समय किया है, अत: इनके सही अर्थ को समझने के लिए यह उचित होगा कि बुर्जुआ-साहित्यधारा के विकास के संबंध में उनकी चर्चा पर नजर डालें। प्रस्तुत लेख में इस प्रकार के सर्वेक्षण का प्रयास किया गया है।

            यथार्थवाद को लूकाच साहित्यिक रचना की श्रेष्ठता का ही एक आवश्यक लक्षण मानते हैं और उसे वे किसी रूप या विधा से जुड़ा हुआ नहीं देखते। इतिहास विकास-प्रक्रिया के दौरान मानव-अनुभव में नये आयाम जुड़ते चले जाते हैं और इस विकासक्रम के भिन्न-भिन्न बिन्दुओं पर नये-नये सवाल और मसले उभर कर सामने आते हैं। साहित्य में व्यक्त होने वाले सभी महत्वपूर्ण मानवीय अनुभव अपनी अनुरूप विधाओं अथवा रूपों के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। किसी भी कलाकृति में प्रेषित अनुभव के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए उसके रूप और शिल्प पर भी अवश्य ध्यान केन्द्रित करना होता है, परन्तु जब तक हम रूप और शिल्प-संबंधी प्रयोगों को उन ऐतिहासिक परिस्थितियों से संबंद्ध करके नहीं देखते जिनमें रह कर रचनाकार ने अपनी कृति का सर्जन किया है, हम रचना में प्रेषित अनुभव की सही समझ नहीं प्राप्त कर सकेंगे। लुकाच के अनुसार साहित्य वास्तविक जीवन के सारभूत तत्वों का प्रतिबिंब होता है। जिस साहित्यिक कृति में सामयिक जीवन के वे सभी सारभूत तत्व जो ऐतिहासिक दृष्टि से अनिवार्यता प्राप्त कर चुके हैं, अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ इस प्रकार परिलक्षित होते हैं कि मानव जीवन के उस ऐतिहासिक पड़ाव का सही नक्शा या पैटर्न एकदम तीव्र और प्रखर रूप में हमारे सामने उभर आता है तो उसे हम यथार्थवादी कहेंगे। जाहिर है कि इस पैटर्न अथवा नक्शे को अपनी रचना के माध्यम से उजागर करने के लिए साहित्यकार को उसी विधा अथवा शिल्प का चुनाव करना पड़ेगा जो उसके अपने अनुभव का मूर्त रूप में व्यक्त करने के लिए उपयुत्तफ हों। यदि साहित्यकार पहले से उपलब्ध शिल्प-प्रणाली को अपनाता है, तो उसे उसमें कुछ आवश्यक परिवर्तन करने पड़ेगे ताकि जो कुछ वह कहना चाहता है उसके लिए वह उपयुक्त साधन बन सके। इसके अलावा अपने कथ्य को सही रूप प्रदान करने के लिए उसे कुछ नये शिल्पगत परीक्षण भी करने पड़ते हैं। कथ्य और कथन को एक-दूसरे से अलग करके केवल कथ्य के आधार अथवा शिल्प के आधार पर हम यह नहीं बता सकते हैं कि किसी कृति में यथार्थवाद का निर्वाह हो पाया है या नहीं। उसके यथार्थवादी होने की एकमात्र कसौटी यही है कि वह यथेष्ट रूप में वस्तुपरक जीवन को समग्रता के साथ प्रतिबिम्बित करती हो।

            यथार्थवादी साहित्य की रचना करने में सफल होने के लिए साहित्यकार की जीवनदृष्टि कैसी हो इसके बारे में लूकाच ने कुछ आधारभूत विशेषताओं का वर्णन किया है। साहित्य में यथार्थवाद बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि रचनाकार व्यक्ति को समाज से अलग करके न देखता हो। किसी भी व्यक्ति के अनुभव का बहुत सारा महत्वपूर्ण भाग उसकी सामाजिक गतिविधियों में ही निहित रहता है, जो रचनाकार व्यक्ति की इन गतिविधयों को उसके व्यक्तित्व की सार्थक अभिव्यक्ति नहीं मानते और व्यक्ति की अस्मिता को उसके निजी अनुभवों तक ही सीमित रखते हैं, वे उसके वास्तविक जीवन का एकांगिक चित्र ही प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने समाज के विशिष्ट ढांचे से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता तो भी इसका यह मतलब नहीं कि हम उसके सामाजिक जीवन को एकदम नजरअन्दाज कर दें। यदि एक व्यक्ति को वह समाज-व्यवस्था पसंद नहीं है जिसके अन्दर वह जी रहा है तो उसके बहुत सारे महत्वपूर्ण अनुभव उस व्यवस्था के विरोध से निर्धारित होंगे तथा इस विरोध और टकराव के माध्यम से उसे उस समाज-व्यवस्था के अस्तित्व का तीखा अनुभव होता रहेगा। गौर से देखा जाये तो पता लगेगा कि जिसे हम पूर्णतया निजी अनुभव मान लेते हैं उसमें भी बाह्य जीवन के विभिन्न दबाव मौजूद रहते हैं, व्यक्ति की गुह्यतम निजी अनुभूतियों के निर्माण में भी बाह्य जीवन के प्रभाव को हम स्पष्ट देख सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अकेला या अपने-आप में सम्पूर्ण इकाई नहीं होता, उसका सारा-का-सारा व्यक्तित्व उसके अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग-विरोध के पेचीदा संबंधों से गठित होता है। व्यक्ति की अस्मिता की खोज करते समय यदि हम उसकी अन्य व्यक्तियों के साथ होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया को, नजरअंदाज करते हैं तो उसकी अस्मिता के बारे में हमारी धारणा अमूर्त बनकर रह जायेगी। बाह्य स्थिति से व्यक्ति के संबंधों को अस्वीकार करके उसके वस्तुपरक जीवन को समग्रता के साथ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। परन्तु पूंजीवादी समाज में सतही तौर पर प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग दिखायी देता हैं। उपभोक्ता के रूप में वह अपने निर्णय पूरी स्वछन्दता के साथ लेता प्रतीत होता है। पूंजीवादी-व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पादन प्रक्रिया का अधिकाधिक केन्द्रीकरण और विस्तार होता जाता है। जिससे बहुत सारे व्यक्तियों की नियुक्तियां एक साथ जुड़ जाती हैं और उनके बीच शोषक या शोषित होने के तनावपूर्ण संबंध घनिष्ठ होते जाते हैं। परन्तु वितरण के क्षेत्र में अराजकतापूर्ण स्वछन्दता बनी रहने के कारण उत्पादन-क्षेत्र के उनके ये घनिष्ठ संबंध लगभग छिपे रहते हैं। इसीलिए व्यक्ति की चेतना में निजबद्धतापूर्ण व्यक्तिवादी धारणाएं पनपती रहती हैं। इस अराजकतापूर्ण स्वछन्दवाद से बुर्जुआ-वर्ग के हितों की पुष्टि होती है क्योंकि  इससे व्यक्तियों के बीच स्थापित हाने वाले वर्गगत संबंधों पर और उनकी सामाजिक परस्पर-निर्भरता पर पर्दा पड़ जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था व्यक्ति की चेतना में कुछ इस प्रकार की एकांगिता उत्पन्न कर देती है जिससे वह अपने आपको एक ऐसी इकाई मानने लगता है जिसकी सत्ता समाज से अलग और परे है, उसे जब कभी समाज के व्यापार में भाग लेना पड़ता है तो उसे लगता है कि उसकी सत्ता कुछ हद तक खंडित हो रही हो। इस प्रकार के चिन्तन से बुर्जुआ-साहित्य में आरम्भ से ही सामाजिक वस्तुस्थिति के चित्रण में कुछ अमूर्तता आ जाती है और उसमें यथार्थवाद का पूर्णतया निर्वाह नहीं हो सकता। परन्तु जब तक बुर्जुआ-वर्ग मानवता के जनतांत्रिक अधिकारों के नाम पर सामंतवाद के विरूद्ध अपनी लड़ाई जारी रखता है। और जब तक बुर्जुआ वर्ग उत्पादन के साधनों का विस्तार करता हुआ किसी समाज के ऐतिहासिक विकास में प्रगतिशील भूमिका निभाता है, बुर्जुआ व्यक्तिवाद व्यक्ति से संबंधित अमूर्तता साहित्य में यथार्थवाद को बहुत अधिक ठेस नहीं पहुंचा पाती, उस युग के बुर्जुआ साहित्य में सामाजिक परिवर्तन की समूची रूपरेखा झिलमिलाती हुई देखी जा सकती है और ऐतिहासिक विकास की अनिवार्य एवं वांछनीय दिशा भी वहां परिलक्षित हो जाती है। व्यक्ति को उस समय एक अलग-थलग पड़ा हुआ द्वीप नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के प्रवाह का एक आवश्यक अंग माना जाता है। उस समय का बुर्जुआ-चिन्तन मुख्यतया या तो भाववादी क्रांतिकारी मानवतावाद का रूप लेता है या फिर अनुभववादी भौतिकवाद का। इन दोनों ही चिन्तन-प्रणालियों में बाह्य-जीवन की वस्तुपरकता को एकदम नकारा नहीं जाता। इसीलिए इस युग का प्रत्येक समर्थ साहित्यकार अपने बुर्जुआ आदर्शों की अभिव्यक्ति करते समय अपने आसपास के जीवन के समस्त सारभूत तत्वों को लगभग समेट लेता है। परन्तु उस प्रगतिशील दौर में भी बुर्जुआ-चिन्तन अधिकतर गैर-द्वंद्वात्मक ही बना रहता है, इसलिए उस समय का बुर्जुआ साहित्यकार भी सामयिक जीवन के सभी अन्तर्विरोधों की एक पूर्णतया सही तस्वीर नहीं दे पाता।

            मानव की सामाजिकता के प्रखर एहसास के साथ ही साहित्य में यर्थाथवाद बनाये रखने के लिए एक और अनिवार्य शर्त है, मानव के ऐतिहासिक विकास की परिकल्पना। यदि कोई साहित्यकार यह नहीं पहचानता कि उसके आसपास का जीवन गतिशील है, उसमें निरंतरता भी है और परिवर्तन भी, जो कुछ आज उसके सामने है उसका मूलाधार भूतकाल में है और जो आगे होगा उसकी संभावनाएं भी वर्तमान में अन्तर्निहित हैं, तो उसकी रचनाओं में यथार्थवाद कायम नहीं रह सकेगा, क्योंकि तत्कालीन जीवन के सारभूत तत्वों से निर्मित होने वाले पैटर्न को वह नहीं पकड़ पायेगा। साहित्य में यथार्थवाद का गुण तभी संभव होता है जब लेखक इतिहास की मुख्य गतियों से वाकिफ है और उसके पास एक सही दिशाबोध है, जो कुछ घटित हो रहा है उसमें उसे तारतम्यता, सार्थकता और सोद्देश्यता दिखायी देती है। यदि कोई साहित्यकार मानव-समाज को तथा मानव-स्वभाव को एक जटिल किन्तु निश्चित विकास प्रक्रिया का प्रतिफलन न मानकर स्थिर और अपरिवर्तनीय समझता रहता है और यदि घटनाओं के क्रम में उसे कोई संगति अथवा लक्ष्य नहीं दिखायी देता तो उसकी रचनाओं में यथार्थवाद बहुत ही क्षीण पड़ जायेगा, बाह्य-जीवन तो उसे एक अनबूझ पहेली लगेगा ही, मानव-व्यक्तित्व की उसकी अवधारणा भी सतही बनकर रह जायेगी। जब तक बुर्जुआ-वर्ग में समाज को जनतांत्रिक क्रांति द्वारा बदल डालने का दृढ़ विश्वास बना रहा तब तक बुर्जुआ-साहित्यकारों की रचनाओं में, कुछ सरलीकृत रूप में ही सही, समाज के क्रमिक विकास का आभास भी झलकता रहा तथा मानवजीवन की उनकी कल्पना में गतिशीलता बनी रही, ठहराव नहीं आया। मानव-व्यक्तित्व को उन्होंने एकदम बनी-बनायी वस्तु नहीं मान लिया, बल्कि बाह्य जीवन में व्यक्ति द्वारा किए जानेवाले निर्णायक हस्तक्षेपों के माध्यम से उन्होंने उसका गठन और क्रमिक विकास होते देखा।

            बुर्जुआ-क्रांति की सफलता के पश्चात पूंजीवादी-व्यवस्था के अन्तर्विरोध खुलकर सामने आ गये। किस प्रकार के समाज का उस समय निर्माण हुआ उसमें विशेषीकरण की मात्रा बढ़ती चली गई और व्यक्ति एक सीमित ढर्रे में अपना जीवन व्यतीत करते रहने पर विवश हो गया। शोषण-संबंधों की पकड़ तीव्र हो जाने पर मेहनतकश जनता की मानवीयता की पहचान ही मिटने लगी। समाज में हो रहे इस प्रकार के निरन्तर परिवर्तन का बुर्जुआ-वर्ग के भाववादी तत्व पूर्णतया अनुमोदन नहीं कर सके। उनमें से कुछ व्यक्तियों ने इस परिवर्तन की अनिवार्यता और विकरालता दोनों को ही पहचानते हुए उस समय के समाज की ओर आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपना लिया। जो भाववादी क्रांतिकारी मानवतावाद उन्हें विरासत में मिला था उसमें उनकी आस्था बनी रही, परन्तु उनका भोलापन अब खत्म हो गया। जिन बुर्जुआ आदर्शों के आधार पर उन्होंने मानव-व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की आशा की थी, उन्हीं आदर्शों के नाम पर बने वास्तविक समाज में उन्हें वह विकास फलीभूत होते दिखाई नहीं दिया, इससे मानव-विकास और सामाजिक-परिवर्तन की अनिवार्यता में उनका विश्वास नहीं डगमगाया, परन्तु अपने आदर्शों की धार पर सामयिक जीवन की विकृतियों को परखते हुए उन्होंने उसका व्यंग्यपूर्ण चित्रण अपनी रचनाओं में पेश करना आरम्भ कर दिया। तत्कालीन समाज में व्याप्त अन्तर्विरोधों और असंगतियों का प्रखर चित्रण हम उस समय के प्रमुख उपन्यासकारों की रचनाओं में देख सकते हैं। इस युग के साहित्यकारों के यथार्थवाद को लूकाच ने आलोचनात्मक यथार्थवाद की संज्ञा दी है। क्रांति से पहले के बुर्जुआ लेखकों के चिन्तन में द्वन्द्वात्मकता बहुत कम थी। परन्तु यथार्थवादी साहित्य के सर्जन के लिए लेखक के चिन्तन का द्वन्द्वात्मक होना जरूरी है, वरना वह मानव-जीवन के सभी अन्तर्विरोधों को तथा तत्कालीन समाज में सक्रिय परस्पर विरोधी शक्तियों के टकरावों को भलीभांति नहीं समझ पायेगा। गैर-द्वन्द्वात्मक चिंतन के आधार पर तो वस्तुस्थिति के गिने-चुने पक्षों को ही छुआ जा सकता है, उसके विभिन्न घटकों को परस्पर जोड़ने वाले अप्रत्यक्ष संबंधों को पहचानना कठिन हो जाता है। इसीलिए इस प्रकार के चिन्तन के आधार पर साहित्यकार अक्सर अपने जीवन की कुछ सपाट-सी तस्वीर पेश कर सकता है और उसकी समग्रता को परिलक्षित करने में असफल रहता हैं क्रांति के पश्चात आने वाले बुर्जुआ लेखकों की चिन्तन प्रणाली में, तत्कालीन समाज के अन्तर्विरोधों के उभर आने के कारण, द्वन्द्वात्मकता की मात्रा काफी बढ़ गई। क्योंकि इस समय के बुर्जुआ साहित्यकारों में मानव-स्वभाव और जीवन की सामाजिकता, ऐतिहासिकता तथा द्वन्द्वात्मकता की पकड़ काफी मजबूत बनी रही, इसीलिए यथार्थवाद की उनकी उपलब्धि भी उच्च स्तर तक पहुंच गई। यदि उनकी कोई सीमा थी तो यह कि वे अपनी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक विकास को रूपांतरित करने के लिए आवश्यक सामाजिक-राजनैतिक क्रांति की स्पष्ट कल्पना नहीं कर सके और इस प्रकार सामाजिक विकास का उनका लक्ष्य यूरोपियन ही बना रहा। उनका यथार्थवाद प्राय: तत्कालीन समाज के मिथ्याचार और आडंबर पर चुभते हुए व्यंग्य, विगत-महानता के भावपूर्ण स्मरण तथा भाववादी आदर्शों के व्यर्थ हो जाने की प्रक्रिया के करुण चित्रण तक ही सीमित रहा। किन्तु लूकाच साहित्य में यथार्थवाद लाने के लिए इतना-भर पर्याप्त समझते हैं कि लेखक अपनी रचनाओं में सही और केन्द्रीय सवालों को उठा सके, भले ही वह उनके ठोस उत्तर न जुटा सके। लूकाच के अनुसार इस युग के प्रमुख बुर्जुआ साहित्यकार अपनी श्रेष्ठ रचनाओं में इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इसीलिए वे इनके यथार्थवाद को उच्चकोटि का मानते हैं और इनकी साहित्यिक उपलब्धि को प्राय: मानदण्ड के रूप में स्वीकार कर लेते हैं।

            लूकाच के अनुसार यथार्थवादी साहित्य की दो मुख्य पहचान हैं- एक तो पात्रों और उनकी स्थितियों का प्रातिनिधिक होना तथा दूसरे सही परिप्रेक्ष्य का बने रहना। प्रातिनिधिक होने का अर्थ है–विशिष्ट और सामान्य का संघटित हो जाना। कोई भी प्रातिनिधिक वस्तु, पात्र अथवा स्थिति अधिक विशिष्टता लिये हुए होगी, सामान्य सत्य का समावेश भी उसमें उतना ही होगा। सामान्य को विशिष्ट पर थोंप देने से प्रातिनिधिकता नहीं उत्पन्न की जा सकती और न ही विशिष्ट के सामान्य से अलग करके ऐसा किया जा सकता है। सही परिप्रेक्ष्य के आधार पर जीवन में बाहुल्य में से सारभूत तत्वों का चुनाव किया जाता है तथा इससे ऐतिहासिक विकास की मुख्य धाराओं की गतियों एवं उनकी दिशा का अनुमान लगाया जाता है। सही परिप्रेक्ष्य से ही लेखक अपने समय के अहम मसलों को पहचानता है तथा उन स्थितियों की कल्पना करता है जहां उन अहम मसलों को अधिकतम तीव्रता के साथ महसूस किया जा सकता है। लूकाच के अनुसार केवल वही लेखक यथार्थवादी साहित्य की रचना कर सकता है जो अपने समय के सबसे प्रगतिशील वर्गों के उद्देश्यों और प्रयोजनों द्वारा निर्धारित होने वाले सामाजिक विकास की दिशा को पहचानकर उसकी अनिवार्यता को स्वीकारता हो। यदि सचेष्ट रूप से वह किसी अन्य वर्ग के दृृष्टिकोण को अपनाये हुए हो तो भी यह जरूरी है कि साहित्य की रचना करते समय उसका यह दृष्टिकोण बहुसंख्यक जनता की नियति से संबंद्ध सभी उल्लासों और पीड़ाओं को सीधे-सीधे महसूस करने में रूकावट न बनता हो। एक यथार्थवादी साहित्यकार अपने युग की प्रमुख घटनाओं को असम्पृक्त बने रहकर नहीं देखता, बल्कि उस युग के सबसे अधिक प्रगतिशील तत्वों का पक्षधर होकर उनमें निर्णायक हस्तक्षेप करता है।

            जाहिर है कि यथार्थवादी साहित्य की इन आवश्यक शर्तों को भिन्न प्रकार की  चिन्तन-पद्धतियों और भाव-प्रणालियों को अपनाने वाले लेखक पूरा कर सकते हैं यूरोपीय देशों में बुर्जुआ क्रांति से पूर्व और उसके कुछ समय बाद तक। जैसा कि ऊपर दिखाया गया है, बुर्जुआ-वर्ग के हितों से जुड़े हुए चिन्तन में कुछ ऐसी विशेषताएं थीं कि उस समय के समर्थ साहित्यकार बुर्जुआ आदर्शों को अपनाते हुए भी यथार्थवादी साहित्य का सर्जन कर सके, परन्तु धीरे-धीरे यह स्थिति बदल गई। ज्यों-ज्यों सर्वहारा-वर्ग संगठित होकर बुर्जुआ-वर्ग की प्रभुसत्ता के लिए खतरा बनता दिखायी देने लगा और ज्यों ही यह स्पष्ट होने लगा कि शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था लगातार तीव्र होते हुए अपने अन्तर्विरोधों के कारण हमेशा संकटग्रस्त ही बनी रहेगी, सामाजिक विकास में बुर्जुआ-वर्ग की भूमिका में एक मूलभूत परिवर्तन आ गया। 1848 के बाद बुर्जुआ-वर्ग की इस बदली हुई भूमिका को हम स्पष्ट देख सकते हैं। अब बुर्जुआ-चिन्तकों का दृष्टिकोण संकीर्ण और यथास्थितिवादी हो गया। बुर्जुआ-वर्ग के भाववादी तत्व सामाजिक परिवर्तन की ओर उदासीन हो गए और वे अक्सर घोर निराशा और पलायन का शिकार होने लगे। अपने आस-पास के जीवन की ओर उन्होंने केवल एक निस्सहाय दर्शक का रुख अपना लिया और उनकी विचारधारा की  परिणति यांत्रिक नियतिवाद में हो गई। पूंजीवादी-व्यवस्था जब साम्राज्यवादी दौर में पहुंची तो उसका अमानवीय स्वरूप और भी स्पष्ट होकर सामने आ गया इससे बुर्जुआ-वर्ग की भाववादी तबकों की निराशा और खिन्नता की भावना अधिक गहरी हो गई। वे एक ऐसे नकारवाद का अनुमोदन करने लगे जिसके अनुसार मानव जीवन में कुछ भी सार्थक क्रमिक अथवा नियमित नहीं होता। पूंजीवादी-व्यवस्था के इस पतनोन्मुख दौर में भावप्रवण बुर्जुआ व्यक्ति अन्तर्मुखी होते चले गये। उनके अन्तर्मुखी हो जाने की इस प्रवृत्ति के प्रबल हो जाने पर ही आधुनिकतावादी साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। बुर्जुआ-वर्ग की ऐतिहासिक विकास में इस प्रकार की भूमिका हो जाने के पश्चात साहित्य में बुर्जुआ यथार्थवाद का विघटन शुरू हो गया और कला के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित होने लगे जिनसे अन्तत: कला का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता मालूम होने लगा। इस समय साहित्य में जितने भी शिल्पगत परीक्षण हुए उनके आधार पर यथार्थवाद को बनाये रखना संभव हो सकना क्योंकि जब साहित्यकार अपने आस-पास के जीवन की विकृतियों से खिन्न होकर मानवता की कार्य-क्षमता में ही अपना विश्वास खो बैठा हो और जीवन में कुछ भी सकारात्मक अथवा अनुमोदन योग्य उसे दिखायी न देता हो तो वह यथार्थवादी साहित्य का सर्जन नहीं कर सकता।

            बुर्जुआ यथार्थवाद का विघटन शुरू होने के पश्चात दो मुख्य साहित्यधाराएं सामने आती हैं: एक प्रकृतवादी और दूसरी आधुनिकतावादी। शिल्प और विधाओं की दृष्टि से, और अनुवर्तीक्रम की दृष्टि से भी, ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। परन्तु लूकाच यह स्पष्ट करते हैं कि इन दोनों साहित्यकारों में एक आधारभूत साम्य हैं। दोनों ही साहित्यधाराओं के अन्तर्गत आनेवाले रचनाकार बुर्जुआ-वर्ग की विवशताओं के कारण एक ऐसी चिन्तन-प्रणाली की गिरफ्त में आ जाते हैं जो अगत्यात्मक, अनैतिहासिक तथा अतार्किकतापूर्ण होती है। दोनों प्रकार की रचनाओं में व्यक्ति और समाज के पेचीदा संबंधों को या तो सपाट रूप में प्रस्तुत किया जाता है या बिल्कुल झुठला दिया जाता है। मानव-व्यक्तित्व के विकास की कल्पना भी यहां प्राय: लुप्त हो जाती है। दानों प्रकार की रचनाओं में सही परिप्रेक्ष्य विद्यमान नहीं होता और इतिहास के एक विशिष्ट बिन्दु पर आये सामाजिक संकट को यहां एक स्थायी गतिरोध के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। क्योंकि वस्तुस्थिति के विभिन्न घटकों को जोड़ने वाले संबंध सूत्रों की पहचान इन साहित्यधाराओं के अंतर्गत आने वाले रचनाकारों के पास नहीं होती, इसलिए उसकी सही समझ का यहां अभाव रहता है। दोनों ही प्रकार की रचनाओं में तर्कहीन निराशावाद की गहरी छाया बनी रहती है, दानों में हमें अमूर्तता, यान्त्रिकता और शिथिलता के दोष दिखायी देते हैं, यद्यपि ये दोष दोनों में भिन्न-भिन्न  रूपों में प्रकट होते हैं।

            प्रकृतवादी साहित्य में समाज को व्यक्तियों से अलग, उन्हें यांत्रिक ढंग से जकड़े रहने वाला, एक ढांचा मान लिया जाता है। व्यक्ति भी यहां कुछ स्थिर जैविक प्रवृत्तियों का पुन्ज मात्र बनकर रह जाता है और अपनी विशिष्टता खोकर वह एक सांख्यायिक औसत में परिवर्तित हो जाता है। उसमें स्वतंत्र और अप्रत्याशित निर्णय लेने की क्षमता दिखायी नहीं देती। उसके स्वभाव के सभी अंतर्विरोध धीमे पड़ जाते हैं। उसके जीवन की विविधता और बहुस्तरीयता खत्म हो जाती है और वे एक ढर्रे में पड़े हुए अपना नीरस और बदरंग जीवन व्यतीत करते रहते हैं। व्यक्तियों की नियतियों के टकराव या उलझाव यहां तो केवल आकस्मिक होते हैं या फिर पूर्णतया यांत्रिक। मानव जीवन की इस प्रकार की कल्पना के पीछे वास्तव में बुर्जुआ-वर्ग के भाववादी तत्वों की नैतिक कायरता और बौद्धिक शिथिलता ही दृष्टिगोचर होती है क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किये जानेवाले मानवजीवन के अवमूल्यन को यहां चिरस्थायी मान लिया जाता है।

            आधुनिकतावादी साहित्य ऊपर से प्रकृतवाद के सभी पक्षों का निषेध करता हुआ लगता है। यहां व्यक्ति को उसके सामाजिक परिवेश से अलग कर लिया जाता है और उसकी नीरस दिनचर्या के स्थान पर उसके अन्र्तमन में व्याप्त असीम विविधता पर बल दिया जाता है। व्यक्ति के प्रामाणिक अनुभव को तथा उसकी सत्ता को सामाजिक ढांचे की यांत्रिक जकड़ से मुक्त करके उसकी रोमांचकारी अन्तर्यात्राओं का चित्रण किया जाता है। सामान्य के स्थान पर यहां विशिष्टता पर बल दिया होता है और पात्र यहां एक बिना चेहरेवाला औसत आदमी न हेाकर अपनी अद्वितीय और नुकीलेपन की गौरव भावना से सुसज्जित रहता है। कथानक की संबद्धता और नियमितता तो दूर यहां घटनाओं के अनुवर्तीक्रम को भी एक अनावश्यक नियंत्रण मान लिया जाता है। प्रकृतवाद की सपाट विवरणात्मक शैली के स्थान पर यहां प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग होता है और इस प्रकार रचना के अर्थ में जटिलता, गहराई और चमत्कारिता का भ्रम उत्पन्न किया जाता हैं। जहां प्रकृतिवादी साहित्य में इतिवृतात्मकता बनी रहती है, वहां आधुनिकतावादी साहित्य में फैंटेसी और मिथकों की प्रधानता होती है।

            लूकाच ने अपनी पैनी दृष्टि से इन असमान दिखायी देने वाली साहित्यधाराओं के आधारभूत साम्य को पहचाना और यह स्पष्ट किया कि आधुनिकतावादी साहित्य की परिणति भी अन्तत: प्रकृतवादी अमूर्तता, निर्जीवता और निस्सारता में होती है। दोनों प्रकार की साहित्यिक रचनाओं के मूल में पतनोन्मुख साम्राज्यवादी पूंजीवाद की विरूपताओं के सम्मुख कायरतापूर्ण समर्पण विद्यमान रहता है। अगर दोनों में कुछ अन्तर है तो केवल यही कि आधुनिकतावादी साहित्य में प्रकृतवादी साहित्य की तुलना में मानवतावाद का अधिक तिरस्कार होता है। पूंजीवादी व्यवस्था की विकृतियों को एक गूढ़ रहस्य से ढांप देने की विवशता भी यहां अधिक गहरी हो जाती है। प्रकृतवाद से भी अधिक घोर निराशा का प्रकोप यहां छाया रहता है और मानव की सभी प्रकार की सामूहिक क्रियाओं को सारहीन मान लिया जाता है। इस प्रकार छद्म उग्रता और क्षोभ की पैंतरेबाजी के बावजूद आधुनिकतावादी साहित्य में एक अमानवीय व्यवस्था के प्रति समर्पण ही मूलत: विद्यमान रहता है। लूकाच यह स्पष्ट करते हैं कि इस बेबस स्वीकार की मुद्रा के रहते, चाहे वह ऊपर से तिरस्कार या प्रतिवाद का रूप लेती हो अथवा सीधे-सीधे पलायन का, व्यक्तिका अपनी नियति के साथ वास्वविक एवं प्रभावशाली टकराव नहीं हो सकता। इस प्रकार की मन:स्थिति में उन्माद और क्षोभ दोनों ही एक सायास उत्पन्न की गई आत्म-निर्वासन की स्थिति को स्थायी बनाये रखने में सहायक सिद्ध होते हैं।

            आधुनिकतावादी साहित्य में किस प्रकार एक गलत चिन्तन-प्रणाली के कारण मनुष्य के व्यक्तित्व का विघटन और बाह्यजगत की ठोस सत्ता का अस्वीकार होता चलता है इसे लूकाच ने अपनी पुस्तक ‘द मीनिंग ऑफ  कंटेम्परेरी रीयलिज्म’ में स्पष्ट किया है। आधुनिकतावादी लेखकों की नजरों में मनुष्य स्वभाव से ही अकेला स्पष्ट किया हैै- प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ वास्तविक संबंध स्थापित करने में असमर्थ है और उनका पारस्परिक सम्पर्क केवल आकस्मिक और सतही ही होता है। न तो व्यक्ति बाह्यजगत् उसमें। इस प्रकार के अनैतिहासिक और अगत्यात्मक दृष्टिकोण का परिणाम यह होता है कि आधुनिकतावादी लेखक मनुष्य की मूर्त और अमूर्त संभावनाओं में भेद नहीं कर पाता। अपने अन्तर्मुखी भाववाद के कारण वह कल्पित आंतरिक संभावनाओं में ही मानव जीवन की वास्तविक गहराई और विस्तार देखने पर बाध्य होता है और इस प्रकार उदासी और आकर्षण के बीच डोलता रहता है। अन्तर्मन में व्याप्त संभावनाओं की संख्या अनगिनत हो सकती है, परन्तु उनके आधार पर किसी के व्यक्तित्व की विशिष्टता को रेखांकित नहीं किया जा सकता और न ही उसकी नियति को पहचाना जा सकता है। आंतरिक मनोदशाएं, चाहे वे कितनी ही गहन और दीर्घकाल तक बनी रहने वाली क्यों न हों, व्यक्तित्व के निर्माण में निर्णायक नहीं हो सकती। किसी व्यक्ति की वास्तविक या मूर्त संभावनाएं तो वही होती हैं जो बाह्यजगत के साथ उसके टकराव में उभर कर सामने आती हैं बाह्यजगत् के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया के दौरान व्यक्ति कई बार ऐसे विकल्प चुनता है जिन्हें देखकर हम स्तम्भित रह जाते है। इन्हीं विकल्पों के माध्यम से व्यक्ति के स्वभाव के अप्रत्याशित किन्तु वास्तविक पहलू हमारे सामने आते हैं और उसके व्यक्ति की सही रूपरेखा स्पष्ट होती जाती है।

            आधुनिकतावादी साहित्य में मूर्त और अमूर्त संभावनाओं का भेद मिट जाने के कारण व्यक्तित्व-वैशिष्ट्य का ह्रास तो होता ही है, इसके साथ ही बाह्यजगत भी एक ऐसा अभेद्य रहस्य बन कर रह जाता है जो मनुष्य को भय और क्षोभ से भरता रहता है। पूंजीवाद के साम्राज्यवादी दौर में उभरकर आने वाली सामाजिक जीवन की विकृतियों और असंगतियों को यहां कुछ ऐसे विकृत ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि उनके सही स्वरूप को हम समझ नहीं पाते। परन्तु विकृत रूप में ही सही सामयिक जीवन के दबावों की छाप आधुनिकतावादी साहित्य भी कुछ-कुछ लिये हुए होता ही है। इसीलिए यथार्थवाद का यहां विघटन तो हो जाता है परन्तु सर्वथा लोप नहीं होता। यथार्थवाद का पूर्णतया बहिष्कार तो किसी भी साहित्यकार में नहीं हो पाता, क्योंकि लूकाच के अनुसार यह साहित्य और कला का एक आवश्यक गुण है।

            क्या पूंजीवाद के साम्राज्यवादी दौर में बुर्जुआ दृष्टिकोण बनाये रखने पर यथार्थवाद साहिय की रचना कर पाना साहित्यकार के लिए संभव हो सकता है? लूकाच बताते हैं कि इस युग में भी कुछ बुर्जुआ लेखकों में यथार्थवादी साहित्य की रचना करने की क्षमता बची रहती है, यद्यपि ऐसा कर पाना अब उनके लिए बहुत ही दुष्कर हो जाता है। लूकाच यह समझते हैं कि साम्राज्यवादी दौर के सभी बुर्जुआ साहित्यकारों को एक बिंदु पर ला खड़ा करना उचित नहीं होगा। कुछ बुर्जुआ लेखकों के चिंतन में अब भी वे विशेषताएं बनी रहती हैं जिनका जिक्र साहित्य में यथार्थवाद बनाये रखने की आवश्यक शर्तों के रूप में पहले किया जा चुका है। इस युग के इन लेखकों की रचनाओं में बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद दृष्टिगोचर होगा जो साम्राज्यवादी व्यवस्था की रूग्णताओं और अमानवीयताओं के प्रभाव को महसूस करते हुए भी निराशा और कुंठा से अभिभूत नहीं होते और तत्कालीन संकट-स्थिति को सर्वकालिक मानव-नियति नहीं मान बैठते। ऐसे साहित्यकारों का परिप्रेक्ष्य संतुलित बना रहता है और सामाजिक विकास के अगले चरण की कम-से-कम एक धूमिल-सी कल्पना उनके मन में बनी रहती है। मानवता में भी उनकी आस्था अडिग रहती है और पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न कुंठाओं और रूग्णताओं को वे गौरवमण्डित नहीं करने लगते। अपने चारों तरफ  फैले संसार को वे केवल अर्थहीन क्रियाओं का समूह नहीं मानते, उनकी गतियों को निर्धारित करने वाले नियमों को तथा उन गतियों से फलीभूत होने वाले विकास की दिशा को खोजने का वे सतत प्रयास करते रहते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा थोपी गई जीवन की नीरसता से ऊब कर वे मानसिक अवस्थाओं में उत्तेजनाएं नहीं ढूंढने लगते और न ही नैतिक नकारवाद के चंगुल में फंसते हैं। तत्कालीन वस्तुस्थिति के अंतर्विरोधों को ये लेखक भी तीव्रता से महसूस करते हैं और उनके चित्रण में उन शिल्पविधियों को भी काम में लाते हैं जिनका विकास आधुनिकतावादी साहित्यकारों के हाथों हुआ। परन्तु आधुनिकतावादी साहित्य में व्यक्त होने वाली मनोदशाओं की ओर वे एक समीक्षात्मक दृष्टिकोण बनाए रखते हैं जिससे उनकी रचनाओं के रूप में तथा आधुनिकतावादी रचनाओं के रूप में गुणात्मक अन्तर आ जाता है। इस प्रकार उनकी रचनाएं शिल्प और वस्तु की दृष्टि से आधुनिकतावादी रचनाओं से मिलती-जुलती-सी लगते हुए भी वे उन से बहुत भिन्न होती हैं। अमूर्त विशिष्टताओं के स्थान पर यहां मूर्त प्रतिनिधिकता पायी जाती है तथा अराजक बिखराव के स्थान पर बौद्धिक कसाव और सन्तुलन।

            पूंजीवादी व्यवस्था के साम्राज्यवादी दौर के आधुनिकतावादी तथा बुर्जुआ आलोचनात्मक साहित्यकारों की चिन्तन-पद्धति और भाव-प्रणाली के अन्तर की दो मुख्य पहचान हैं–एक तो बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद को कायम रखने वाले साहित्यकार पूंजीवादी व्यवस्था के संकट से उत्पन्न कुंठा, भय और क्षोभ से अभिभूत नहीं होते, आधुनिकतावादी साहित्यकारों की तरह वे अन्तर्मुखी होकर बाह्य-स्थिति को गूढ़ रहस्य ही नहीं मान लेते अथवा उसे मायावी कहकर उसके स्वतंत्र अस्तित्व को ही नहीं नकारने लगते। अपने तर्कसम्मत दृष्टिकोण द्वारा वे वस्तुस्थिति के संकट के सही स्वरूप को समझने की कोशिश करते रहते हैं। दूसरी मुख्य पहचान है, उनका संकटग्रस्त स्थिति को बदलने की संभावना की ओर सचेत होना और इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों की परिधि से आगे भी सोच सकना। इस प्रकार के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के प्रभाववश वे समाजवादी दृष्टिकोण को न अपना पाने पर भी उसके विरोधी नहीं होते। सामाजिक विकास के अगले पड़ाव के रूप में समाजवाद की अनिवार्य प्रासंगिकता को वे पहचानने लगते हैं और इस समझने की बौद्धिक चुनौती को वे गम्भीरता से स्वीकार करते हैं।

            यह सवाल उठाया जाना स्वाभाविक है कि पूंजीवाद के साम्राज्यवादी दौर में भी  बुर्जुआ साहित्यकारों द्वारा यथार्थवादी साहित्य के सर्जन की संभावना बनी रहने का सामाजिक आधार क्या हो सकता है? इस संदर्भ में लूकाच बस इतना ही बताते हैं कि साम्राज्यवाद की भयंकर अमानवीयता से बुर्जुआ-वर्ग के कुछ अंश भी खतरा महसूस करने लगते हैं और साम्राज्यवाद-विरोधी व्यक्तियों से मैत्री-भावना स्थापित करने लगते है। दूसरे महायुद्ध के बाद के शांति आंदोलन में समाजवादी शक्तियों और बुर्जुआ-वर्ग स्वस्थ जनतांत्रिक तत्वों के बीच इस प्रकार का गठबंधन देखने में आया। इस प्रकार के संयुक्त मोर्चे की कल्पना में संशोधनवाद के जो खतरे हैं उनकी ओर लूकाच सचेत रहते हैं, फिर भी सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में वे इस प्रकार के सामूहिक मोर्चे को उचित मानते हैं और इस युग के सबसे आधारभूत सत्य-पूंजीवाद और समाजवाद के बीच टक्कर की अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के रूप में ही इस प्रकार के गठबंधन की प्राथमिकता पर बल देते हैं।

            अंत में संक्षिप्त रूप में यह देखना उचित होगा कि लूकाच की आधुनिकतावाद और बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद संबंधी धारणाएं हिंदी साहित्य के विवेचन में कहां तक काम में लायी जा सकती हैं? स्वतंत्रता-संघर्ष के दौर में भारत में बुर्जुआ-वर्ग ने साम्राज्यवाद के विरूद्ध खड़े होकर एक प्रगतिशील भूमिका निभायी। उस समय राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने का सामूहिक लक्ष्य देश के सामने था और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो जन-आंदोलन हुए उनका नेतृत्व बुर्जुआ-वर्ग के हाथों में रहा। बुर्जुआ-वर्ग की प्रगतिशील भूमिका के कारण उस समय के बुर्जुआ-चिंतन में काफी हद तक वे सभी विशेषताएं पायी जाती हैं जा यूरोप में जनतांत्रिक क्राांति से पूर्व के बुर्जुआ-चिंतन में विद्यमान थीं, परन्तु इस देश में बुर्जुआ-वर्ग सामाजिक परिवर्तन की यह प्रगतिशील भूमिका उस समय निभा रहा था जबकि विश्व में पूंजीवादी-व्यवस्था विकासोन्मुख हो चली थी और समाजवादी-व्यवस्था की चुनौती उसके सामने प्रत्यक्ष हो चुकी थी। इसीलिए बुर्जुआ-चिंतन में अब काफी प्रतिगामिता आ गई थी, इसका प्रभाव भारतीय बुर्जुआ-चिंतन पर भी पड़ा और उसकी क्रांतिकारिता बहुत शिथिल रही। वैसे भी एक औपनिवेशिक समाज में बुर्जुआ-वर्ग की साम्राज्यवादी शक्तियों से लड़ाई एक सीमित स्तर तक ही हो सकती है। भारत में बुर्जुआ-वर्ग साम्राज्यवादी ढांचे के अन्तर्गत विकसित हुआ था और उसके चिंतन में काफी पिछड़ापन बना रहा था। सामान्तवादी अथवा अर्धसामंतवादी विचारों और भावनाओं से यह वर्ग अपने आपको पूर्णतया मुक्त न कर सका था। साम्राज्यवादी के विरोध में जो राष्ट्रवादी भावना बुर्जुआ-वर्ग में उभर कर आयी उसमें इसीलिए पुनरूत्थानवाद के कुछ अंश आरम्भ से ही विद्यमान थ। पूंजीवाद के साम्राज्यवादी दौर में किसी भी जनतांत्रिक क्रांति को समाजवादी क्रांति में बदल जाने का भय बुर्जुआ क्रांतिकारिता को क्षीण कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए इस देश में बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ऐसी रूपरेखा उभर कर आयी कि उससे वर्ग-संघर्ष की सच्चाई छुपी रहे और समाज के वर्गों के बीच के आर्थिक संबंध ज्यों-के-त्यों बने रहें। इन सभी बातें को ध्यान में रखें तो हमें यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि उस समय के हिंदी साहित्य में बुर्जुआ आदर्शों को लेकर चलने वाले लेखकों की रचनाओं में क्यों इतनी अमूत्र्तता और शिथिलिता पायी जाती है, और क्यों तत्कालीन वस्तुस्थिति के सारभूत और अनिवार्य तत्व वहां बहुत ही परोक्ष रूप में परिलक्षित होते हैं। तब हम यह भी समझ पायेंगे कि क्यों प्रेमचंद और निराला जैसे कुछ साहित्यकार ही जिनका दृष्टिकोण किसान-वर्ग के अनुभवों पर आधारित था ज्यादा प्रभावशाली यथार्थवादी रचनाएं प्रस्तुत कर सके।

            स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सामाजिक विकास में बुर्जुआ-वर्ग की भूमिका में एक गुणात्मक परिवर्तन आ गया, यद्यपि एक जनतांत्रिक और न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का आदर्श बुर्जुआ-वर्ग ने अभी भी जनता के सामने रखा, परन्तु वास्तव में जिस प्रकार की आर्थिक व्यवस्था यहां विस्तार पाने लगी उसका इन जनतांत्रिक आदर्शों से कोई मेल नहीं खाता था। बुर्जुआ-वर्ग ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए समाज के सामंती और अर्धसामंती तत्वों से गठबंधन कर लिया और साम्राज्यवादी शक्तियों से भी उनका विरोध सुस्त पड़ गया। साम्राज्यवादी देशों से पूंजी का आयात होने लगा और साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ नव-औपनिवेशिक संबंध पनपने लगे। इस सबका परिणाम यह हुआ कि समाज में जनतांत्रिक क्रांति का कार्य पूरा करने की क्षमता बुर्जुआ-वर्ग में न रही और उसकी भूमिका बहुत हद तक जन-विरोधी हो गई। जिस प्रकार की पंूजीवादी व्यवस्था का यहां विकास हुआ वह आरम्भ से ही विकृत और संकटग्रस्त हो गई। क्योंकि जहां एक तरफ  बड़े-बड़े एकाधिकारी प्रतिष्ठान तीव्रगति से विस्तार पाने लगे वहां दूसरी तरपफ उत्पादन प्रणाली एक पिछड़े स्तर की ही बनी रही। इन सब बातों को ध्यान में रखें तो हम यह समझ सकते हैं कि क्यों यहां यूरोप में क्रांति के बाद आने वाले आलोचनात्मक यथार्थवाद की तरह का साहित्य अधिक दृष्टिगोचर नहीं होता और क्यों स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के बुर्जुआ-साहित्य में अधिकतर यथास्थितिवादी, पलायनवादी और रहस्यवादी प्रवृत्तियां जोर पकड़ने लगीं। उस समय के साहित्य में अगर बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद कहीं दृष्टिगोचर होता है तो उन लेखकों की कृतियों में जिनकी भावभूमि निम्न-मध्यवर्ग और किसान-वर्ग से जुड़ी हुई थी और जो समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर जनतांत्रिक आदर्शों को पूर्णतया अपनाये हुए थे। इस प्रकार का यथार्थवादी लेखन ज्यादातर प्रतिवादी उपन्यासकारों और कहानीकारों की रचनाओं में ही दिखायी देगा। कविता में केवल मुक्तिबोध ही पूर्णतया यथार्थवादी साहित्य की रचना कर सके परन्तु उनका दृष्टिकोण बहुत शीर्घ ही मार्क्सवादी हो गया था और इस प्रकार वे बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद की सीमाओं को पार करके पूरी तरह से जनवादी लेखक बन गए थे।

            क्योंकि भारत में पूंजीवाद का विकास आरम्भ से ही बहुत अस्वस्थ रूप में हो रहा था, यहां जल्दी ही यूरोप के आधुनिकतावादी साहित्य से मिलती-जुलती प्रवृत्तियां भी दृष्टिगोचर होने लगीं। यहां यह सवाल उठाये जा सकते हैं कि पूंजीवादी-व्यवस्था के अन्तिम चरण में पहुंचने से पहले ही हमारे साहित्य में आधुनिकतावादी साहित्य-परम्परा कैसे उभर आयी? इस साहित्यधारा के विकसित होने का मूलाधार क्या है? यदि हम आधुनिकतावादी साहित्य को पूंजीवाद के क्रमिक विकास के एक विशेष पड़ाव से संबंद्ध न करके उसको रूग्णताओं और असंगतियों की तीव्रता से जुड़ा हुआ समझें, और इसे मूल रूप में बुर्जुआ-वर्ग की प्रतिगामी भूमिका की अभिव्यक्तिमानें तो भारत में आधुनिकतावादी साहित्यिक प्रवृत्ति का उभार आना हमें कोई अनहोनी बात नहीं लगेगी। जब विश्व धरातल पर पूंजीवादी-व्यवस्था का पतनोन्मुख स्वरूप प्रधान हो जाए तो इस स्तर पर आकर उभरने वाले इसके अन्तर्विरोधों का प्रभाव अर्धविकसित और पिछड़े हुए पूंजीवादी देशों पर भी पड़े बिना नहीं रह सकता– सीधे-सीधे आर्थिक संकट के रूप में और विचारधारा के धरातल पर प्रचार माध्यमों द्वारा यदि पश्चिमी देशों में शीतयुद्ध की राजनीति से निर्धारित होनेवाली विचारधारा जोर पकड़ती है तो उसका हमारे देश में भी जोर-शोर से प्रचार होता है और यहां का बुर्जुआ-वर्ग उसे तपाक से ग्रहण करता है। यदि साम्राज्यवादी देशों में पूंजीवादी की विकृतियों ने कुंठा, निराशा और तर्कहीन क्षोभ को घोषित किया है तो यहां के बुर्जुआ-साहित्य में भी उसी प्रकार का सांस्कृतिक संकट परिलक्षित होने लगता है। परन्तु पश्चिमी देशों से आधुनिकतावादी प्रवृतियां इसीलिए आयातित होती हैं कि साम्राज्यवादी शक्तियों से सांठगांठ करनेवाले प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ-तत्वों के हितों के ये अनुकूल पड़ती हैं। यदि यहां के बुर्जुआ-वर्ग के एक मुख्य भाग की भूमिका प्रतिगामी न होती तो इन आधुनिकतावादी प्रवृतियों का यहां ऐसा स्वागत न होता। इसके अलावा ये साहित्यिक प्रवृतियां यहां जड़े इसीलिए पकड़ लेती हैं कि, जैसा पहले स्पष्ट किया जा चुका है, इस देश की पूंजीवादी-व्यवस्था अपने विकास के आरंभिक चरण में ही लगभग वैसी अस्वस्थ और संकटग्रस्त हो गई हैं जैसी पश्चिमी देशों में विकास के चरम बिंदु पर पहुंचने पर हो जाती है, और इसलिए वह भावभूमि भी यहां उत्पन्न हो गई है जिससे विकृत जीवन को विकृत रूप में प्रस्तुत करनेवाली कला का प्रादुर्भाव होता है।

            गौर करने पर पता चलेगा कि यहां का आधुनिकतावादी साहित्य साम्राज्यवादी देशों के आधुनिकतावादी साहित्य से कुछ बातों में भिन्न है। एक तो यह साहित्य समाज के एक बहुत छोटे हिस्से के अनुभव को ही व्यक्तकरता है, इसीलिए इसका प्रभाव पश्चिम के आधुनिकतावादी साहित्य की तुलना में अधिक सीमित है, दूसरे क्योंकि बुर्जुआ-वर्ग के एकाधिकारी तत्वों ने राजनैतिक सत्ता को हथियार रखने के लिए समाज के सामंती और अर्ध-सांमती तत्वों से गठबंधन कर लिया है। यहां के आधुनिकतावादी साहित्य की अतार्किकता में पुरातनवादी रहस्यवाद की पुट कुछ अधिक रहती है। साम्राज्यवादी देशों के आधुनिकतावादी साहित्य में इस प्रकार की पंरपरापरस्ती कुछ लेखकों की रचनाओं में ही दिखायी देती है। परंतु हमारे देश में पनपने वाले आधुनिकतावादी साहित्य की सबसे महत्त्वपूर्ण विशिष्टता यह है कि इसके माध्यम से निम्न-मध्यवर्ग की मोहभंग की मन:स्थिति भी व्यक्त होती है, यद्यपि चिंतन पद्धति साम्राज्यवादी देशों से आयातित है और साम्राज्यवाद के हामी बुर्जुआ-वर्ग के हितों के अनुकूल पड़ती है, परन्तु हमारे समाज का निम्न-मध्यवर्ग भी इसके लिए उपयुक्तभावभूमि प्रदान करता है। निम्न मध्यवर्गीय तत्वों की कोई स्वतंत्र राजनीति नहीं होती और न ही उनकी बुर्जुआ-वर्ग से अलग विशिष्ट विचारधारा ही होती है। इस वर्ग से संबंध रखने वाले जनसमूह आमतौर पर उच्च बुर्जुआ-वर्ग के साथ चिपके रहते हैं। परन्तु इतना अवश्य है कि इस वर्ग के लोगों की सामाजिक स्थिति उन्हें आमतौर पर जनतांत्रिक विचारधारा के साथ ज्यादा मजबूती से जोड़े रखती है। यद्यपि जनतांत्रिक आदर्शों में उनकी आस्था को आसानी से विकृत रूप भी दिया जा सकता है। इसके अलावा जब पूंजीवादी-व्यवस्था में एकाधिकारी प्रवृत्तियों बढ़ जाती है तो इनका सीधा दबाव निम्न-मध्यवर्ग के लोगों पर भी पड़ता है और उन्हें सर्वहारा में धकेल दिये जाने का खतरा महसूस होने लगता है। इसीलिये राजनैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में निम्न-मध्यवर्गीय जन-समूहों की भूमिका उच्च बुर्जुआ-वर्ग से बहुत भिन्न हो सकती है। यह संभावना वास्तविक तभी होती है जब वस्तुस्थिति की ठीक समझ इन जन-समूहों को हो जाये और वे किसान-मजदूर वर्ग का पक्ष लेने लगें। उस दशा में जनतांत्रिक क्रांति को आगे बढ़ाने में और जनवादी संस्कृति को विकसित करने में निम्न-मध्यवर्ग का बहुत महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। परन्तु वास्तव में इस संभावना को क्रियान्वित करने में बहुत देर लगती है। यदि सर्वहारा की अगुवाई में चलाये जाने वाले आंदोलन प्रबल न हों तो संकट की स्थिति में निम्न मध्यवर्ग के लोगों की प्रथम प्रतिक्रिया अत्यान्तिक मायूसी अथवा तर्कहीन क्षोभ की होती है। जिन बुर्जुआ जनतांत्रिक आदर्शों में इनकी आस्था बनी होती है, आस-पास के जीवन में यदि उनकी पुष्टि होती दिखायी न दे तो उन्हें जीवन में सब कुछ मिथ्या लगने लगता है और वे नकारवादी हो जाते हैं। उनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, जो पहले भी बहुत अधिक साफ  नहीं होता, अब और भी विकृत हो जाता है। वस्तुस्थिति की सही समझ प्राप्त किये बिना वे एक अराजकतावादी उग्रता की लपेट में आ जाते हैं और आमतौर पर पूंजीवादी व्यवस्था के छद्म विरोध की पैंतरेबाजी के बावजूद एक पिछड़े हुए और अतार्किकतापूर्ण बुर्जुआ चिंतन-पद्धति की सीमाओं में बंधे रहते हैं। उनकी आवेशपूर्ण, दिशाहीन और नकारवादी प्रतिक्रिया अक्सर आधुनिकतावादी साहित्य का रूप ले लेती है। ‘नयी कविता’ से ‘अकविता’ तक तथा ‘नयी कहानी’ से ‘अकहानी’ तक की साहित्यधाराओं के एक बहुत बड़े भाग को हम इस प्रकार के निम्न मध्यवर्गीय आधुनिकतावादी साहित्य की कोटि में रख सकते हैं।

            क्या आज की स्थिति में भारतीय बुर्जुआ-वर्ग की चिंतन-प्रणाली के आधार पर साहित्य में ऐसे आलोचनात्मक यथार्थवाद की अपेक्षा की जा सकती है जो आधुनिकतावादी साहित्य की भावभूमि में से निकलता हुआ भी आधुनिकतावादी दृष्टिकोण का विरोधी हो सके? दूसरे शब्दों में क्या ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ से लेकर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ के दौर तक के साहित्य से बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद साहित्यधारा के प्रस्फुटित होने की आशा की जा सकती है? यदि हिंदी के आधुनिकतावादी साहित्य के संबंध में ऊपर कही गई बातें सही हैं तो हमें मानना पड़ेगा कि इस प्रकार के साहित्य के उभरने की कुछ संभानाएं अवश्य हैं। समकालीन लेखन के साहित्यकार जिस दिशा में बढ़ते नजर आ रहे हैं उससे भी इसकी पुष्टि होती है। क्योंकि हिंदी के आधुनिकतावादी साहित्य के एक बहुत बड़े भाग की भावभूमि निम्न मध्यवर्गीय है, इसलिए हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि ऐसे कुछ नये साहित्यकार जरूर सामने आयेंगें, जो निम्न मध्यवर्गीय जीवन के दबावों को महसूस करते हुए तथा निम्न-मध्यवर्गीय भावभूमि को व्यक्त करने के लिए कुछ ऐसी शिल्पविधियों का भी प्रयोग करते हुए जो आधुनिकतावादियों द्वारा प्रचलित हुई है। नये प्रकार की साहित्यिक रचनायें प्रस्तुत करेंगे। ऐसे साहित्यकार निम्न मध्यवर्गीय जीवन की निराशाओं, कुंठाओं और क्षोभ-भावनाओं से अभिभूत न होकर उन्हें उनके सही सामाजिक संदर्भ में रखकर समझने की कोशिश करेंगे और निम्न मध्यवर्गीय निजबद्धता को त्यागकर मेहनतकश जनता की ओर झुकेंगे। परन्तु यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारे देश के संदर्भ में एक ऐसे साहित्यकार के पास सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य होने की यह अनिवार्य पहचान होगी कि वह समाजवाद की ऐतिहासिक अनिवार्यता को स्वीकार करता हुआ उसका सक्रिय रूप से समर्थक हो जायेगा। यहां निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति का परिप्रेक्ष्य सही तभी माना जा सकता है जब उसमें वामपंथी रूझान प्रबल रूप से विद्यमान हो और यदि वह वैज्ञानिक समाजवाद को पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाया हो तो उस दिशा में अग्रसर जरूर हो रहा हो। तभी वह अकवितावादी नकारवाद को त्याग कर मानवता में और सामाजिक विकार की संभावना में आस्थावान हो सकता है और पूंजीवादी-व्यवस्था की विकृतियों को भली-भांति समझ सकता है। यदि उसकी चिन्तन-प्रणाली भौतिकवादी और तर्कप्रधान है तो हम उससे साहित्य में बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद की अपेक्षा रख सकते हैं। हमारे समाज में निम्न-मध्यवर्ग के लागों की संकट-स्थिति जहां एक तरफ  उन्हें फासिस्ट उग्रता और अराजक नकारवाद की ओर धकेलती है तो दूसरी तरफ उनके जनतांत्रिक-पक्ष को भी दृढ़ बना सकती है। यदि उन्हें सर्वहारा के राजनैतिक आंदोलनों से प्रेरणा मिलने लगे और इस प्रकार उनकी आंखे खुल जाने पर उन्हें अपनी संकट की स्थिति से उबरने का सही रास्ता नजर आने लगे। इस प्रकार के निम्न मध्यवर्गीय साहित्यकार को हम शुद्ध जनवादी लेखक भी कह सकते हैं, परंतु जिस प्रकार साहित्य की वह रचना करेगा उसमें बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद के सभी गुण विद्यमान होगें। साम्राज्यवादी देशों में पाये जाने वाले बुर्जुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद साहित्यकारों से वह केवल इस बात में भिन्न होगा कि उसका राजनैतिक रूझान स्पष्ट रूप में वामपक्षी होगा और वह सांस्कृतिक क्षेत्र में वामपक्षी जनवादी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेगा।

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