साहित्य और विचारधारा -डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

आलेख


मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का यह एक मुख्य कर्तव्य है कि प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तकों द्वारा साहित्य के बारे में जो अवैज्ञानिक और भ्रान्तिपूर्ण धारणाएं प्रचलित एवं प्रस्थापित की जाती हैं उनका सही विश्लेषण द्वारा खण्डन किया जाये तथा सामान्य पाठक के सामने साहित्य के वास्तविक स्वरूप को स्पष्टट किया जाये। पूँजीवादी व्यवस्था के पतनशील दौर में जब समाज के प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी तत्वों के बीच संघर्ष तीव्र हो उठता है और शोषित उत्पीडि़त जनसमूह सचेत और जागरूक होकर पतनशील बुर्जुआ चिन्तन द्वारा पोषित विभ्रमों को त्यागने लगते हैं तो समाज के यथास्थितिवादी तत्वों की यह भरसक कोशिश होती है कि साहित्य को स्वस्थ सामाजिक मूल्यों का वाहक तथा बहुसंख्यक जनता की चेतना को विकसित करने का माध्यम न बनने दिया जाये। क्योंकि साहित्य का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है और उसके माध्यम से पाठकों की भावनाओं को उभारा जा सकता है अथवा उन्हें नया मोड़ दिया जा सकता है तथा पाठक को अपने आस-पास की दुनिया की समझ को प्रखर बनाया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी शक्तियों से जुड़े हुए चिन्तक ऐसे समय पर कुछ इस प्रकार की भ्रान्तियाँ साहित्यकारों और पाठकों के बीच फैलाने लगते हैं जिनके कारण साहित्य का समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों से सम्पर्क टूट जाये। यह जरूरी नहीं कि प्रतिक्रियावादी चिन्तक साधारण पाठक की चेतना को मन्द बनाने का यह काम सचेष्ट रूप से ही करते हों। पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्विरोधों के बढ़ जाने पर उनके लिए यह जरूरी हो जाता है कि वे तत्कालीन सामाजिक जीवन की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करें जिसके अन्तर्गत उसके सभी अप्रिय पक्षों पर पर्दा पड़ जाये किन्तु जो फिर भी ठोस और प्रामाणिक प्रतीत हो। ऐसी स्थिति में जिन भ्रान्तिपूर्ण धारणाओं का प्रचार वे पाठकों के बीच करते हैं उनसे प्रथमत: वे स्वयं भी ग्रस्त होते हैं। उनकी वर्गगत स्थिति का इस समय उन पर कुछ ऐसा दवाब पड़ता है कि उनकी चेतना में वस्तुस्थिति  की सही तस्वीर उभर ही नहीं पाती। वे पूरी ईमानदारी के साथ उस छद्म तस्वीर को वस्तुस्थिति की सही व्याख्या मान लेते हैं जो गहरे आत्ममंथन के बाद उनकी चेतना में उस समय उभर कर आती है। इसी ईमानदार छल के तहत वे इस धारणा का भी प्रचार करने लगते हैं कि अच्छे साहित्य की रचना के लिए यह आवश्यक है कि लेखक अपने आपको सभी प्रकार की विचारधाराओं से मुक्त रखे। यद्यपि परोक्ष रूप में सभी प्रतिक्रियावादी साहित्यकार और चिन्तक अपनी रचनाओं के माध्यम से एक जनविरोधी विचारधारा को पाठकों की चेतना पर अंकित करते रहते हैं किन्तु फिर भी प्रत्यक्ष रूप में उनका यही पैंतरा बना रहता है कि साहित्य और विचारधारा का गठबन्धन साहित्य के लए घातक सिद्ध होता है। उनके अनुसार जब साहित्यकार किसी विचारधारा से जुड़ जाता है तो उसकी सृजन क्षमता धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है, उसकी संवेदना संकुचित होती जाती है और उसकी दृष्टि भी धुंधली पड़ जाती है। जो साहित्यकार किसी विचारधारा आग्रहों के अन्तर्गत अपने तत्कालीन सामाजिक दायित्वों को प्राथमिकता देते हुए साहित्य रचना करते हैं वे साहित्य के वास्तविक रूप को झुठलाकर उसकी शक्ति को उसकी शक्ति को नष्ट कर डालते हैं और अपनी लेखकीय गरिमा को खोकर अन्तत: कोरे प्रचारक बन कर रह जाते हैं।

            शुद्ध साहित्य और विचारधारा के बीच परस्पर विरोध का यह सिद्धान्त किस प्रकार भ्रान्तिपूर्ण और खतरनाक है इसे पूरी तरह तो साहित्य के वास्तविक स्वरूप की वैज्ञानिक व्याख्या करके ही स्पष्टट किया जा सकता है, किन्तु इस सैद्धान्तिक निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये प्रतिक्रियावादी चिन्तक किन तर्कों का सहारा लेते हैं यह जान लेना भी जरूरी है। इन तर्कों के खोखलेपन को स्पष्टट करने से इस सिद्धान्त के मिथ्या सम्मोहन को बहुत हद तक दूर किया जा सकता है। किन्तु इन तर्कों पर नजर डालने से पहले विचारधारा के वास्तविक अर्थ पर गौर कर लेना भी उचित होगा।

            अक्सर यह मान लिया जाता है कि किसी वर्ग-विशेष के हितों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो कार्य नीति और रणनीति निर्धारित होती है उनके सैद्धान्तिक पक्ष को ही हम उसे वर्ग की विचारधारा कहते हैं। दूसरे शब्दों में तत्कालीन सामाजिक जीवन को एक वर्ग-विशेष के हितों के अनुकूल व्यवस्थित अथवा पुनर्व्यवस्थित करने के लिए प्रतिपादित होने वाले सिद्धान्त सामूहिक रूप में उस वर्ग की विचारधारा बन जाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार विचारधारा एक वर्ग-विशेष की राजनीति का पर्याय है। यद्यपि एक वर्ग के सामूहिक संघर्षों को निर्देश प्रदान करने वाले सैद्धान्तिक निष्कर्षों को हमें उस वर्ग की विचारधारा का एक महत्वपूर्ण अंग मानना पड़ेगा, किन्तु उसे स्पष्टट रूप में व्याख्यायित इन निष्कर्षों तक ही सीमित रखना उचित नहीं होगा। एक व्यक्ति की संवेदना तथा उसका चिन्तन किस प्रकार उसकी वर्गगत भूमिका से निर्धारित हो रहे हैं इसी से उसकी विचारधारा लक्षित होती है। वास्तव में एक वर्ग-विशेष के सामूहिक राजनैतिक कार्यक्रम को ही नहीं बल्कि व्यक्ति की समूची चेतना के वर्गीय स्वरूप को हमें विचारधारा की संज्ञा देनी चाहिए। विचारधारा व्यक्ति के अनुभव का कोई ऐसा अंश नहीं है जिसे हम उसके शेष अनुभव से अलग कर सकते हैं, बल्कि यह उसके समूचे अनुभव का एक विशिष्ट और आधारभूत आयाम है। सचेष्ट, सुचिन्तित और सुव्यस्थित बौद्धिक निष्कर्षों के अलावा विचारधारा हमारी भावनाओं के धरातल पर भी सक्रिय रूप से विद्यमान रहती है। व्यक्ति वस्तु जगत को (जिसमें उसका अपना व्यक्तित्व भी शामिल है) जिस रूप में देखता-समझता है और महसूस करता है, उस रूप की विशिष्टता को लक्षित करने के लिए ही हमें विचाराधारा की अवधारणा की आवश्यकता पड़ती है। व्यक्ति की वर्गगत-भूमिका उसकी चेतना की सीमाएं निर्धारित करती हैं, उसी के आधर पर वस्तुजगत की एक विशिष्ट प्रकार की छवि उसकी चेतना में उभर कर आती है जिसमे वस्तुजगत् के कुछ महत्वपूर्ण पक्ष या तो पूर्णतया अलक्षित रह जाते हैं या फिर विकृत रूप में ही प्रतिबिम्बित हो पाते हैं। इसी वर्गगत भूमिका के आधार पर व्यक्ति यह तय करता है कि तत्कालीन सामाजिक परिवेश में किस प्रकार का परिवर्तन लाया जा सकता है और उसके लिए उसे क्या करना चाहिए। इस प्रकार उसकी समूची चेतना की परिधि-जिसमें उसका दृष्टिकोण, उसकी चिन्तन-पद्धति और उसकी भावनाओं की दिशा शामिल हैं, उसकी वर्गगत भूमिका से निश्चित होती है। जब हम विचारधारा की बात करते हैं तो हमारा ध्यान उसकी चेतना, अर्थात् उसके दृष्टिकोण और उसकी संवेदना, की उन सीमाओं की ओर होता है जिनके अन्दर वह अपनी वर्गगत स्थिति के करण अनिवार्य रूप से बंधा रहता है और जिनका  अतिक्रमण करना उसके लिए एकदम असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य होता है।

             क्योंकि शोषक-उत्पीड़क वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले लोग अपनी वर्गगत भूमिका की विवशता के कारण वस्तु-स्थिति के सही स्वरूप को नहीं समझ सकते। उनके सन्दर्भ में विचारधारा के अर्थ को कई बार उनकी ‘छद्म चेतना’ तक ही सीमित कर दिया जाता है। जहां तक प्रभुत्ता सम्पन्न वर्ग अन्य वर्गों से सम्बन्ध रखने वाले लोगों की चेतना को नियन्त्रित कर देता है। वहां तक उनकी  चेतना में भी प्रभुत्तासम्पन्न वर्ग की ‘छद्म चेतना’ के से विकार विद्यमान रहते हैं। उनके सन्दर्भ में भी कई बार चेतना की इन विकृतियों को ही उन पर पड़ने वाला विचाराधारात्मक दबाव मान लिया जाता है। इसी प्रकार सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाने के बाद सर्वहारा वर्ग का सर्वहारा पार्टी के नेतृत्व में सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए निर्धारित किये जाने वाले कार्यक्रम में यदि कुछ त्रुटियां दिखाई देती हो तो उन्हें भी कुछ मार्क्सवादी चिन्तक ‘विचारधारा-जनित दोष’ बताने लगते हैं और इस अर्थ में विचारधारा को सर्वहारा का विश्व दृष्टिकोण से अलग कने लगते हैं। किन्तु विचारधारा को ‘छद्म चेतना’ तक ही सीमित रखने और उसे ‘विश्व दृष्टिकोण’ से अलग करके देखने के इस प्रकार के प्रयासों से हम कुछ ऐसे भ्रान्तिपूर्ण निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं जिनके कारण साहित्य के बारे में हमारा चिन्तन दोषपूर्ण हो जाये। इसलिए विचारधारा को हमें वर्ग-दृष्टिकोण से अलग नहीं समझना चाहिए।

            साहित्य और विचारधारा के परस्पर विरोध के सिद्धान्त की पुष्टि में प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तकों द्वारा एक मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि साहित्यकार किसी वर्ग-विशेष से प्रतिबद्ध नहीं होता बल्कि उसकी प्रतिबद्धता तो मानव-मात्र के साथ होती है। जीवन के प्रति उन्मुक्त आसक्ति और निर्बाध स्पन्दनशील का परिचय देते हुए वह मानवमात्र से भावात्मक तादात्मय स्थापित करता है और सभी संभाव्य मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों को अपने लेखन में समेट लेने का प्रयास करता है। जिस धरातल पर वह काम करता है वहां वह किसी प्रकार के पूर्वाग्रहों, अवरोधों और प्रतिबन्धों से आक्रान्त नहीं रह सकता  और जहाँ कहीं जिस रूप में भी उसे मानवीय अनुभव प्राप्त हो सकते हैं उनके लिए लालायित रहता है। वर्ग, देश और काल की परिधियों से ऊपर उठकर शुद्ध मानवीय स्पन्दनों से हमारे हृदय को झंकृत करते जाना ही साहित्यकार का एकमात्र लक्ष्य होता है। किन्तु इसके विपरीत विचारधारा व्यक्ति को अपने स्वार्थों और वर्गगत पक्षपातों से ऊपर नहीं उठने देती। वस्तुस्थिति को देखने-समझने के लिए यदि हम किसी वर्ग-विशेष के हितों से जुड़े हुए दृष्टिकोण को अपनाते हैं तो हम विचारधारा की सीमाओं में बंधे रहते हैं। अत: विचारधारा के धरातल पर बने रहने पर एक साहित्यकार भी उन सभी दबावों को झेलेगा जो एक साधारण व्यक्ति के दृष्टिकोण को संकुचित बनाये रखते हैं। सामाजिक जीवन की तत्कालीन समस्याओं में उलझ जाने और इससे उत्पन्न होने वाले तनावों और विद्वेषों के आधार पर ही हमारी विचारधारा का निर्माण होता है और इसके प्रभाव में बने रहकर हम केवल उन्हीं अनुभवों को स्वीकार करते हैं जिनका हमारे हितों से मेल खाता हो। जीवन के बहुत सारे अनुभवों को हम उस समय या तो ग्रहण ही नहीं कर पाते या फिर उन्हें निरर्थक समझकर छोड़ देते हैं। जो सीमित अनुभव हमारे पास बचे रहते हैं। उन्हें भी हम अपनी विचारधारा के बने-बनाये सांचे में ढालकर एकदम निर्जीव और अप्रामाणिक बना देते हैं।

            ऊपर से ठोस दिखाई देते हुए भी यह दलील वास्तव में खोखली और भ्रान्तिपूर्ण है। एक वर्ग-विभाजित समाज में प्रत्येक व्यक्ति अनिवार्य रूप से किसी न किसी वर्ग के साथ जुड़ा होता है।

            उसका सारा चिन्तन और उसकी भाव-प्रणाली या तो उसके अपने वर्गीय दृष्टिकोण से नियन्त्रित होती है या फिर उस वर्ग के दृष्टिकोण से जो ऐतिहासिक विकास से उस विशिष्ट दौर में उत्पादन प्रणाली में प्रमुख स्थान पा जाने के कारण दूसरे वर्गों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुका है। यह प्रभुतासम्पन्न वर्ग सभी वर्गों से सम्बन्ध रखने व ाले व्यक्यिों के चिन्तन और उनकी भावनाओं को मोड़ देना चाहता है कि उनकी समूची चेतना और संवेदना इस वर्ग के हितों पर आधारित चिन्तन और संस्कृति से नियंत्रित रहें और वे अपने अनुभव को केवल उसी रूप में पहचानें जो इस वर्ग को मान्य हो। शिक्षा संस्थानों तथा अन्य प्रचार साधनों और साहित्यिक कृतियों के माध्यम से यह वर्ग धीरे-धीरे अन्य वर्गो के लोगों की चेतना पर कुछ ऐसा सांस्कृतिक नियन्त्रण स्थापित कर लेता है कि उनमें से अधिकांश को यह अहसास भी नहीं रहता कि उनकी चेतना को सायास प्रभुतासम्पन्न वर्ग की विचारधारा और संस्कारों के अनुकूल बना दिया गया है। जब तक तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन शक्ति में कोई तीव्र अन्तर्विरोध नहीं उभरता तब तक प्रभुत्ता-सम्पन्न वर्ग की विचारधारा तर्कसम्मत, स्वाभाविक और पूर्णतया वैज्ञानिक लगती है और उसका नियन्त्रण असह्य न होकर वास्तव में मानव की मानसिक ऊर्जा और उसकी सृजनात्मक शक्तियों को व्यवस्थित करने का एक उचित ढंग नजर आता है। किन्तु जब एक बिंदु पर आकर यह नियंत्रण सामाजिक और भौतिक उत्पादन शक्तियों पर एक बन्धन बन जाता है तो किसी अन्य वर्ग की विचारधारा उत्पादन शक्तियों के अनुकूल होने के कारण अधिक सही और तर्कसम्मत प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार ऐतिहासिक विकास के प्रत्येक ऐतिहासिक विकास के प्रत्येक पड़ाव पर टक्कर वास्तव में दो विरोधी वर्ग दृष्टिकोण के बीच होती है जिनमें से एक अधिक सही होता है तो दूसरा कम। साहित्यकार के सामने विकल्प इन दो वर्गीय दृष्टिकोण में से एक का चुनाव करना होता है न कि इनसे ऊपर उठ कर वर्गातीत ‘मानवीय’ दृष्टिकोण को अपना लेने का। अपनी वर्गीय स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न लेखक किसी एक दृष्टिकोण को अपनाकर उसके अनुसार अपने युग के अनुभवों को व्यवस्थित रूप देते है। महान साहित्यकार हम उन्हें समझते हैं जो अन्तत: अपने समय के सबसे अधिक प्रगतिशील वर्ग के दृष्टिकोण को अपना लेते है। जाहिर है कि इस प्रगतिशील दृष्टिकोण की भी कुछ सीमाएं होंगी और इसे अपना लेने के बाद भी व्यक्ति की चेतना में कुछ भ्रान्तियां विद्यमान रहेंगी। उस समय का महान से महान साहित्यकार भी इन सीमाओं को तोड़ नहीं पायेगा। यह दूसरी बात है कि ऐतिहासिक विकास के दौर में क्योंकि इन सीमाओं का होना हमें स्वभाविक लगेगा, इसलिए वे हमें अखरेंगी नहीं। उदाहरण के लिए शेक्सपीयर अपनी रचनाओं में अपने समय के सबसे अधिक प्रगतिशील बुर्जुवा मानववादी दृष्टिकोण को अपनाता हुआ दिखाई देता है और उसके आधार पर मानव-जीवन की जो व्याख्या प्रस्तुत करता है वह उसकी वह उसकी समझ की परिपक्वता और सहानुभूति के विस्तार के कारण हमें आज भी पूर्णतया प्रामाणिक लगती है। किन्तु मानव-जीवन की शेक्सपीयर की यह समझ काफी व्यापक होने के बावजूद उन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाती जो उस समय के बुर्जुआ दृष्टिकोण के अन्दर ऐतिहासिक अनिवार्यता के रूप में विद्यमान है। प्रतिक्रियावादी लेखक हम उन्हें कहते हैं जो अपनी रचनाओं में किसी ऐसे वर्ग की विचारधारा को अपनाये रहते हैं जो एतिहासिक विकास के क्रम में पिछड़ चुका है ओर जिसका सांस्कृतिक प्रभुत्व उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुकूल न होने के कारण अनुचित एवं असहाय लगने लगा है। यहां यह स्पष्टट कर देना जरूरी है कि सचेत रूप में एक पिछड़ी हुई विचारधारा को अपनाये हुए रहकर भी एक लेखक अपने मानस के गहराई में प्रभुतासम्पन्न वर्ग के सांस्कृतिक नियंत्रण से छुटकारा पा सकता है। साहित्यिक रचना में क्योंकि व्यक्ति के अनुभव के सभी सारभूत और केन्द्रीय पक्ष व्यक्त होते हैं, इसलिए यहां उसकी ऊपर से ओढ़ी हुई विचारधारा और गहरे में अपनायी हुई विचारधारा का अन्तर्विरोध स्पष्टट रूप में सामने आ जायेगा। किन्तु जो भी दृष्टिकोण लेखक अपनी रचनाओं में अपनाता है उसमें वर्गगत आग्रह और पक्षपात जरूर बने रहते हैं और उसका यह लेखकीय दृष्टिकोण तत्कालीन सामाजिक जीवन में पाये जाने वाले वर्ग-संघर्ष से अनिवार्य रूप में प्रभावित होता हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि परस्पर विरोध साहित्यिक दृष्टि और विचारधारा का नहीं, बल्कि छद्म-चेतना और वास्तविक चेतना का है जो कि साहित्यिक रचनाओं में भी उसी प्रकार उभर कर आता है जिस प्रकार उनके बाहर सामाजिक जीवन में।

            साहित्य और विचारधारा के परस्पर विरोध के सिद्धान्त के पक्ष में प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तकों द्वारा कई बार एक तर्क यह भी दिया जाता है कि जहां साहित्यकार का सरोकार मानव स्वभाव की उन उद्दात आकांक्षाओं और लालसाओं से होता हो जो हमें अन्य जीवों से भिन्न और श्रेष्ठ बनाती हैं, विचारधारा का क्षेत्र राजनीतिक क्षेत्र है जो सभी व्यक्ति अपने टुच्चे स्वार्थों से अभिभूत होकर एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहते हैं। इस मत के अनुसार साहित्य को विचारधारा से जोड़ने का मतलब होगा उसे एक ऐसे पार्थिव धरातल पर ला खड़ा करना जहां छीना-झपटी और कीचड़ उछालने के सिवाय कुछ नहीं है। उनकी दृष्टि में साहित्य वास्तव में हमें याद दिलाने का एक सशक्त माध्यम है कि हम किन्हीं क्षणों में कोरे जैविक धरातल के ऊपर उठकर नैतिकता के उच्च आदर्शो को छू सकते हैं और अपनी चेतना को इतना विस्तार दे सकते हैं कि अपने पृथक अस्तित्व को भुला दें और पूर्णतया निर्वैयक्तिक हो जायें।

            साहित्य को इस प्रकार के लोकोत्तर स्तर पर खड़ा करने के अधिकांश प्रयासों के छल को तो हम आसानी से पहचान लेते हैं। किन्तु क्योंकि बुर्जुआ वर्ग के चिन्तकों के लिए साहित्य को साधारण जीवन से अलग बनाये रखना अब बेहद जरूरी हो गया है, वे बार-बार नित नये सूक्ष्म रूपों में इस स्थापना का सहारा लेते रहते हैं। अपने कुछ सूक्ष्म रूपों में उनकी यह स्थापना साहित्य के बारे में हमारे चिन्तन को अभी भी विकृत करती रहती है। जब कभी हम अपने नैतिक आदर्शों को दैनिक जीवन की गतिविधियों से पृथक करके एक को साध्य और दूसरे को साधन की कोटि में रखने लगते हैं या सामाजिक तनावों और द्वन्द्वों को निम्न स्तर के अनुभव का भाग मानकर कला से एक उच्च समन्वयवादी दृष्टि की माँग करते हैं अथवा जब कभी साहित्य को राजनीति के ‘दलदल’ में घसीट लाने से हमें उसकी शुद्धता खतरे में पड़ती हुई दिखाई देने लगती है तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम भाववादी जाल में फंसने लगे हैं और यह भूलने लगते हैं कि ‘भौतिक’ और ‘आध्यात्मिक’ एक दूसरे से स्वतंत्र एवं परस्पर विरोधी तत्व नहीं हैं तथा राजनीति केवल बुर्जुवा चालाकियों का ही दूसरा नाम नहीं है बल्कि सामूहिक प्रयासों द्वारा हमारी जीवन-परिस्थितियों में आवश्यक बदलाव लाने का विज्ञान है। इसी प्रकार जब कभी हम साहित्यकार को एक अतिविशिष्ट प्राणी मानकर उससे ऐसी ‘मौलिक’ दृष्टि की अपेक्षा करने लगते हैं जिससे हमारे आस-पास की जानी-पहचानी दुनिया एकदम अनोखी रोशनी के साथ चमत्कृत हो उठे और हमें लगने लगे कि साहित्यिक रचना में प्रवेश पाकर हमारा अनुभव संसार पूरी तरह रूपान्तरित हो गया है तो हमें सतर्क हो जाना चाहिए कि कहीं हम साहित्य के संसार को किसी-न-किसी रूप में अलौकिक और अनुपम तथा वास्तविक जीवन के नियमों के परे तो नहीं मान रहे हैं। इधर जब नववाम से जुड़े हुए कुछ चिंतक कला को आधुनिक जीवन-परिस्थितियों से उत्पन्न आत्मनिर्वासन  तथा व्यक्तित्व अवमूल्यन की भावना से उबरने का एक मात्र सशक्त माध्यम मानने लगे हैं और तत्कालीन सामाजिक जीवन को प्रतिबिम्बित करने के बजाय उससे ऊपर उठ जाने की क्षमता (transcendence) में ही कला की सार्थकता देखने लगे हैं तो हमें लगता है कि वे कला में किसी लोकोत्तर जादुई प्रभाव की कल्पना कर रहे हैं और इस प्रकार प्रतिक्रियावादी चिंतकों की भ्रान्तियों से प्रभावित हो गये हैं। यह सही है कि एक समर्थ साहित्यकार अपनी रचनाओं में तत्कालीन जीवन-परिस्थितियों की सीमाओं का अतिक्रमण करता है, किंतु ऐसा वह केवल तत्कालीन परिस्थितियों के गर्भ में छिपी हुई वास्तविक सम्भावनाओं को ही मूर्त रूप देने के लिए करता हैं। अपनी रचना के माध्यम से साहित्यकार किसी ऐसे सामानान्तर संसार की सृष्टि नहीं करता जहां हमें वह कुछ लब्ध हो जाये जिसे वास्तविक संसार में आवश्यक सामाजिक संघर्षों द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता।

            साहित्य और विचारधारा के विरोध को स्पष्ट करने के लिए प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तक जो तीसरा तर्क प्रस्तुत करते हैं वह कुछ हद तक दूसरे तर्क के विरुद्ध जाता है। उनका कहना है कि जहां विचारधारा के अन्तर्गत केवल हमारी समूहगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कुछ सामान्यीकृत नियमों का प्रतिपादन होता है वहां साहित्य में व्यक्ति के निजी अनुभवों को पूरी विशिष्टता और जटिलता में पकड़ने का प्रयास होता है। विचारधारा के सूत्रों में बंध जाने के बाद व्यक्ति के अनुभव की सम्पूर्ण आत्मीय अनुपमता और विलक्षणता समाप्त हो जाती है और उसकी जीवन्त मूर्तता क्षीण पड़ जाती है। साधारण जीवन में तो हम अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपने अनुभव को सरलीकृत करने को विवश होते हैं और उसके जो अंश समाज के नियमों और सामूहिक निर्णयों के माध्यम से व्यक्त होते हैं, उन्हें ही उसका सारतत्व मान लेते हैं किन्तु साहित्य में हम अपनी व्यक्गित स्वतंत्रता और अपने निजी अस्तित्व की समृद्धि को बिना किसी समूहगत दबाव के महसूस करना चाहते हैं। यदि हम साहित्य को विचारधारा से जोड़े रखेंगे तो इसका मतलब होगा कि व्यक्ति को अनिवार्य रूप से पंक्तिबद्ध होकर अपने व्यक्तित्व के संभाव्य वैभव से वंचित होना पड़ेगा। यदि मानव को अपनी स्वायतता कायम रखनी है और उसे एक अद्वितीय और अभेद्य इकाई होने का प्रखर अहसास बनाये रखना है तो कम से कम साहित्य को हमें सामाजिक दायित्वों के बन्धनों से अथवा समूह के आदेशों से मुक्त रखना होगा, विशेषकर आजकल के तकनीकी युग में जब कि मनुष्य धीरे-धीरे एक पेचीदा मशीन का पुर्जा सा बनता जा रहा है और वे सभी क्षेत्र उसके लिये आहिस्ता-आहिस्ता लुप्त हो रहे हैं जो वह अपना यह अहसास कायम रख सके कि वह अपने विकल्प स्वयं चुन सकता है। साहित्यिक रचना ही अब ऐसा क्षेत्र बचा है जहां व्यक्ति अपनी स्वायत्तता को बनाये रख सकता है और अपने व्यक्तित्व की असीम संभावनाओं को मूर्त रूप दे सकता है। यदि यहां भी हम विचारधारागत सेंसर स्वीकार कर लेते हैं और समाज के आकाओं के आदेश के अनुसार वैसी ही रचनाएं गढऩे लगते हैं जैसी कि उनके हिसाब से आम पाठकों के सामने लायी जानी चाहिए तो जल्दी ही साहित्य एक सरकारी फरमान या पार्टी का नारा बनकर रह जायेगा और उसकी आत्मा मर जायेगी।

            क्योंकि यह दलील शीतयुद्ध की राजनीति के अन्तर्गत पिछले दो तीन दशकों के दौरान बड़े जोर-शोर से प्रचारित होती रही है और हमारे देश के बहुत से ऐसे बौद्धिक लोग भी इससे प्रभावित हुए हैं जो अपने आपको प्रगतिशील खेमें में शामिल समझते हैं, इसके वास्तविक सारतत्व को पहचानना बहुत जरूरी है। जो लेखक संवेदन के धरातल पर अपने आपको मेहनतकश जनता से संबद्ध समझते हैं और यह आपत्ति करते हैं कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी का अनुशासन मानना उनकी इस संवेदनात्मक संबद्धता को खण्डित करता है उनका चिन्तन भी जाने-अनजाने में अकसर इसी प्रतिक्रिया बुर्जुआ (अथवा निम्न पूंजीजीवी) अवधारणा की गिरफ्त में हैं।

            इस प्रकार के चिन्तन में मूल व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंध की बहुत ही असंगत और अराजक परिकल्पना विद्यमान होती है। समाज को यहां एक ऐसा समूह मान लिया जाता है जहां प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से अलग-अलग है और जहां सभी व्यक्तियों को किसी बाह्य शक्ति द्वारा उनकी इच्छा के विरूद्ध बलपूर्वक एक साथ रखा जाता हैं यहां यह मान लिया जाता है कि हर प्रकार के सामाजिक संगठन के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतंत्रता को आघात पहुंचता है और सभी सामूहिक क्रियाएं व्यक्ति की अस्मिता को ठेस पहुंचाती हैं। वास्तव में हमें मानव इतिहास के किसी भी दौर में ऐसा कोई समाज नहीं दिखाई देगा जहां प्रत्येक व्यक्ति अन्य सभी व्यक्तियों से अलग-थलग हो और जहां सामाजिक ढांचा सभी व्यक्तियों पर समान रूप से थोपा हुआ एक बाह्य बंधन हो। अब तक के इतिहास में आरम्भिक काल के कुछ समाजों को छोड़कर व्यक्तियों के परस्पर संबंध वर्ग-विभाजन के कटु तथ्य से निर्धारित होते रहे हैं तथा एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्पर्क दोनों की वर्गीय भूमिका के आधार पर निश्चित होता रहा हैं अब तक के अधिकांश समाजों में एक वर्ग-विशेष का अन्य वर्गों पर अधिनायकत्व रहा है और प्रभुता-सम्पन्न वर्ग के लोग अपनी इच्छाओं और प्रयोजनों को शासित-शोषित वर्गो से संबंध रखने वाले लोगों पर थोपते रहे हैं। इन समाजों में सामाजिक संगठन सभी लोगों पर समान रूप से थोपा हुआ बाह्य नियन्त्रण होकर एक वर्ग के लोगों द्वारा सामूहिक रूप में अन्य लोगों की इच्छाओं और प्रयोजनों को अपने हितों अनुकूल ढालने की एक विधि रहा है। व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर जो बंधन इन समाजों में दिखाई देते हैं वे वास्तव में मुख्यत: प्रभुता सम्पन्न वर्ग के हितों की रक्षा के लिए ही लगाये जाते रहे है। इसके अलावा प्राकृतिक शक्तियों के सामने मनुष्य की विवशता भी उसकी स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों का काम करती रही है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहले कारण से लगे प्रतिबन्धों को तो प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिंतक समाज का अंग होने की व्यक्ति की ‘विवशता’ का ही अनिवार्य परिणाम बताने लगते हैं और दूसरी प्रकार के प्रतिबंधों को वे या तो बिल्कुल नजरअंदाज कर देते हैं या फिर उन्हें मानव नियति का स्थायी अंग मानकर उन्हें भोगते रहने की सलाह देते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि पहले प्रकार के प्रतिबंधों को हटाने के लिए व्यक्ति का समूह से अलग होना जरूरी नहीं है, बल्कि इसके विपरीत शोषित वर्गों से सम्बन्ध रखने वाले सभी व्यक्तियों के सहयोग तथा इनके सामूहिक संघर्षों द्वारा शोषक वर्ग के अधिनायकत्व को समाप्त करना जरूरी है। ऐसे समाज के अन्दर जहां वर्ग-विभाजन के आधार पर चलने वाला शोषण समाप्त हो चुका हो व्यक्ति अपने आपको सामाजिक संगठन के अंदर अवरूद्ध होता हुआ महसूस नहीं करेगा और उसके सामाजिक दायित्व उसके व्यक्तित्व की सार्थक अभिव्यक्ति हो जायेंगे। क्योंकि सर्वहारा पार्टी के संगठन में रहकर व्यक्ति के व्यक्तित्व की इसी प्रकार की सार्थक अभिव्यक्ति होती है, अत: उसके अनुशासन से भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को कोई वास्तविक खतरा नहीं होता।

            क्योंकि मानव के व्यक्तित्व का विकास सामाजिक संगठन के विस्तार  और विकास साथ ही सम्भव हुआ है, अत: समाज से बाहर उसके व्यक्तित्व की सम्पन्नता को बनाये रखना असम्भव है। यदि हमारे व्यक्तित्व के वे सभी आयाम न रहें जो सामाजिक विकास की देन हैं तो हमारा व्यक्तित्व बहुत ही प्राथमिक स्तर का बन कर रह जायेगा। केवल शोषण और उत्पीड़न पर आधारित समाज व्यवस्था में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता और अस्मिता नष्ट होती है और उससे वह अवश्य मुक्ति चाहता है किन्तु मुक्ति की उसकी यह कामना समाज-मात्र से बाहर निकलने के लिए नहीं, उस विशिष्ट प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने भर के लिये होती है और इसके लिये उसे सामूहिक संघर्ष में शामिल रहने के लिये तैयार होना पड़ता है। व्यक्ति-स्वतंत्रता की प्रतिक्रियावादी चिन्तकों द्वारा की जाने वाली अराजक कल्पना के आधार पर शोषक वर्गों के अधिनायकत्व को कोई प्रभावशाली चुनौती नहीं मिलती। इसीलिये साहित्य और विचारधारा के विरोध की पुष्टि में दी जाने वाली इस प्रकार की दलील उनके राजनीतिक उद्देश्यों अनुकूल पड़ती है।

            व्यक्ति की स्वतंत्रता पर दूसरी प्रकार के प्रतिबन्धों को हटाने के लिये भी विभिन्न व्यक्तियों में अधिकतम सहयोग की आवश्यकता होती है। अकेला आदमी प्राकृतिक शक्तियों के सामने पंगु है। परस्पर सहयोग द्वारा ही मनुष्य धीरे-धीरे प्राकृतिक शक्तियों की क्रिया-विधियों को समझ सका है और उन्हें अपनी इच्छाओं और प्रयोजनों के अनुकूल बनाने के तरीकों का आविष्कार कर सका है। इसीलिए सामाजिक संगठन के माध्यम से व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सका है और अपनी स्वतंत्रता के दायरे को विस्तार दे सका है यद्यपि यह सम्भव केवल तभी हुआ है जबकि यह संगठन उत्पादन शक्तियों को अवरूद्ध करने वाला न होकर उन्हें सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित करने वाला हो। अत: व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल, व्यक्ति और समाज के विरोध का सवाल नहीं है, बल्कि शोषक और शोषित वर्गों के संघर्ष का तथा उत्पादन शक्तियों के सही उपयोग का सवाल है।

            व्यक्ति के अनुभव की विशिष्टता, सघनता और मूर्तता को बचाये रखने के संदर्भ में भी व्यक्ति और समूह के परस्पर विरोध की कल्पना तर्कसंगत नहीं है। हमारे अनुभव के बहुत सारे पक्ष ऐसे हैं जो एक साथ ही विशिष्ट भी हैं और सामान्य भी। यदि सभी व्यक्ति एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न होते तो विशिष्ट और सामान्य का इस प्राकर का संयोजन असम्भव होता और अनुभवों के आदान-प्रदान की कल्पना भी हम उस समय न कर पाते। किन्तु साहित्य के माध्यम से वास्तव में हमारे उन सभी अनुभवों की अभिव्यक्ति होती रहती है जो हमारे अपने निजी अनुभव होते हुये भी उन सभी व्यक्तियों के अनुभव के सारतत्व को लक्षित करते हैं। जिनकी वर्गगत भूमिका की दृष्टि से एक सांझी नियति है। हमारे सबसे महत्वपूर्ण और केन्द्रीय अनुभव होते ही वे हैं जो अपनी जीवन-परिस्थितियों की चुनौती को एक वर्ग के रूप में स्वीकार करते समय हमें उपलब्ध होते हैं। इस वर्गगत नियति की साझेदारी को नजर-अंदाज करने के बाद व्यक्ति के अनुभव के जो अंश बचे रहते हैं उनमें उसके व्यक्तित्व के केन्द्रीय पक्ष लक्षित नहीं होते। इसीलिए कोरी विशिष्टताओं के बल पर अनुभव की मुर्तता अथवा सघनता का आभास नहीं दिया जा सकता। अनुभव की मूर्तता और सघनता को जांचने के लिये हमें यह देखना होता है कि उसमें व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व की कितनी झलक मिलती है। निसंदेह हमारा समूचा व्यक्तित्व उन अनुभवों के माध्यम से ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हो सकता है जो एक साथ ही विशिष्ट भी है और सामान्य भी।

            व्यक्ति के अनुभव की विशिष्टता और मूर्तता को आघात वास्तव में सामूहिकता की बजाय स्वछन्दतावादी अलगाव से अधिक पहुंचता है। जब अपने व्यक्तित्व में हम किसी ऐसे आंतरिक वैभव की कल्पना करते हैं जो हमारी बाह्य गतिविधियों अथवा सामाजिक दायित्वों के माध्यम से व्यक्त नहीं होता तो हम वास्तविक और गैरवास्तविक सम्भावनाओं के भेद को मिटा देते हैं और इस प्रकार व्यक्तित्व की विशिष्टता को परिभाषित करने के एक आवश्यक मानदण्ड को ही भुला देते हैं। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता केवल उन्हीं मूर्त संभावनाओं के माध्यम से स्पष्टट होती है जो तत्कालीन जीवन-परिस्थितियों के साथ हमारे वास्तविक टकरावों और निर्णायक हस्तक्षेपों के रूप में व्यक्त होती है। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्दर असीम संभावनाओं की कल्पना कर सकता है, किन्तु इनके आधार पर उसके व्यक्तित्व की विशिष्टता परिभाषित नहीं होती। अपनी सामाजिक नियति से वह किस प्रकार निपटता है इसी के आधार पर हम उसकी वास्तविक संभावनाओं को जान पाते हैं और केवल उन्हीं सम्भावनाओं द्वारा उसके व्यक्तित्व की विशिष्टता निर्मित होती है।

            साहित्य और विचारधारा को एक-दूसरे के विरूद्ध खड़ा करने के लिए एक तर्क यह भी दिया जाता है कि कोई विचारधारा मानवीय अनुभव की जीवन्त गतिमयता को यथेष्ठ रूप में पकड़ नहीं पाती, बल्कि उसका यांत्रिक विवरण देकर उसे जड़ रूप दे देती है। यह कहा जाता है कि हम विश्व के इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्टट हो जायेगा कि घटनाओं के प्रत्येक महत्वपूर्ण मोड़ पर सभी महान चिन्तकों और राजनीतिक नेताओं ने यह पाया है कि वस्तुस्थिति उनके अपने पुराने निष्कर्षों से बहुत आगे निकल जाती है और उन्हें अपनी विचारधारा के किले से बाहर निकलकर ही तत्कालीन परिस्थितियों से साक्षात्कार करना पड़ता है, अपनी विचारधारा के सूत्रों में बंधे रहकर वे तत्कालीन परिस्थितियों में कोई निर्णायक हस्तक्षेप न कर पाते। हमारा वास्तविक अनुभव प्रतिपल बदलता रहता है, आज जिस रूप में हम उसे देखते हैं कल वह इससे सर्वथा भिन्न होगा। किंतु विचारधारा एक विशिष्ट समय की वस्तुस्थिति के विश्लेषण पर आधरित कुछ निष्कर्षों को सर्वमान्य सिद्धांतों का रूप देकर हमारे अंदर ऐसी मतान्ध्ता पैदा कर देती है कि हम पूर्व-प्रतिपादित निरन्तर यांत्रिक ढंग से अपने नये अनुभवों  पर लागू करते हैं। इस प्रकार नये अनुभवों को कुछ जड़ अवधारणाओं में अनुदित करते रहने के कारण अन्तत: हम उनकी जीवन्त वास्तविकता को समझ पाने में पूर्णतया असमर्थ हो जाते हैं। वास्तविकता का सीधे साक्षात्कार करना एक जोखिम भरा काम है। बनी बनायी विचारधारा का सहारा लेकर हम इस जोखिम से आसानी से बच जाते हैं। और यदि हम किसी राजनीतिक दल के सदस्य हुए तो फिर हमें अपनी इस बुजदिली को छिपाये रखने के लिये एक अच्छा खासा मुखौटा मिल जाता है। एक साहित्यकार के लिये विचारधारा और वास्तविक अनुभव के बीच का यह अन्तराल (gap) बहुत घातक सिद्ध होता है। एक सच्चा साहित्यकार अपनी कल्पनाशक्ति द्वारा मानवीय अनुभवों की उन झलकियों, भंगिमाओं, कटाक्षों और छवियों को पकड़ना चाहता है जिन्हें सिद्धांतों के रूप में प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। विचारधारा के चुंगल में फंसा हुआ साहित्यकार अनुभव की नित नयी छवियों के स्थान पर घिसी-पिटी पुरानी उत्तिफयों की ही पुनरावृति करता रहेगा। विचाराधाराजनित जड़ता और मतान्धता उसके सामने एक ऐसी दीवार बन जायेगी कि किसी भी नये अनुभव से उसका सीधा साक्षात्कार नहीं हो सकेगा और धीरे-धीरे उसका लेखन कृत्रिम और नीरस हो जायेगा। कुछ बुर्जुआ चिन्तक तो इस विषय में इतने संदेहशील विषय हो जाते हैं कि उन्हें केवल साहित्य और विचारधारा के बीच ही नहीं साहित्य और विचारधारा के बीच आधारभूत विरोध दिखाई देने लगता है। उनके अनुसार हम बौद्धिक विश्लेषण-विवेचन करते समय किसी भी अनुभव में सीधे-सीधे भागीदार नहीं हो सकते। जब हम किसी अनुभव को संवेदना के द्वारा ग्रहण करने की बजाय केवल अपनी विचार शक्ति द्वारा जानते हैं तो हम साहित्य क्षेत्र से निकलकर विज्ञान अथवा दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। साहित्य और वक्तव्य में यह एक आधारभूत अन्तर है कि साहित्य में किसी अनुभव को उसके शरीर और आत्मा के साथ पकड़ा जाता है जब कि वक्तव्य में उसका केवल बाह्य विवरण प्रस्तुत किया जाता है। वास्तव में साहित्य के तीव्र प्रभाव का रहस्य ही यही है कि हमारे अनुभव के वे पक्ष यहाँ विशेष रूप से विद्यमान होते हैं जिन्हें तर्क के बल पर नहीं पकड़ा जा सकता और जो संवेदना के अर्धचेतन अथवा अवचेतन स्तर पर ही ग्रहण किये जा सकते हैं।

            जाहिर है कि यहाँ विचारधारा का मतलब केवल वर्गगत दृष्टिकोण तक सीमित न रहकर तर्कपूर्ण विश्लेषण द्वारा सुव्यवस्थित निष्कर्षों तक पहुंचने की बौद्धिक क्रिया हो जाता है। आज प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ विचारधारा इतनी अवैज्ञानिक और असंगत हो चुकी हैं कि अब वह तर्क और गम्भीर विचार-विमर्श के बल पर खड़ी नहीं हो सकती। इसीलिये बुर्जुआ चिन्तकों की यह कोशिश रही है कि तर्क और विश्लेषण को अनुचित घोषित कर दिया जाये ओर यह प्रचारित किया जाये कि हमारे अनुभवों और परिस्थितियों को विचार अथवा बौद्धिक चिन्तन के द्वारा व्याख्यायित करने के सब प्रयास निरर्थक हैं। विचार और अनुभव के बीच इस प्रकार के अन्तर्विरोध की आत्यान्तिक अवधारणा हमें मान्य नहीं हो सकती। हम जानते हैं के सभी जटिल और महत्वपूर्ण मानवीय अनुभवों में, विशेषकर सामाजिक परिस्थितियों से जुड़े हुए अनुभवों में, बौद्धिक चिन्तन और तर्कपूर्ण विश्लेषण अभिन्न रूप से विद्यमान रहते हैं। जो अनुभव हमारे व्यक्तित्व के अर्धचेतन और अवचेतन धरातल पर पहुंच जाते हैं वे भी अपनी ‘प्रारम्भिक’ अवस्था में चेतना के अंग थे और उनमें से अधिकांश में बौद्धिक ऊर्जा सक्रिय रूप में विद्यमान थी। वास्तव में कुछ प्राथमिक ऐन्द्रिक स्पन्दनों को छोड़कर हमारे सभी अनुभवों में बौद्धिक क्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस ‘समझ’ के आधार पर हम अपने क्षणिक अनुभवों को संयोजित करते हैं और उन्हें पचा कर अपने व्यक्तित्व का विकास करते चलते हैं उसके ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक दोनों ही पक्ष समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और इनमें से किसी एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। ‘विचार’ और ‘भावना’ के द्विभाजन का वास्तव में कोई वस्तु परक आधार नहीं है। हमारे अनुभवों को ठीक तरह समझने के लिये ये केवल सुविधाजनक परिकल्पनाएँ ही हैं।

            जहां तक विचारधारा की जड़ता और निरन्तर बदलते रहने वाले वास्तविक अनुभव से उसके पिछड़ जाने का सवाल है, वहां भी गौर करने पर हमें बुर्जुआ चिन्तकों की स्थापनाएँ अनुचित सरलीकरणों से ग्रस्त दिखाई देंगी। बदलती हुई वास्तविकता के प्रत्येक बदले हुए रूप को समझने के लिये हमें एक सुनिश्चित दृष्टिकोण चाहिये। यह दृष्टिकोण प्रथमत: तो हमारी वर्गगत भूमिका से निर्धारित होता है, किन्तु इसके साथ ही इसे प्रखर बनाने के लिए यथेष्ट मात्र में बौद्धिक क्षमता भी चाहिये। वस्तुस्थिति को समझने के लिए काम में लाये जाने वाले इस दृष्टिकोण से ही हमारी विचारधारा का मूल स्वरूप जाना जाता है। इस दृष्टिकोण को अपना कर हम जिन निष्कर्षों पर पहुंचते हैं वे विचारधारा को एक विशिष्ट रूप प्रदान करते हैं। जब तक वस्तुस्थिति में कोई बदलाव नहीं आता विचारधारा का यह विशिष्ट रूप कायम रहता है। एक ही वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले लोग यदि अपनी बौद्धिक क्षमता को किसी तरह सुकेन्द्रित कर सकें तो वस्तुस्थिति की उनकी समझ और भी स्पष्ट और प्रखर हो जाती है। किन्हीं दी हुई परिस्थितियों में सर्वहारा वर्ग के अनुभवों के केन्द्रीय पक्षों को ठीक तरह से समझने का काम सर्वहारा वर्ग की पार्टी का नेतृत्व करता है और उन सभी व्यक्तियों के लिए जो इस वर्ग के दृष्टिकोण से तत्कालीन परिस्थितियों को समझना चाहते हैं पार्टी द्वारा किया गया यह सामूहिक प्रयास बहुत उपयोगी सिद्ध होता हैं यदि कोई व्यक्ति परिस्थितियों के बारे में विकसित की जाने वाली इस सामूहिक समझ को यान्त्रिक रूप में नहीं अपनाता तो तत्कालीन अनुभवों की उसकी अपनी समझ कुन्द होने के बजाय और अधिक प्रखर हो जायेगी।

            ज्यों ही वस्तु-स्थिति में कुछ परिवर्तन आ जाता है, त्योंही उसी सुनिश्चित दृष्टिकोण के आधार पर एक नयी समझ विकसित कर ली जाती है और यह संभव है कि इस नयी समझ में कुछ पुराने निष्कर्ष बदल जाते हैं और इस प्रकार विचारधारा के बाह्य रूप में कुछ नयापन दिखाई देने लगे किन्तु यह मान लेना कि किसी भी नये अनुभव को समझने में हमारे सभी पुराने विचार-बिन्दु और निष्कर्ष व्यर्थ हो जाते हैं, एकदम भ्रान्तिपूर्ण है। जहां वस्तुस्थिति कुछ हद तक बदलती है वहां उसमें निरन्तरता भी बनी रहती है। यह बात व्यक्ति के अनुभव के बारे में भी उतनी ही सही है जितनी एक वर्ग-समूह या फिर एक पूरे समाज के अनुभव के बारे में। हमारी जीवन परिस्थितियों की जो समझ हम धीरे-धीरे अर्जित कर चुके हैं, वह एकदम बेकार सिद्ध हो जाती हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। मार्क्सवादी चिन्तन-पद्धति तो विशेष रूप से हमारे अनुभवों की द्वन्द्वात्मक गतिशीलता को पहचान कर चलती है। ज्यों-ज्यों जीवन-परिस्थितियाँ बदलती हैं (या बदल जाती हैं), त्यों-त्यों उन्हें नये सिरे से समझने पर मार्क्सवादी चिन्तक बल देते है। दृष्टिकोण सुस्थिर बना रहता है, किन्तु नयी स्थिति को व्याख्यायित करने वाले कुछ नये निष्कर्ष उभर आते हैं। यान्त्रिकता और मतान्धता तो मार्क्सवादी चिन्तन पद्धति अथवा विचारधारा में नहीं बल्कि उन चिन्तन-पद्धतियों और विचारधाराओं में पायी जाती हैं जो वास्तविकता से गुमराह करने के लिये प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तक हमारे लिये गढ़ते रहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तविक विरोध अनुभव और विचारधारा के बीच नहीं है, बल्कि बदलती हुई वास्तविकता और ठहरी हुई यान्त्रिक चिन्तन पद्धति अथवा भाववादी बुर्जुआ विचारधारा के बीच है। बिना वैज्ञानिक और वस्तुपरक दृष्टिकोण अपनाये हम किसी भी अनुभव को पूरी तरह ‘पकड़’ नहीं सकते। साहित्य में विशेष रूप से अनुभव को ‘ज्यों का त्यों’ अधकचरे रूप में नहीं रखा जाता, बल्कि उसे अच्छी तरह समझने-बूझने के पश्चात् शब्द-बद्ध किया जाता है और समझने-बूझने की इस क्रिया में लेखक का वर्गीय दृष्टिकोण हमेशा विद्यमान रहता है।

            ऊपर दिये गये विवेचन से यह स्पष्ट हो जाना चाहिये कि प्रत्येक साहित्यकार एक वर्ग-विशेष के दृष्टिकोण को अपना कर ही तत्कालीन जीवन-परिस्थितियों को समझने का प्रयास करता हैं अच्छा साहित्यकार सभी वर्ग-गत पक्षपातों से ऊपर नहीं उठ जाता, बल्कि अपने समय के सबसे अधिक प्रगतिशील वर्ग का पक्षधर होता है वह सामाजिक जीवन की गतिविधियों से कट कर नहीं बल्कि उनमें पूरी गम्भीरता एवं सक्रियता के साथ शामिल होकर ही कुछ उच्च नैतिक आदर्शों की स्थापना करता है। प्रगतिशील वर्गों के पक्षधर के रूप में तत्कालीन परिस्थितियों से साक्षात्कार करके ही वह इन आदर्शों का निर्माण करता है। उनकी रचना से अनुबद्ध होने वाले ये आदर्श तत्कालीन परिस्थितियों की केवल उपज ही नहीं होते उनके अन्दर आवश्यक परिवर्तन लाने की दिशा भी इंगित करते हैं। एक समूह का अंग बन जाने से साहित्यकार के अनुभव की विशिष्टता अथवा मूर्तता नष्ट नहीं होती, बल्कि उसके इस प्रकार के निर्णय से तो वह और भी पुष्ट होती है बशर्ते कि उसने अपने आपको प्रगतिशील वर्ग के सामूहिक संघर्षों के साथ जोड़ा हो। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समूहगत आग्रहों के विरोध की बात उठा कर हम अक्सर मानवीय स्वतंत्रता की आवश्यक शर्तों से ध्यान हटा देतेे हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल वास्तव में शोषक-उत्पीड़क वर्ग के अधिनायकत्व को समाप्त करने के सवाल के साथ जुड़ा हुआ है। शोषक रहित समाज की स्थापना के लिए किये जाने वाले सामूहिक संघर्ष में शामिल होना लेखक की स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त है। अच्छे साहित्य को खतरा समूह या पार्टी से नहीं केवल उत्पीड़क वर्ग और उसके संस्थानों से होता है। जड़ सिद्धांतों को यान्त्रिक ढंग से अनुभव पर लागू करने की विचारधारा मान लेना उचित नहीं है। विचारधारा एक वर्ग-विशेष से जुड़ी हुई चिन्तन-पद्धति और ‘समझ’ को कहते हैं और इनके आधार पर किसी विशेष समय पर वस्तु-स्थिति का जो विश्लेषण किया जाता है वह विचारधारा के विशिष्ट रूप को ही लक्षित करता है। किसी भी अनुभव को समझने अथवा प्रेषित करने के लिये एक निश्चित चिन्तन-पद्धतियों की विशेषताएं अथवा दृष्टिकोण को अपनाना पड़ता है। जड़ता और यान्त्रिकता सभी चिन्तन-पद्धतियों की नहीं केवल गैर-द्वन्द्वात्मक और भाववादी बुर्जुआ चिन्तन-पद्धतियों की विशेषताएं हैं। एक सुस्थिर दृष्टिकोण और चिन्तन-पद्धति के आधार पर जो निष्कर्ष और मान्यताएं उभर कर आती हैं उन्हें कुछ समय के बाद एकदम निरर्थक मानने लगना अनुचित होगा। किसी भी समय पर वस्तुस्थिति को उसकी सम्पूर्णता में समझने के प्रयास पूर्व-संचित सूक्तियों और निष्कर्षों का महत्वपूर्ण योगदान होगा यद्यपि परिस्थितियों के बदले हुए स्वरूप को पहचानने के लिये हमें अपनी बौद्धिक क्षमता और संवेदना से निरन्तर काम लेते रहना पड़ेगा। एक वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले लोगों की सामूहिक समझ अकेले व्यक्ति की समझ से अधिक प्रखर और व्यापक होगी। इस ‘समझ’ के ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक पक्षों को ध्यान में रखते हुए हम इसे मुक्तिबोध के शब्दों में ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ भी कह सकते हैं।

            यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि किसी भी साहित्यिक कृति में कोई-न-कोई विचारधारा अनिवार्यत: विद्यमान होती है, हमारे सामने प्रश्न उठता है कि इसे हम किसी रचना में किन रूपों में पहचान सकते हैं और एक रचना का मूल्यांकन करते समय उसमें अन्तर्निहित विचारधारा को कितना महत्व दिया जाना चाहिये।

            एक लेखक की विचारधारा प्रथमत: तो किसी वर्ग-विशेष द्वारा वस्तुस्थिति के सामूहिक रूप में किये जाने वाले सुस्पष्ट और सुव्याख्यायित विश्लेषण के तौर पर उपलब्ध हो सकती हैं यदि उसकी रचना की विषय-वस्तु ही अपने समय की प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं हैं तो उसकी विचारधारा रचना अन्दर विशेष तौर पर स्पष्ट निष्कर्षों और समाधानों के रूप में विद्यमान होगी। ऐसी रचनाओं में लेखक सीधे-सीधे स्वयं अथवा किन्हीं पात्रों के माध्यम से वक्तव्यों अथवा बहस के रूप में मुख्य समस्याओं को परिभाषित कर सकता है और उनके समाधान प्रस्तुत कर सकता है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में रचना का साहित्यिक मूल्य लेखक की स्पष्ट रूप में व्याख्यायित स्थापनाओं की सार्थकता पर ही अधिकांशत: निर्भर करेगा। यदि उसने प्रगतिशील वर्ग की विचारधारा को अपनाया है तो उसकी रचना में अधिक शक्ति होगी क्योंकि वहां उठाये गये सवाल और उनके जवाब अधिक सही होंगे। सही विचारधारा के चुनाव के साथ-साथ हमें ऐसी रचनाओं में यह भी देखना होता है कि लेखक ने उसे अपनी बौद्धिक एवं संवेदनात्मक क्षमताओं की धार पर रखकर पूरी तरह आत्मसात कर लिया है अथवा वैसे ही यान्त्रिक ढंग से अपना लिया है। इसका कुछ-कुछ अनुमान तो रचना में विद्यमान स्पष्ट वक्तव्यों की शक्ति को देखकर लगाया जा सकता है, किन्तु इससे भी अधिक विश्वसनीय तरीका यह है कि हम देखें कि पात्रों और घटनाओं के चुनाव में, कथानकों के विकास में, पात्रों की ओर अपनाये गये दृष्टिकोण में तथा बिम्बों और प्रतीकों में उसकी विचारधारा किस रूप में व्यक्त हो रही है। यदि लेखक ने विचारधारा को केवल सतही रूप में अपनाया हुआ है और उसके मानस की गहराइयों पर उसका तीव्र प्रभाव नहीं पड़ा है तो वह या ता ऐसे जीवन्त पात्रों और प्रभावशाली घटनाओं का चयन नहीं कर सकेगा जो उस विचारधारा की लॉजिक के अनुकूल हों या फिर ऐसी घटनाएँ और पात्र चुनेगा जो उसकी वास्तविक विचारधारा को मूर्त रूप में प्रस्तुत करते हों। किन्तु वक्तव्यों और कथानकों को हमें आरंभ से ही सतही मानकर नहीं चल पड़ना चाहिए। यदि वे रचना की संरचना का एक आवश्यक घटक बने हुए हैं और उसके अन्य घटकों के साथ अनिवार्य रूप में जुड़े हुए हैं तो वे रचना की शक्ति को बढ़ाते हैं और रचना को ठीक-ठीक समझने में पाठक के लिये सहायक सिद्ध होते हैं।

            जाहिर है कि इस प्रकार के व्यक्तव्यों और कथनों के रूप में तो विचारधारा अधिकतर उन्हीं रचनाओं में सामने आयेगी जहां लेखक सीधे-सीधे तत्कालीन सामाजिक जीवन की कुछ मुख्य समस्याओं से जूझ रहा हो या सुकेन्द्रित तर्कपूर्ण विश्लेषण द्वारा अपने स्वयं के अथवा पाठकों के कुछ विभ्रमों को तोड़ने का सचेष्ट  प्रयत्न कर रहा हो। ऐसी रचनाओं में स्पष्ट निष्कर्ष न दे पाना रचना को कमजोर बनायेगा, किन्तु अधिकांश रचनाओं में विचारधारा एक सुनिश्चित वर्गीय दृष्टिकोण के तौर पर कुछ अधिक सूक्ष्म रूपों में विद्यमान होती है। जब प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चिन्तक साहित्य से विचारधारा के बहिष्कार की बातें करते हैं तो उनकी नजर स्पष्ट व्यक्तव्यों की ओर ही अधिक होती है। जो विचारधारा प्रभुसतासम्पन्न वर्ग द्वारा हम पर थोपी हुई होती हैं उसे हम संस्कारों के रूप में ग्रहण कर चुके होते हैं उसकी मान्यताए हमें प्रत्यक्ष सत्य दिखाई देने लगती हैं और ‘मानव स्वभाव’ की हमारी कल्पना का वे अंग बन चुकी होती हैं। इसीलिये उसे सचेष्ट होकर व्याख्यायित करने की आवश्यकता हमें महसूस नहीं होती। इसके विपरीत परिवर्तनकामी वर्ग की विचारधारा नयी होती है। वह पहले वैचारिक धरातल पर व्याख्यायित होकर हमारे सामने आती है और पूर्णता सचेत और जागरूक होकर ही हम उसकी मान्यताओं को ग्रहण कर पाते हैं। दोनो प्रकार की विचारधाराओं के इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए ही प्रतिक्रियावादी चिन्तक साहित्य को विचारधारा से अलग रखने की बात उठाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यथास्थितिवादी तत्वों की विचारधारा तो तत्कालीन सांस्कृतिक वातावरण में ऐसी घुल-मिल गई है कि उसे व्यक्तव्यों के रूप में प्रचारित करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है जबकि सर्वहारा वर्ग की विचारधारा को पाठक तक पहुंचाने के लिये बहस और विश्लेषण का विशेष रूप से सहारा लेना पड़ता है। जब तक हम यह नहीं पहचान लेते कि साहित्य में विचारधारा कई सूक्ष्म रूपों में भी विद्यमान होती है, हम प्रतिक्रियावादी चिन्तकों के इस प्रपंच को नहीं समझ सकते। व्यक्तव्यों के रूप में प्रतिपादित विचारधारा से हमें केवल इसलिये आपत्ति नहीं होनी चाहिये कि उसे रचना में स्पष्ट रूप में क्यों दिया गया है। आपत्ति तो विचारधारा के स्वरूप को लेकर हो सकती है या फिर उस स्थिति में जबकि स्पष्ट रूप में प्रतिपादित विचारधारा रचना की संरचना का अंग न बन सकी हो और उसमें अन्तर्निहित विचारधारा के विरूद्ध पड़ती हो।

            रचना के अन्दर विचारधारा स्पष्ट अथवा सूक्ष्म रूप में विषय-वस्तु की हैसियत से विद्यमान न होकर परिप्रेक्ष्य के रूप में भी विद्यमान हो सकती है। जब एक जनवादी लेखक समकालीन जीवन के सन्दर्भ में प्रेम-कविता लिखता है अथवा प्रकृति-प्रेम सम्बन्धी रचना करता है तो मेहनतकश वर्गों की विचारधारा रचना की विषय-वस्तु में भले ही दिखाई न दे किन्तु परिप्रेक्ष्य के रूप में वह अवश्य मौजूद होगी। इसी परिप्रेक्ष्य के आधार पर लेखक दो व्यक्तियों के बीच विकसित होने वाले आत्मीय सम्बन्धों का समकालीन जीवन के अन्य पक्षों से जुड़ हुआ देखेगा और इस प्रकार उनकी वास्तविक सार्थकता को आँक सकेगा। उसकी रचना में प्रेम एक शुद्ध और अमूर्त तत्व के रूप में हमारे सामने नहीं आयेगा, बल्कि जिन व्यक्तियों के बीच यह सम्बन्ध विकसित हुआ है उनके समूचे व्यक्तियों की अभिव्यत्तिफ इस सम्बन्ध के माध्यम से होती हुई दिखाई देगी। उन व्यक्तियों पर जीवन-परिस्थितियों के किस प्रकार के दबाव पड़ रहे हैं और उनके विरूद्ध उनकी प्रतिक्रिया क्या है यह भी इस अनुभव के माध्यम से परोक्ष रूप में लक्षित कर दिया जायेगा। इस प्रकार परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही एक प्रतिक्रियावादी साहित्यकार और एक जनवादी साहित्यकार की रचनाओं का अन्तर स्पष्टट होता जायेगा। वैसे तो किसी भी ऐसे अनुभव की कल्पना करना असंभव है जहां व्यक्ति का विश्व दृष्टिकोण और जीवन सम्बन्धी उसकी मान्यताएं किसी-न-किसी रूप में विद्यमान न हों, किन्तु फिर भी कुछ रचनाओं के विचारधारात्मक पक्ष को मुख्यत: परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ही पहचाना जा सकता है।

            साहित्य और विचारधारा के परस्पर सम्बन्ध को पहचानने के लिये अन्त में हमें इस सवाल पर भी गौर कर लेना चाहिये कि क्या गलत विचारधारा को अपनाकर भी कोई रचनाकार अच्छे साहित्य की रचना कर सकता है। इस सवाल के दो पहलू हैं जिनमें से एक को इस विवेचन के दौरान पहले भी उठाया जा चुका है। सचेत रूप में प्रतिक्रियावादी विचारधारा अपनाये हुए होने के बावजूद यह संभव है कि लेखक अपने मानस की गहराई में उससे कहीं अधिक प्रगतिशील और तर्कसम्मत विचारधारा को स्वीकार का चुका हो। ऐसी स्थिति में उसकी रचना में जो शक्ति हमें दिखाई देती है वह वास्तव में उसकी गहरे में अपनाई हुई विचारधारा के करण ही आती है और सचेत रूप से अपनाई हुई विचारधारा से उसका कोई ताल्लुुक नहीं। बाल्जॉक की रचनाओं के संदर्भ में ऐंग्लस ने जिस ‘यथार्थवाद की विजय’ का जिक्र किया है वह वास्तव में दो भिन्न प्रकार की विचारधाराओं के इस प्रकार के द्वन्द्व के ही सूचक है।

            मानस की गहराई में अपनाई हुई विचारधारा के बल पर रचना में श्रेष्ठता आ जाने के साथ-साथ हमें यह भी मानना पड़ेगा कि एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा भी अक्सर पूर्णातया मानव-विरोधी अथवा गलत नहीं होती। एक प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण के आधार पर भी वस्तुस्थिति के कुछ पक्ष उभारे जा सकते हैं। वह दृष्टिकोण अनुचित इसलिये होता है कि उसके आधार पर वस्तुस्थिति के कुछ महत्वपूर्ण पक्ष या तो अनदेखे रह जाते हैं या फिर उन्हें बड़े विकृत ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिससे वह अपने समग्र रूप में ठीक तरह हमारे समाने नहीं आ पाती। किन्तु कुछ सीमित सच्चाईयां तो इस दृष्टिकोण के आधार पर भी जानी जा सकती ही हैं। एक समय ऐसा भी था जब यही दृष्टिकोण प्रगतिशील होता था और इसे अपनाने से कई महत्वपूर्ण सच्चाईयां हमारे सामने उभर आती थीं। बदली हुई परिस्थितियों में इस दृष्टिकोण का स्वरूप बदल जाता है और इसके आधार पर जानी जा सकने वाली बहुत सी सच्चाईयां अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रहतीं तथा उनमें से कुछ तो अब बिल्कुल ‘झूठी सच्चाईयां’ बनकर रह जाती हैं। किन्तु कुछ सच्चाईयां अब भी ऐसी शेष रह जाती हैं, जो कुछ-कुछ विकृत रूप में ही सही, इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण के अपनाने से हमारे सामने आती हैं। प्रतिक्रियावादी साहित्यकार भी समकालीन जीवन के कुछ मर्मों को छू लेते हुए मालूम पड़ते हैं। उदाहरण के लिये आधुनिक जीवन के एक तीखे अनुभव-आत्म निर्वासन की योरोपियन साहित्य में अभिव्यक्ति को लिया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी साहित्यकारों ने भी इसे अपने ढंग से प्रस्तुत किया है और प्रगतिशील साहित्यकारों ने भी। जहाँ तक प्रतिक्रियावादी साहित्यकारों की रचनाएँ इस अनुभव को केन्द्र में रखती हुई दिखाई देती हैं हमें वे प्रभावशाली नजर आने लगती हैं, किन्तु जिस दृष्टिकोण से इस अनुभव को प्रस्तुत किया जाता है उससे यह विकृत रूप में ही हमारे सामने आ पाता है। प्रतिक्रियावादी साहित्यकार या तो इसके मूल कारणों में जायेंगे ही नही या फिर उनकी गलत व्याख्या प्रस्तुत करेंगे और उनका मूल कारण-पंूजीवाद व्यव्स्था में व्याप्त मेहनतकश जनता का शोषण उन्हें दिखाई ही नहीं देगा। इस अनुभव के बाहर निकलने का सही रास्ता भी वे नहीं दिखा पायेंगे और इसे मानव-नियति का एक अनिवार्य पक्ष मानकर ही छुट्टी ले लेंगे। किन्तु उनकी रचनाओं से इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण अपनाकर भी एक साहित्यकार कुछ महत्वपूर्ण जीवनानुभवों को चाहे विकृत रूप में ही सही अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त कर सकता है यदि उन्हें शब्दबद्ध करने की साहित्यिक क्षमता उसमें यथेष्ट रूप में विद्यमान हो। इस सम्बन्ध मे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि साहित्यिक कृति के माध्यम से व्यक्त होने वाले किसी भी अनुभव में विचारधारा एक आधारभूत आयाम के रूप में विद्यमान होती है और रचना के मूल्यांकन में इस आयाम का महत्वपूर्ण स्थान होता है, किन्तु रचना में व्यक्त होने वाले अनुभव को हमें उसकी समग्रता में देखना चाहिये और उसकी सार्थकता को केवल उसमें अन्तर्निहित विचारधारा के स्वरूप के आधार पर ही नहीं आंकना चाहिये। एक ही प्रकार की विचारधारा के आधार पर ऐसी रचनाएं दी जा सकती हैं जो बौद्धिक क्षमता, संवेदन-शक्ति और अभिव्यक्ति माध्यम पर अधिकार की दृष्टि से एक दूसरे से काफी भिन्न हों। इन रचनाओं का मूल्यांकन करते समय हमें इन सभी बातों की ओर ध्यान देना पड़ेगा।

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ओम प्रकाश ग्रेवाल

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल
(1937 – 2006)

हरियाणा के भिवानी जिले के बामला गांव में 11 जुलाई 1937 को जन्म हुआ।भिवानी से स्कूल की शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त की।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। कला एवं भाषा संकाय के डीन तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डीन एकेडमिक अफेयर रहे।

जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं महासचिव रहे। जनवादी सांस्कृतिक मंच हरियाणा तथा हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के संस्थापकों में रहे। साक्षरता अभियान मे सक्रिय रहे।

‘नया पथ’ तथा ‘जतन’ पत्रिका के संपादक रहे।

एक शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों, शिक्षक सहकर्मियों व शिक्षा के समूचे परिदृश्य पर शैक्षणिक व वैचारिक पकड़ का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया। हिंदी आलोचना में तत्कालीन बहस में सक्रिय थे और साहित्य में प्रगतिशील रूझानों को बढ़ावा देने के लिए अपनी लेखनी चलाई। नव लेखकों से जीवंत संवाद से सैंकड़ों लेखकों को मार्गदर्शन किया।

वे जीवन-पर्यंत साम्प्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, सामाजिक अन्याय, स्त्री-दासता के सांमती ढांचों के खिलाफ सांस्कृतिक पहल की अगुवाई करते रहे। प्रगतिशील-जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता उनके व्यवहार व लेखन व वक्तृत्व का हिस्सा हमेशा रही।

गंभीर बीमारी के चलते 24 जनवरी 2006 को उनका देहांत हो गया।

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