पहाड़ में कायांतरित होता आदमी -कमलानंद झा                                                 

सिनेमा


                पहाड़ पुरुष दशरथ मांझी के व्यक्तित्व ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि ज्ञान, बुद्धिमत्ता और गहन संवेदनशीलता सिर्फ औपचरिक शिक्षा की मोहताज नहीं। अक्षर की दुनिया से सर्वथा महरूम दिहाड़ी मजदूर दशरथ मांझी के अविश्वसनीय सामाजिक कर्म ही नहीं बल्कि समय-समय पर कहे गए उनके सूत्रा वचन ज्ञान-गरिमा से मंडित पंडितों और विद्वानों को भी चकित करने वाले हैं। इनमें कुछ सूत्रा वचनों का रचनात्मक उपयोग केतन मेहता ने उनके चरित्रा पर बनी फिल्म ‘मांझी द माउंटेन मैन’ में किया है। ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्थावान दशरथ मांझी कर्माें के प्रति ईश्वर पर भरोसा करने वालों के लिए सिनेमा के अंत में कहते हैं, ‘भगवान के भरोसे मत बैठो क्या पता वह तुम्हारे भरोसे बैठा हो’। इन पंक्तियों का लेखक जब गहलौर गया तो गांव वालों ने बताया कि जब मांझी की सोहरत चारों तरफ फैल गयी थी तो एक पत्राकार के पूछने पर कि आप अपने बच्चों के लिए क्यों नहीं कुछ करते हैं तो उन्होंने कहा था कि ‘पहाड़ काटकर जो रास्ता मैंने बनाया है उस रास्ते से जो भी गुजरेंगेे वे मेरे बेटा पुतोहु (बहू) होंगे।’ वे बराबर कहते कि, ‘मुझे कभी भी पहाड़ आदमी से ऊँचा नहीं लगा।’ ये वक्तव्य हैं एक ऐसे निरक्षर इंसान के जिसने कभी स्कूल कॉलेज का मुंह नहीं देखा। जिसके हौंसले इतने बुलंद थे कि अपने अथक परिश्रम से गांव की तकदीर बदल दी।

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                केतन मेहता की फिल्म ‘’ दशरथ माँझी और उनकी पत्नी फगुनी के श्रम सौंदर्य और उदात्त प्रेम की विराट् फिल्म-कथा है। दशरथ मांझी की अद्भुत प्रतिज्ञा और विलक्षण प्रेम की कलात्मक अभिव्यक्ति। सामान्यतया किसी चरित्रा पर बनाई गई फिल्म (बायोपिक) का अभिजात्य मिजाज होना स्वाभाविक है, क्योंकि किसी प्रसिद्ध चरित्रा पर ही बायोपिक बनाने का रिवाज रहा है। केतन मेहता ऐसे विरल फिल्मकारों में एक हैं जो दशरथ मांझी जैसे ‘साधारण’ व्यक्ति पर असाधारण फिल्म बनाने का साहस जुटा सकते हैं। दशरथ मांझी का व्यक्तित्व भले ही कितना ही असाधारण क्यों न हो किंतु उनके चरित्रा में आज के चकाचौंध पूर्ण माहौल के अनुसार टिपिकल व्यावसाकिता की गुंजाइश नहीं थी। केतन मेहता ने अपनी गंभीर निर्देशकीय दृष्टि से फिल्म को रोचक ही नहीं प्रासंगिक भी बना दिया है। और यही वजह है कि व्यावसायिक दृष्टि से भी यह फिल्म सफल मानी जा रही है।

                यह सुनने में भले अटपटा लगे किंतु इसमें दो राय नहीं कि गया जिला के गहलौर गाँव और कस्बा वजीरगंज के मध्य बने ‘दशरथ मांँझी’ पथ का मयार ताजमहल से बहुत अधिक है। निःसंदेह ताजमहल प्रेम की अद्भुत निशानी है। और सैकड़ों वर्षाें से ताजमहल प्रेम करने वालों को प्रेरणा देता आ रहा है। किंतु मुमताज की याद में बने ताजमहल निर्माण में शाहजहां को कोई श्रम नहीं करना पड़ा था। शाहजहां ने जनता के करोड़ों रूपये की गाढ़ी रकम अपने प्यार को अमर दास्तान बनाने में झोंक दिया। इतिहासकार जानते हैं कि मध्यकाल की छद्म समृद्धि और संपन्नता के पीछे आम जनता की माली हालत कितनी पस्त थी। तात्पर्य यह कि ताजमहल के रूप मेें प्रेम की निशानी ने जनता के सुख और सपनों में कोई इजाफा नहीं किया। इसके विपरीत अगर यह लोकोक्ति सही है कि शाहजहां ने मुख्य शिल्पी के हाथ कटवा लिए थे, तो सत्ता और कला के शोषणपरक रिश्ते को समझना कठिन नहीं है। मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, जगदीश चंद्र माथुर के नाटक ‘कोणार्क’ तथा सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘काटना शमी का वृक्ष पद्म पंखुड़ी की धार से’ आदि में कला और कलाकार के प्रति सत्ता की निरंकुशता को बेबाकी से उद्घाटित किया गया है। सदियों से सत्ता का मद कला और कलाकारों के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करता रहा है। दूसरी बात यह है कि राजा, सामंत और संपन्नता से लैस फुरसती वर्गों के जीवन में प्रेम का नाट्य, समारोह और पाखंड अधिक होता है। किंतु माँझी जैसे मशक्कती समाज में प्रेम कहीं अधिक उर्जस्वित और गतिशील होता है। साथ-साथ श्रम सीकर बहाने से जो प्रेम का स्वरूप निर्मित होता है, वह सुसज्ज्ति, सुकोमल सेज पर सिर्फ साझीदारी करने से उत्पन्न हो ही नहीं सकता। इस अर्थ में ‘मांझी द माउंटेन मैन’ श्रम-सिक्त प्रेम की, प्रेम में अपार धैर्य  की और प्रेम की एक सर्वथा नयी परिभाषा गढ़ने की आकुल छटपटाहट का दूसरा नाम है।

                सभी तरह का प्रेम अपने आप में महान होता है-‘प्रेमा पुमर्थो महान। किंतु एकांतिक प्रेम और पूर्ण समर्पित प्रेम के बरअक्स कुछ विरल प्रेम ऐसे होते हैं जो प्रेम की जमीन को विस्तार प्रदान करते हैं। उनका प्रेम निजता का अतिक्रमण कर बृहत्तर समाजिक चिंताओं से गहरे जुड़ जाता है। दशरथ माँझी का प्रेम ऐसा ही ‘अनूप प्रेम’ था। इसी प्रेम ने दशरथ माँझी को वह बुलंद हौसला दिया जिसके सामने पहाड़ भी बौना हो गया। माँझी ने प्रतिज्ञा ली कि अस्पताल दूर हाने के कारण अगर मेरी पत्नी मर सकती है तो मैं पहाड़ को काटकर रास्ता बनाउंगा जिससे  आगे गांव में किसी की भी पत्नी इस दूरी की वजह से हमेशा-हमेशा के लिए ना बिछुड़े। मांझी की यह दृढ़ प्रतिज्ञा व्यष्टि से समष्टि के रूपांतरण की कथा भी है। तभी तो उन्होंने अपने ऊपर बने एक वृत्तचित्र में कहा कि, ‘‘मैंने यह काम पत्नी के प्रेम में आरंभ किया था किंतु इसका रूपांतरण ग्रामीणों के लिए होता चला गया।’’ पत्नी फगुनी की याद में उन्होंने 22 वर्षाें तक यानी सन् 1960 से लेकर सन् 1982 तक घर-परिवार, नाता-रिश्ता ही नहीं खाने-पीने तक की चिंता छोड़ 360 फुट लंबा, 30 फुट चौड़ा तथा 25 फुट ऊँचाई तक पहाड़ काट कर ही दम लिया और गहलौर से वजीरगंज की दूरी काफी कम कर दी। सत्तर किलोमीटर की दूरी को एक शख्स ने अकेले पांच किलोमीटर में तब्दील कर बच्चों के लिए स्कूल, बीमारों के लिए अस्पताल, दिहाड़ी के मजदूरों के लिए कस्बा को नजदीक ला लिया। मांझी ने गहलौर गांव में उम्मीद की नयी किरण बिखेर दी।

                दशरथ मांझी की धुन ने अमीर खान और केतन मेहता से पहले भी कई गंभीर मीडियाकर्मियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। कुमुद रंजन ने अपने निर्देशन में दशरथ मांझी के जीवन पर फिल्म प्रभाग के सौजन्य से ‘द मैन हू मूव्ड द माउंटेन’ नामक वृत्तचित्रा बनाया था।  वृत्तचित्रा के अनुसार बिहार सरकार ने पद्म श्री सम्मान के लिए उनके नाम की अनुशंसा की थी किंतु वन मंत्रालय के विरोध के कारण उन्हें यह सम्मान नहीं मिल पाया था। तत्कालीन वन मंत्रालय ने उनके कार्यों को अवैध ठहराया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना इस बात का सूचक है कि कई बार नियम-कानून भी लकीर के फकीर हो जाते हैं। वे कार्यों की गंभीरता और उसकी सार्थकता न देखकर केवल ठस नियम ही देखते हैं। केतन मेहता इस सवाल को विमर्श में तब्दील कर सकते थे कि जब पहाड़ माफिया लगातार न जाने कितने पहाड़ को काटकर खा रहे होते हैं, उस समय वन मंत्रालय क्या कर रहा होता है। आज भी प्रतिदिन युवा कवि अनुज लुगुन के शब्दों में कभी नदी तो कभी जंगल तो कभी पहाड़ ट्रक पर लादे जाते हैं, तो वन मंत्रालय की खामोशी क्यों नहीं टूटती है। लेकिन जब दशरथ मांझी गांव के अंधेरे को दूर करने के लिए रोशनी उगाने का एक जतन करते हैं, तो वन मंत्रालय को नियम-कानून की जटिलता नजर आती है। निर्देशक केतन मेहता की वरीयता उस समय के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों से दशरथ मांझी की संघर्ष गाथा को जोड़ने की नहीं थी। अगर वे दशरथ मांझी के युवाकाल के लटके झटके न दिखाकर उस गांव के पिछड़ेपन की पड़ताल में घोर सामाजिक विषमता और पहाड़ की ओट में दमन और शोषण का खुला खेल खेलने के षड्यंत्र को अनावृत्त कर पाते तो निश्चित रूप से फिल्म की कलात्मकता बढ़ जाती। यह अकारण नहीं है कि उस समय भी मांझी के पहाड़ काटने का विरोध एक खास तरह के लोग कर रहे थे। लेकिन दशरथ मांझी जैसे सपना देखने वालों के लिए सम्मान का कोई मतलब ही नहीं होता। तभी तो उन्होंने उक्त वृत्तचित्रा में कहा कि, मैं सम्मान और पुरस्कार की चिंता नहीं करता हूं। मेरी चिंता स्कूल, हॉस्पीटल और सड़क की है। मेरा परिश्रम बच्चों और औरतों की मदद करेगा।’’

                आज की तारीख में भीष्म प्रतिज्ञा मुहावरे के स्थान पर ‘मांझी प्रतिज्ञा’ अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है क्योंकि जहां  भीष्म प्रतिज्ञा में एक  पराक्रमी व्यक्ति को कौरवों के साथ रहने के लिए विवश किया वहीं मांझी प्रतिज्ञा ने एक पूरे गांव की ज़िदगी बदल दी। आज मुहावरे और लोकोक्ति में सांस्कृतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह अकारण नहीं कि अधिकांश मुहावरे और लोकिक्त उच्च वर्गों को महिमामंडित करते हैं, वहीं निम्न वर्गों के महत्व प्रतिपादन पर आपको शायद ही कोई मुहावरा या लोकाक्ति मिले, लेकिन उन्हें हीन दर्शाने वाले मुहावरे आपको सहज ही मिल जायेंगे। मुहावरे और लोकाक्ति कुछ दिनों में बनने वाली चीजें नहीं होतीं है। लेकिन यह भी सही है कि समय के साथ नये मुहावरे भी बनाए जा सकते हैं। आज के आधुनिक चित्त को यह मुहावरा  सहज स्वीकार्य हो सकता है।

                मांझी द माउंटेन मैन का प्रेम दुनिया को अधिक से  अधिक हसीन बनाने के जज्बे से ही संभव है। ‘प्रेम बिछोही ना जिए जिए तो बावर होय’ का रास्ता छोड़ दशरथ मांझी ने पत्नी की याद में दुनिया और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का रास्ता अख्तियार किया। दशरथ मांझी का प्रेम हमें सिखाता है कि अपने प्रेम को यादगार बनाने के लिए अगर आप दुनिया को खूबसूरत बनाने का सपना संजोते हैं तो यह प्रेम का अत्यंत उदीप्त और कल्याणकारी रूप है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कैंसर के इलाज की खोज और एटीम का आविष्कार ऐसे ही जुनूनी प्रेम के उदाहरण हैं।

                दाम्पत्य प्रेम पर अच्छी फिल्म बनाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। यही वजह है कि दांपत्य प्रेम पर आपको अच्छी फिल्म देखने को शायद ही मिले। विवाह पूर्व या परकीया प्रेम के फिल्मांकन में कल्पना की उड़ान लेने में सहूलियत होती है, रोमांस के विविध आयामों को दर्शाने का खुला आकाश मिलता है,वहीं दांपत्य प्रेम को फिल्माने में एकरसता का भय बना रहता है। केतन मेहता ने अत्यंत कुशलता से दांपत्य प्रेम में सघन रोमांस का अद्भुत सृजन किया है। फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने ठीक ही लिखा है कि केतन मेहता ने ‘फगुनी-मांझी प्रेम को कविता की तरह रचा है।’ इस प्रेम में कशिश है, आतुरता है, आवेग है, और है अपने आपको एक दूसरे पर न्योछावर कर देने की तत्परता। प्रेम के नितांत निजी क्षणों में मिट्टी और कीचड़ का कलात्मक उपयोग दृश्य को कहीं से भी अश्लील नहीं होने देता है। पहाड़ काटने के मध्य फगुनी की बार-बार प्रेमिल याद उन्हें प्रेरणा देती है।

कवि नागार्जुन के शब्दों में

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल
और इसलिए
कर गई चाक
तिमिर का कोना
जोत की फांक
यह तुम थी।

                कहने की आवश्यकता नहीं कि केतन मेहता अत्यंत संजीदे निर्देशक हैं। उनकी सिनेभाषा लीक से हटकर होती है। उनकी फिल्मों में सामान्यतया चरित्रों की अपेक्षा कैमरा ज्यादा बोलता है। और यह काम तब और भी कठिन हो जाता है जब आप ऐसे चरित्रा पर फिल्म बना रहे हों, जो सदियों से अभिव्यक्ति का संकट झेल रहा हो। कैमरे का अधिकतम उपयोग एक ओर उनकी विवशता थी तो दूसरी ओर चुनौती भी। और इस चुनौती का सामना उन्होंने अत्यंत कुशलता और सर्जनात्मकता के साथ फिल्म के केंद्र में पहाड़ को रखकर किया। फिल्म में पहाड़ सहनायक की भूमिका में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस तरह फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला आंचल में बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज अंचल को ही कथा नायक बना दिया उसी तरह केतन मेहता ने गहलौर के पहाड़ को सिनेमा में नायकत्व प्रदान किया है। पहाड़ को केंद्र में रखकर केतन मेहता ने कैमरे के उपयोग से अत्यंत दक्षतापूर्वक पहाड़ और दशरथ मांझी के बीच अनकहा असीम प्रेम के रिश्ते को भी दिखा दिया है।

                इसमें दो राय नहीं कि दशरथ मांझी को पहाड़ से उतना ही प्रेम था जितना पत्नी फगुनी से। कदाचित उससे भी ज्यादा। क्योंकि मां की कोख से निकलते ही उन्होंने पहाड़ को बहुत निकट से देखा था, उसे छूआ था और बहुत गहराई से उसका एहसास किया था। केतन मेहता अपनी सूक्ष्म निर्देशकीय दृष्टि से इस विडंबना और द्वंद्व को दिखाने में पूर्ण सफल रहे हैं कि एक तरफ दशरथ मांझी पहाड़ को काट भी रहे हैं और उससे बेइंतहा प्यार भी कर रहे हैं। इतना प्यार कि उनके और पहाड़ के बीच की दूरी समाप्त हो जाती है। दो शरीर एक आत्मा की तरह। दशरथ मांझी की आत्मा पहाड़ में ही बसती थी और यह प्रेम उनके प्रकृति प्रेम का परिचायक था। लेकिन  प्रेम की यह भाषा वन मंत्रालय के समझ से परे है। उन्होंने यह काम कैमरे की सहायता से कभी पहाड़ का क्लोज अप, कभी मिड शॉर्ट, कभी शोर्ट शॉट आदि के द्वारा किया है। और इसी क्रम में निर्देशक ने पहाड़ से असीम प्रेम की संभावना को दर्शाने के लिए दशरथ मांझी का कायांतरण पहाड़ के रूप में होते हुए दिखाया है।

                बयोपिक फिल्म बनाना खांडे की धार पर चलने के समान है। तथ्य और कल्पना का समुचित सामंजस्य बैठाना इस तरह की फिल्मों के लिए बड़ी चुनौती होती है। इन दोनों की संतुलित आवाजाही जहां फिल्म को उत्कृष्टता प्रदान करती है, वहीं तथ्यों की अनभिज्ञता या फिसलन फिल्म को कमजोर कर जाती है। फिल्म में कई ऐसे गलत तथ्य दिखाए गए हैं जिसे सही दिखाने से फिल्म की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं आती। मसलन जिस समय (1970-71) इंदिरा गांधी गया आयी थीं उस समय उनका चुनाव चिह्न गाय-बछड़ा था न कि हाथ छाप। जिस समय दशरथ मांझी दिल्ली के लिए रवाना होते हैं, उस समय वजीरगंज से डीज़ल इंजन की रेलगाड़ी नहीं चलती थी न पैंसेजर ट्रेन में सजे-धजे टीटी हुआ करते थे। केतन मेहता आसानी से गहलौर के वास्तविक पहाड़ पर नवाजुद्दीन सिद्दिकी को पहाड़ काटते दिखा सकते थे। असली वजीरगंज रेलवे स्टेशन को दिखलाना भी कठिन नहीं था। जिस तरह के मेले के दृश्य का सृजन उन्होंने फिल्म में किया है, गांव वाले बताते हैं कि इस तरह का मेला इधर नहीं लगता। दरअसल सही तथ्य बायोपिक फिल्म को विश्वसनीय बनाता है। केतन मेहता जैसे उत्कृष्ट निर्देशक जिन्होंने हिंदी फिल्म के इतिहास को मिर्च-मसाला, भवनी-भंवई, माया मेमसाहब जैसी कई बेहतरीन कलात्मक फिल्में दी हैं। इन्होंने मंगल पाण्डेय और सरदार पटेल पर बहुत अच्छा बायोपिक भी बनाया है। उनसे इस तरह की भूल सिर्फ चौंका ही सकती है।

                ‘मांझी द माउंटेन मैन’ को लंबे समय तक कई कारणों से याद किया जाएगा। सामाजिकता से सराबोर एक साधारण दलित दांपत्य प्रेम कथा को लोकप्रिय बनाने तथा एक प्रेरणाप्रद सच्ची घटना को अत्यंत गहरे सूझ बूझ के साथ आम जन तक पहुंचाने के लिए तो इसे याद किया ही जाएगा साथ ही नवाजुद्दीन सिद्दिकी की दमदार भूमिका के लिए भी यह फिल्म यादगार बनी रहेगी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी-फरवरी 2016), पेज – 40-42

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