
सर छोटू राम – अनुवाद हरि सिंह
भारतीय समाज में मजहब की भूमिका जानने की बटलर की जिज्ञासा पर छोटू राम ने समाजविज्ञानी की अन्तर्दृष्टि से बहुआयामी जवाब दिया।
पूरब में, विशेषतः भारत में लोगों में मजहब का बहुत गहरा और ऊंचा स्थान है। यह लिखने में मुझे तनिक भी झिझक नहीं कि भारत में भी मजहब के बारे में जनता पूरी तरह चिपकी हुई नहीं है। परन्तु जब भी मजहब के नाम पर कोई बात कही जाती है या कोई घटना घटित होती है तो जनता का मजहब के प्रति आदर उमड़ पड़ता है, जिसे देखकर परिश्मवाले आश्चर्यचकित रह जाते हैं। ताज्जुब यह है कि इस धार्मिक भावना की खिल्ली उड़ाने वाले चंद व्यक्ति ही हैं और इसका अनादर करने वाला कोई भी नहीं है।
यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि तमाम भारतवासी बहुत भारी संख्या में ‘धार्मिक’ हैं, परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जिस आम फिजा में भारतीय जीवन गुजरता है उस पर मजहब का गहरा प्रभाव है। मजहब की अपील मार्मिक होती है। भारत को अक्सर मजहब-ग्रस्त देश कहा जाता है। इस बात का मजाक उड़ाया जाता है। मुझे यह सोचने में आनंद आता है कि मेरे भारत में मजहब ओतप्रोत है। भारतवासी अधार्मिक नहीं हैं। भारतवासियों के दिमागों में मजहब की जड़ें गहरी और मजबूत हैं। मजहब की जकड़ जोर की है। यही सच है। इस मजहबी जकड़ की कुछ असुविधाजनक हानियां भी हैं, मगर अधार्मिकता या धर्म के प्रति अनादर की तुलना में धार्मिकता बेहतर है, अधिक स्वस्थ धारणा है।
भारत की 31 करोड़ की आबादी है। 20 करोड़ हिन्दू हैं, 7 करोड़ मुसलमान हैं, बाकी भारतीय ईसाई, सिख, जैनी, पारसी, यहूदी आदि हैं। केवल बर्मा में बौद्ध हैं।
महान अशोक के राज में बौद्ध धर्म तो राज धर्म था। भारत में बौद्ध धर्म ने जन्म लिया और खूब फैला और फला। परन्तु आठवीं सदी में यह व्यापक धर्म सिसकने लगा। जनता इससे थककर इसके विमुख हो गई। 11वीं सदी के अंत तक तो यह भारत से पूर्णतः निष्कासित हो गया। बौद्ध धर्म तो जातिवाद की कठोरता के खिलाफ विद्रोह था। ब्राह्मणों के पुरोहित-पुजारी वर्ग ने अति कर्मकांड थोप दिया था। बौद्ध धर्म सांख्य दर्शन पर आधारित था। उसका पुनर्जन्म में विश्वास था जो हिन्दू दर्शन का अटूट सिद्धांत है। ‘निर्वाण’ को आदर्श माना। व्यक्तिगत आत्मा का परमात्मा में मिलन माना गया, जो पहले से ही उपनिषदों में वर्णित है। फिर भी महान गौतम बुद्ध (556-486 ईसा-पूर्व) वेदों के आधिपत्य को नहीं मानते थे। मुक्ति के साधन के रूप में बलियों और कर्मकांडों से इंकार किया। जातिवाद के साम्राज्य को ढाया। सादगी, विनम्रता, मानव सेवा और मानवीय भाईचारे का प्रचार किया। हिन्दू धर्म फिर उभरा। बौद्ध धर्म में जो भी शुभ या जरूरी था वह पचाया और चंद सदियों में बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म का अंग बना। फिर भी बौद्धों के सामाजिक रिवाज और व्यवहार हिन्दुओं से इतने मिलते-जुलते हैं कि उनमें कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। विदेशी यात्राी तो जैनियों और हिन्दुओं को एक ही जैसा पाते हैं। खुद हिन्दुस्तानी भी इनमें कोई भेदभाव नहीं देखते।
सिख धर्म की स्थापना गुरुनानक ने 15वीं सदी के अंत और 16वीं के आरंभ में की। संस्कृत के शिष्य शब्द से ‘सिख’ शब्द बना। गुरु नानक के शिष्यों ने वर्तमान सिख धर्म चालू किया। गुरु नानक के सिद्धांत हिन्दू धर्म के सिद्धांतों से मिलते-जुलते हैं। परन्तु महान गौतम बुद्ध की भांति ही गुरु नानक ने भी जातिवाद की कट्टरता और क्रूरता के खिलाफ बगावत की थी। सहिष्णुता का प्रचार किया था। मानवीय भाईचारा स्थापित किया था। सब चकित रह गए क्योंकि उन दिनों आपसी सहनशीलता अजनबी चीज थी। गुरु नानक ने वेदों को ईश्वर द्वारा अवतरित नहीं माना और हिन्दुओं की रीतियों-रस्मों को जीवन-मुक्ति का माध्यम नहीं माना। अन्य नौ गुरुओं ने नानक के सिख धर्म का डटकर प्रचार किया। अंतिम दसवें गुरु गोबिन्द सिंह 1708 ईस्वी में गुजर गए। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ सिखों का धार्मिक पवित्रा ग्रंथ है। इसमें 10 सिख गुरुओं और कबीर आदि संतों की वाणियां संग्रहित हैं। सिख धर्म भारत में और दुनिया में एक जानदार शक्ति है। दिलों में रूह फूंकता है। मुगल सम्राटों और उनके मुसलमान गवर्नरों ने सिख धर्म पर जुल्म ढाए। बाध्य होकर ‘खालसा’ ने जन्म लिया। जुल्म के खिलाफ तलवार उठाई। राजनीतिक शक्ति बने। अपना राज स्थापित किया, जिसमें वर्तमान पंजाब, जम्मू-कश्मीर और सरहदी सूबा शामिल थे। केवल सतलुज नदी के नीचे के भाग से सिख बाहर रह सका। महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद सिखों में आपसी फूट डालकर 1849 ईस्वी में अंग्रेजों ने पंजाब को भी अपने अधीन कर लिया।
जब मुगल सम्राटों का क्रूर शिकंजा ढीला हुआ, तो सिख धर्म हिन्दू मत-मतांतरों की तरह अलग मत बन गया। मगर शहरी हिन्दुओं ने सिखों को बुद्धू बनाया, क्योंकि ज्यादातर सिख अनपढ़ व अनभिज्ञ किसान थे। सरकारी संरक्षण में सिखों का भाग खुद हड़प लिया। गुरुनानक वेदों, उपनिषदों व शास्त्रों के विद्वान नहीं थे। ऊंचे दर्जे के संत थे। जैसे संत कबीर थे। आर्य समाज उभरा और गुरु नानक की उपेक्षा की। हिन्दू कौम के शिक्षित नेताओं ने सिखों के चंद विशेष रिवाजों का मजाक उड़ाया। इससे बुद्धिजीवी शिक्षित सिखों ने सिखों को जागृत किया, उनको संगठित किया और नेतृत्व दिया। हिन्दुओं से अलगाव की नीति अपनाई। विदेशी अंग्रेज सरकार ने, जैसे कि प्रत्येक सरकार करती है, इस अलगाव आंदोलन से लाभ उठाया, उनका उत्साह बढ़ाया। सिख झंडे के नीचे आने वाले प्रत्येक संगठन को अपना संरक्षण दिया। हिन्दुओं और सिखों के बीच खाई चौड़ी-गहरी होती गई।
सिख सबसे अधिक संवेदनशील कौम है। उनमें अपने धर्म के प्रति कट्टर आस्था है, सबसे अधिक साहसी हैं, तेज हैं, निर्भीक हैं, जुझारू हैं। सरकार का पूरा संरक्षण था ही। सिख महाराजाओं ने खुलकर मदद की। शिक्षा, संगठन और सत्ता में तेजी से विकास हुआ। हिन्दू महंतों से टक्कर ली। हिन्दुओं के निहित स्थापित स्वार्थों पर लात मारी। सरकार की पोल खोली। सिखों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास उभरा। अंग्रेज भी चाैंक उठे।
जैसे ईसाइयों में प्रोटेस्टेंट अलग निकले थे, उसी प्रकार हिन्दू धर्म में से सिख अलग निकले। इस ऐतिहासिक तथ्य पर कोई संदेह नहीं कर सकता है। परन्तु सिखों में वही सामाजिक नियम बरते जाते हैं, वही विरासत के कानून लागू होते हैं और वे हिन्दुओं के साथ अपना, मां का और नानी का गोत्रा बचाकर आपस में शादियां तक करते हैं। एक ही कुटुम्ब में, एक ही छत के नीचे पिता हिन्दू है और बच्चों में कोई हिन्दू और कोई सिख। रलमफलम कुटुम्ब है। श्री मेहमाफ ने होली ग्रंथ का अनुवाद किया और शरारतभरी टिप्पणी दी, मगर फिर भी पूरे अलगाव के बावजूद सिख गाय को हिन्दुओं की भांति ‘माता’ मानते हैं। गऊ की पूजा करते हैं। आर्य समाज, ब्रह्मसमाज, देव समाज, कबीर पंथ, दादू पंथ तथा मत व पंथों की तरह सिख पंथ भी हिन्दू कौम के शक्तिशाली अंग रहेंगे। वैसे सिख अपने को हिन्दुओं से अलग रखकर, अपनी स्वतंत्रा पहचान बनाकर रहेंगे। सिख इतिहास, सिख साहित्य और सिख संस्कृति की अपनी विशेषता रखेंगे। यूं तो सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह, पिता सरदार किशन सिंह और चाचा सरदार अजीत सिंह जिन्होंने ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ का नारा बुलंद किया था, आर्यसमाजी थे और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाने वाले क्रांतिकारी सिख युवक भगतसिंह कट्टर नास्तिक। सब बातों का निचोड़ यह है कि सिख एक जोरदार कौम है जो किसी अन्य धर्म की छाया में नहीं रहेगी।
आपने मुझसे हिन्दू धर्म की व्याख्या चाही मैं खुद वैदिक धर्म का अनुयायी हूं। हिन्दू हूं, इसलिए आपने सोचा कि मैं हिन्दू धर्म का निचोड़ बता सकता हूं। मुझे डर है कि मैं आपकी आशा पूरी करने में असमर्थ हूं। मैं हिन्दू धर्म को गंगा के पानी की तरह कूजे में बंद नहीं कर सकता हूं। हिन्दू धर्म न ही एक मत है न ही ईसाई, यहूदी और इस्लाम की भांति खालिस मजहब है। यह अनेक मतों का भंडार है। वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों, गीतों, पुराणों, अनेक मत-मतांतरों, रामायण, महाभारत की कथाओं, संतों की वाणियों का समुद्र है। अनेक युग आए, युग गए। हमलावर आए और गए। अनेक झकोले लगे, अनेक आंदोलन हुए। परन्तु हिन्दू धर्म सबको हजम करता रहा। इसलिए हिन्दू धर्म उदार है, विशाल है, व्यापक है, सहिष्णु है, सहनशील है, अहिंसक है। अस्पृश्यता का कलंक व जहर न हो तो शुद्ध गंगाजल है। सुधारक आए, आते रहेंगे। समय और स्थान के अनुसार, जमाने की चाल व मांग के अनुसार हिन्दू धर्म अपने को ढालता रहेगा। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज सावधान हैं। किसी के मजहब में कोई दखल नहीं देते, हां, मजहबी भेदों को मजहबी दंगों तक पहुंचाने में माहिर हैं। भारत के उत्थान, कल्याण और आजादी के लिए हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता जरूरी है। मैं इसी काम में जुटा हुआ हूं। मजहब को अपनी युनियनिस्ट राजनीति से अलग रखता हूं। पंजाब के किसानों को सूदखोरों से मुक्ति दिलाने के लिए उनको एकजुट करता हूं। चूंकि किसान सब मजहबों में हैं और कृषि धंधे के कारण एक प्लेटफार्म पर जमा हो रहे हैं यह किसान एकता फिरकापरस्ती को भी लगाम देगी। किसान नौजवानों को सेना में भर्ती कराता हूं ताकि वे दुनिया देखें, आर्थिक दशा सुधारें और शिक्षा में खर्च करें और समय आने पर आजाद भारत की रक्षा करें। अंग्रेज ने भारतीय सेना को मजबूत और अनुशासित किया है जो भारत की अखंडता और धर्मनिरपेक्षता की गारंटी है। सेना में सब मजहबों के नौजवान हैं जो इस बात का ठोस प्रमाण हैं कि भारत एक राष्ट्र है।
बेशक आज गुलाम है, परन्तु दुनिया बदल रही है, अंग्रेजी साम्राज्यवादियों को भी बदलना पड़ेगा। भारत को आजाद करना पड़ेगा। यदि संवैधानिक तरीके से सत्ता सौंपते रहे तो आजाद भारत एक महान शक्ति बन जाएगा अन्यथा 1857 की तरह खूनी क्रांति होगी। खतरा एक ही है कि कभी हिन्दू और मुसलमान आपस में न झगड़ पडें और अंग्रेज इस फूट से नाजायज लाभ उठाएं। यदि अंग्रेज की नीयत साफ व ठीक रही तो इस फूट को भी वह मेल में बदल सकते हैं। जब सदियों से हिन्दू और मुसलमान साथ रहते आए तो आजादी के लिए और आजादी के बाद भी भाई-भाई बनके रहेंगे। भारत सबका वतन है। सब बराबर के नागरिक हैं। कोई भी मजहब आपस में वैर करना नहीं सिखाता है। सब एक-दूसरे के मजहब का समान आदर करेगे। सब ऋषियों, पैगम्बरों, गुरुओं, संतों और पीरों का आदर करेंगे।
शायद मेरे इस विवरण से आप विचलित हो जाएं, क्योंकि हिन्दू धर्म की संकुचित व्याख्या नहीं की जा सकती है। यह तो खुली और बहती नदी के समान है, जिसमें अनेक नाले आकर गिरते हैं – वेद इसका मूल स्रोत है। मैंने जो देखा, पढ़ा, मनन किया, समझा वह लिख दिया। कुछ छिपाया नहीं, कुछ बढ़ाया नहीं। न मैं भावुक हूं, न रूढ़िवादी हूं, न फिरकापरस्त हूं, न द्वेषी हूं। मैं सब मजहबों का समान आदर करता हूं। मैं खुदा का वैसा बंदा नहीं हूं जो वनों में मारे-मारे फिरते हैं, मैं उसका बंदा हूं जिसको खुदा के बंदों से प्यार है। भारत में अंग्रेज का राज है, कितना ही अच्छा हो, फिर भी विदेशी है इसलिए मैं अंग्रेज का पिट्ठू नहीं बन सकता। मुझे भारत से प्यार है, भारत की जनता की सेवा में रत हूं, यही मेरी राजनीति है, यही मेरी देशभक्ति है। इसमें रत्तीभर भी फर्क नहीं है। मित्रा के नाते मैंने कटु सच्चाई लिख दी है।
भारत में अनेक देवी-देवता पूजे जाते हैं। ईश्वरवादी हैं, नास्तिक भी हैं। परन्तु सब अपने-आपको हिन्दू कहते हैं। मैं खुद तो आर्यसमाजी हूं, एक परमात्मा को मानता हूं, फिर भी अपने-आपको गर्व से हिन्दू कहता हूं। शैतान की पूजा, वीर-पूजा, नाग-पूजा, हनुमान-पूजा, पितर-पूजा, पशु-पूजा, वृक्ष-पूजा, कीड़ा-पूजा, पत्थर-पूजा, सूर्य-चंद्रमा-पूजा, धरती-पूजा, अतिथि सत्कार, सब पूजाएं, मान्यताएं हिन्दू धर्म के ताने-बाने में गुंथी हुई हैं। बौद्धिक विकास, आध्यात्मिक विकास, जीवन के सब आश्रमों का विकास, सब प्रकार के रसों का विकास और इन सबका मिठास हिन्दू धर्म में पाया जाता है। पत्थर-कंकर घिसकर मिश्री बन जाते हैं। कड़वापन घुल-घुल कर अमृत जल बन जाता है। न घृणा, न द्वेष, न निहित स्वार्थ। सौंदर्य और भूंडापन साथ-साथ, अमीर-फकीर, चोर-जार-साहूकार, कातिल, चाण्डाल, किसान-मजदूर, दाता-भिखारी, राजा-रंक आदि सब हिन्दू। बुरी तरह से अस्पष्ट है, भयानक रूप से धकियाना है, चकित करने वाली व्यापक और आनन्ददायक लीला है – यहां कट्टरता नहीं है, जो अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार चलता/चलती है। एकता में अनेकता है। शक्तिशाली भी है और भुरभुरापन भी है। जुड़ता भी है, टूटता भी है, हमले भी होेते हैं, परन्तु हारता नहीं, जिंदा रहता है। अमर है। पवित्रा से पवित्रा, गंदे से गंदी, पूजा – लिंग तक की पूजा, भूत-प्रेत की पूजा, जादू-टोने, जंत्रा-मंत्रा-षड्यंत्रा, प्रपंच, कुचक्र, झाड़े, गंडे-डोरे, ऊंचे से ऊंचा देश, नीचे से नीचा पतन, ऊंचे विचार भी, नीचा व्यवहार भी, गंगा और गंदा नाले साथ-साथ बहते हैं। उपदेश भी, वासनाएं भी साथ-साथ, सीता भी, वेश्या भी। वीर भी, हिजड़ा भी। युधिष्ठर भी, दुर्योधन भी, मुख भी, पूंछ भी। मानव जाति को और क्या चाहिए? सब कुछ हिन्दू धर्म में समाया हुआ है।
यद्यपि मैं कट्टर हिन्दू नहीं हूं और अंधविश्वास, फिजूल के ऊटपटांग रीति-रिवाजों को नहीं मानता हूं जो अब भी हिन्दू धर्म में मौजूद हैं, फिर भी इस ऊपर से वाहियात लगने वाले अंधविश्वास और पूजा में एक उपयोगिता देखे बिना नहीं रह सकता। जब तक मानव जाति जीवित है, तब तक इसकी अलग-अलग उपजातियों में, विचार और विश्वासों में भिन्नता तो रहेगी ही और उपजाति के अलग-अलग उपभागों में, विचारों के विकास में भी भिन्नता रहेगी। सब एक ही बौद्धिक स्तर पर नहीं पाए जाते। यहां तक कि एक छोटे से समूह में भी बुद्धि भेद पाया जाता है, कोई ज्यादा बुद्धिमान है तो कोई कम बुद्धिमान और कोई तो पूरा बुद्धू भी हो सकता है। यह अच्छा ही है कि मंदबुद्धि वाले मूढ़, गंवार भी अज्ञात शक्ति तक ज्ञान द्वारा पहुंच जाते हैं और अदृश्य शक्ति का दृश्य चीजों, देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के माध्यम से उस ईश्वरीय शक्ति का आभास कर सकते हैं। परमात्मा के विचार को मजाक में उड़ाना ठीक नहीं समझते। शर्त यह है कि पूजा की विधि में सच्चा विश्वास हो, पूरी आस्था हो, गहरी निष्ठा हो, दृढ़ धुन हो, अंतःकरण में वही भगवान बैठा महसूस हो, ध्यान में एकाग्रता हो। यही हिन्दू धर्म की आध्यात्मिकता की पुट है, पैठ है। कहते हैं इस विश्वास की नाव में बैठकर पापी भी तर जाते हैं। गंगा में गोता लगाने से सब पाप धुल जाते हैं। आत्मसमर्पण में ही जीवन दर्शन है। पाखंड, स्वांग, बगुलाभक्ति और चालबाजी यहां नहीं चलती। असीम से मेल करने के लिए सीमित शरीर और चंचल मन नियंत्राण करना पड़ता है। मैं आर्यसमाजी होने के नाते मूर्तिपूजा नहीं करता, परन्तु संध्या-हवन यज्ञ के माध्यम से उस परमशक्ति को याद करता हूं।
इस्लाम का अवतरण छठी शताब्दी के अंत में हुआ। बड़ी तेजी के साथ फैला। यह आश्चर्यजनक घटना थी। भारत पर मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, तैमूर लंग, बाबर, नादिरशाह, अब्दाली आदि ने हमले किए। उनके साथ इस्लाम भी आया। तलवार का जोर व दौर चला। कुछ सूफी संतों व पीर-फकीरों ने प्रचार किया। जैसे-तैसे इस्लाम भारत के नगरों व गांवों में फैलता। किसी भी कारण से बहुत से हिन्दू मुसलमान बन गए, जिसे वे ईमान मानते हैं। इस्लाम स्पष्ट मजहब है। जादू-टोने नहीं हैं। कोई रहस्यात्मकता नहीं है, तत्वविद्या नहीं है। न कोई दर्शन मीमांसा है। अल्लाह, कुरान शरीफ और पैगम्बर-मोहम्मद, मक्का-मदीना और काबा। मूर्तिपूजा पर प्रतिबंध, एकता पर जोर, जोर-शोर से इस्लाम भारत में भी फैला। महाराणा प्रताप तो अकबर के सामने सिर ऊंचा किए खड़ा रहा, लड़ता रहा। शिवाजी मराठा ने औरंगजेब के नाक में दम यहां तक कर दिया कि औरंगजेब ने उसे ‘पहाड़ी चूहा’ बताया। गुरु गोबिन्द सिंह को जुल्म के खिलाफ तलवार उठानी पड़ी। परन्तु साधारण मुसलमान साधारण हिन्दुओं के साथ मिलकर रहे। सह-अस्तित्व, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक व सांस्कृतिक बन गया। लोक-जीवन में लोक-व्यवहार मधुर बन गया। मजहब बेशक अलग रहे, परन्तु लोग मिल-जुल कर शांति के साथ रहने लगे। इस प्रकार इस्लाम बहुत सरल और व्यवहारिक है। इसका धार्मिक सिद्धांत सुस्पष्ट, सुनिश्चित, नियमनिष्ठ, यथार्थ है। एक अल्लाह, उसका पैगम्बर मोहम्मद वाक्य में इस्लाम का निचोड़ सुंदर ढंग से समा जाता है। यहां कोई लाग-लपेट, घटी-बढ़ी और टेढ़ी-मेढ़ी, जोड़-तोड़ और तोड़-मरोड़ घुमाव नहीं चलता।
मेरा विश्वास है कि इस्लाम का मुसलमानों पर प्रभाव, हिन्दू धर्म का हिन्दुओं पर प्रभाव अधिक गहरा है, अधिक जकड़ है – यहां तक कि कट्टरताई और संकीर्ण-विचारधारा तक पहुंच जाता है। मुसलमानों में बेजोड़ भाईचारा है। आपसी मेल-मिलाप है।
मैं इस्लाम का अंध-प्रशंसक नहीं हूं। राष्ट्रवादी, बुद्धिवादी, तर्कवादी और आत्मविश्वासी हूं — अंधविश्वासी कतई नहीं हूं। सह-अस्तित्व, सहनशीलता, सहिष्णुता में विश्वास रखता हूूं। सब मजहबों का आदर करता हूं, किसी से वैर या घृणा नहीं करता। फिर भी मैं इस्लाम के कुछ पहलुओं को विशेष पसंद करता हूं। बस ‘एक अल्लाह है’ बाकी सब गौण हैं। पत्थर पूजा कुफ्र है। सब आदमी समान हैं। बराबरी की शान हैं, ऊंच-नीच का नामोनिशान नहीं, बस ईमान से ही इंसान हैं, बाकी हैवान हैं, शैतान हैं। कुरान शरीफ में ही जहान है पैगम्बर मोहम्मद महान हैं, अल्लाह का संदेश ही ईमान है। ये सब पहलू प्रेरणा देेते हैं। केवल मुसलमानों में ही सच्चा, वास्तविक और व्यवहारिक लोकतंत्रा पाया जाता है। हिन्दू धर्म तो सर्वतंत्रा है, रलमफलम है, स्वतंत्रा है। झगड़ों की जगह नहीं है।
भारत में ईसामसीह का संदेश पहले-पहले यूरोप के मिशनरी पादरी लाए। विनम्रता और अति सहिष्णुता से भरपूर। पुर्तगाल ने बाहुबल दिया, मगर ईसाई मत ठस ही रहा। अंग्रेजों ने भी खूब शानदार गिरजे बनाए। कर्जन जैसे तानाशाह गवर्नर जनरल गिरजाघरों में जाकर शीश झुकाते थे। आज 45 लाख ईसाई भारत में हैं। जितना प्रचार पादरियों ने किया उतना फल मिला। मुसलमान और हिन्दू उधर नहीं झुके। अपने-अपने मजहबों से चिपके रहे। हिन्दुओं की ऊंची जातियां इससे दूर रहीं। गरीब हिन्दू उधर झुके। पादरियों ने स्कूल चलाए। मैं भी मिशन स्कूल और सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली में पढ़ा। सेंट एंड्रूज जैसे मेरे टीचर थे। उनके आग्रह पर मैंने 1907 में ‘भारत के ग्रामीण जीवन का सुधार’ लेख लिखा था जो सेंट स्टीफेंस मासिक पत्रिका में छपा। मुझ पर ईसाइयत का रंग न चढ़ सका। मैं वैदिकधर्मी आर्यसमाजी बना। आज भी हूं। राजनीतिक कारणों और अंग्रेजों के नकली अहंकार ने ईसाई धर्म के फैलने में बाधा डाली। भारतीय ईसाइयों की विशेषता से जो गरीब छोटी जातियों से ईसाई बने, वे यूरोपियों और भारतवासियों की दृष्टि में अब भी छोटे माने जाते हैं।
वैसे तो जो ईसाई बने, वे मजहबी तौर पर संतुष्ट हैं। पर वे अमानवीय व्यवहार और क्रूरता से अप्रसन्न हैं, तंग हैं। उनमें शिक्षा फैली, आत्म-सम्मान बढ़ा, स्वाभिमान आया। जागृति आयी, परन्तु धर्म-परिवर्तन की पीड़ा बनी रही। तवे से गिरा, आग में पड़ा वाली हालत बन गई। भारतवासियों से दूर रह गए, यूरोप द्वारा घृणित हुए। हिन्दू थे, तब शुद्र कहलाए। ईसाई मत स्वीकार किया, फिर भी दूसरों की नजर में नीचे ही रहे। जब हिन्दू थे, तो अज्ञान में अपना अपमान, नीचा स्थान चुपचाप सहन करते रहे। परन्तु अब ईसाई बनकर और पढ़कर फिर भी यह ‘छोटापन’ चुभन पैदा करता है। इस प्रकार भारत में हिन्दू गरीब शुद्रों में में ईसाई धर्म कोई आकर्षण नहीं रखता। भारत में ईसाई-मत इस्लाम की तरह नहीं फैल सका। ठप-ठप-सा, रुका-सा, सहमा-सा लगता है। इसका भविष्य धुंधला लगता है।
इस सिलसिले में एक बात और लिख दूं। हिन्दू धर्म के लचीलेपन और समय एवं स्थान के अनुसार अपने-आपको ढालने का गुण जो भूतकाल में बचाते रहे, अब फिर आगे आने लगे हैं। वर्तमान स्थिति को सावधानी से समझा जा रहा है। खतरा महसूस किया। ‘शुद्धि’ को अपनाया है। अस्पृश्यता हटाने लगे हैं। जो ईसाई, मुसलमान फिर हिन्दू बनना चाहें, उनका स्वागत करने लगे हैं। जैसे शंकराचार्य ने बौद्धों को फिर हिन्दू बनाया था, वैसे ही हिन्दू अब अपने मुसलमान व ईसाई बंधुओं को गले मिलाने लगे हैं। यदि हिन्दू न भी बने, तो कम से कम हिन्दुओं से घृणा तो न करें। मजहब बदला है, देश तो वही है, खून तो वही है। जाटों को ही लीजिए। कोई जाट मुसलमान हो गया, कोई सिख बन गया, कोई नास्तिक हो गया, कोई गरीबदासी आदि हो गया, मगर रहा तो जाट ही, खून तो वही रहा। वैसे जाट सब मजहबों, मत-मतांतरों, राष्ट्रों और वर्गों में पाए जाते हैं। जाट एकता में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सर्वधर्म एकता देखता हूं। फिरकापरस्ती का इलाज जाट एकता से शुरू किया और अब किसान एकता से दे रहा हूं। अंग्रेज भी अपने साम्राज्य को भारतीय एकता से स्थिर रखना चाहते हैं, अपनी वाहवाही बटोरना चाहते हैं, परन्तु हमारी राष्ट्रीय एकता हमें आजादी की ओर तेजी से ले जा रही है। इसे आप भारत में संकट समझते हैं। यहां कोई झंझट नहीं है। वतन एक है, जनता एक है, विभिन्नता में एकता स्पष्ट है। अमिट है। अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्य इस तेजी से बदलती दुनिया में ढलता चला जावेगा। अंग्रेेेज भारतीय भावनाओं, आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं कर सकते। अब डायर फायर नहीं कर सकते। कांग्रेस का हिंसक रास्ता साम्राज्यवादी अंग्रेज की समझ में नहीं आ सकता। महात्मा गांधी ने गोरे साहब का रौब खत्म कर दिया है। यूनियनिस्ट पार्टी ने धंधे के आधार पर राजनीति खड़ी कर दी, जिसमें किसान सर्वोपरि है और मजदूर किसानों का कुदरती साथी है। मजहब अपनी आध्यात्मिक जगह पर रहें, राजनीति अपने जनकल्याण पर टिके। अंग्रेज विचलित हैं। बस एक ही उपाय है – धीरे-धीरे या तेजी से भारतवासियों को राज सत्ता सौंप दे। जैसे व्यापारी बन कर आए थे, वैसे व्यापारी रहकर इंग्लैंड लौट जाएं और भारत को बराबर का देश मानें। खतरा एक ही है कि कभी मजहब के नाम पर हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों को आपस में भड़का न दें, लड़ा न दें। मगर सब सयाने हो गए हैं। सावधान हैं। ‘बांटो और राज करो’ की चाल को समझ चुके हैं। राष्ट्रीय नदी का बहाव तेज होने लगा है। आशा है कि समझदार अंग्रेज समय की गति की मांग को पढ़कर उसके अनुसार चलेंगे और शांति से, राजी-राजी अपने साम्राज्यवादी शिकंजा ढीला करते जावेंगे और जल्द ही सत्ता भारतवासियों को स्वतः सौंप देंगे। भारतीय सेना सारी स्थिति संभाल लेगी। भारत का अपना संविधान होगा जो गणतंत्रा होगा। सभी मजहब, सभी बिरादरियां फले-फूलेंगी। भारत अपनी पुरानी शान में फिर आएगा। इतिहास अपने-आपको यूं दोहाराता है।
मैं पारसियों के मजहब के बारे में अनभिज्ञ हूं। पारसी अग्निपूजक हैं। उनका गुरु है। हिन्दुओं की भांति जनेऊ धारण करते हैं। गाय का आदर करते हैं, यद्यपि हिन्दुओं की भांति उसे माता नहीं मानतें हिन्दुओं ने पारसियों को घर दिया, प्यार दिया, अतिथि सत्कार दिया। वे फारस से भाग कर आए थे, यहां स्वागत किया। कृतज्ञता के तहत पारसियों ने जनेऊ धारण किया, गऊ का आदर किया।
अंग्रेज तो अपने देश में लोकतंत्री हैं, धर्म निरपेक्ष हैं, राष्ट्रवादी हैं और लिबरल हैं। भारत को भी इसी ढांचे में ढलने दें। अपना नस्ली अहंकार छोड़ दें। अनुभव सिखाता है कि कोई देश या कौम दबाए जा सकते हैं, मगर उनकी आत्मा जिंदा रहती है। भारत मजहबों का गढ़ है, फिर भी सब भारतवासी वतनपरस्त हैं। गुलामी को लानत, कलंक और लज्जाजनक समझते हैं।
भारत में कोई संकट नहीं है, अंग्रेजी साम्राज्यववादियों ने संकट खुद पैदा किया हुआ है। भारतवासी अपनी धार्मिक सद्भावना, मेल-मिलाप और राष्ट्रीय भाव के तहत इस संकट को पार करेंगे। ये इतिहास का नियम है, भारतीय संस्कृति का गुण है। यही भारत की नियति है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा(जनवरी-फरवरी 2016 ), पेज -33 से 37