प्रो. सूरजभान
पिछले एक दौर में अपनी विरासत के बारे में हमारी चेतना बहुत कमजोर पड़ी है। हम काफी हद तक अपने इतिहास के बेहतर पहलुओं को भूलते जा रहे हैं। केवल 150 साल पुरानी 1857 की आजादी की लड़ाई भी हमें याद नहीं है। और तो और अमर शहीदों का पैगाम भी हम भूल गए हैं।
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव ईस्ट इंडिया कम्पनी ने डाली थी। यह कम्पनी लगभग 1600 ईस्वी में भारत आई थी। व्यापार के अलावा इसकी आंख देश के अपार लगान पर थी। इसने 1757 के बाद पूर्वी भारत में पांव जमा लिए। इसमें कम्पनी ने भारतीय रजवाड़ों और सैनिकों की मदद ली। अंग्रेज छल-कपट तथा फूट डालो और राज करो की नीति में माहिर थे। इसी के जरिए उन्होंने सन् 1800 तक लगभग पूरे देश पर कब्जा कर लिया। सन् 1803 में उन्होंने दिल्ली और हरियाणा को जीत लिया। फिर 1849 में पंजाब भी फतेह कर लिया। अंग्रेजों ने भारत की जनता पर बड़े जुल्म किए। छोटे कारीगरों और किसानों पर अनेक टैक्स लगा दिए। इससे आम जनता गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की चपेट में आ गई। 19वीं सदी में देश में भयानक अकाल पड़े। महामारियां फैलीं। सरकार की गलत नीतियों से लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए। हजारों औरतें, बच्चे, बूढ़े और जवान बेमौत मारे गए। लोगों के दिलों में अंग्रेजों के प्रति नफरत फैलने लगी। जगह-जगह पर लोग अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ बगावत करने लगे। देश भर में ऐसी लगभग 100 के करीब बगावतेें हुई। इन बगावतों को अंग्रेजों ने बड़ी सख्ती से कुचला। 1824 में रोहतक और हिसार के इलाकों में भी ऐसी ही एक बगावत हुई थी।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम उन्हीं भयंकर परिस्थितियों का परिणाम था। यह संग्राम 100 सालों में हुई अनेक क्षेत्रीय बगावतों में सबसे बड़ा था। हरियाणा के बागी सैनिकों और कई राजे-रजवाड़ों ने इसमें हिस्सा लिया। यही नहीं, यहां की आम जनता ने भी इसमें बढ़ चढ़ कर भाग लिया। इनमें हिंदू, मुसलमान, किसान, कारीगर और मजदूर सब शामिल थे। सबने कंधे से कंधा मिलाकर अपने वतन के सम्मान की लड़ाई लड़ी।
इस जंग में अनेक लोग मारे गए। बहुतों को अंग्रेजों ने सरेआम फांसी पर लटका दिया। बहुतों को रोड रोलर के नीचे कुचल दिया। तोप के सथ बांध कर उड़ा दिया। गांव के लोग उजाड़ दिए गए। औरतों और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। लेकिन लोग फिर भी पीछे नहीं हटे। कस्बे-कस्बे और गांव-गांव में उन्होंने एकजुट होकर अंग्रेजों का विरोध किया। उन्होंने पूरी बहादुरी और दिलेरी से लड़ाई लड़ी। एक बार तो दिल्ली पर भी अधिकार कर लिया। उसके दो महीने बाद तक बगावत जारी रही। लोग साम्राज्यवाद की बड़ी ताकत का सामना करते रहे।
इस स्वतंत्रता संग्राम में हरियाणा के भी अनेक वीरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी की लड़ाई के इन्हीं यौद्धाओं में से एक थे – राव तुलाराम।
राव तुलाराम रिवाड़ी परगने के जागीरदार थे। मुगल बादशाह हुमायूं ने उनके बुजुर्गों को रिवाड़ी परगने की एक बड़ी जायदाद दी थी। यह सन् 1555 की बात है। इसके दस पीढि़यों बाद राव तेज सिंह रिवाड़ी के जागीरदार बने। उन्होंने मराठों के साथ लड़ाई में अंग्रेजी हुकूमत की मदद नहीं की। इस कारण अंग्रेज उनसे नाराज हो गए। 1803 में अंग्रेजों ने उनकी जागीर का एक बड़ा हिस्सा उनसे छीन लिया। इससे उन्हें लगभग बीस लाख रुपए सालाना की आमदनी होती थी। अब तेज सिंह के कब्जे में केवल 87 गांव रह गए। तेज सिंह को इसका बड़ा मलाल था। तुलाराम तेज सिंह के पोते थे। वे 1839 में इस जायदाद के वारिस बने। उनके मन में भी रिवाड़ी रियासत के छिन जाने का बड़ा गुस्सा था।
इसी बीच अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत हो गई। दिल्ली पर बागियों ने कब्जा कर लिया। इस खबर ने राव तुलाराम को अंग्रेजों से बदला लेने का मौका दे दिया। राव तुलाराम ने चार-पांच हजार सैनिक इकट्ठे किए। उन्हें लेकर उन्होंने मई के मध्य में रिवाड़ी तहसील पर हमला कर दिया। शीघ्र ही उन्होंने रिवाड़ी को फतेह कर लिया। वहां के तहसीलदार और थानेदार को बर्खास्त कर दिया। खजाना लूट लिया और सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। यही नहीं, दिल्ली के बादशाह की तरफ से अपने को वहां का शासक भी घोषित कर दिया। अब रिवाड़ी, भौड़ा और शाहजहांपुर के गांव तुलाराम के अधीन आ गए थे। रिवाड़ी के पास रामपुरा के किले में राव तुलाराम ने अपनी राजधानी बना ली।
जून के अंत तक राव ने डेढ़ लाख का लगान वसूल कर लिया। इस पैसे की मदद से उन्होंने पांच हजार सैनिक ओर भर्ती कर लिए। इनमें रिसाला और पैदल सैनिक शामिल थे। तोप और गोला बारूद बनाने के लिए उन्होंने रामपुरा किले में कारखाना लगा लिया। बादशाह की मदद के लिए भी 45,000 रुपए और अनाज दिल्ली भेजा। समय-समय पर वे बादशाह के दरबार में भी हाजिर होने लगे।
इसी दौरान दिल्ली पर दोबारा अंग्रेेजों का कब्जा हो गया। बादशाह बहादुरशाह जफर को कैद कर लिया गया। दिल्ली पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने आसपास के इलाकों पर ध्यान दिया। ब्रिगेडियर जनरल शावर को रिवाड़ी पर कब्जा करने के लिए भेजा गया। वहां पांच अक्तूबर को पटौदी पहुंचा। वहां राव तुलाराम की एक ही सैनिक टुकड़ी थी। उसने अंग्रेजी फौज से जम कर टक्कर ली। राव को भी अंग्रेजी सेना के पहुंचने की खबर पहुंचा दी गई। खबर मिलते ही उन्होंने सुरक्षा की खातिर रामपुरा का किला छोड़ दिया। वह अंग्रेजों की चाल को ठीक से समझते थे। अगले दिन शावर जब रिवाड़ी पहुंचा तो उसे वहां राव तुलाराम नहीं मिले। कप्तान हडसन ने इसका जिक्र अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में किया है। पत्र में राव की इस होशियारी का बढ़ चढ़ कर वर्णन किया गया है। इसमें उनके किलों के कुशल प्रबंधन का भी जिक्र किया गया है।
शावर ने राव को आत्म समर्पण करने का हुक्म भेजा। परन्तु वीर तुलाराम ने उसे ठुकरा दिया और चालाकी से बच निकला शावर उसे पकड़ने में नाकामयाब रहा। झज्जर, कानौद (महेंद्रगढ़) और रिवाड़ी को लूटता हुआ वह नवम्बर के अंत में दिल्ली वापिस चला गया। तुलाराम उस समय शेखावटी में सैनिक शक्ति जुटा रहे थे। वहां उन्हें जोधपुर की सेना मिल गई। वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए दिल्ली जा रही थी। उसकी मदद से राव तुलाराम ने रिवाड़ी और रामपुरा पर दोबारा कब्जा कर लिया।
अंग्रेजों को इस पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने राव तुलाराम को दंड देने का फैसला किया। इस पर इसके लिए ले. कर्नल गैराड को भेजा गया। वह एक मजबूत सेना लेकर रिवाड़ी जा पहुंचा। अब वहां रामपुरा का किला नहीं था। मिट्टी के मजबूत किले को शावर ने पहले ही बरबाद कर दिया था। इसलिए अंग्रेजी हमले की खबर पाकर राव ने रामपुरा छोड़ दिया। अब वे नारनौल के करीब अधिक सुरक्षित स्थान पर जा पहुंचे। झज्जर के नवाब के चाचा अब्दुल समद खां भी अपनी फौज सहित यहां आ पहुंचे। भट्टू के शहजादे मोहम्मद अजीम भी अपनी सेना लेकर उनसे जा मिले। इससे बागियों की ताकत काफी बढ़ गई।
अंग्रेजी सेना 15 नवम्बर को नारनौल पहुंचीं। अंग्रेजों की मदद के लिए पंजाब व मुल्तान की सेनाएं भी पहुंच गई। अंग्रेजों के पास एक मजबूत तोपखाना था। रिसाले और प्रशिक्षित फौज थी। अंग्रेजी सेना ने नारनौल के पास नसीबपुर गांव में मोर्चा लगाया। रात को अंग्रेज सैनिक आराम कर रहे थे। तभी राव तुलाराम की सेनाओं ने अचानक उन पर हमला कर दिया। बड़ी भयंकर लड़ाई। एक बार तो अंग्रेजी सेना के भी पांव उखड़ गए। एक अंग्रेजी अफसर ने लिखा है – ‘इतना बेहतर मुकाबला भारतीय दुश्मनों ने कभी नहीं किया था, जितना यहां रहा। बागियों में न कोई झिझक थी और न ही कोई डर।’
बागी बड़ी बहादुरी के साथ सीधा हमला कर रहे थे, परन्तु अंग्रेजी कमांडरों ने काफी होशियारी दिखाई। उन्होंने तोपखाने का उपयोग बड़ी चालाकी से किया। इस तरह अंग्रेजों ने मैदान हाथ से जाने से रोक लिया, लेकिन इस लड़ाई में अनेक अंग्रेज अफसर और सैनिक मारे गए। कर्नल गर्नाड भी सख्त जख्मी हो गया। मुल्तानी घुड़सवार मैदान छोड़ कर भाग निकले। इधर तुलाराम के प्रमुख जनरल कृष्ण गोपाल और रामलाल भी युद्ध में काम आए।
बागी सेना की ताकत कमजोर पड़ गई। सुरक्षा के लिए सैनिक नारनौल शहर में जा पहुंचे। परन्तु वहां भी अंग्रेजों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अनेक बागी सैनिक मारे गए। बहुत से कैद कर लिए गए। परन्तु तुलाराम और समद खां किसी तरह वहां से भाग निकले। आखिर मैदान अंग्रेजों के हाथ लगा। परन्तु अंग्रेजों को बागियों के साहस और वीरता का लोहा मानना पड़ा। छिपते-छिपते राव तुलाराम राजस्थान चले गए। कहते हैं कि वे वेश बदल कर राजाओं से मिलते थे। उनसे अंगेजों के खिलाफ मदद जुटाने की कोशिश करते थे। परन्तु अब हालात काफी बदल चुके थे दिल्ली पर अंग्रेजों का राज दोबारा कायम हो चुका था। अब कोई राजा उनके खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं कर पा रहा था। कठिन हालात में एक बार तो राव तुलाराम भी पस्त हो गए। निराश होकर उन्होंने अंग्रेजों को सुलह के लिए पत्र भी लिख दिया, परन्तु जल्दी ही वीर फिर संभल गया और संघर्ष जारी रखा।
हालात को भांपते हुए तुलाराम 1858 के शुरू में कालपी चले गए। वहां तांत्या टोपे ने उनका बड़ा स्वागत किया। उन्होंने राव तुलाराम को बागी सेना का एक कमांडर बना दिया। तुलाराम एक बार फिर अंग्रेजों के खिलाफ जंग में कूद पड़े। वे बागी सेना को लेकर तांत्या टोपे और शहजादा फिरोज के साथ दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे। परन्तु अब बागी सेना पहले जैसी मजबूत नहीं थी। अप्रैल 1859 में तांत्या टोपे गिरफ्तार कर लिए गए। राजद्रोह का मुकद्दमा चलाकर उन्हें फांसी दे दी गई। लेकिन तुलाराम अब भी किसी तरह बच निकले। वे मुंबई होते हुए अंग्रेजी राज से बाहर निकल गए। इसके बाद वे ईरान, रूस और अफगानिस्तान चले गए। वहां भी वे हिन्दुस्तान की आजादी के लिए कोशिश करते रहे। उन्होंने वहां के शासकों से हिन्दुस्तान की आजादी के लिए मदद मांगी। इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। परन्तु अब उनकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। अफगान अमीर ने शाही हकीम को उनकी दवा-दारू के लिए तैनात कर दिया, लेकिन तुलाराम का शरीर बिल्कुल जवाब दे चुका था। 1863 में देश की स्वतंत्रता की उमंगों को दिल में लिए तुलाराम ने प्राण त्याग दिए। उस समय उनकी आयु केवल 38 साल थी। काबुल के अमीर ने पूरे शाही सम्मान के साथ उस देशभक्ति का अंतिम संस्कार किया। उनकी देशभक्ति को सम्मान तो मिला, परन्तु आजादी का सपना अधूरा ही रहा। उन जैसे वीरों के बलिदान से ही आज हम आजादी का सुख भोग रहे हैं। उस आजादी की रक्षा का प्रण लेकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
लेखक ख्याति प्राप्त पुरातत्त्वविद थे. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग में प्रोफेसर रहे। हरियाणा राज्य संसाधन केंद्र, रोहतक ने ‘अमर शहीद राव तुलाराम’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की है।