यदि दुनिया में कोई धंधा ऐसा है कि जिसकी नेक कमाई है तो वह यही किसान है। यदि दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति है जो संतोष जीवन का ज्वलंत उदाहरण है, तो वह यही किसान है। श्रद्धा की गर्मी किसी के सीने में है हाथ उदार, दिल में पवित्र नीयत का उजाला, पेट (मन) का साफ, मानवता का सेवक, पशु का मित्र, अपने मौला का भक्त, सरकार का शुभचिंतक। मगर इतना होने पर भी कितना, हतभागी है। पशु इसकी फसल उजाड़ देते हैं। इसके पड़ौसी इसकी गांठ काटते हैं। प्राकृतिक शक्तियां इस पर विपत्तियों की वर्षा करती रहती हैं। परमात्मा भी कृपा और दयालुता की जगह कहर ढाकर इसकी सहनशीलता की परीक्षा लेता है। और सरकार भी हरदम इससे आंखें चुराए रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसान ऐसा निर्भाग है कि वह सोने पर हाथ डाले तो सोना भी मिट्टी हो जाता है। आम बोता है और बबूल पैदा हो जाते हैं, जिसके प्यार का फल घृणा और जिसकी सेवा का फल अपमान है। ऐसा क्यों होता है? यदि तनिक विचार करके देखा जाए, तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं।
किसान जमाने को नहीं पहचानता। किसान का दिमाग मोटा है किसान दुनिया के रंग रूप से परिचित नहीं। किसान ने जमाने की रफ्तार के साथ कदम मिलाकर चलना नहीं सीखा है। किसान ने अभी तक इस कहावत की सच्चाई को नहीं समझा है कि जैसा देश वैसा भेष, जैसा दौर वैसा तौर। इस कलयुगी जमाने में संतोष मूर्खता की निशानी है। संतोष उदासी, उत्साहहीनता का प्रमाण है। शांति जीवन की अनुपस्थिति का नाम है।
आज पश्चिमी सभ्यता का साम्राज्य है। सब्र की जगह आकांक्षाओं ने ले ली है। कनायत की जगह तमन्ना ने, सुकून की जगह हरकत ने, मकून की जगह शोरो-गुल ने ले ली है। मगर किसान अभी तक भी पुरानी लकीर का फकीर चला आता है। जमाने का रंग नहीं देखता और हवा का रुख नहीं पहचानता। इसलिए ठोकरें खाता है और गिरता है। दुनिया के हाथों से अपमानित है, मगर अपनी पुरानी चाल को नहीं छोड़ता। जमाने के हाथों वीरान हो जाता है, परन्तु अपनी गफलत से अभी तंग नहीं हुआ है यद्यपि इस गफलत व आत्मबोध से घर लुट गया, फिर भी अभी तक अपनी झूठी शान व आन पर अड़ा हुआ है।
है तेरी जिल्लत ही कुछ तेरी शराफत की दलील
जिसकी गफलत को मलिक रोते है वह गाफिल है तू
(अपनी अधिक सहजता के कारण ही तू अपमानित किया जाता है। जिसकी लापरवाही को देवता रोते हैं, वह लापरवाह आदमी तू ही तो है।)
लेकिन अब इस गफलत से काम नहीं चलेगा। यदि गफलत कायम रही तो इज्जत कायम नहीं रहेगी। यदि यह अनभिज्ञता जारी रही तो जिंदगी का तार टूट जाएगा। यदि किसान में इज्जत व जीवन की चाह बाकी है तो उसे बीसवीं सदी के शस्त्रों से सुसज्जित होना पड़ेगा। यदि किसान को अपने जीवन और अस्तित्व की कोई चिंता है तो पश्चिमी सभ्यता का कवच पहनना होगा।
ऐ किसान! शायद तू पूछे कि बीसवीं सदी के शस्त्र कौन से हैं और पश्चिमी सभ्यता का कवच क्या है? यदि मुझे दो शब्दों में बीसवीं सदी के शस्त्र और कवच के बारे में कुछ कहना हो तो मैं कहूंगा कि यह शस्त्र क्रमश: उंगठन और प्रचार हैं। दोनों चीजों के और भिन्न-भिन्न रंग और भिन्न-भिन्न रूप हैं, जो कि वर्तमान युग में वर्तमान सभ्यता में समय-समय पर समय की मांग के अनुसार शस्त्र व कवच का काम देती है। किसान को चाहिए कि वह अपना संगठन बनाए। अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए सब एकत्रित हो जाएं। मजहब के भेद को भूल जाएं। मजहब को मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों की चारदिवारियों में बंद कर दें। धर्मांन्ध कट्टर मौलवी, पंडित और गं्रंथी मजहब के नाम पर घृणा और ईष्र्या पैदा करने का काम करते रहे हैं। जहां हमारे सांसारिक हित हमें स्पष्ट रूप से एकजुट होने का आदेश देते हैं। वहां व्यर्थ में मजहब की आड़ लेकर यह मौलवी, पंडित और ग्रंथी मजहब को झगड़ों और परेशानी का कारण बना देते हैं।
पंजाब की राजनीति में मजहब का लिहाज किए बिना किसानों का आपसी हित के लिए मिलकर संगठित होना बहुत जरूरी और कुदरती बात है। परन्तु हमारे पंडित, मौलवी और हमारे ग्रंथी भाई हमारी आंखों पर द्वेष की ऐसी पट्टी बांध देते हैं कि हम हमेशा तीन तेरह और बारह बाट रहते हैं। ऐसे-ऐसे पुराने किस्से कहानियां याद दिलाकर जिनका वर्तमान परिस्थितियों और समस्याओं से कोई संबंध नहीं होता, ये लोग हिन्दू को मुसलमान और मुसलमान को हिन्दू से अलग रखने की कोशिश करते हैं। दुख की बात है कि उसी प्रतिष्ठित सज्जन ने जिसने घृणा की बाढ़ को रोकने के लिए फरमाया था।
महफिलों में तू पुरानी दास्तानों को न छेड़।
रंग पर जो अब न आएं उन फसानों को न छेड़।।
अब वही व्यक्ति घृणा के रंग में मस्त नजर आता है। पर किसान सब एक हैं। इनके हित पूर्णत: केवल अपने हैं और सामूहिक हैं। अच्छी और समय पर वर्षा हो जाए तो समान लाभ होता है। यदि अच्छा उत्पादन हो और महंगा बिके तो सबको समान नफा होता है। यदि नहर या मामले के दाम कम हो जाएं तो सब को बचत होती है। यदि वर्षा न हो या ओले पड़ जाएं या अनाज आदि जिंस सस्ती बिके या सरकारी माल बढ़ जाए तो हिन्दू, मुसलमान और सिख सभी किसानों को एक-दूसरे से अलग रहना और अपनों को पराया समझना सिखाते हैं। मजहब के प्रभाव के कारण बेचारा किसान नहीं समझ सकता कि:
नहीं बेगानगी अच्छी रफ़ीकें-राहें-मंजिल से।
(अपने साथी यात्रियों से नफरत करना अच्छा नहीं होता है।) वास्तव में किसानों को तो यह पाठ पढऩे की जरूरत है:
अगर मंजूर है दुनिया में और बेगाना खू रहना।।
(अपनों से मिलकर रहना और मित्र वेश में दुश्मनों की तरफ से असावधान न होना किसानों के लिए अति आवश्यक है।)
किसानों को आत्मनिर्भरता का पाठ सीखना भी अति आवश्यक है। केवल खुदा के भरोसे काम नहीं चलता। ईश्वर ने हमें बुद्धि दी है और पुरुषार्थ करने की शक्ति दी है और वह आशा रखते हैं कि हम पुरुषार्थ की शक्ति पर विश्वास रखकर अपनी बुद्धि को काम में लावें। सरकार से किसी प्रकार की आशा रखना तो घोर मूर्खता है। दुनिया की हर एक सरकार की यह विशेषता होती है कि वह ताकत के सामने झुकती है। शक्तिशाली व्यक्ति का आदर करती है और ताकतवर को ही न्याय देती है। वास्तव में देखा जाए तो सांसारिक सरकार और खुदा सरकार दोनों ही इंसान के बाहुबल का आदर करती है। सुस्त और आलसी व्यक्ति को घृणा की दृष्टि से देखती है। जो अपनी मदद आप करते हैं, उन पर वह भी मेहरबान हो जाती है। जो अपने पुरुषार्थ की शक्ति से दुनिया को हिला डालते हैं उन्हीें से सब प्रसन्न रहते हैं।
यही आईने-कुदरत है-यही असलूबे फि़तरत है।
जो है-राहे अमल पर गामजन महबूबे फि़तरत है।।
(प्रकृति का यही विधान है और यही प्रकृति का तरीका है कि जो पुरुषार्थ करता है वह प्रकृति का प्यारा होता है)
हू-ब-हू वैसी ही विशेषता सरकार की होती है जो विशेषत: प्रकृति की होती है।
यदि मैं किसानों को कोई संदेश अपने अनुभव व समझ के आधार पर दे सकता हूं तो यह है कि वह अपना मजबूत संगठन करे और जिस प्रकार खेती के काम में सरगर्मी का प्रदर्शन करते हैं, उसी प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में शिथिलता छोड़ कर गतिमान हो जाएं। क्योंकि:
जुंबिश से है जिन्दगी जहां की। यह रस्म कदीम है यहां की।।
(यह बात सर्वविदित है कि दुनिया की जिन्दगी गतिशीलता से ही है।)
अपने हितों और अपनी आवश्यकताओं का डट कर खूब प्रचार करें। अपनी शिकायतों, दुखों, कष्टों, कलेशों, पीड़ाओं, संवेदनाओं और अपनी कठिनाइयों को बिना झिझक प्रकट करें। सुकून और खामोशी को छोड़ दें। चिल्ला-चिल्ला कर नाला फरियाद से राजनीतिक क्षेत्र में हलचल मचा दें। सुकून की कोई इज्जत नहीं, शांति का कोई आदर नहीं है। सच पूछो तो सियासी दुनिया में जिन्दगी का नाम और पैमाना शोरोगुल ही है।
चमन ज़ारे-सियासत में खामोशी मौत है बुलबुल।
यहां की जिंदगी पाबन्दि-ए-रस्मे फुग़ां तक है।।
(ए बुलबुल राजनीति के बाग में चुप रहना मृत्यु को बुलावा देना है। राजनीति की दुनिया में जिंदा रहना चाहता है तो तू अपनी मांगों के लिए शोर मचा, हुंकार भर।)
बहुत लिख चुका। अब तुझे जगाने और संगठित करने चला हूं। तुझे ‘बेचारा’ नहीं रहने दूंगा। तुझे पंजाब का और भारत का राजा बनाकर ही दम लूंगा।