किसान-संघर्ष से जन्मी सत्ताओं ने ही किसान को दुत्कारा -सतीश त्यागी

खेती-बाड़ी


1930 के दशक में चौधरी छोटूराम  हरियाणा के किसानों का आह्वान कर रहे थे कि वे अपने हकों के लिए संघर्ष का रास्ता अख्तियार करें। खुद छोटूराम पंजाब सरकार में मंत्री के रूप में किसानों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए संघर्षरत थे। उनके इस संघर्ष के सुखद परिणाम भी आये और देश के आजाद होते-होते किसान की माली हालत भी सुधरी और वह गूंगा भी नहीं रहा। चौधरी छोटूराम ने ही हरियाणा के किसानों को आवाज दी और उनकी बेचारगी को ताकत में तब्दील किया। लेकिन यह संघर्ष तो अनवरत चलना था क्योंकि सरकार  फिरंगी की रही हो या अपनों कि, किसान की नियति में तो पीड़ा ही बदी थी!

                किसान के संघर्ष और असंतोष की वजहें तो समय के साथ और भी गहराती जा रही हैं और बेचारगी इतनी कि किसान खुद अपनी जान लेने को मजबूर हो रहे हैं। आज जब किसान की बेचारगी और पीड़ा शिखर पर है तो उसका दुर्भाग्य यह है कि उसके लिए मरने-खपने के लिए न तो सहजानंद सरस्वती और छोटूराम हैं और न ही चरण सिंह, देवीलाल और महेंद्र सिंह टिकैत। दशकों से उसके अपनों के ही राज में उस पर गोलियां चल रहीं हैं।

                हरियाणा में चौधरी देवीलाल असल में किसान राजनीति की ही उपज थे। किसानों के लिए उनके संघर्ष ने उन्हें ‘किसान मसीहा’ का दर्जा दिलाया लेकिन यह भी सच है कि इस किसान नेता के राज के दौरान ही 1978 में भारतीय किसान यूनियन  वजूद में आई। वजहें रही होंगी, तभी तो किसानों के जुझारू संगठन की जरूरत पड़ी। अस्सी और नब्बे के दशक हरियाणा में किसानों पर सरकारी गोलियां बरसाने के लिए याद किये जायेंगे। निसिंग, टोहाना , नारनौल,कादमा, मंडयाली, मांडली, धमरिन और कंडेला में एक दशक के भीतर ही लगभग तीन दर्जन किसान सरकारों ने ही पुलिसिया गोलियों से उड़वा दिए। बिजली और नहरी पानी की सिंचाई की बढ़ी दरों के खिलाफ अथवा समर्थन मूल्य व कर्जे से मुक्ति के लिए जब-जब भी किसान संघर्ष के लिए सड़कों पर उतरे तो कथित किसान हितैषी सरकारों ने न केवल उन्हें राजद्रोही करार दिया बल्कि उन पर लाठियां-गोलियां भी बरसवायीं! किसान-संघर्ष से जन्मी सत्ताओं ने ही किसान को दुत्कारा। हालत लगातार बद से बदतर हो रहे हैं, जमीनी संघर्ष की जबरदस्त दरकार है लेकिन अफसोस कि आज किसान के लिए सरकार और राजनीतिक दलों के पास केवल लफ्फाजी और जुमलें हैं। खुद किसान में लडऩे का न तो माद्दा शेष है और न जज्बा! ऐसी बेचारगी तो शायद कभी भी नहीं रही थी। बाजार की ताकतों के आगे किसान हाथ जोड़े घुटनों के बल खड़ा है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज- 20

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