विपिन सुनेजा – खेतों में लहलहाता संगीत

संगीत हमारे देश की मिट्टी में बसा है। इस मिट्टी में अन्न उगाने वाले कि सान के जीवन में अनेक ऐसे क्षण आते हैं, जब वह भाव-विभोर होकर गाने लगता है। ग्राम्य जीवन पर आधारित अनेक फिल्मों में किसान के मनोभावों को व्यक्त करते हुए गीत रखे जाते रहे हैं, जिनका दृश्यांकन भी ऐसा रहा है कि वे दर्शकों के मन-मस्तिष्क में सदा के लिए अंकित हो गये हैं।

भारत में बनी पहली रंगीन फिल्म ‘किसान-कन्या’ (1937) सआदत हसन मंटो की कहानी पर आधारित थी। इसमें ऐसे दो गीत थे, एक था ‘माटी हमारी जननी है, हम धरती के पूत’ और दूसरा था ‘धान के पोले भर-भर बांधे’। फिल्म ‘औरत’ (1940) में आकाश में उमड़ते बादलों को देखकर किसानों को गाते हुए दिखाया गया था। ‘बादल आये, बादल आये, बदल गया संसार’। फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ (1953) में भी सावन का स्वागत करते हुए गीत था ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’। इस फिल्म में एक और गीत था, ‘धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के, कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये’। शैलेन्द्र के लिखे इस गीत में एक कृषक के जीवन का सम्पूर्ण दर्शन छिपा हुआ है।

फिल्म ‘मदर इंडिया’ (1957) के गीत ‘मतवाला जिया झूमे पिया, झूमे घटा छाये रे बादल’ में खेत में काम करते हुए नायक-नायिका का प्रेमालाप भी है। इसी फिल्म में एक  मेले का दृश्य है, जिसमें बैलगाडिय़ों पर सवार किसान गा रहे हैं ‘दुख भरे दिन बीते रे भइया, अब सुख आयो रे’। और इसी फिल्म में एक उदास गीत भी है ‘उमरिया घटती जाये’ जिसमें शोषण का शिकार हुए किसानों की व्यथा शकील बदायूंनी के शब्दों में इस प्रकार व्यक्त की गयी है-‘दुख-दर्द से बंजारे भैया धूप में देखे तारे, दिन-रात बहाये पसीना हम, कुछ हाथ न आये हमारे’।

फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ (1957) में सावन के आगमन पर नायक ढोल बजाते हुए गा रहा है, ‘उमड़-घुमड़ कर आयी रे घटा, झरझर झरझर अब धार झरे और धरती जल से माग भरे’। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित फिल्म ‘हीरा मोती’ (1959) में भी ऐसा ही उमंग भरा गीत था ‘नाच रे धरती के प्यारे, आज तेरे घर होने को है फिर खुशियों के फेरे, धान की बाली, यह हरियाली कहती है तुझसे  रे’। प्रेमचंद के ही उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘गोदान’ (1963) में अपने खेतों की ओर लौटता किसान गा रहा है ‘पूरबा के झोंका में आयो रे संदेसवा कि चल आज देसवा की ओर’। इसी फिल्म में नायक को सांझ के समय अपने खेत में बैठे चैती गाते हुए दिखाया गया है ‘हिया जरत रहत दिन-रैन, अम्बुवा की डाली पे कोयल बोले, तनिक न आवत चैन’। भोजपुरी भाषा में ये गीत अनजान ने लिखे थे।

फिल्म ‘खानदान’ (1965) में राजेन्द्र कृष्ण का लिखा एक बड़ा ही रोचक गीत था जिसमें नायक कहता है ‘नील गगन पर उड़ते बादल आ आ आ, धूप में जलता खेत हमारा, कर दे तू छाया’ और नायिका कहती है ‘छुपे हुए ओ चंचल पंछी जा जा जा, देख अभी है कच्चा दाना,  कर दे तू छाया’।

फिल्म ‘गाइड’ (1965) में सूखे से पीडि़त किसान याचना कर रहे हैं ‘अल्लाह मेघ दे, रामा मेघ दे, पानी दे छाया दे’। फिल्म ‘शहीद’ (1965) में पराधीन भारत के किसानों की स्थिति बयान करता हुआ प्रेम धवन द्वारा लिखित मार्मिक गीत था ‘जट्टा पगड़ी संभाल, तेरा लुट गया माल। देके अपना खून पसीना तूने फसल उगाई, फसल पकी तो ले गये जालिम तेरी नेक कमाई’। किसान को केंद्र में रखकर जितने भी गीत आये हैं, उनमें संभवत: सबसे लोकप्रिय फिल्म ‘उपकार’ (1967) का गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ गुलशन बावरा के लिखे गीत की इन पंक्तियों को बड़े ही सुंदर ढंग से फिल्माया गया था ‘बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग सुनाते हैं, गम कोसों दूर हो जाता है, खुशियों के कंवल मुस्काते हैं, सुनके रहट की आवाज़ें यूं लगे कहीं शहनाई बजे, आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे’।

फिल्म ‘धरती कहे पुकार के’ (1969) का शीर्षक गीत था ‘धरती कहे पुकार के, मेरा सब कुछ उसी का है, जो छू ले मुझको प्यार से’। फिल्म ‘जिगरी दोस्त’ (1969) में भी एक मधुर गीत था  ‘मेरे देस में पवन चले पुरवाई’। फिल्म ‘बंधन’ (1969) में किसानों को उत्सव में गाते हुए दिखाया गया ‘आयो रे सावन आयो रे, हुए सच मेहनत के सपने, कि दुखड़े दूर हुए अपने, किया धरती ने सोलह सिंगार’। फिल्म ‘गंंवार’ (1970) में धरती मां का गुणगान करता हुआ गीत था ‘वो कौन है जो मां की तरह नाज उठाये, दे दे के लहू अपना जो फसलों को उगाये, यही धरती यही धरती’।

फिल्म ‘अनोखा’ (1975) के लिए इन्दीवर ने एक गीत लिखा था ‘धरती है हमारी जान, जान लगा कर बोएं धान’ जो ट्रैक्टर पर सवार नायक पर फिल्माया गया था। यह इकलौता ऐसा गीत है जिसमें मेहनतकश किसानों की महानता का बखान किया गया है ‘तुमको लोगों ने अब तक कहा है किसान, पर मैं कहता हूं तुमको इस धरती का भगवान’।

सत्तर के दशक के बाद ग्रामीण परिवेश की फिल्में बहुत कम बनी हैं। इसलिए किसानों पर फिल्माए गीत भी बहुत कम हैं। इनमें  दो गीत विशेष उल्लेखनीय हैं। एक तो फिल्म ‘लगान’ (2001) का गीत ‘घनन घनन घन फिर आये बदरा’ और दूसरा है फिल्म ‘वीर जारा’ (2004) का गीत ‘ऐसा देश है मेरा’ जिसमें जावेद अख्तर लिखते हैं ‘गेहूं के खेतों कंघी जो करें हवाएं, रंग बिरंगी कितनी चुनरियां उड़ उड़ जाएं’।

ये तो हुए फिल्मी गीत। इनके अतिरिक्त मुझे एक गीत  याद आ रहा है, जो आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र पर तैयार किया गया था ‘थम जा रे पिया, बंसी न बजा, अभी खेत प्यासे’। लेकिन यह गीत सुने हुए तीस साल से ज्यादा हो गए हैं। आजकल ऐसे गीत कहां!

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज- 66-67

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