किसानों के हितों के लिए केंन्द्र के साथ राज्य सरकार ने भी घोषणाएं करने में तो कोई कमी नहीं छोड़ी पर तस्वीर वैसी नहीं है जैसी आम और खास अवसरों पर दिखाई जाती है। किसानों की व्यथा यह है कि खेती उन्हें अब मुनाफे का सौदा नजर नहीं आती, इसके लिए कई कारण भी गिनाये जा रहे हैं। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू होने की उम्मीद में प्रदेश के किसान हैं परंतु लगता है कि इंतजार की घडिय़ां अभी खत्म नहीं होने वाली। ऊपर से प्राकृतिक आपदा के प्रकोप व भंडारण की अव्यवस्था ने किसानों को पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया है जिस जिस कारण कर्जे में डूबे किसान आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं।
हरित क्रान्ति के बूते खाद्यान्न उत्पादन में भले ही हम आत्मनिर्भर हो गए हों लेकिन इस पेशे से जुड़े लोग इसके बलबूते आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं। अधिकतर किसान खेती को घाटे का सौदा मानते हैं, लिहाजा इसे छोड़ किसी और उद्यम को अपनाने को विवश हैं। फसल की बुआई से लेकर कटाई तक किसान को भाग्य के भरोसे ही रहना पड़ता है। फसल चक्र के दौरान तमाम समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। हाड़तोड़ मेहनत करके अगर वह फसल को खेत में तैयार कर ले जाता है तो आखिरी वक्त पर प्राकृतिक आपदाएं उसकी उम्मीदों पर तुषारापात कर देती हैं। रही सही कसर भंडारण की समस्या और बाजार में बिचौलियों की मौजूदगी से फसलों के औने-पौने दाम कर देते हैं। भारत जैसी छोटी जोत वाले अधिकांश किसानों के दु:ख उतने ही बड़े हैं। ऐसे में भारतीय कृषि और किसानों की दारूण दशा की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
औद्योगिकीकरण के बावजूद हरियाणा की 56 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या की जीविका का मुख्य आधार कृषि है।1 राज्य के 70 प्रतिशत लोग खेती के कार्यों में लगे हुए हैं जबकि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का कुल योगदान लगातार कम हो रहा है।2 जाहिर है कि उद्योग व सेवा सेक्टर जहां आगे बढ़ रहे हैं वहीं हरित क्रांति का अग्रदूत हरियाणा अब खेती के मामले में पिछले पायदान पर सरक रहा है। वर्तमान में हरियाणा की जीडीपी में कृषि का योगदान 14.1 प्रतिशत है जो कि 2006 में 21.3 प्रतिशत था।3 हरियाणा में कुल बोया क्षेत्र 35 लाख हेक्टेयर है जिसमें 1 हेक्टेयर तक के खेतों वाले किसानों की संख्या 7.78 लाख, 1 से 2 हेक्टेयर वाले किसानों की संख्या 3.15 लाख व 2 हेक्टेयर से अधिक वाले किसानों की संख्या 5.24 लाख है। 4
घाटे का सौदा बन चुकी खेती किसानी हमारे अन्नदाताओं के लिए तब बड़ी मुश्किल खड़ी कर देती है जब बेमौसम बारिश इनकी पकी फसल को स्वाहा कर देती है। ऐसा बहुत कम ही होता है कि किसानों की योजना के मुताबिक फसल खेत से खलिहान तक पहुंचे। हाड़-तोड़ मेहनत और भारी पूंजी लगाने के बावजूद वे प्रकृति के रहमोकरम पर हैं जिसका तनिक सा कोप उसे दाने-दाने को मोहताज कर देता है। सूखा पड़े या अत्यधिक बारिश, बर्बाद वही होता है। खून पसीने से उपजाई फसल की बर्बादी बर्दाश्त न कर पाने के कारण सैकड़ों किसानों की मौत हुई हैं।
औद्योगिक विकास की ओर तेजी से कदम बढाने के बावजूद खेती आज भी हरियाणा की अर्थव्यवस्था का आधार है, लेकिन देश की बड़ी आबादी का पेट भरने को पसीना बहाने वाले किसान राम भरोसे हैं। दम तोडऩे वाले औद्योगिक घरानों को ऑक्सीजन देने के लिए आये दिन कई फार्मूले सामने आते रहते हैं, लेकिन राम की मार (आंधी, तूफान, ओलावृष्टि, भारी बरसात और सूखा) झेलने वाले किसान बेबस हैं। बुवाई से लेकर कटाई तक ही नहीं बल्कि बिक्री के लिए भी किसान मारा-मारा फिर रहा है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार किसानों को कुल उत्पादन लागत का 50 फीसद लाभ दिया जाना है,5 लेकिन यहां तो सरकारी समर्थन मूल्य को लेकर ही किसानों का मजाक बनता रहा है।
मुुआवजे का खेल
ओलावृष्टि और बेमौसमी बारिश से भले ही नुकसान फसलों को हुआ हो, लेकिन इसकी मार दूरगामी हुई है। फसल बर्बाद होने के बाद किसानों की एकमात्र उम्मीद सरकार पर टिकी होती है। विडंबना यह है कि नियमों और लालफीताशाही में फंसा सरकारी तंत्र नुकसान का अंदाजा लगाने और मदद पहुंचाने में हमेशा फिसड्डी साबित होता रहा है। आपदा में कमर तुड़ा बैठे किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। प्राकृतिक आपदा से नुकसान होने पर राहत व मुआवजे का झुनझुना सभी राजनीतिक पार्टियां बजाती हैं। हकीकत में मिलने वाला मुआवजा किसानों के जख्म पर मरहम लगाने भर का भी नहीं होता है। एक तरफ बारिश सरकार की आपदा की किसी भी परिभाषा में फिट नहीं होती जिससे फसलें लुटा चुके किसान किसी राहत के हकदार नहीं हैं, दूसरी तरफ आपदा की श्रेणी में नुकसान करने वाली बारिश को शामिल भी कर लिया जाये तो नुकसान का आकलन करने वाली मौजूदा प्रणाली उसे कुछ मिलने नहीं देगी। फसलों को तबाह करने वाली प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में जिन 12 विषयों को शामिल किया गया है, उनमें ओलावृष्टि, बाढ़, चक्रवात, बादल का फटना, सूखा पडऩा, भूकंप, सुनामी, भूस्खलन, हिमपात, अग्निकांड, रोगों का प्रकोप व पाला गिरना शामिल हैं।
राजस्व विभाग की ओर से कोई भी आपदा होने पर फसलों में हुए नुकसान के आकलन के लिए विशेष गिरदावरी की जाती है। इसके तहत विभाग के कर्मचारी हर खेत में मौके पर जाकर पता लगाते हैं कि किस खेत में कौन-सी फसल की बुआई की गई है, काश्तकार व उसके मालिक का नाम क्या है और आपदा से फसल को कितना नुकसान हुआ है। नुकसान के आकलन के लिए सरकार ने स्लैब बनाए हैं जिन्हें तालिका 1 में प्रदर्शित किया गया है।
प्राकृतिक आपदा से फसलों के तहस-नहस होने का आकलन करने के लिए निचले स्तर पर सरकारी मुलाजिम लेखपाल, कानूनगो, तहसीलदार और एसडीएम होते हैं। इनकी रिपोर्ट क्रमश: जिला कलेक्टर से होती हुई राज्य प्रशासन और केंद्र सरकार के पास ऊपर पहुंचती है। इसके बाद केंद्र का एक विशेषज्ञ दल प्रभावित राज्यों का दौरा कर उनके आंकड़ों की तस्दीक करता है। तत्पश्चात राज्य प्रशासन के साथ बैठक कर अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंप देता है। प्राकृतिक आपदा से नुकसान पहुंची फसलों के संबंध में प्रभावित राज्यों की रिपोर्ट मिल जाने के बाद गृहमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचएलसी) की बैठक में इसे मंजूरी दी जाती है। तब कहीं मुआवजे की राशि राज्य प्रशासन के पास पहुंचती है। इसके बाद इस राशि को किसानों तक पहुंचाने में उसी प्रशासनिक सीढी का सहारा लिया जाता है। लिहाजा किसानों को मुआवजा मिलने की प्रक्रिया जितनी आसान दिखती है, उतनी ही कठिन व टेढ़े-मेढ़े रास्ते से गुजर कर पहुंचती है।
जब भी फसलों की बर्बादी होती है तो फसल बीमा की बात की जाती है जिसे तीस साल पहले पायलट प्रोजेक्ट के रूप में जिस खराब डिजाइन के साथ शुरू किया गया था, कमोबेश आज भी उसका वैसी ही रूप जारी है। किसान और बीमा कंपनियां इसको लेकर उदासीन हैं। बड़े-बड़े दावों के बावजूद वास्तविकता यह है कि ऐसे किसानों की संख्या पांच प्रतिशत से अधिक नहीं है जो प्रभावी रूप से विभिन्न फसल बीमा स्कीमों के दायरे में हैं। यहां तक कि लागत एवं मूल्य आयोग ने इस संबंध में संशय जाहिर किया है। बीमा कंपनियां वार्षिक के बजाय प्रति फसल के हिसाब से जोड़कर लाभार्थी किसानों की संख्या दोगुनी गिनती हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि बीमा कंपनियां ब्लॉक या तालुका स्तर पर फसल नुकसान का आकलन औसत नुकसान के आधार पर करती है। जब तक बेमौसम बारिश के कारण ब्लॉक के 70 प्रतिशत क्षेत्र में फसल का नुकसान नहीं होता तब तक किसी भी किसान को मुआवजा नहीं मिलता।7 यह तर्कसंगत नहीं लगता। यदि आप किसी शहर में रहते हैं और आपका घर आग से जल जाता है तो बीमा कंपनी नुकसान की भरपायी करती है। तब वह कॉलोनी के अन्य प्रभावित मकानों के औसत नुकसान के आधार पर आकलन नहीं करती। भारी भरकम कर्ज तले दबे ये किसान और अधिक नुकसान बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। बीमा नीतियों में खामी उनकी परेशानियों को और बढा रही है।
भंडारण की अव्यवस्था
हरियाणा में हर फसल की कटाई के बाद सरकार व कृषि विभाग का दम फूलने लगता है। कारण स्पष्ट है कि फसल खरीद से लेकर उसके भंडारण तक हर मोर्चे पर ऐसी चुनौतियां विद्यमान हैं जो सरकार की प्रतिबद्धता और विभाग की दूरदर्शिता के घोर अभाव की परिचायक बन चुकी हैं। बीमारी का अर्से से पता हो व उसके इलाज के बारे में भी जानकारी हो लेकिन फिर भी उसका निदान न किया जाए तो जख्म का नासूर बनना स्वाभाविक है। राज्य में भंडारण की क्षमता ऐसा ही नासूर बन रही है जो हर साल सरकार को अरबों का नुकसान पहुंचाते हुए लगातार विस्तार पा रहा है। अनाज उत्पादन के मामले में अव्वल राज्यों में शुमार हरियाणा भंडारण क्षमता में आज भी फिसड्डी है। प्रदेश में पर्याप्त गोदाम न होने के कारण हर साल 20 से 25 फीसद अनाज बारिश में भीगने से सड़ जाता है। विभिन्न जिलों में इस समय 55 लाख मीट्रिक टन से अधिक अनाज खुले में पड़ा हुआ है जिसका विवरण तालिका 2 में दिया गया है।
बीते चार वर्षों में आधा दर्जन जिलों भिवानी, फरीदाबाद, झज्जर, महेन्द्रगढ़ व यमुनानगर में नए गोदाम बनाने का एक भी प्रोजेक्ट बैंकों से स्वीकृत नहीं हुआ है। हालात बदतर होते देख आठ जिलों में अगले तीन वर्ष में नाबार्ड द्वारा 16 लाख मीट्रिक टन क्षमता के गोदाम बनाए जाएंगे। इससे स्पष्ट है कि अभी अनाज को खुले में ही रखना होगा। नई फसल आने पर स्थिति का और बिगडऩा तय है। सरकार अनाज भंडारण क्षमता 107.25 लाख मीट्रिक टन होने का दावा करती है, लेकिन वास्तव में इससे काफी कम सुरक्षित भंडारण हो रहा है। राज्य की अपनी खुद की गोदाम भंडारण क्षमता 48.79 लाख मीट्रिक टन है।8 5.24 लाख मीट्रिक टन क्षमता के गोदाम निजी उधमी गारंटी योजना के तहत बनाए गए हैं। 30.20 लाख मीट्रिक टन अनाज का टीन के शेड व खुले में भंडारण किया जाता है। राज्य सरकार इस व्यवस्था को भी भंडारण मानकर चलती है। अप्रैल 2015 तक राज्य के पास 70 लाख 60 हजार 425 मीट्रिक टन अनाज है जिसमें से मात्र 13 लाख 16 हजार 421 मीट्रिक टन ही गोदामों में सुरक्षित है। हरियाणा की मंडियों में कुल कृषि उपज की आवक की बात करें तो वर्ष 2013-14 में 1,85,85,500 टन की आमद हुई जबकि इस अवधि में गोदामों की भंडारण क्षमता 70,60,425 टन ही रही।9 यदि सकल खाद्यान्न की बात करें तो जरूरत के अनुसार 50 फीसदी भी भंडार गृह नहीं बन पाए हैं। इस कारण खरीद एजेंसियां सीजन के समय अनाज मंडियों के शेड अपने अधिकार क्षेत्र में ले लेती है। कायदे से ये शेड किसान की पैदावार के लिए होते हैं, लेकिन किसान की उपज सड़कों पर बर्बाद होती रहती है। समूचे प्रदेश की अनाज मंडियों में अव्यवस्था के लिए किसान नेताओं की नजर में सीधे तौर पर सरकार और प्रशासन दोषी है। उनका कहना है कि सरकार किसानों की समस्याओं के प्रति कतई गंभीर नहीं है जो कि कहती तो बहुत कुछ है लेकिन हकीकत में करती कुछ नहीं है। मंडियों में रख रखाव की जिम्मेदारी मार्केटिंग बोर्ड की होती है लेकिन किसानों से करोड़ों रुपये का राजस्व मिलने पर भी बोर्ड इस जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से नहीं करता। होना तो यह चाहिए कि मार्केटिंग बोर्ड द्वारा समस्त खर्च सार्वजनिक किया जाए कि मंडियों में किस व्यवस्था के सुधार में कितना खर्च किया गया।
अनाज उत्पादन में अग्रणी राज्यों में शामिल हरियाणा की चर्चा सबसे अधिक अनाज खराब करने वाले प्रांत के रूप में भी की जाती है। विडंबना यह है कि लाखों टन अनाज को खुले में तिरपाल के नीचे भंडारण किया जाता रहा है, बदतर स्थिति यह है कि भंडारों में जितना अनाज रखा गया है वह भी सुरक्षित नहीं। नए मामलों में विभिन्न जिलों के गोदामों में 2014 में 52 करोड़ रुपये का गेहूँ सड़ गया।10 42 हजार 987 मीट्रिक टन गेहूं डैमेज घोषित कर दिया गया।11 एफसीआई का 32111.61 मीट्रिक टन, फूड एंड सप्लाई का 1478 मीट्रिक टन व कान्फेड का 11130 मीट्रिक टन गेहंू खराब हो गया।12 एक अनुमान के अनुसार वर्तमान तक प्रदेश में करीब 52 खरब से ज्यादा की राशि का गेहूँ खराब हो चुका है।13 मार्च 2015 में उजागर हुए एक मामले में यह तथ्य सामने आया कि कुरुक्षेत्र में 2011-12 में खरीदे गये तीन हजार क्विंटल गेहूँ को 2015 तक घुन ने चट कर दिया।14 खराब हो चुके इस गेहंू के उठान के लिए जब टेंडर निकाले गये तो कोई भी ठेकेदार इसे लेने को तैयार नहीं हुआ। खुले में रखा खराब हो चुका गेहूं नए गेहूं के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है। सरकार इन सभी सड़े हुए अनाजों से निजात पाने की युक्ति ढूंढ रही है। स्वाभाविक सवाल है कि इस अनाज को खरीदेगा कौन ?
खुले में पड़ा अनाज खराब होने के समाचार जब-तब मिलते रहे हैं, पर उसमें तो अधिकारी वर्षा आदि का बहाना बना कर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं पर यहां बात भंडारों में अनाज सडऩे की है तो निश्चित रूप से जवाबदेही हर कीमत पर तय करनी होगी। कुछ मामले तो ऐसे भी सामने आ चुके हैं कि अधिकारियों ने अपने लाभ के लिए अनाज की बोरियों पर पानी डलवा कर वजन बढाया और अनाज बाहर भेजा। जो नहीं भेजा जा सका उसमें फफूंद लग गई। उसके लिए या तो चूहों को जिम्मेदार बता दिया गया या फिर गोदाम में नमी बढऩे का बहाना बना कर मिड डे मील अथवा राशन की दुकानों पर भेज दिया गया। इस घालमेल में करोड़ों के वारे-न्यारे हुए। एक तरफ तो करोड़ों रुपये का अनाज सड़ रहा है वहीं दूसरी तरफ अनाज वितरण के सार्वजनिक कार्यक्रमों में गरीबी का खुलकर मजाक उड़ाया जाता है जहां आटा-चावल की थैलियों के लिए उपस्थित भारी भीड़ को पुलिस के लाठी-डंडे खाने पड़ते हैं। अनाज को सडऩे देने से बेहतर है कि उसे पहले ही गांव गांव जाकर गरीबों को वितरित कर दिया जाए।
कृषि: घाटे का सौदा
किसानों में निराशा की कई वजह हैं। सबसे बड़ी वजह है उत्पादन लागत बढना व मुनाफा कम मिलना। ये सच है कि एक बड़ा शिक्षित वर्ग खुद को खेती से दूर कर चुका है। साधारण किसानों का भी खेती के प्रति मोहभंग हो रहा है। वे अपनी जमीन बंटाई पर दे रहे हैं, लेकिन काश्तकार को जो लागत आ रही है उसकी तुलना में मुनाफा बहुत ही मामूली है। ऐसे में यदि मामूली मुनाफा भी राम की मार से छिन जाए तो बेबस किसान को कैसे राहत मिलेगी? छोटे से उद्योग का बीमा कराने में बैंक से लेकर सरकार तक सबकी रूचि होती है लेकिन किसान की कमाई की फिक्र करने में किसी की भी रूचि नहीं है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार कुल लागत का 50 प्रतिशत मुनाफा किसान को मिलना चाहिए लेकिन यहां तो न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पा रहा। बाजरा कई वर्ष से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिका है। सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य कई वर्षों से खुले बाजार से भी कम रहा है। समर्थन मूल्य में कम-से-कम इतनी तो बढ़ोतरी होनी ही चाहिए जिससे काश्तकार को न्यूनतम मजदूरी मिल सके। खेती में प्रति एकड़ लागत व आमदनी को तालिका 3 में दर्शाया गया है।
तालिका 3 से स्पष्ट होता है कि एक किसान को प्रति एकड़ गेहूं की फसल पर सिर्फ 19810 रुपये का मुनाफा होता है जो कि केवल नाममात्र का ही है। सब कुछ ठीक ठाक रहे तो भी खेती से किसान की दिहाड़ी नहीं निकलती। दिन-रात मेहनत करने के बाद भी फसल कटाई के बाद जब सारा हिसाब-किताब किया जाता है तो खेती घाटे का सौदा साबित होती है। खुद की जमीन पर खेती करने के बाद भी किसान को मजदूर जितनी भी दिहाड़ी नहीं पड़ती है। किसानों की माने तो धान की रोपाई से पहले जुताई पर 5000 रुपये खर्च हो जाते हैं। धान रोपाई 3200, खाद-दवाई 5000 रुपये और सिंचाई पर 3000 रुपये खर्च आता है। अगर एक बार भी बिजली की मोटर सड़ जाए तो 5000 रुपये और खर्च होंगे। ऐसे में एक एकड़ धान पर 16 से 20 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं जबकि पिछले सीजन में एक एकड़ में 25000 से 30000 रुपये की ही धान हुई थी।15 गेहूँ और धान की फसल से किसान को साल में केवल 30000 से 35000 रुपये की ही बचत होती है। किसान की हालत तो दिहाड़ी करने वाले मजदूर से भी दयनीय है। पिछले कुछ समय से बढ़ती लागत व घटती आमदनी से अन्य खर्च तो दूर सामान्य रूप से परिवार चलाना भी मुश्किल होता जा रहा है। फसल भले ही किसान की होती हो, परंतु उसका मुनाफा किसान से ज्यादा आढ़तियों को मिलता है। कोई मार्ग न दिखते हुए किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। पिछले 20 वर्षों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं।16 आत्महत्या निराशा का सूचक है, लेकिन इसके लिए हिम्मत की जरूरत होती है। आत्महत्या करने वाले ये किसान राजनीतिक तंत्र तक अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनकी मौतें भी संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था को निद्रा से जगा नहीं पाई हैं।
सुझाव
अगर यह कहा जाए कि किसानों को रामभरोसे छोड़ दिया गया है तो गलत नहीं होगा। सरकार अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बना सकी जिससे दूसरे क्षेत्रों की तरह कृषि में नुकसान की भरपाई हो सके। कई बार ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी जब मुआवजे के रूप में किसान को सौ रुपये से भी कम राशि का चेक थमा दिया गया। यह जले पर नमक छिड़कने जैसा है। ऐसे में व्यवस्था पर से धरती पुत्र का भरोसा टूटने लगा है। किसानों को इस बदहाल स्थिति से निकालने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं।
- हर किसान की फसल का बीमा होना चाहिए। जिन किसानों की प्रीमियम भरने की हिम्मत नहीं, उनका प्रीमियम सरकार भरे।
- बीमा कंपनियां पूरा नुकसान वहन न करे तो भी किसान को इतना मुआवजा जरूर मिले जिससे उत्पादन लागत कवर हो।
- आपदा प्रभावित क्षेत्र में गिरदावरी में देरी न की जाए।
- सरकार के प्रतिनिधि किसानों के बीच जाकर उन्हें आश्वस्त करें जिससे खुदकुशी जैसी नौबत न आए। किसानों को खाद, पानी, बीज और बिजली के लिए मिल रही सरकारी सहायता को दुरुस्त करना होगा।
- किसानों को कृषि की नवीनतम तकनीकों से अवगत कराया जाए कि कैसे लागत कम रखें जिससे आपदा के समय कम नुकसान हो।
- सरकारी स्तर पर उनको फसलों का उचित दाम दिलाया जाए। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा किया जाए।
- मंडी में बिचौलियों की भूमिका को खत्म किया जाए।
- सरकारी मुआवजे की रकम को दोगुना किया जाए।
- गोदामों की स्थिति व रख रखाव के इंतजामों की धरातल पर समीक्षा करते हुए अन्न भंडारण की व्यवस्था दुरुस्त करनी होगी।
- अनाज के भंडारण का इंतजाम गांवों में ही कर देना चाहिए। साथ ही फसल की खरीद गांव के भंडार गृह से ही प्रारंभ कर देनी चाहिए ताकि गरीब किसानों को शहरी मंडियों व मुनाफाखोरों के चक्कर न काटने पड़े।
खेती से होने वाली आमदनी में इजाफा नहीं हुआ तो किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं बचेगी। किसानों को कर्ज नहीं आमदनी चाहिए। वर्षों से किसानों को बेहतर कमाई से वंचित किया जा रहा है। एक के बाद एक आने वाली सरकारें जानबूझकर किसानों को गरीब बने देखना चाहती हैं।
सन्दर्भ सूची :
- www.haryana.gov.in, accessed on 25/07/2015 at 4.30 pm
- वही
- दैनिक जागरण, रोहतक, 16 अप्रैल 2015, पृ. 9
- वही
- www.prsindia.org, accessed on 25/ 07/2015 at 5.10 pm
- www.springer.com, accessed on 26/07/2015 at 5.29 pm
- दैनिक जागरण, रोहतक, 16 अप्रैल 2015, पृ. 9
- www.agricoap.nic.in,accessed on 27/07/2015 at 11.46 am
- www.hwc.nic.in, accessed on 03/08/2015 at 10.16 pm
- wap.business-standard.com,accessed on 29/07/2015 at 10.22 pm
- वही
- www.hwc.nic.in, accessed on 03/08/2015 at 10.16 pm
- www.tribuneindia.com, accessed on 03/08/2015 at 11.16 p
- वही
- दैनिक जागरण, रोहतक, 16 अप्रैल 2015, पृ. 9
- www.ncrb.in] accessed on 05/08/2015 at 9.36 pm
पी.एच.डी. शोधार्थी लोक प्रशासन विभाग,महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक