मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किसान आंदोलन के रूप में फूटे जनाक्रोश के लिए जो कारक जिम्मेदार हैं वे हरियाणा, पंजाब अथवा किसी भी अन्य प्रदेश में भी उतने ही गहरे रूप में मौजूद हैं। पिछले तीन सालों से हरियाणा में अधिकतर मुख्य फसलों की मंडियों में पिटाई हुई है। न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीद नहीं करने के चलते किसानों की फसलें खास कर धान, सरसों, दालें, बाजरा, कपास इत्यादि औने-पौने भावों पर लूटी गई है। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि अनाज, दाल, सब्जी, फल, तिलहन, दूध इत्यादि किसानों से खरीदते समय तो भाव गिरा दिये जाते हैं परंतु ये तमाम उत्पादन उपभोक्ताओं को बहुत महंगे भाव पर खरीदने पड़ते हैं। खाद, बीज, दवाई,तेल आदि की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि के चलते उत्पादन खर्चों में बढ़ोतरी और आमदनी घटने के कारण किसान-खेत मजदूरों पर बैंक व निजी सूदखोरों के कर्जों का बोझ बढ़ता जा रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के उपरांंत इन पर बढ़ रहे खर्चों के कारण ग्रामीण गरीबों का जीवनयापन बहुत कठिन हो गया है। गत 25 वर्षों से लागू नवउदारीकरण की नीतियों ने कृषि क्षेत्र को गहरे संकट के कगार पर ला छोड़ा है।
कृषि क्षेत्र के लिए बजट आबंटन को घटाते हुए निवेश में लगातार कमी हुई है और सब्सिडी घटाई गई हैं। सच्चाई ये भी है कि कृषि आधारित उद्योग व धनी जमीदार ही बजट में आंबटित सरकारी सब्सीडी वगैरा का मुख्य फायदा ले जाते हैं। कृषि विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों व कृषि विभागों में कई दशकों से नियुक्तियां नहीं की जा रही और इन उपक्रमों की घोर उपेक्षा हो रही है।
गैर कृषि उपयोगों में लिए जाने से कृषि भूमि का रकबा घट रहा है। यह प्रक्रिया किसानों को भूमिहीनता की ओर धकेल रही है। परंतु इसके बदले में रोजगार सृजन नहीं हो रहे हैं। अत्यधिक रसायनिक खादों व दवाइओं के प्रयोग के चलते कृषि भूमि की उपजाऊ क्षमता घटते जाने, भूजल स्तर बहुत नीचे चले जाने और नहरी पानी की कमी जैसे कारणों से उत्पादकता में ठहराव आ गया है।
खेती का पेशा घाटे की तरफ जाते रहने से कर्जदार किसानों के एक हिस्से में जमीन से पीछा छुड़वाने की प्रवृति पैदा हुई है और सरकार खुद इस रूझान को बढ़ावा दे रही है। हरियाणा सरकार ने कार्यकारी आदेश द्वारा किसानों की भूमि ”स्वेच्छा” से दिए जाने और भूमि पोर्टल बनाने का निर्णय लिया है। इसके तहत जो किसान कम रेट पर भूमि देगा उसकी भूमि पहले खरीदी जाएगी। इस प्रकार 2013 के अधिनियम के तहत बाजार भाव से दोगुना और चार गुना रेट देने और किसानों के हित के अन्य प्रावधानों को तिलांजली दे दी गई है।
जलवायु में आ रहे परिवर्तनों से फसलों की अनिश्चितता बढ़ गई है। सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि, पाला, नकली बीज, कीट व रोग प्रकोप इत्यादि से फसल बर्बादी के मद्देनजर किसानों द्वारा एक किसान हितैषी बीमा योजना की मांग की जा रही थी जिसमें मामूली किश्तों पर सभी फसलों के बीमे की व्यवस्था बजट में किये जाने की जरूरत रेखांकित की जाती रही है। परंतु सरकार द्वारा बनाई गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बारे किसान संगठनों द्वारा प्रकट की गई गंभीर आशंकाएं अब सच साबित हो चुकी हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016-17 के दौरान निजी कम्पनियों ने प्रीमियम के रूप में कुल 21500 करोड़ रू. बटोरे परंतु फसल खराबी के मुआवजे के तौर पर मात्र 714.14 करोड़ रुपए किसानों को अदा किए जो कि कुल जमा राशि का केवल मात्र 3.31 प्रतिशत बनता है।
पशुपालन और अन्य कई व्यवसाय कृषि के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। हाल के दौर में जब कृषि अवहनीय व्यवसाय होता जा रहा है ऐसे में संकट की स्थिति से कुछ हद तक उबरने के लिए पशु पालन का काम किसान-खेत मजदूरों का एक लाभकारी सहयोगी व्यवसाय हो सकता है। परंतु सरकार की ओर से पशु पालन की घोर उपेक्षा के चलते इस क्षेत्र में भी पशु पालकों को तमाम तरह के शोषण का शिकार बनाया जा रहा है। हरियाणा में दूध उत्पादकों के साथ दूध की खरीद में व्यापक स्तर पर ठगी और बेईमानी हो रही है। डेयरी, पोल्ट्री, मशरूम, भेड़-बकरी, सूअर पालने के धंधों को कोई प्रोत्साहन और समर्थन नहीं दिए जाने से इन धंधों को करने वाले आम लोग शोषण का शिकार हो रहे हैं।
सहकारी प्रणाली को मजबूत करके पशुपालक किसानों को बेहतर मार्किट उपलब्ध करवाने की प्रबल संभावनाएं हैं। भैंस और गायों की भी नस्ल सुधार के मामले में कोई दूरगामी योजनाएं नहीं बनाई जा रही। पशुओं की खरीद-बेच पर हाल में केन्द्र सरकार ने पाबंदी लगाने का जो आदेश जारी किया है उससे पशुपालन का व्यवसाय भी चौपट हो जाएगा। ध्यान रहे कि किसानों की कुल आमदनी में कम से कम 26 प्रतिशत आय पशु पालन से होती है।
आर्थिक बदहाली, कर्जदारी और बेरोजगारी के घोर संकट की अभिव्यक्ति सामाजिक संकट के गहराने में भी देखी जा सकती है। महिलाओं की दशा शोचनीय रूप से खराब हो रही है। युवाओं में नशाखोरी और अपराधीकरण बहुत गहरी समस्या बनती जा रही है। शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे सेवा क्षेत्र लोगों को लूटने का जरिया बन चुके हैं। इस प्रकार की जनविरोधी व्यवस्था की मार झेलने वाले ग्रामीण गरीबों में आत्महत्या की प्रवृतियां बढ़ रही हैं।
ग्रामीण गरीबों में एक हिस्सा उन किसानों का भी है जो या तो भूमिहीन हैं या बहुत छोटी जोत के किसान हैं और ठेके अथवा हिस्से पर खेती करते हैं। इनको किसी भी प्रकार का संरक्षण या सुविधा प्राप्त नहीं है क्योंकि सरकारी रिकार्ड में इनको किसान के तौर पर कोई भी मान्यता नहीं दी गई है।
कृषि के काम में महिलाओं की हिस्सेदारी में लगातार वृद्धि हो रही है। घरेलू काम के अलावा पशुपालन का बोझ तो पहले ही महिलाओं पर है। बहुत सारे परिवारों की मुखिया भी महिलाएं हैं। लेकिन एक किसान के रूप में महिलओं की पहचान स्थापित नहीं है। उनके नाम पर जमीन की मल्कियत भी नहीं इसलिए वह कोई भी सुविधा नहीं ले सकती। कृषि संकट का महिलाओं पर और भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। काम के बढ़ते बोझ और पौष्टिक आहार की कमी से उनके स्वास्थ्य में भयंकर गिरावट आ रही है। कृषि में उनकी भूमिका तो बढ़ी पर महिलाओं के साथ तमाम तरह के भेदभावों में कोई कमी नहीं आ रही।
चौतरफा संकट से पैदा होने वाले असंतोष की दिशा भटकाने के उद्देश्य से जातिवादी और साम्प्रदायिक ताकतें विभिन्न तबकों के बीच फूट डालने के खतरनाक खेल में लगी हैं। कहीं जातियों के बीच और कहीं विभिन्न सम्प्रदायों के बीच ध्रुवीकरण किया जा रहा है। गाय के नाम पर भावनाएं भडक़ाने की राजनीति को सरेआम बढ़ावा मिल रहा है। स्वयंभू गौरक्षक इसकी आड़ लेकर मुसलमानों व दलितों को निशाना बनाकर नफरत और हिंसा फैला रहे हैं। दुधारू गाय खरीदकर ला रहे मेवात के पशुपालक किसान पहलू खान की निर्मम हत्या ऐसा एक शर्मनाक प्रकरण है।
विभिन्न किसान संगठनों की ओर से समय-समय पर कर्जामुक्ति, फसलों के लाभकारी भाव, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने, आवारा पशुओं की समस्या, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की समाप्ति आदि सवालों पर विरोध कार्यवाईयां की जाती रही हैं। परंतु सरकारों की ओर से किसानों की समस्याओं के प्रति घोर संवेदनहीनता का रुख रहा है। इसलिए किसानों के सामने कृषि विरोधी नीतियों के खिलाफ और वैकल्पिक नीतियों के लिए जुझारू आंदोलन के अलावा अब कोई चारा नहीं है।
जहां तक वैकल्पिक नीतियों का सवाल है उनमें दूरगामी व तात्कालिक दोनों तरह के नीतिगत उपाय जरूरी है। सबसे अहम बात कृषि की प्राथमिकता बहाल हो। उसी के अनुरूप कृषि में निवेश बढ़ाया जाए, शोध संस्थानों की उपेक्षा बंद हो, भावों के उतार-चढ़ाव को कार्पोरेट नियंत्रण से निकालकर राज्य के प्रभाव में रखकर उत्पादक व उपभोक्ता के हित में रखा जाए, कर्जा मुक्ति बोर्ड का गठन हो, कृषि के कई कार्यों को मनरेगा के तहत लाया जाए, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के वर्तमान स्वरूप को बदला जाए, आरजी तौर पर सकं ट के प्रभाव को कम करने हेतु स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए।
इस संदर्भ में देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में किसान आंदोलन के ताजा उभार को एक आशाजनक संकेत की तरह से देखा जाना चाहिए। प्रदेश स्तरीय आंदोलनों का उभार धीरे-धीरे ही सही परंतु यह एक राष्ट्रीय आकार धारण कर रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून 2015 के प्रतिरोध में अनेक किसान-खेतमजदूर संगठनों की ओर से किए गए सांझे संघर्ष की सफलता से भूमि अधिकर आंदोलन के नाम से राष्ट्रीय स्तर के एक व्यापक मंच का निर्माण हुआ। इसी प्रकार अखिल भारतीय किसान संघर्ष तालमेल कमेटी भी ऐसा ही एक और संयुक्त मंच बना।
ये अभूतपूर्व पहलकदमियां अतीत में हुए किसान आंदोलनों से जिन कारणों से भिन्न है वे मुख्यत: इस प्रकार हैं – पहला, व्यक्तिविशेष की बजाय इनका नेतृत्व संगठन कर रहे हैं। दूसरा, इसमें खेतमजदूर संगठन भी शामिल है। तीसरा, यह मुख्य रूप से कर्जा मुक्ति और कृषि उत्पाद के मूल्यों की निश्चितता जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हैं। राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय तथा स्थानीय स्तर के सैंकड़ों संगठनों के तालमेल से बने इन संयुक्त मंचों के तत्वाधान में हो रहे संघर्षों को आगे विस्तार दिए जाने की व्यापक संभावनाएं खुल रही है।
(आलेख में कुछ अंश किसान सभा के 12वे राज्य सम्मेलन की रिपोर्ट से संपादित किए गए है।)
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज -56-57