कविता
हम आगे जा रहे हैं
या पीछे
या फिर जंगल आज भी
हमारा पीछा कर रहा है
आधुनिकता के सब संसाधन इस्तेमाल कर रहे हैं
21वीं सदी के सभ्य सुसंस्कृत समाज में
रहते भी हैं
पर हम कर क्या रहे हैं
कुटुम्ब के सदस्य को
मार देतें हैं
या बस्तियां बहिष्कृत कर देते हैं
उनकी अर्थियां भी नहीं उठाते
बस घसीट कर ले जाते हैं
लाशें शमशान तक
चुप्पी और सन्नाटा
कोई रूदन नहीं होता
संस्कार भी नहीं होता
पंण्डित क्रिया नहीं करता
पौ फटने से पहले ही निपट जाता है
सब कुछ
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 45