नाक नहीं कटती -मदन भारती

कविता


बस्तियां जलातें हैं
घर में कुकृत्य कर लेते हैं
देवर का हक चलता है,
जेठ तकता है, ससुर रौंदता है,
बस्ती से लड़कियां उठा लेते हैं
रेप करते हैं, रेत में दबा देते हैं
आग लगा देते हैं जिन्दा भी जला देते हैं
ऐसा करने से मर्यादाएं सकुशल रहती हैं
गांव की शान बनी रहती हैं
नाक नहीं कटती,
संस्कृति भी टस से मस नही होती
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 46
कविता
मदन भारती –
न्याय का रूप
बस!
मजूरी मांगने की हिमाकत की थी
उसने।
एक एक कर सामान फैंका गया बाहर!
नन्हें हाथों के खिलौने,
टूटा हुआ चुल्हा, तवा-परात,
लोहे का चिमटा, तांसला
मैले कुचैले वस्त्र
सब बिखरा था गली में।
कुछ डूबा था नाली में
वही नाली,
जिसमें बहता था
पूरे गांव का मल मूत्र
उल्टी पड़ी थी
आम्बेडकर की तस्वीर,
उसके दायें-बांयें
रैदास और कबीर
उनकी भाषा में से उत्तम न्याय था,
सदियों से तयशुदा
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 45
कविता
मदन भारती –
चुप्पी और सन्नाटा
हम आगे जा रहे हैं
या पीछे
या फिर जंगल आज भी
हमारा पीछा कर रहा है
आधुनिकता के सब संसाधन इस्तेमाल कर रहे हैं
21वीं सदी के सभ्य सुसंस्कृत समाज में
रहते भी हैं
पर हम कर क्या रहे हैं
कुटुम्ब के सदस्य को
मार देतें हैं
या बस्तियां बहिष्कृत कर देते हैं
उनकी अर्थियां भी नहीं उठाते
बस घसीट कर ले जाते हैं
लाशें शमशान तक
चुप्पी और सन्नाटा
कोई रूदन नहीं होता
संस्कार भी नहीं होता
पंण्डित क्रिया नहीं करता
पौ फटने से पहले ही निपट जाता है
सब कुछ
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 45
कविता
मदन भारती –
दो मांएं
ये लाशें जो जमीन पर अस्त व्यस्त पडी हैं
कुछ क्षण पहले ये
हंस खेल रहे थे
मारने से पहले इन्हें, घर से बुलाया गया था
ये मां जो बदहवाश है
जो फफककर रो रही है
कह रही है
मेरा इकलौता बी ए पास बेटा था
वर्षों झूठन धोकर,
पेट काटकर पाला था इसे मैंने
कर्ज उठाकर पढ़ाया था
क्या कसूर था मेरे बेटे का
दूसरी मां को रोने भी नहीं दिया
वो सिसकती रही
दोनों माओं ने कहा
हमारे बच्चों ने आत्महत्याएं नहीं की
उन्हें मिटाया गया
रात के घुप्प अंधेरे में
इनका कारोबार
इज्जत के नाम पर चलता है
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 45
कविता
मदन भारती –
हमारा हरियाणा
हमारा हरियाणा बडा प्यारा है
जगत जहां से न्यारा है
यहां के लोग
बड़े कमाऊ हैं
सीधे हैं, सच्चे हैं
बहादुरी तो बस,
एकदम कमाल की है
संस्कृति निराली है
अलग थलग भेष है
यहां तो जोश ही जोश है
सांस्कृतिक आयोजन का सरकारी भोंपू
बेअटक बोल रहा था
तभी आया
कंधे पर लाठी-झाडू लिए
ऑमंच की तरफ देखा
बस इतना ही कहा
हुं !! बेशर्म
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 45

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *