विपिन सुनेजा 'शायक’- हरियाणा में फलती-फूलती हिन्दी ग़ज़ल

गजल


ग़ज़ल काव्य की बड़ी ही सुंदर विधा है। गज़ल शेरों की एक लड़ी होती है। जिसके शे’र में सूक्ष्म मनोभावों की आलंकारिक अभिव्यक्ति होती है। इतिहास बताता है कि हिन्दी ग़ज़ल तो तेरहवीं शताब्दी में लिखी जाने लगी थी, उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी कवियों का ध्यान फिर $गज़ल की ओर गया, लेकिन सफलता मिली बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में। गत चालीस वर्षों से हिन्दी ग़ज़ल ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। पत्र-पत्रिकाओं तथा कवि-सम्मेलनोंं में हिन्दीग़ज़ल को अच्छा-खासा स्थान मिला है और धीरे-धीरे हिन्दी ग़ज़ल भी उर्दू ग़ज़ल से स्पर्धा की तैयारी में है। देश के जिन कवियों ने हिन्दी ग़ज़ल के विकास में अपना योगदान दिया है उनमें से एक बहुत बड़ा प्रतिशत हरियाणा के कवियों का है। आइए, हरियाणा के इन गज़लकारों के बारे में जानें, एक-एक बानगी के साथ। सबसे पहला नाम आता है हिसार निवासी राज्यकवि उदयभानु हंस का जिन्होंने बड़ी सरल भाषा में जीवन के यथार्थ को शब्दबद्ध किया है-

जी रहे हें लोग कैसे आज के वातावरण में।
सोच में दिन डूब जाता, रात कटती जागरण में।

बेशरम जब आंख हो तो कोई घूंघट क्या करेगा,
आदमी नंगा खड़ा है सभ्यता के आवरण में।

गन्नौर से सम्बद्ध रखने वाले राणा गन्नौरी अनेक भाषाओं के विद्वान हैं। सहजता उनकी ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता है।

ज़ख़्मे-दिल मैं दिखाते-दिखाते थका।
दर्द अपना सुनाते-सुनाते थका।

आप आए न आने का वादा किया,
आपको मैं बुलाते-बुलाते थका।

पंचकूला के बी.डी. कालिया ‘हमदम’ भी उस्ताद शायर हैं। उर्दू के साथ-साथ हिन्दी को अपनी ग़ज़लों में समुचित स्थान देते हैं।

कभी शब्द को कभी बिम्ब को कभी भाव को भी सुना करो।
जो पढ़ा नहीं वो लिखा करो, जो लिखा नहीं, वो पढ़ा करो।

ये तो पत्थरों की हैं बस्तियां, यहां टूटने का रिवाज है,
जो है दर्पणों सा स्वभाव तो कहीं और जा के बसा करो।

अम्बाला के महेंद्र प्रताप चांद की ग़ज़लों में गंगा-जमनी रंग नज़र आता है।

मजबूरी लाचारी लिख। हां रूदाद हमारी लिख।
मात-पिता को दे बनवास, खुद को आज्ञाकारी लिख।

भिवानी के विजेन्द्र ‘गाफ़िल’ की शैली तो पारम्परिक है, पर बात नई होती है-

मैं एक दर्द कहीं से चुरा के लाया हूं।
बड़े जतन से इसे घर बुला के लाया हूं।

सुना है वक्त ने तेवर बदल लिए अपने,
ये एक ख़ास ख़बर मैं उड़ा के लाया हूं।

रोहतक से सम्बध रखने वाले दरवेश भारती अपनी पत्रिका के माध्यम से ग़ज़ल के छन्द-विधान के बारे में युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन देते हैं। स्वयं बड़ी सुगठित ग़ज़लें कहते हैं-

बीच मंझदार के वो फंसा रह गया।
जो किनारों को ही देखता रह गया।

चुप्पियां-चुप्पियां ही थीं दोनों तरफ,
हाले-दिल अनकहा अनसुना रह गया।

जींद के महावीर सिंह दुखी के शे’र देखिए-

हर तरफ गहरे अंधेरे, रोशनी है दूर यारो।
क्यों उजालों से अभी तक आदमी है दूर यारो।

बांटते हैं लोग खंजर अब तिलक-चन्दन लगाकर,
मौत हरदम सामने है, जि़न्दगी है दूर यारो।

हिसार के राधेश्याम शुक्ल अपनी ग़ज़लों में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का खूब प्रयोग करते हैं-

चारणों की भीड़ में मिल जाएगा कोई कबीर।
ढूंढ चांदी के शहर में कोई तो होगा $फकीर।

अब पराये दर्द से कोई पिघलता ही नहीं,
हर हृदय इस्पात का है और संगमरमर का शरीर।

कैथल के विजय कुमार सिंघल ने $गज़ल को नए तेवर दिए हैं-

जंगल-जंगल ढूंढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को।
कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को।

इसको भावशून्यता कहिए चाहे कहिए निर्बलता,
नाम कोई भी दे सकते हैं आप मेरी मजबूरी को।

दुष्यंत कुमार ने हिन्दी गज़ल का जो नया मुहावरा गढ़ा था, उसी परंपरा के हैं बहादुरगढ़ के ज्ञान प्रकाश ‘विवेक’-

तमाम घर को बयाबां बना के रखता था।
पता नहीं वो दिये क्यों बुझा के रखता था।

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकें भर लीं,
मैं दोस्तों की दुआएं बचा के रखता था।

कुछ ऐसा ही अंदाज चंडीगढ़ निवासी माधव कौशिक का भी है, जो संवेदनाओं के अनुरूप शब्द-चयन करने में निपुण हैं-

बस एक काम यही बार-बार करता था।
भंवर के बीच से दरिया को पार करता था।

अजीब शख्स था खुद अलविदा कहा लेकिन,
हर एक शाम मेरा इन्तजार करता था।

चंडीगढ़ के ही चंद्र त्रिखा आधुनिक परिवेश से शब्द उठाकर लयात्मक $गज़लें लिखते हैं-

मन का बोझीलापन धो लें।
चलो नई वैब्साइट खोलें।

सारस्वत मोहन मनीषी की ग़ज़लों में राष्ट्र के प्रति प्रेम और सांस्कृतिक प्रदूषण की चिन्ता उजागर होती है-

हिल उठी पूरी इमारत नींव के पत्थर बदल दो।
हो गई तेज़ाब लहरें, नाव के लंगर बदल दो।

अणुबमों की दौड़ अंधी, बांटता दुर्गंन्ध गन्धी,
बांझ धरती हो न जाए, विष भरा अम्बर बदल दो।

फरीदाबाद के दिनेश रघुवंशी की ग़ज़लों में उग्र स्वर सुनाई देते हैं-

समय हर बार देता है गवाही।
फ़क़ीरी ने झुका दी बादशाही।

मिलेंगे ख़्वाब उन आंखों में तुमको,
वो जिन आंखों ने देखी हो तबाही।

सोनीपत के ए.वी. भारती ‘आदिक’ घुटन भरे वातावरण में भी खुलकर जीने की प्रेरणा देते हैं-

यूं न होटों में गुनगुना मुझको।
जिन्दगी थोड़ा खुलके गा मुझको।

मुझको मेरे ही साथ रहने दे,
मुझसे मत छीन ए अना मुझको।

नफ़स अम्बालवी की ग़ज़लों में रोमांटिक तत्व अवश्य विद्यमान रहता है, जो ग़ज़ल का अनिवार्य अंग है-

सारा आलम बुझा सा लगता है।
वक्त कितना थका सा लगता है।

तूं अगर छू भी ले, छलक उट्ठे,
शाम से दिल भरा सा लगता है।

कुरुक्षेत्र के कुमार विनोद की ग़ज़लों में कल्पना की नई उड़ान दिखाई देती है-

कोई सपना हकीकमत में बदल जाए तो क्या कीजे।
किसी दिन चांद धरती पर उतर आए तो क्या कीजे।

क्षितिज को मानकर सच तुम चले जाओ कहीं तक भी,
मरूस्थल में भरम पानी का हो जाए तो क्या कीजे।

कुरुक्षेत्र के ही दिनेश दधीचि की ग़ज़लों में कोमलता भी है और नवीनता भी-

फ़ितरतन कुछ तो हुआ करती हैं कोमल परियां।
और कुछ गर्म हवा से हुई बेकल परियां।

देखकर ताल-तलैया कहीं फूलों का हुजूम,
यूं ही रूक जाती हैं, कैसी हैं ये पागल परियां।

युवा ग़ज़लकारों में सोनीपत के विकास शर्मा ‘राज़’ ने गज़ल के कलात्मक सौष्ठव पर पूरा ध्यान दिया है-

बोझ पलकों पे रखा हो जैसे।
शाम का वक्त सज़ा हो जैसे।

इस अंधेरे में दिये का बुझना,
ज़ख्म पर ज़ख्म लगा हो जैसे।

भिवानी के श्याम वशिष्ठ ‘शाहिद’ की मधुर ग़ज़लें उनके मधुर स्वर में सुनने को मिलती हैं-

जो आंसू आ गए चलकर, दृगों के द्वार क्यों रोकूं।
तेरी न$फरत नहीं रूकती, मैं अपना प्यार क्यों रोकूं।

मैं बलि का एक बकरा हूं, तेरे हाथों में है खंजर,
ज़रा से सर की खातिर मैं तेरा त्यौहार क्यों रोकूं।

इनके अतिरिक्त सुरेन्द्र वर्मा, राकेश वत्स, अमरजीत अमर, शमशेर सिंह दहिया, राजेंद्र चांद, हरेराम समीप, सतीश कौशिक, राज कुमार निजात, महेंद्र जैन, सरदारी लाल कमल और लोक सेतिया तन्हा ने ग़ज़ल का कारवां बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

अब कुछ ऐसे गज़लकार जिनके गज़ल संग्रह तो प्रकाशित हुए ही हैं, संगीत-एलबम भी जारी हुए हैं। ऐसे ही एक गज़लकार हैं महेंद्रगढ़ के सुरेश मक्कड़ ‘साहिल’-

तितलियां भंवरे तो शायद उनपे मंडराते नहीं।
फूल कागज के मगर ऐ दोस्त मुरझाते नहीं।

पनघटों की रौनकें, वो सांग-मेले गांव के,
याद रख, गुज़रे ज़माने लौट के आते नहीं।

आजकल करनाल में रह रहे गुलशन मदान की ग़ज़लों को भूपेंद्र और मीताली ने स्वर दिया है-

बन के मेरा हमक़दम तू साथ चल।
कुछ तो हो तन्हाई कम तू साथ चल।

ये सफ़र जनमों से लम्बा है अगर,
आरज़ू है हर जनम तू साथ चल।

रेवाड़ी के रमेश सिद्धार्थ की $गज़लों को हरियाणा के ही युवा गायक रोहित चतुर्वेदी ने गाया है-

निभाना फ़र्ज हो तो बस ज़मीर काफी है।
डगर दिखाने को तो इक फ़कीर क़ाफी है।

ये जात-पात की दीवारें गर गिरानी हों,
पढ़ो न पोथियां, पढ़ लो कबीर क़ाफी है।

रेवाड़ी के विपिन सुनेजा ‘शायक़’ ने एलबम ‘तरन्नुम’ में अपनी आठ ग़ज़लें स्वयं संगीतबद्ध करके स्वयं गाई हैं। उन्हीें में से एक ग़ज़ल है-

दिल धड़कते हैं अभी पर भावनाएं मर गईं।
वेदनाएं बढ़ गर्इं, संवेदनाएं मर गईं।

देह की चादर को ताने सो रही हर आत्मा,
ज्ञान बेसुध सा पड़ा है, चेतनाएं मर गईं।

कोई भी नायक नज़र आता नहीं इस भीड़ में,
क्रांति होने की सभी संभावनाएं मर गई।

यदि ग़ज़ल को संगीतबद्ध किया जाएगा, वह जन-जन तक पहुंच सकती है। इस दिशा में हरियाणा के कलाकार आगे आएंगे, ऐसी आशा है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 85-86
 

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