विकलांग जन
हमारे देश की आजादी के 70 साल पूरे होने जा रहे हैं, परन्तु एक वर्ग अपनी पहचान और नाम के लिए तरस रहा है। हम बात कर रहे हैं विकलांगों, दिव्यांगों, निशक्तों तथा अन्य इसी तरह के नामों वाले सामाजिक समूह की। जो अपनी विशेष आवश्यकताओं व समस्याओं की वजह से सामान्य लोगों से थोड़ा अलग है।
‘हमारे समाज में विकलांगता के प्रमुख रूप से दो मॉडल हैं-पहला मेडिकल मॉडल जो कहता है कि विकलांगता व्यक्ति में पाई जाती है। वहीं दूसरा मॉडल हमें बताता है कि विकलांगता व्यक्ति में ना होकर हमारे समाज, परिवेश व वातावरण की बाधाओं में होती है।’
वैश्विक स्तर पर विकलांग व्यक्तियों का समूह विश्व के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूहों में से एक है जोकि उपेक्षा-अभाव, अलगाव और बहिष्कार का सामना करता है।
हमारे देश में विकलांगों की प्रथम जनगणना ही सन् 2001 से शुरू हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 2.68 करोड़ लोग विकलांगजन पाए गए हैं। यह हमारे देश की कुल आबादी का 2.21 फीसदी हिस्सा है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 2.13 फीसदी हिस्सा विकलांग था। इनमें 1.76 करोड़ ऐसे लोग गांवों में रहते हैं। कुल आबादी में विकलांगों के प्रतिशत के लिहाज से गांव में स्थिति ज्यादा खराब है। विकलांगों की जनगणना में एक और चिंताजनक संकेत सामने आया है और वह दलितों में विकलांगता औसत से ज्यादा है। राष्ट्रीय औसत 2.21 के मुकाबले अनुसूचित जातियों में 2.45 फीसदी विकलांगता पाई जाती है। जबकि जनजातियों में स्थिति थोड़ी सी बेहतर है। अनुसूचित जनजातियों में यह 2.05 फीसदी है। जनगणना के आंकड़ों में शामिल विकलांगों में सबसे ज्यादा लगभग 54 लाख लोग चलने-फिरने में असमर्थ हैं, जबकि सुनने व देखने में असमर्थ लोगों की संख्या 50-50 लाख से ज्यादा है। (तालिका-1)
विकलांगता के समाज शास्त्र को समझने के लिए सबसे पहले हमें विकलांगता के किसी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनुभव को एक अभ्यास से जानने का प्रयास अवश्य कर लेना चाहिए। आप एक बार अपनी आंखें बंद करके अपने घर के बाहर जाने की कोशिश करें या सिर्फ एक पैर के सहारे चलकर देखें। किसी दुर्घटना व चोट की वजह से कुछ दिन बिस्तर पर पड़े रहने वाले किसी व्यक्ति से बात करके देखेें। यह अभ्यास विकलांगता के बारे में किसी आलेख व किताब से ज्यादा जानकारी दे सकता है।
विकलांग शक्ति अब हमारे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है चाहे वह सरकारी सेवा, मनोरंजन, खेल व उद्योग हो या समाज के सामान्य नागरिक के रूप में हो, पर इसमें हम राजनीतिक क्षेत्र को इससे अछूता ही कह सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्त्री-पुरुष चाहे कितना भी विकलांग क्यों न हो, सबका एक जीवन उद्देश्य व सपने अवश्य होते हैं। समाज जीवन उद्देश्य व सपनों को उड़ान दे सकता है और सपनों के पंख भी काट सकता है।
विकलांगजनों को हर स्तर पर अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। विकलांगता को कलंक के रूप में देखने की वजह से विकलांग के प्रति समाज के व्यवहार में एक नकारात्मक सोच दिखाई देती है।
समाज में यह धारणा है कि व्यक्ति में विकलांगता उसके पिछले जन्मों के कर्मों (अर्थात् भाग्य) के फलस्वरूप भगवान द्वारा दी गई सजा है। अत: कोई भी इस स्थिति को नहीं बदल सकता है। विकलांगों को दिया गया नया नाम यानी दिव्यांग भी इसकी पुष्टि करता है।
विकलांगजन रोजमर्रा की जिंदगी में कई पहलुओं पर गैर विकलांग लोगों की तुलना में अधिक नुक्सान व अलग-थलग महसूस करते हैं, जबकि हमारा समाज उनको बोझ महसूस करता है। यही नहीं विकलांगों के माता-पिता, बच्चों तथा भाई-बहनों को भी इस नकारात्मक दृष्टिकोण का दंश झेलना पड़ता है। विकलांगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले चुटकले, हंसी-मखौल, फब्तियां और गालियोंं का बड़े पैमाने पर चलन है।
विकलांगता हमारे विकास के दोषपूर्ण माडल से जुड़ा हुई है। सामाजिक जीवन में व्याप्त रूढिय़ों व परम्परा के कारण विकलांगों को सामान्य नागरिक के तौर पर नहीं देखा जाता। योजना बनाते हुए यह वर्ग प्राय: प्राथमिकताओं से सदा ओझल रहता है। उन्हें दीन-हीन और दया व सहानुभूति का पात्र बनाए रखने के लिए मजबूत किलेबंदी की जाती है।
यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि यदि उन्हें समान अवसर दिए जाएं तो वो शक्तिशाली व क्षमतावान सिद्ध होंगे। अगर उनकी ऊर्जा का सदुपयोग हो जाए तो उनमें आशाएं बढ़ेेंगी और स्वाभिमान व स्वावलंबन का भाव जागृत होगा। अल्बर्ट आईंस्टाईन का सापेक्षता-सिद्वांत, थॉमस अल्वा एडीसन का बिजली यंत्र, लुई ब्रेल का ब्रेल लिपि का आविष्कार आज भी इस दुनिया को रास्ता दिखा रहे हैं। उपरोक्त सभी वैज्ञानिक विभिन्न शारीरिक अक्षमताओं के शिकार थे। हापकिंस इसकी सबसे बड़ी मिसाल हमारे समाज के सामने है।
हमारे देश में पुरानी शैक्षिक व्यवस्था के तहत विकलांगों के लिए विशेष विद्यालयों से शिक्षा देकर उन्हें सामाजिक समावेश से हमेशा के लिए काट दिया जाता था, उन्हें नियमित विद्यालयों में भेजना आवश्यक है, जिससे उनका सामाजिक व सांस्कृतिक एकीकरण आसानी से संभव है। विकलांगजनों की शिक्षा की सरकार व समाज की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। परन्तु इनके शैक्षिक अधिकारों की अनदेखी हुई है।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में विकलांगों में लगभग 1.50 करोड़ यानी 51 फीसदी आज भी निरक्षर हैं। 26 फीसदी से ज्यादा प्राथमिक शिक्षा नहीं ले पाए तथा सिर्फ 6 फीसदी को मिडल तक की शिक्षा मिली है। 13 फीसदी ने माध्यमिक स्तर तथा उच्च शिक्षा प्राप्त की है। प्रत्येक मानव एक संसाधन है। किसी वजह से कोई भी व्यक्ति अर्थव्यवस्था की समृद्धि के लिए अपना योगदान नहीं दे सके, तो इसका सीधा नुक्सान संबंधित समाज को होगा। उन्हें शिक्षित करके समान अवसर उपलब्ध करवाकर राष्ट्रीय संसाधनों की आय के रूप में योगदान दे सकते हैं।
हमारे देश में विकलांगों की इतनी बड़ी आबादी के बावजूद लोग उनके अधिकारों के बारे में जानते तक नहीं है। समाज केवल भीख और चंदा देकर ही अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाता है। जबकि उनकी आवश्यकता दया व सहानुभूति का पात्र बनने की नहीं है, अपितु उन्हें अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करके अधिकार सम्पन्नता हासिल करने से है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने समाज के कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण सहित अनेक प्रावधान किए पर इस वर्ग की क्षमताओं और आवश्यकताओं के बारे में सही समझ बनाने में वे भी कुछ हद तक असफल रहे। हमारे पूरे संविधान में विकलांगों के बारे में एक स्थान पर जिक्र है और वह स्टेट लिस्ट एंट्री संख्या नौ है। इसके तहत सरकार को हिदायत दी गई है कि रोजगार न कर सकने वाले विकलागों के लिए राहत कार्य करें।
हमारे देश में शारीरिक बाधाओं की बात करें तो कई लोगों के आसपास विकलांगता के अनुरूप परिवहन सुविधा, ��ुलभ इमारतें आदि उचित ढंग से नहीं मिलती हैं। देशभर में ट्रेनों व रेलवे स्टेशनों की आधारभूत संरचना के अनुकूल नहीं है।
विकलांगजनों के कल्याण के लिए बनने वाली योजनाओं को तैयार करते समय विकलांग समूहों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो पाई है। विकलांगों की क्षमता, सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्मविश्वास पर प्रहार किया जाता है। संघ लोक सेवा आयोग की वर्ष 2015 की टॉपर इरा सिंघल इसका साक्षात प्रमाण है, जिनको पिछले वर्ष अपने प्रदर्शन व रैंक के अनुसार कॉडर व पोस्ट नहीं दी गई थी।
वैश्वीकरण के इस दौर में रोजगार के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। हमारे देश में 1995 के पी.डब्ल्यू.डी. अधिनियम द्वारा विकलांगों को सरकारी क्षेत्र में आरक्षण की 3 फीसदी सुविधा दी गई थी, जिसकी आज तक केंद्र व राज्यों की सरकारों ने अनुपालन नहीं किया। आज हजारों की संख्या में पढ़े-लिखे कुशल युवा रोजगार को तरस रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में तो थोड़ा बहुत रोजगार मिल ही जाता है, परन्तु निजी क्षेत्र में उनके लिए रोजगार के दरवाजे लगभग बंद ही हैं।
पितृसत्तात्मक व पुरुषवादी सोच का सबसे बुरा असर विकलांग महिलाओं पर पड़ता है। यह धारणा बनी हुई है कि एक विकलांग महिला गृहिणी, पत्नी और मां की भूमिका को पूरा करने में असमर्थ है, क्योंंकि सौंदर्यता और नारीत्व की स्थापित मान्यताओं के अनुरूप नहीं है। विकलांग महिलाओं के साथ होने वाली यौन उत्पीड़न की घटनाओं में देशभर में बढ़ोतरी हुई है। खासकर हरियाणा गत दिनों रोहतक में नेपाली मंदबुद्धि युवती से गैंगरेप के साथ जघन्य कुकृत्य ने समस्त समाज को झकझोर दिया था। ज्यादातर विकलांग महिलाएं खून की कमी, गरीबी, कुपोषण, निरक्षरता तथा घरेलू हिंसा व अत्याचारों से सर्वाधिक पीडि़त हैं।
आमतौर पर हम समाज में यह सुनते हैं कि जिंदगी दो पहिए की गाड़ी है, जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों के सहारे यह गाड़ी जिंदगी की पटरी पर दौड़ती है। हमारे समाज में ज्यादातर विकलांग लड़के व लड़कियां बहुत लंबे समय तक शादी, प्यार के बारे में विचार तक नहीं करते हैं, क्योंंकि उसमें परिवार व समाज का अपेक्षित समर्थन नहीं मिलता है। यह सवाल उनकी जिंदगी को बहुत कचोटता है।
एक ऑनलाईन शादी वेबसाईट के वर्ष 2011 में करवाए गए एक सर्वे के अनुसार सिर्फ 7 फीसदी महिलाओं व 15 फीसदी पुरुष ही विकलांगजन अपने जैसा हमसफर व जीवन साथी चुनना चाहते हैं।
इस सर्वे ने बताया है कि भारत में केवल 5 फीसदी विकलांगों की शादी सफल हो पाती है, जबकि विदेशों में इसका प्रतिशत 95 प्रतिशत है। एक अध्ययन से यह भी सामने आया है जो विकलांग लड़के-लड़कियां, जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं, बाद में उनमें से ज्यादातर विकलांग को जीवन साथी नहीं अपनाना चाहते। आमतौर पर देखने में आया है कि विकलांग महिलाओं की शादी अपनी उम्र से बहुत ज्यादा उम्र के पुरुषों के साथ होती है, जबकि बहुत योग्य व सक्षम विकलांग पुरुष की शादी बहुत कम उम्र वाली लड़की से, अनपढ़, मंदबुद्धि या किसी गंभीर रोग से ग्रस्त लड़की से करवाई जाती है। जिसके असंख्य उदाहरण मेरी आंखों के सामने हैं।
नेशनल सैंपल सर्वे की एक रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के तलाक के मामलों में विकलांग दम्पतियों में तलाक के मामले सामान्य से बहुत ज्यादा सामने आए हैं।
विकलांगों के कल्याण और नर सेवा नारायण सेवा के नाम पर आयोजित होने वाले शादी के परिचय सम्मेलनों का आयोजन होता है, जिसमें दान-पुण्य के नाम पर लोगों से मोटा पैसा हड़पा जाता है। इन सम्मेलनों में कई-कई साल कोई शादी नहीं होती है। विकलांग सेवा संघ महाराष्ट्र के अध्यक्ष टी.एन. दुबे बताते हैं कि 90 फीसदी विकलांग अपने घर वालों की उपेक्षा का शिकार होते हैं, जिसके कारण उनमें आगे बढऩे व तरक्की करके शादी द्वारा अपना घर बसाने की आशा खत्म हो जाती है।
विकलांगजनों को सशक्त बनाने के लिए उन्हें योग्यता के अनुसार घर में, समाज में तथा कार्यस्थल पर उपयुक्त जिम्मेवारियां निर्वहन करने के लिए सौंपनी चाहिएं। अब समय आ गया है कि विकलांगों को परनिर्भरता की संस्कृति का अंत हो और एक ऐेसे समाज की ओर कदम बढ़ाया जाए, जिसमें विकलांगों के लिए सहयोगपूर्ण नजरिया रखा जाए।
तालिका-1 भारत में विकलांगता के प्रकार और विकलांग
विकलांगता के प्रकार व्यक्ति कुल पुरुष महिलाएं
देखने में 50,32463 26,38,516 23,93,947
सुनने में 50,71,007 26,77,544 23,93,463
बोलने में 19,98,353 11,22,896 8,75,639
चलने-फिरने में 54,36,604 33,70,374
मानसिक दशा में विक्षिण्ता 15,05,624 8,70,708 6,34,916
मानसिक कमजोरी 7,22,826 4,5,732 3,07,094
अन्य 49,27,011 27,27,828 21,99,183
बहु विकलांगता 21,16,487 11,62,604 9,53,883
कुल 2,68,10,557 1,49,86,202 1,18,24,353
तालिका-2 मंत्रालय व विभागों में विकलांग जन संबंधी का आंकड़ा
समूह कुल सृजित पद विकलांगों के लिए आरक्षित पद पदस्थापित पद % रिक्तियां भरे गए पदों का %
क 57,643 4,305 134 3.11 0.25
ख 73,631 4,652 205 4.41 0.28
ग 1,607,243 167,863 6,307 3.76 0.39
घ 960,025 104,578 3,329 3.18 0.35
कुल 2,698,762 281,398 9,975 3.54 0.37
(*59 मंत्रालय व विभागों का आंकड़ा, स्रोत : http:web.worldbank.org.)
तालिका-3 सार्वजनिक उपक्रमों में विकलांग जन संबंधी का आंकड़ा
समूह कुल सृजित पद विकलांगों के लिए आरक्षित पद पदस्थापित पद % रिक्तियां भरे गए पदों का %
क 204,127 18,244 508 2.78 0.25
ख 175,159 14,350 1,226 8.54 0.70
ग 1,013,917 89,789 4,525 5.04 0.45
घ 4,35,328 56,615 3,819 6.75 0.88
कुल 1,828,531 56,615 3,819 6.75 0.88
कुल योग 4,527,293 460,396 20,053 4.36 0.44
( **237 सार्वजनिक उपक्रमों का आंकड़ा, स्रोत : http:web.worldbank.org.)
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 63