महिला
जब हम छोटे थे तो हमारी दादी-मांओं, चाची-ताइयों से सुना करते थे कि जब आजादी का आंदोलन जारी था तो वो ये गीत बड़े ही चाव से गाया करती थी ‘गाल्यो हे बजा ल्यो छोरियो हे, आजादी आवैगी, हे कासण धोवण-मांजण की मशीन आवैगी’ महिलाओं के जिस तलछट हिस्से की आजादी से आकांक्षाओंं को इंगित करने वाला यह लोकगीत है निश्चित रूप से उनकी वो आकाक्षाएं तो पूरी नहीं हुई हैं चाहे आजादी आ गई या हरियाणा को अलग राज्य बने 50 साल बीत गए। परन्तु बदलाव तो अवश्य आए हैं।
हरियाणा गठन की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर हम महिलाओं की स्थिति को लेकर उपलब्धियों व चुनौतियों का आकलन करें तो स्थिति को संतोषजनक तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो हरियाणा की महिलाएं हरियाणा के विकास का दो तिहाई बोझ अपने कंधों पर उठाती हैं। उसके बावजूद जहां भी प्रतिभा प्रदर्शन का मौका मिले स्वयं को सिद्ध करके दिखाती हैं। वर्तमान रियो ओलम्पिक में उपलब्धियां इसका ताजा उदाहरण हैं। उनके अन्दर कुछ कर गुजरने का जज्बा बार-बार प्रदर्शित होता है।
अफसोस इस बात का है कि आज तक भी हमारे परिवारों व हमारी सरकारों ने इन्हें अपनी थाती नहीं बनाया है। हरियाणा का वर्तमान लिंगानुपात इसकी मुंह बालेती तस्वीर है। वर्ष 2011 के अनसुार 1000 पुरुषों पर 866 महिलाएं हैं। 0-6 आयु वर्ग में 1000 लड़कों पर 831 लड़कियां हैं।
महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का अधिकार मिला यह बड़ी छलांग है। परन्तु आज तक वो कागजों तक ही महदूद है। इसे व्यवहार में लाने पर विमर्श भी नहीं है। आमतौर पर पिता की मौत के बाद घर की लड़कियों को बुलाकर कुछ उपहार देकर जमीन उनके नाम से उतरवा ली जाती है। पिछलें दिनों जब से जमीनें बिकने लगी हैं तो कुछ बेटियों ने भी चाहा कि उन्हें भी मुआवजे का कुछ हिस्सा मिलना चाहिए। इस पर तमाम तरह की हिंसा व तनाव देखने को मिला है। नतीजा यह है कि अब काफी जगहों पर शादी के समय ही सुसराल वालों से यह लिखवा लिया जाता है कि हम जमीन में कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे। महिलाओं के पास इंसानी गरिमा से रहने के लिए कोई आर्थिक आधार नहीं है। इसलिए वो असहनीय हिंसा की शिकार होती है। अभी भी महिलाओं को दादालाही सम्पत्ति में बराबर हकदार बनाने वाले 2005 का संशोधन हरियाणा की सरकार ने आज तक राज्य में लागू नहीं किया है। महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने वाला यह संवैधानिक प्रावधान लागू करने की जरूरत है।
महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिहाज से उनका रोजगारशुदा होना ही पितृसत्तात्मक जंजीरों को ढीला कर पाएगा। बढ़ते आर्थिक संकट में हर कोई चाहता है कि महिला नौकरीशुदा हो तो ही काम चल पाएगा। जहां पर सरकारी नौकरी में महिलाएं हैं वहां भी उनके प्रति अनेकों तरह के खुले-छुपे भेदभाव व यौन हिंसा होती है। इसके खिलाफ महिला आन्दोलन ने आवाज उठाकर काम के स्थान पर यौन शोषण विरोधी कमेटियों के गठन का प्रावधान करवाया। आज भी ये कमेटियां सभी काम की जगहों पर बनी हुई नहीं हैं तथा जहां बनी भी हैं वहां भी इनकी कार्यप्रणाली विशाखा गाइडलाईन के हिसाब से कम हो रही है।
कुछ ऐसे विभाग हैं जहां केवल महिलाएं काम करती हैं जैसे नर्स, आंगनवाडी, आशा वर्कर, मदरगु्रप इत्यादि। इनमें कार्य परिस्थितियां सुधारने की जरूरत है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को किसी भी प्रकार के श्रम कानूनों का लाभ नहीं मिल पा रहा। भयानक शोषणकारी परिस्थितियों में इन महिलाओं को काम करना पड़ रहा है। न्यूनतम वेतन भी इनको नहीं मिल पा रहा। वेतन के मामले में महिला पुरुष के बीच भेदभाव जारी है।
आज आए दिन जिस प्रकार की हिंसा व छड़ेछाड़ महिलाओं के साथ हो रही है उससे आमतौर पर यह धारणा बनती जा रही है कि यह तो होती आई और होती ही रहेगी। जबकि यह सच नहीं है परन्तु सतही तौर पर नजर डालने से ऐसा लग भी सकता है। क्योंकि निर्भया केस के बाद महिला सुरक्षा को लेकर जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशें भी लागू कर ली। परन्तु हिंसा रुकने की बजाय बढ़ रही है। असल में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बनाए जा रहे कानून व प्रावधान उनकी भावनानुरूप लागू नहीं किए जा रहे, इच्छाशक्ति का अभाव हैै।
आज जब हरियाणा की बेटियां जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ी-चढ़ी भूमिका अदा करना चाहती हैं तो छडेछाड़, यौन हिंसा की समस्या उनके रास्ते में बड़ी बाधा की तरह खड़ी है। हिंसा का स्रोत व समाधान दोनों की पहचान गलत होती है। छेड़छाड़ का स्रोत लड़कियों का पहनावा, उनका हंसना बोलना, फोन रखना, गैर टाईम घर की चारदिवारी से बाहर आना जाना माना जाता है और समाधान उनकी इन सभी स्वतन्त्रताओं पर रोक। जबकि महिलाओं व लड़कियों के साथ छड़ेछाड़ की समस्या पितृसत्तात्मक सोच से निकलती है।
यूं तो हरियाणा की महिलाएं अपने कद-काठी की वजह से अपने सौन्दर्य की अलग पहचान रखती हैं। परन्तु स्वास्थ्य को देखें तो बड़ा हिस्सा खून की कमी का शिकार है। जच्चा-बच्चा के लिए गांव में डिलीवरी-हट बने थे वो भी बिना किसी गम्भीर विश्लेषण के बंद किए जा चुके हैं। उन्हें दुबारा पूरी तैयारी के साथ खोला जाना चाहिए।
यह अच्छी बात है कि हरियाणा में महिलाओं के लिए खेल-दिवस बनाया जाता है। परन्तु उनके लिए उपयुक्त व्यायामशालाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसी प्रकार जिस तरह हमारे भाइयों के लिए सामूहिक कार्यों के लिए चौपाल बनी हुई है, महिला चौपालों की भी विशेष जरूरत है।
जीवन जीने के लिए आर्थिक आधार या रोजगार तथा फैसले लेने वाली संस्थाओं में बराबर की भागीदारी ये दोनों इंसानी जीवन में निणार्यक भूिमका अदा करते हैं। परिवार से लेकर धुर संसदीय स्तर तक। पूरे देश के साथ हरियाणा में भी पंचायती स्तर पर महिलाओं को आरक्षण के माध्यम से मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिशें की गई हैं। इसने महिलाओं के प्रति सामाजिक नजरिये को गुणात्मक रूप से बदला है। यद्यपि पुरुषोंं को क्योंकि चौधर का चस्का लगा हुआ है तो वो अपनी पत्नियों की बजाय स्वयं पंचायती कामकाज करते हैं। इस पर प्रशासन को पूर्णतया रोक लगानी चाहिए क्योंकि यह एकदम अवैध है। दूसरा इन चुनी हुई महिलाओं का गहन शिक्षण प्रशिक्षण किया जाना चाहिए ताकि वो आत्मविश्वासी तरीके से अपनी भूिमका अदा कर सकें।
लैंगिक दृष्टि से बड़े बदलाव व्यवस्था व परिस्थितियों में हुए हैं। जिनका नतीजा है कि महिलाओं के अन्दर नए अरमानों ने जन्म लिया है। अब वो हर क्षेत्र में अपने भाईयों के साथ कंधे से कंधा मिला कर सक्रिय भूमिका अदा करना चाहती हैं। जरूरत है हमारे आर्थिक, सामाजिक ढांचों व संस्थाओं में बदलाव की। उनमें अभी भी उनकी कर्ता की बजाय सहायक जैसी भूमिका बद्धमूल है। इसके साथ-साथ संवेदनाओं व मूल्य मान्यताओं को बदलने के लिए सभी को सामूहिक व व्यक्तिगत आत्म संघर्ष से भी गुजरने की जरूरत है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 67