सिरसा जिला के उत्तर में पंजाब और पश्चिम और दक्षिण में राजस्थान है। यहां बोलचाल में पंजाबी, हिन्दी और बागड़ी भाषा का प्रयोग आमजन करते हैं। सिरसा के चारों ओर बड़े-बड़े धार्मिक डेरे हैं। यहां की जनसंख्या वर्तमान में 88.90 प्रतिशत हिन्दू, 9.01 सिक्ख और 1.26 प्रतिशत मुस्लिम हैं। पुरुष 54 प्रतिशत और महिलाएं 46 प्रतिशत हैं।
हरियाणा गठन के समय से ही कृषि आधारित रहा है। यहां खेती सिंचाई का मुख्य स्रोत भाखड़ा का पानी और मध्य भाग में घग्घर का पानी है। हरियाणा गठन के समय यहां मुख्य फसल गेहूं, चना, नरमा, कपास, ग्वार और बाजरा है। यहां पैदावार बहुत कम होती थी। गेहूं की औसत पैदावार 20 से 30 मन प्रति एकड़, नरमा 4 से 5 क्विंटल प्रति एकड़ में होता था। किसान इसे अच्छी पैदावार मानते थे।
हरियाणा गठन के समय सिरसा में अधिकांश भू-भाग पर बड़े-बड़े रेत के टिल्ले हुआ करते थे। ज्यादातर खेती वर्षा पर आधारित थी। समय बीतने के साथ-साथ किसानों ने मेहनत करके टिल्लों को समतल करने का काम शुरू किया, जिसमें राज्य सरकार के विभाग ‘भूमि-सुधार निगम’ ने भी विशेष योगदान किया। जिसके चलते खेती का बड़ा हिस्सा भाखड़ा के सिंचाई क्षेत्र में शामिल हो गया। भाखड़ा का पानी हर खेत को मिले, इसका प्रयास सरकार ने भी किया। देशी बीज-खाद के चलते उत्पादन 20-25 मन से बढऩा शुरू हुआ तो ठीक-ठाक पानी मिलने पर पैदावार बढ़ती रही। जैसे-जैसे भाखड़ा पानी की व्यवस्था दुरूस्त हुई किसानों का रूझान नकदी फसलों की तरफ बढ़ा। 1978-79 के बाद से खेती में ट्यूबवैलों का चलन शुरू हो गया, जिससे उत्पादन में एक नई क्रांति आई, किसान खुश होने लगे, ग्रामीण क्षेत्र में नई ऊर्जा का संचार हुआ। फसलों का उत्पादन बढऩे लगा, गेहूं 40 मन से बढ़कर 60 मन प्रति एकड़ तक पहुंच गई। नरमा 4 से 8 क्विंटल तक प्रति एकड़ तक होने लगा, जिससे किसानों के रहन-सहन, शिक्षा व स्वास्थ्य की स्थिति में बदलाव आने लगे।
1980 के बाद खेती में बदलाव आए और खेती में ट्रैक्टर और अन्य मशीनोंं का चलन बढ़ा। जिससे खेती के साथ सहायक धंधे भी होने लगे। 1990 में अमेरिकन सुंडी के हमले से देशी नरमा-कपास की फसल को बहुत नुक्सान पहुंचा। यह क्रम तीन साल तक चलता रहा, जिसकी वजह से किसानों का एक हिस्सा भारी कर्जे के जाल में फंस गया। इसके उपरांत नरमा-कपास के हाईब्रिड बीज आए, जिससे किसानों को कुछ राहत मिली और जो किसान खेती से मुंह फेरने लगे लगे थे, वो पुन: खेती की ओर अग्रसर होने लगे।
1995-96 के बाद खेती में एक नई शुरूआत हुई। यहां बागवानी का क्षेत्र बढऩे लगा, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र में दुग्ध डेरियां स्थापित होने लगी। पशुपालन का काम भी बढऩे लगा। सन् 2000 के बाद से जिला भर में खेती उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर रही है। उत्पादन लागत बढ़ रही है और उत्पादन में खड़ौत की स्थिति है। पानी का संकट पुन: गहराने लगा है। भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरने से ट्यूबवैल फेल हो रहे हैं, जो किसानों के लिए कर्ज का कारण बन रहे हैं, क्योंकि एक ट्यूबवैल की लागत 5 से 7 लाख तक बैठती है। अब कुछ इलाकों में तो किसान 800 से 1200 फुट तक ट्यूबवैल का पानी लेने के लिए लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं। जहां पानी की कमी हो रही है। वहां उत्पादन गिर रहा है।
1990 में जिन उदारीकरण की नीतियों को लागू किया है, उसका खेती पर बुरा असर पड़ा है। सरकार की ओर से खेती में मिलने वाली राहत में कटौती प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। बी.टी. बीज आने के उपरांत खेती लाभप्रद होगी। यह उम्मीद जागी, किसान खुशहाल होगा। लेकिन स्थिति उम्मीद के विपरीत हुई। पिछले दो सालों में काफी उतार-चढ़ाव रहे हैं, जिसके कारण यहां भी आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। गत वर्ष 6 किसानों ने आत्महत्या की है। खेती आज भी संभावनाओं से भरपूर है। बशर्ते फसलों के पूरे दाम मिलें। उत्पादन लागत बढऩे और फसलों के पूरे दाम न मिलने से युवा वर्ग लगभग खेती से विमुख हो रहा है। वैकल्पिक काम की तलाश में है, जिससे महीने की निश्चित आय प्राप्त हो सके। आज के दौर में खेती प्राईवेट कम्पनियों के अधीन हो रही है। आज देशी बीज पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। निजी कम्पनियों की इच्छा के अनुरूप बीज और स्प्रे बाजार में आ गए हैं। जिसे खरीदना किसानों की मजबूरी हो गई है। खेती-किसानी पूरी तरह से आने वाले समय में इन निजी कम्पनियों की गुलाम बन जाएगी। खेती में सरकारी निवेश के घटने की वजह से आने वाले सालों में संकट बढऩे की संभावना है। हो सकता है कि छोटे किसानों का बड़ा हिस्सा भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में शामिल हो जाए।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.-