हरियाणा के सम्मुख सामाजिक चुनौती -कृष्ण स्वरूप गोरखपुरिया

समाज


एक नवम्बर 1966 से पहले हरियाणा कभी भी प्रशासनिक व राजनीतिक ईकाई (यूनिट) नहीं था। इसके बावजूद इस क्षेत्र (हरियाणा) की एक विशिष्ट सांस्कृतिक व सामाजिक पहचान रही है, जिसका मौलिक स्वरुप आज तक निरन्तर बना रहा है।

हरियाणा के सांस्कृतिक व सामाजिक विकास में भौगोलिक कारकों का बहुत योगदान रहा है। इस क्षेत्र में बहती घग्गर और यमुना जैसी नदियों, शिवालिक की श्रृंखलाओं तथा अरावली की पहाडिय़ों ने इस क्षेत्र को अलग पहचान प्रदान की थी। इस क्षेत्र की जीवन-शैली, मूल्य प्रणाली तथा जीवन-दर्शन ने बाहर से आने वालों को भी प्रभावित किया और आगन्तुकों के जीवन दर्शन, मूल्य प्रणाली और जीवन शैली से खुद भी प्रभावित हुए थे।

हरियाणावासियों के लिए यह बड़े गर्व की बात है कि विगत 5 दशकों में प्रान्त ने एक ऐसा मुकाम हासिल किया है, जिसका उदाहरण आज दूसरे सूबों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। हरियाणा देश का वह प्रथम राज्य था, जब 43 वर्ष पूर्व हर गांव में बिजली पंहुच गयी थी और इस समय प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई गांव या ढाणी होगी, जहां पक्की सड़कें या सरकारी स्कूल की व्यवस्था न हो। आर्थिक विकास की दिशा में अग्रसर प्रदेश में छोटे से प्रदेश गोवा को छोड़कर प्रति व्यक्ति आय में सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में हरियाणा की झोली में सबसे ज्यादा मैडल पड़ते हैं। कृषि विकास और अन्न उत्पादन के क्षेत्र में विगत दौर में प्रदेश की सराहनीय भूमिका रही है।

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उपरोक्त उपलब्धियों तथा प्रदेश की अभूत पूर्व प्रगति के बावजूद हरियाणा में लिंगानुपात में भयंकर गिरावट, भ्रूण हत्याएं, ऑनर किलिंग की घटनाएं, घोर जातिगत विभाजन व कड़वाहट, राजनैतिक मौकापरस्ती और परिवारवाद, दलबदल का शर्मनाक इतिहास, विकास व नौकरियों में क्षेत्रीय पक्षपात, प्रशासनिक भ्रष्टाचार एवं लूटखसोट, निर्वाचित संस्थाओं का सशक्तिकरण की जगह सत्ता का केन्द्रीकरण, जीवन के हर क्षेत्र में मुखियावादी संस्कृति तथा राजनीति व अपराध के गठजोड़ के कारण हरियाणा पूरे देश में बदनामी झेल रहा है।

हरियाणावासियों के सम्मुख आज एक गम्भीर चुनौती है कि किस प्रकार अपनी पूर्व उपलब्धियों की सुरक्षा करते हुए और आगे कदम बढाते हुए प्रदेश की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व प्रशासनिक जीवन की नकारात्मक प्रवृतियों को मिटाने में सफलता की तरफ प्रगति कर सकें। स्वर्ण-जयन्ती वर्ष हमारे लिए गम्भीर आकलन व मंथन का संदेश लेकर आया है।

हालांकि हरियाणा राज्य तुलनात्मक तौर पर एक विकसित और सम्पन्न राज्य समझा जाता है, परन्तु इसका सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन निहायत पिछड़ा, दकियानूसी और असहिष्णु बना हुआ है। जातिवादी सांमती, पितृसत्ता तथा वर्णवादी व्यवस्था के संस्कार अभी भी गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। सामूहिक स्तर पर प्रदेश सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करने में हर समय झिझकता रहा है और जड़ता को तोड़ने का बहुत कम प्रयास किया जाता है। हालांकि हरियाणा में सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा विचारों की नयी जमीन तोड़ने में काफी सक्रिय है, लेकिन कोई प्रभावशाली समाज-सुधार का आन्दोलन खड़ा करने में असफल रहा है।

असल में अन्धविश्वास, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड, आडम्बरवाद तथा रुढि़वाद के खिलाफ प्रचार-प्रसार का वेग कमजोर दिखाई दे रहा है। जनता अपनी गरीबी, बदहाली और दूसरी समस्याओं का समाधान संगठित तौर-तरीकों की बजाए धार्मिक रास्तों से तलाशने में न केवल लगी हुई है। धार्मिक पदयात्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

ब्याह-शादियों और पार्टियों में शराब के खुले सेवन को मानो समाज ने मान्यता दे दी है और बड़े भोजों का विरोध पुरानी बात हो गयी है। मृत्यु mqdefaultभोज, शादियों में हजारों आदमियों का सार्वजनिक खाने की व्यवस्था और खुले रुप में दान-दहेज के प्रदर्शन का सार्वजनिक विरोध और बायकाट करने की क्षमता तो प्रगतिशील लोगों में भी घट गयी है।

आजादी के संघर्ष के दौरान राजनैतिक और सामाजिक प्रमुखों द्वारा विवाह शादियों पर खर्च कम करना तथा दहेज न लेना और न देने का बड़ा प्रचलन था। अब हरियाणा के राजनेताओं तथा समाज में ऊंची हैसियत वाले विवाह, रिश्ता, (सगाई) तथा दहेज के समय सादगी की बजाए बहुत बड़ा लेन-देन किया जाता है और विवाह-शादी के समय बहुत बड़े-बड़े भोज व मंहगी पार्टियों का आयोजन किया जाता है। प्रतियोगिता के युग में मध्यम वर्ग भी उच्च वर्ग की नकल करता है। प्रगतिशील राजनीति करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता भी इस बीमारी (प्रचलन) का विरोध करने की बजाए घुटने टेक रहे हैं।

भारतीय समाज और विशेषकर हरियाणा क्षेत्र में शिक्षा और आधुनिकता के विकास के बावजूद पुरुष-प्रधान मानसिकता के संस्कार बहुत गहरे हैं। सदियों से भारतीय धर्मग्रन्थों में लिंगभेद को धार्मिक व सामाजिक मान्यता मिलती रही है।

 जमीनों की घटती जोत और बढते कृषि संकट के कारण हरियाणा में छोटा परिवार की अवधारणा को बहुत स्वीकृति मिली है, परन्तु बच्चों की संख्या घटाते समय यह कुल्हाड़ा लड़कियों पर खुल कर चला है। प्रदेश में सदियों से पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण परिवार वंश चलाने के लिए लड़के का जन्म लेना जरूरी समझा जाता है। 1954 में अस्तित्व में आए हिन्दू उत्तराधिकार कानून के तहत मां-बाप को जायदाद में लड़का-लडकी को बराबर का हिस्सेदार माना गया है। लड़कियों का पिता की सम्पति में अधिकार होने के बावजूद पिछले 62 वर्षों में 99 फीसदी से ज्यादा बहिनों ने अपनी जमीनों को सामाजिक परम्परा का पालन करते हुए अपने भाइयों के नाम करवा दिया है। लड़कियों द्वारा अपने मां-बाप की सम्पतियों में हिस्सा मांगना सामाजिक अपराध माना जाता है। आज के युग में जमीनों के भाव बहुत ऊंचा होने के कारण पूंजीवादी मानसिकता के चलते लड़के ही पैदा करने का रूझान बढ़ गया है।

नये-नये आविष्कारों और सुविधाओं के कारण कृषि उत्पादन में पुरुषों का काम घट गया हैै। परन्तु महिलाओं का कृषि व घरेलू काम बहुत बढ़ गया है। हरियाणा की महिलाओं को दोपहर के समय खेतों से घासफूस व पानी लाते समय एक बैल वाली बुग्गी (गाड़ी) को हांकते हुए देखा जाता है, दूसरी तरफ पुरुषों की बड़ी संख्या गांवों के चौराहों पर ताश खेलते हुए देखी जा सकती है। इस स्थिति के प्रति समाज में संवेदनशीलता पैदा करने की जरूरत है।

हरियाणा में महिलाओं, छात्राओं व छोटी-छोटी बच्चियों के खिलाफ अपराधों में वृद्धि से भी आम आदमी काफी चिन्तित व विचलित है। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर महिलाएं घर में ही शोषण और भेदभाव का शिकार हैं। महिला को न तो अपनी मर्जी से नौकरी करने की छूट है और न ही अपना जीवन साथी चुनने की इजाजत है। जब तक महिलाओं के प्रति पुरुषों की मानसिकता में बदलाव नहीं होता, तब तक समाज में सुधार नहीं हो सकता।

समाज में स्त्रियों को सबल बनाने के लिए जरूरी है कि बचपन से ही लड़के और लड़की का पालन-पोषण समानता से किया जाए और लड़कियां भी भाई के साथ स्नेह के साथ बराबरी की मांग करें।

समाज में एक शान्त परिवर्तन चल रहा है, जिसके तहत बहुत ज्यादा लड़कियों द्वारा उच्च शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा के लिए सक्रिय प्रयास किये जा रहे हैं और बहुत सी बहुएं भी ससुराल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं।

वास्तव में यह एक गर्व का विषय है कि हरियाणा की कन्याओं ने शिक्षा, खेल और जीवन के दूसरे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त करके प्रदेश, गांव मोहल्ला व परिवार के सम्मान में वृद्धि  की है। आज के समाज में यह भी देखने में आया है कि लड़कियां शादी के बाद परिवार से दूर रहने के बावजूद मां-बाप को बुढ़ापा व बीमारी के समय उनको सम्भालती हैं, जिस समय बेटे और बहुएं दूरी बना लेते हैं।

अपनी मर्जी से शादी करने वाले लड़के लडकियों की हर रोज ‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर की जा रही हत्याओं का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। झूठी शान के नाम पर अपनी मर्जी से शादी करने वाले अनेंक युवकों व युवतियों को मौत के घाट उतार दिया जाता रहा है। गोत्र, गवांढ और गांव की प्राचीन परम्पराओं के उल्लंघन के नाम पर शादीशुदा जोड़ों के घरों को उजाड़ा गया है, बल्कि पति व पत्नी को बहन-भाई बनाने तक के आदेश उग्र व भीड़वादी तथाकथित पंचायतों द्वारा जारी किये गये हैं।

सामाजिक विरोध के चलते अपनी पंसद की शादियां (विशेषकर अन्तरजातीय शादियां) करने वाले जोड़े घरों से भाग शादियां तो कर लेते थे, परन्तु परिवारों और पुलिस के द्वारा पकड़ कर लाये जाते थे और शुरू में लड़का वाले परिवारों को लड़का व लड़की  को लड़की वाले परिवारों को सौंप देते थे, जिनमें कई बार दोनों को या लड़की को मार दिया जाता है। मनोज-बबली हत्याकांड के दोषियों को सजा के फैसले के बाद ऑनर किलिंग की घटनाएं बन्द तो नहीं हुई, परन्तु ऑनर किलिंग करने वालों को सार्वजनिक सम्मान व समर्थन में जरूर कमी आनी शुरू हो गयी।

आजादी के बाद छुआछूत में काफी परिवर्तन आया है, परन्तु आज भी जाति विभेद तथा छुआछूत की घटनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं।  दलित-वर्ग के लोगों को तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। यह एक अच्छा लक्षण है कि इस समय दलितों में समानता के लिए संघर्ष व संगठन की चेतना बढ़ी है।

जाट आरक्षण के समर्थन और विरोध में चल रहे अभियानों के कारण प्रदेश के समाज में बहुत कटुता पैदा हो गयी है। विगत फरवरी माह में चले जाट आरक्षण आन्दोलन के समय हुई भयानक हिंसा व लूटपाट की घटनाओं के कारण व निवारण के लिए  कोई विशेष कदम नहीं उठाए गये हैं।

गौरक्षा के नाम पर कुछ स्वयंभू गौरक्षकों और संगठनों ने प्रदेश में अल्पसंख्यकों, दलितों व पशुओं के व्यापारियों में भयानक खौफ पैदा कर दिया है। मांस के दुकानदारों (जिनमें दलितों की बड़ी संख्या है।) को पुलिस प्रशासन व गौरक्षकों द्वारा प्रताडि़त किया जा रहा है। दूसरी तरफ लाखों लावारिस गायों को सड़कों पर फिरते हुए देखा जा सकता है, घास की कमी के कारण गायें भूखी मर रही हैं।

फतेहाबाद जिला में एक वर्ष में 47 से ज्यादा लोग गायों व सांडो द्वारा गाडियों की दुर्घटनाओं के कारण बेमौत मर गये हैं। आज गौशालाओं के पास गाय रखने के लिए जगह नहीं है और 2 लाख से ज्यादा गायें, सांड़, बछड़े और बछडिय़ां चारा के अभाव में पालीथीन खाकर बेमौत मर रही है।

हरियाणा के सामाजिक व आर्थिक जीवन तथा सामाजिक बनावट में तेजी से कुछ नये परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। हरियाणा से भी जिन किसानों की जमीनें मंहगे भाव में चली गयी है, ऐसे किसानों ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ व उतरांचल जैसे प्रान्तों में काफी जमीनें खरीद ली है। दूसरे प्रदेशों में जमीन खरीदने वाले लोगों में राजनैतिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की भी काफी बड़ी संख्या है।

हरियाणा में लड़कियों की कमी के कारण प्रदेश में बहुएं खरीद कर भी ला जा रही हैं और कंवारों के लिए बहुओं की व्यवस्था का एक लम्बा-चौड़ा धन्धा पनप रहा है। उन प्रवासी लड़कियों को आमतौर पर नारकीय जीवन जीना पड़ रहा है।

समाज-सुधार का अभियान तीन स्तरों पर चलाना पड़ेगा, जिनमें सरकार, समाज और संघर्ष की महती भूमिका रहेगी। समाज का आधा हिस्सा महिलाओं की मुक्ति की आधी सफलता उसी समय सम्पन्न हो जायेगी, जब महिलाएं पर्दा प्रथा से मुक्ति प्राप्त कर लेंगी। पर्दा-प्रथा का खात्मा मामूली सा काम लगता है, परन्तु महिलाओं का पर्दा में रहना उनमें पराधीनता, हीनता व असमानता की भावना पैदा करता है।

हरियाणा में पंचायती राज संस्थाओं में करीब 35 प्रतिशत महिलाएं इस वर्ष निर्वाचित हुई हैं। महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों में आज भी 80 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं पर्दा में रहती है। पर्दा-प्रथा का त्याग करने वाली बहुओं को सम्मानित करना तथा अन्तरजातीय शादियां करने वाले जोड़ों को प्रोत्साहित किया जाना समाज-सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 43-44

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