हरियाणाः तब और अब – राजेंद्र सिंह ‘सोमेश’ 

हरियाणा का वर्तमान स्वरूप एक नवम्बर सन् उन्नीस सौ छियासठ को मिला। तब से लेकर अनेक उतार-चढ़ावों को पार करते इस प्रांत ने कई पड़ाव पार किए हैं। सर्वाधिक प्रगति तो हरियाणा ने कृषि क्षेत्र में की है। पहले हरियाणा का अधिक क्षेत्र असिंचित क्षेत्र था और ज्यादा भू-भाग में पानी की अनुपलब्धता थी। इस कारण बाजरा, सरसों और चना मुख्य फसलें थी। कुरुक्षेत्र, करनाल, कैथल और अम्बाला में धान की खेती भी होती थी। हरियाणा बनने के बाद सिंचाई परियोजनाओं पर अधिक ध्यान दिया गया और गेहूं

धान, ईख की ओर ध्यान दिया गया। कई चीनी मिलों का बनना इसी ओर संकेत करता है। गेहूं की पुरानी किस्मों का स्थान नई किस्म की फसलों ने लिया और किसान खुशहाली की ओर बढ़ा है। कृषि क्षेत्र का एक बड़ा बदलाव औद्योगिकता के कारण बैलों का स्थान ट्रैक्टरों ने ले लिया और कृषि पर आधारित अन्य जातियों पर इसका कुप्रभाव पड़ा। जो लोग कृषि स्वयं न करके कृषि पर आधारित थे, उनको बेरोजगारी की ओर बढऩा पड़ा। खाती लुहार, कुम्हार, मोची और जुलाहा आदि जातियों पर बेरोजगारी की टेढ़ी मार पड़ी। ये सभी जातियां कृषक की सहभागी जातियां थी।

परिवर्तन का दूसरा बड़ा क्षेत्र शिक्षा रहा है। पचास वर्ष पूर्व हरियणा की साक्षरता दर पचास प्रतिशत से कम थी। महिला साक्षरता दर तो और भी कम थी। दलित वर्ग में साक्षरता दर बहुत ही कम थी। दलित महिलाओं में यह सामान्य से बहुत ही कम थी। वास्तव में शिक्षा के साधन ही कम थे। कई-कई गांवों में तो प्राथमिक विद्यालय ही थे। अन्य विद्यालय के लिए शिक्षार्थियों को कई मील पैदल जाना पड़ता था। महाविद्यालय तो केवल जिला स्तर पर ही थे। हरियाणा के मेवात (नूंह) जैसे क्षेत्र तो शिक्षा वंचित ही थे। समय ने करवट बदली और प्रत्येक गांव में प्राथमिक विद्यालय हैं। हर एक किलोमीटर की दूरी पर माध्यमिक विद्यालय, तीन किलोमीटर की दूरी पर उच्च विद्यालय और पांच किलोमीटर की दूरी पर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय है। अनेक गांवों में महिला महाविद्यालय भी बन गए हैं। हिसार, सिरसा, रोहतक, कुरुक्षेत्र और जींद में विश्वविद्यालय हैं।

एक बार तो राजकीय विद्यालयों का बहुत ही महत्व बढ़ गया था। छात्र संख्या निरंतर बढ़ रही थी। उन्हीं दिनों संस्थागत और निजी विद्यालयों की बाढ़ आई और प्रशासन की नासमझी अथवा समझ कर न समझने की नीति ने कमजोर वर्ग और दलित वर्ग के लिए स्वर्ग समान  सरकारी विद्यालयों की ओर कम ध्यान दिया। अध्यापकों के हजारों पद कई साल से रिक्त हैं। अनेक छात्र पढ़ाई से दूर होते जा रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव दलित वर्ग पर पड़ रहा है।  शिक्षा की गुणवत्ता में कमी होने लगी है। पांचवीं का छात्र दूसरी कक्षा की हिन्दी नहीं पढ़ पाता है। दसवीं पास छात्र अच्छी तरह प्रार्थना पत्र नहीं लिख पाता है। पचास साल पहले के ढांचे अैर आज के ढांचे में जमीन आसमान का अंतर है। अनेक सुविधाओं के बाद भी कहीं न कहीं अभी शिक्षा की कसक कमजोर व दलित के वर्ग के मन को कचोटती है।

स्वास्थ्य सेवाओं का बहुत ही विकास हुआ है। पचास साल पहले स्वास्थ्य के हर मामले में नीम हकीम या झोलाछाप डाक्टर का मुंह ताकना पड़ता था, परन्तु अब प्रत्येक गांव में दाई जैसी सामान्य सेवाएं भी उपलब्ध हैं। पहले रोहतक में ही एक बड़ा चिकित्सा संस्थान था, परन्तु अब महिला महाविद्याय एवं चिकित्सा संस्थान खानपुर कलां, बाढसा एवं मेवात में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक हसन खां मेवाती के नाम पर चिकित्सा संस्थान का नाम भी रखा गया है। इस सबके बाद भी आबादी की बढ़ौतरी की रफ्तार को देखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं में और भी अधिक सुधार की जरूरत है। केवल रोहतक के पीजीआईएमएस को लेें तो यहां सिटी स्कैन और एमआरआई की जहां बीसियों मशीनें चाहिएं, वहां केवल तीन-चार मशीनें ही हैं। स्वास्थ्य नियमावली के अनुसार डाक्टरों की संख्या बहुत ही कम है। नर्सों की संख्या तो मरीजों की संख्या के अनुपात में लगभग आधी है। वैसे सरकारी कागजों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा सीएचसी तो हैं, परन्तु डाक्टर और दवाएं नहीं हैं। इस क्षेत्र में निजी स्वास्थ्य केंद्रों की बाढ़ सी आ गई है। एक से एक महंगे अस्पताल खुल गए हैं, जहां एक से बढ़कर एक सुविधा उपलब्ध है, परन्तु आम आदमी की पहुंच से दूर हैं।

हरियाणा बनने के बाद विश्वविद्यालय बढ़े तो प्राध्यापकों की संख्या बढ़ी। एक से बढ़कर एक साहित्य उपलब्ध हुए हैं। अनेक नई-नई रचनाएं हमने पाई हैं। अनेक नए-नए लेखक पैदा हुए हैं। कई कहानीकार पैदा हुए हैं। रंगकर्मी भी बढ़े हैं। आकाशवाणी केंद्र रोहतक तथा कुरुक्षेत्र में हैं। दूरदर्शन केंद्र हिसार में है। टी.वी. आदि का प्रचार प्रसार बढऩे से हमारे परम्परागत सांस्कृतिक कार्यक्रम सांग और भजन उपदेश लुप्त होते जा रहे हैं। शिक्षाप्रद सांग, आर्य समाज के उपदेश अब बहुत कम हो गए हैं। अनेक वैज्ञानिक  गतिविधियां बढ़ी हैं।

खेलों में हरियाणा पहले भी पीछे नहीं था, परंतु वर्तमान में तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेलों  में हरियाणा छा गया है। कबड्डी और कुश्ती पर तो हरियाणा के पुरुष एवं महिलाओं का एकाधिकार सा हो गया लगता है। पिछले दिनों तो स्वर्ण पदक तक लाए गए हैं। इस वर्ष ओलम्पिक खेलों में देश के सम्मान की रक्षा करने वाली साक्षी मलिक हरियाणा की है।

हरियाणवी समाज में पिछले पचास वर्ष में काफी परिवर्तन हुए हैं। पंचायती राज विधेयक बनने पर दलित व कमजोर वर्ग के महिला एवं पुरुषों को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का कोटा मिलने पर दलित वर्ग को जो अवसर मिला, उसके चलते समाज में समानता का भाव बढ़ा है। हजारों वर्षों से उपेक्षित कमजोर व दलित वर्ग भी पंच-सरपंच बनकर गांव में निर्णायक वर्ग का अंग बनकर गर्व महसूस कर रहा है। शिक्षा का लाभ पाकर दलित वर्ग के पुरुष एवं महिलाएं उच्च पदों पर आसीन हैं। इस सबके बाद भी समाज में दलित वर्ग और महिलाएं उपेक्षित हैं। बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। दलित वर्ग को ज्यादा झेलना पड़ रहा है।

पिछले पचास वर्ष में जहां समाज में भौतिक सम्पदा बढ़ी, वहीं परस्पर का भाईचारा, स्नेह और प्यार के बंधन कमजोर हो रहे हैं। अपने माता-पिता, गुरुजनों और अन्य पारिवारिक जनों के प्रति प्यार में दरारें बढऩे लगी हैं। समाज की पहली इकाई परिवार बिखर रहा है।

मशीनीकरण और बाजारीकरण समाज की आर्थिक अवस्था का नियंन्ता बन गए हैं। कांवड़ों पर जोर हो रहा है। गणेश चतुर्थी तथा करवा चौथ अब सभी मनाने लगे हैं। पचास वर्ष पूर्व गांव में  गरीब, मजदूर और दलित तो करवा चौथ को कोई महत्व देता ही नहीं था परन्तु अब इसका प्रचार-प्रसार गांव तक हो गया है। धार्मिक आडम्बर और आध्यात्मिक गुरुओं की बाढ़ का एक रेला सा आ गया है। मन्दिर दोबारा बनाए जाने लगे हैं।

हरियाणा की राजनीति ने भी करवट बदल ली है, राजनीति का स्तर भी बदल गया। सोच भी बदल गई है। सरकारी सेवाओं के बदले ठेकेदारी प्रथा युवाओं को अंधेर में धकेल रही है। शिक्षा की गुणवत्ता के अभाव में बेरोजगारों की एक फौज तैयार हो रही है। इस बेरोजगारी का ही परिणाम है कि अपराध प्रवृति दिनोंदिन बढ़ रही है। समाज में बढ़ रही असमानता और अमीर गरीब की खाई और चौड़ी हो गई है। राजनीति नित नए हथकंडे अपना रही है। दलितों पर तो अत्याचार बढ़े हैं, पहले ग्रामीण समाज में सभी की बहू-बेटी समान थी।  मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है।

पिछले पचास वर्षों का यदि हम  आकलन करें, तो यह स्पष्ट नजर आता है कि इन वर्षों में पूरा हरियाणवी समाज एक धार में नहीं है। समाज का एक हिस्सा काफी उन्नति कर गया है। उसकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति पहले से ज्यादा मजबूत हुई है, जबकि समाज का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक विपन्नता और सामाजिक गैर बराबरी का दंश झेल रहा है। व्यावसायिकता की होड़ ने समाज को अर्थ प्रधानता दी है। जो उचित नहीं जान पड़ता। अत: सोच-विचार करने का समय भी आ गया है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 4

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