शहर-देहात
हरियाणा निर्माण की आधी सदी गुजर चुकी है। पिछले पचास वर्षों में समाज की चाल-ढाल और रंग रूप में बदलाव आया है। इस बदलाव को नेताओं और नौकरशाहों ने विकास बताया और प्रचारित किया कि हम आधुनिक मोड में आकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन बुद्धिजीवियों और जागरूक नागरिकों ने महसूस किया कि हम वर्तमान और अतीत में एक साथ यात्रा कर रहे हैं। हम आधुनिक वस्तुओं से घिरे हुए सामन्ती मूल्यों को ढो रहे हैं। हमारी समस्याएं और चुनौतियां नया रूप धारण कर चुकी हैं। हमारे विकास में राजनैतिक क्षमता, आर्थिक गतिविधियां और सांस्कृतिक मूल्यों का गठजोड़ नहीं है।
गांवों के बाहर खड़ा विकासपट्ट हमारे एकांगी विकास की मुकम्मल कहानी बयां करता है। इस पर आंगनवाड़ी, पंचायत घर, बस स्टैंड, पशु अस्पताल, चौपाल, जलघर और गलियों आदि पर खर्च की राशि का ब्यौरा सिलसिलेवार ढंग से लिखा होता है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से इन ढांचों के निर्माण में तेजी आई है, लेकिन पब्लिक से इनका जुड़ाव नहीं हो पाया है। लोगों में इनके प्रति अजीब सी बेरूखी है। वे इनके गेट, खिड़की और दरवाजे गायब कर देते हैं और कुछ समय बाद इनकी ईंटें तक उखाड़ ले जाते हैं।
गांवों में सार्वजनिक स्थलों जैसे तालाब-फिरनी की घेराबंदी करना, गली पर कब्जा करना और अपने लिए इस्तेमाल होने वाले रास्तों को तंग करना आम बात है। जनता के इस रवैये से विकास के पैरोकार और राजनेता यह प्रतिक्रिया देते हैं कि सरकार जनता को सुधारना चाहती है लेकिन लोग सुधरने के लिए तैयार नहीं हैं। वे इस तथ्य को दरकिनार कर देते हैं कि सामाजिक ढांचों को बदले बिना सतत् विकास की प्रक्रिया को हासिल नहीं किया जा सकता। भौतिक विकास की ईमारत सांस्कृतिक मूल्यों पर खड़ी होती है। आप किसी देश से तकनीक, विज्ञान और आधुनिक उपकरण उधार ले सकते हो, लेकिन उसको जज्ब करने वाला स्वभाव, मूल्यों और चेतना को निर्मित करना पड़ता है उसका स्थानांतरण संभव नहीं है। आंतरिक परिवर्तन के बिना बाह्य परिवर्तन स्थायी और कारगर नहीं हो सकता। इसी कारण हमारे विकास के मॉडल में आमजन की प्राथमिकताएं, सोच और दर्शन एक तरफ है तथा सत्ताधारियों की आंकड़ेबाजी और विकास के पैमाने दूसरी ओर। अभी तक दोनों में मिलन नहीं हो पाया।
पिछले पचास वर्षों में हरियाणवी समाज के मानस को बदलने के लिए न किसी सरकार ने ध्यान दिया न पंचायत समिति ने और न पढ़े-लिखों की जमात ने। हरियाणा में ऐसे इक्का-दुक्का ही गांव मिलेंगे, जहां पुस्तकालय और रंगशालाएं हों। पुस्तकें और सांस्कृतिक गतिविधियां हमारी जिंदगी से इस तरह से गायब हैं कि किसी भी प्रकार के चुनावी एजेंडे तक में शामिल नहीं हैं। पुस्तकें हमारी जिंदगी में घुसपैठिया की तरह हैं। हमारे घरों में बेकार और व्यर्थ की वस्तुएं भी स्टोर में अपनी जगह बना लेती हैं, लेकिन घर का कोई कोना किताबों के लिए नहीं है। हमारी मानसिक खुराक किताबें नहीं, बल्कि कुण में रखी में लाठी-जेळी और गंडासी है। गांवों में दुकान पर जासूसी उपन्यास, दो नंबर की किताबें, अश्लील सामग्री, द्विअर्थी गीतों की सीडी, वीडियो गेम तो मिल जाएंगे, लेकिन कोई साहित्यिक और स्तरीय किताब देखने को नहीं मिलेगी। हमारे आसपास गैर जरूरी चीजें इक_ी हो रही हैं। हमारे आसपास बदलाव हो रहा है, लेकिन हमारी सृजनात्मक शक्ति सोई पड़ी है। हमारे विकास का मॉडल ग्रांटों को ठिकाने लगाने वाला तरीका भर रह गया है, जनमानस को बदलने की प्रक्रिया नहीं।
हम सुबह से शाम तक विज्ञान निर्मित वस्तुओं से घिरे हुए हैं, लेकिन हमारा दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है। धार्मिक रूढिय़ां और पुरातनपंथी विचार हमारी चेतना पर हावी हैं। समाज में कथित अवतारों, ज्योतिषों, बाबाओं और तांत्रिकों की लीलाएं चलती रहती हैं। उनकी वाणी ‘जगत मिथ्या है, मिथ्या है’ का अखंड कीर्तन करती है। वे भौतिक समस्याओं का समाधान पराभौतिक जगत मेें ढंढ रहे हैं। उनके पास हर मर्ज का शर्तिया इलाज वाली विद्या है कि ‘बीमारी का कारण पूर्वजन्म है और समाधान पुनर्जन्म है’। अगले जन्म के इस सुख-छलावे की विश्वसनीयता के लिए भक्तों को अपने गुरु-बाबाओं को इसी जन्म में तन-मन-धन अर्पित करना पड़ता है। यह अकारण नहीं है कि जैसे-जैसे समस्याएं और चुनौतियां बढ़ रही हैं वैसे-वैसे नई-नई किस्म के धर्माचारी कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं। विडम्बना यही है कि अपने भक्तों और अनुयायियों को ‘माया’ के परित्याग का प्रवचन देने वाले बाबाओं और डेरों के पास अकूत दौलत है, काली अर्थव्यवस्था का बड़ा कारोबार है। दरअसल जनता में छद्म चेतना पैदा करने के ये कारखाने व्यवस्था के सेफ्टी वाल्व हैं। जब व्यवस्था आमजन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती तो उसे अंधविश्वास एवं धार्मिक दायरों में सक्रिय कर देती है।
अनपढ़ों के साथ-साथ पढ़े-लिखे लोगों की अच्छी खासी तादाद जादू टोने, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष और लाल किताब के चक्कर में है। वे मुहूर्त देखकर घर से निकलते हैं। जन्मपत्री और राशिफल उनकी दिनचर्या के हिस्से हैं। समाज में वैज्ञानिक चेतना का इस कद्र अभाव है कि लड़का उत्पन्न करने की चाहत में औरतों को रात में चौराहों पर पूजा करते हुए, शमशान घाट से हड्डी उठाते हुए तथा पीपल के पेड़ के नीचे दीया जलाते हुए देखा जा सकता है। शरीर विज्ञान के अनुसार भ्रूण के लिंग के लिए पुरुष जिम्मेवार है, औरत नहीं। अमुक-तमुक क्रियाकलाप भू्रण का लिंग नहीं बदल सकते यह सामान्य ज्ञान भी हमारी अनुभूति का हिस्सा नहीं बन पाया है। ज्ञान हमारे सोचने के तरीकों को नहीं बदल पा रहा है और वैज्ञानिक शब्दावली के खोल में अंधविश्वास से जनमानस में स्वीकृति पा लेता है।
पिछले बीस-तीस वर्षों से गांव में शनिदेव और काली माता के मंदिर बनते जा रहे हैं। हमारी भाग्यवादी मनोवृत्ति सामाजिक-राजनैतिक चुनौतियोंं से जूझने की बजाए कतराने की प्रवृत्ति पर बल देने लगी है। विचारहीन आस्था समाज में विघटन को जन्म देती है। आज पब्लिक के लिए मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च प्रेम, करूणा, दया, अहिंसा, सत्य, संयम की साधना के केन्द्र नहीं, बल्कि इच्छाओं एवं कामनाओं को पूरा करने के ढांचे भर रह गए हैं।
आजकल नौजवान का बड़े-बूढ़ों के पांव छूना एक रिवाज सा बन गया है। इससे लग सकता है कि इनके हृदय में वृद्धों के प्रति सम्मान और श्रद्धा है। पुरानी पीढ़ी के प्रति संवेदनशीला का पता घर में उनकी हैसियत और अहमियत से चलता है। घरों में उनकी जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। नई पीढ़ी ने उनके तजुर्बों, अनुभवों और सुक्तिपरक बातों को फालतू और गैरजरूरी घोषित कर दिया है। बुजुर्गों को लगता है कि उनके बच्चे बिगड़ रहे हैं और युवाओं को लगता है कि उनके मां-बाप जमाने की दौड़ में पिछड़ रहे हैं, वे मॉडर्न नहीं हैं, स्मार्ट नहीं हैं।
गांवों की गलियों में ब्यूटी पार्लर व हेयर कटिंग-स्पा की दुकानें खुल रही हैं। युवा पीढ़ी कृत्रिम तामझाम से चमकने वाले शारीरिक सौंदर्य के प्रति सचेत है, लेकिन दिमाग में पोर्न साइटों की सामग्री जमा हो रही है। फेसवाशर, हेयर क्लिनर और स्प्रे उसकी रूप सज्जा के हिस्से बन चुके हैं। वह हर पल सेल्फी मूड में रहता है। व्हाटसैप फेसबुक उनके ज्ञान के स्रोत हैं, जिनमें उन्मादी एवं अप्रमाणिक सूचनाओं की भरमार है।
हरियाणवी लोगों का विश्वास था मोटा खाना और मोटा पहनना, लेकिन अधिकांश लोगों ने इस जीवन शैली को छोड़ दिया है। हम बिना सोचे समझे उपभोक्तावाद की हवा में बहने लगे हैं अर्थात् खाओ, कमाओ और उड़ाओ। ब्रांडिड कपड़े, महंगे मोबाइल, सपोर्ट बाईक/कार इज्जत और सम्मान से जुड़ चुके हैं। अब कोल्ड ड्रिंक, पीजा, बर्गर, फास्टफूड खाद्य सामग्री के हिस्से हैं। कोल्ड ड्रिंक हमारी संस्कृति का अंग बन चुकी है। हर उत्सव और पार्टी इसके बिना अधूरी है। शीतल पेय पदार्थ के रूप में लस्सी का प्रयोग न के बराबर है, जबकि स्वास्थ्य के लिए लस्सी लाभदायक है। हर देशकाल के लोगों का संबंध उनकी जलवायु में पैदा होने वाली फसलों और वातावरण से होता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन को चखना अलग बात है, उसे आदतों में शुमार करना अलग बात है।
किसी भी जाति के दर्शन चिंतन का स्वरूप गीतों-गजलों और मेले-ठेलों के माध्यम से झलकता है। आजकल के गीतों में जातीय गौरव को त्याग समर्पण व प्रेम जैसे गुणों की बजाए मनी, मसल और पावर के में चित्रित किया जा रहा है। हमारे युवा नशे और हथियारों से अपनी पहचान जोड़ रहे हैं।
हमारी संस्कृति के अगुवा रंगकर्मी जनमानस की भावनाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप कला के रूपों को नहीं रच पाए हैं। यह सोचने की बात है कि डीजे पर थिरकने वाले अधिकांश लोगों की पहली पसंद पंजाबी गीत हैं। दूसरे नंबर पर फिल्मी गीत आते हैं और तीसरी बारी हरियाणवी गीतों की है। इनकी संख्या और धुनों को आप उंगलियों पर गिन सकते हैं।
शिक्षा-दीक्षा पाकर बने नौकरशाहों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और पेशेवर लोगों का एक वर्ग ग्रामीणों की सोच के पिछड़ेपन पर आंसू बहाता है। वह गांव के सौंदर्य से अभिभूत रहता है और गाहे-बेगाहे उसके सौंदर्य के कसीदे पढ़ता है। लेकिन शायद ही कोई सफल व्यक्ति अपने गांव में जाकर समस्याओं और चुनौतियों को समझने व हल करने की कोशिश करता हो। ज्यादा से ज्यादा मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा या गऊशाला के नाम की पर्ची कटाकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री समझता है। यहां तक कि आरक्षित जातियां, जाति उत्पीड़न से मुक्ति का प्रयास तो करती हैं, लेकिन जाति संरचना की दार्शनिकता पर प्रहार नहीं करती। वे इसके माध्यम से अपना और अपने बच्चों का भविष्य तो सुरक्षित करना चाहते हैं, लेकिन विकास की दौड़ में पीछे छूट गए भाई-भतीजों और बंधुओं की चिंता नहीं सताती।
हरियाणवी समाज कठिन दौर से गुजर रहा है। हमारी दबी हुई मध्यकालीन और सामंती पहचान मुखर होने लगी है। हमारी आधुनिकता अंधी गली में भटक रही है। हर दल और नेता अपने मान-सम्मान-अपमान को जनता से ऊपर रखकर उसे गृह युद्ध में धकेल रहा है। सरकारी पदों को बढ़ाने या नए पद सृजित करने की बजाए लगातार कम होते सरकारी पदों पर आरक्षण के जरिए आसीन होने की होड़ मची है। हमारे नेता भी सरकारी क्षेत्रों में फैलते हुए निजीकरण की चुनौतियों और संभावनाओं पर विचार-विमर्श नहीं करते, बल्कि जाति व धर्म के नाम पर इच्छाओं को भड़काकर अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। हमारे प्रतिनिधि राज्य और जनता के बीच कड़ी का काम नहीं करते बल्कि सौदेबाजी करते नजर आते हैं।
समाज भौतिक दृष्टि से आगे बढ़ रहा है। उसके आर्थिक ढांचे में बदलाव आ रहा है, लेकिन सांस्कृतिक ढांचे को बदले बिना सतत् विकास संभव नहीं है। ऐसे लगता है कि समाज ऊपरी तौर पर बदल रहा है, लेकिन उसके मानस में रूढिय़ों का आदर्शीकरण, मिथकों का वैज्ञानिकीकरण और ज्ञान-विज्ञान के प्रति विमुखता बढ़ती जा रही है।
उपभोक्तावादी जीवन शैली और उग्र रूढि़वादी मानसिकता का गठजोड़ हमें अंधकार युग में धकेल रहा है। जहां आधुनिक विचारों की बजाए आधुनिक वस्तुओं का बाहुल्य है। हमारे विकास के मॉडल में मूल्यों की बजाए वस्तुओं पर जोर ज्यादा है। हमने मूल्यों के अनुरूप औद्योगिक सभ्यता का निर्माण नहीं किया, बल्कि औद्योगिक सभ्यता ने हमारे शाश्वत मूल्यों पर प्रहार किया है। हमारे सारे विचार पूंजी और भौतिक वस्तुओं के इर्द-गिर्द घूमने लगे हैं। मूल्यों के अभाव में पारम्परिक रूढि़वादिता मजबूत होने लगी है। पश्चिम की नकल और देशज रूढिय़ों का गुणगान एक ही सिक्के दो पहलू हैं।
मानव का इतिहास संभावनाओं का इतिहास है। हमें जरूरत है एक नया यूटोपिया रचने की जिसमें न पश्चिम की नकल हो और न अतीत का अंधा अनुसरण। किसी भी समाज के मूल्यांकन का आधार आधुनिक वस्तुएं नहीं, बल्कि उसके निवासियों की तार्किकता, विवेकशीलता, सामाजिक गतिशीलता, परानुभूति है।
स्वर्ण जयंती का यह अवसर महज अनुष्ठान बनकर न रह जाए, हमें जरूरत है अतीत का जायजा लेकर उससे सबक लेने की। विकास के प्रतिमान तय करने की और उन्हें हासिल करने के लिए ठोस नीति और नए कार्यक्रम बनाने की।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 122-123