सहीराम
मीडिया में हरियाणवी महिला की छवि क्या है? जैसे हरियाणवी पुरुष जिसे आमतौर पर हाळी-पाळी कहा जाता है, की छवि खेतों में खटनेवाले एक मेहनतकश किसान की छवि है या फिर खड़ी और थोड़ी लठमार सी जुबान बोलनेवाले और एक हद तक मुंहफट तथा उज्जड, लेकिन साथ ही हाजिर जवाब और कुछ-कुछ मजाकिया-विटी-किसान की छवि है या फिर एक थोड़े खाते-पीते और दबंग टाइप के किसान की छवि है,क्या वैसी ही कोई छवि हरियाणवी महिला की भी है?
क्योंकि हरियाणवी अर्थव्यवस्था अभी भी काफी हद तक एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ही है और हरित क्रांति के बाद के सारे पूंजीवादी विकास के बावजूद हरियाणा में मध्यवर्ग, जिसे क्लासिक अर्थ में मध्यवर्ग कहा जाता है, अभी भी नहीं है, इसलिए हरियाणवी पुरुष का,हरियाणवी किसान और कई बार तो एक जाति विशेष के रूपक में ही, सामान्यीकरण किया जाता है, इसलिए यहां भी इसी रूपक का सहारा लिया जा रहा है। हालांकि यह थोड़ा खाता-पीता दबंग सा, एक हद तक मुंहफट और उज्जड सा किसान, एक माने में बेहद चतुर-चालाक, मौकापरस्त, मतलबी और स्वार्थी इंसान है जो सामाजिक व्यवहार, पारिवारिक झगड़ों, कचहरी में और प्रशासन के सामने और अपने राजनीतिक व्यवहार में तो खासतौर से इसी रूप में सामने आता है और आज तो कृषि के गंभीर संकट के चलते तो वह बेचारगी की इस अवस्था में है कि आत्महत्या करने तक को मजबूर है। बहरहाल, इस सामान्यीकरण से भिन्न दलित, कामगार और कारीगर जातियों से जुड़े लोग हैं, जिनकी बोली-भाषा, खान-पान, आचार-विचार भले ही उसी तरह के हों, पर वे उस माने में न तो दबंग हैं और न ही खाए-पीए अघाए लोग हैं।
असल में कुछ छवियां लोकाचार से बन जाती है। यह परंपरागत छवियां होती है। रहन-सहन, खान-पान, पहनावे, बोली-भाषा, सामाजिक संबंधों, कहावतों-लोकोक्तियों, किस्से-कहानियों, चुटकलों- जो अक्सर विभिन्न जातियों से भी जुड़े होते हैं, किस्सागोई और स्थानीय लोक गायकों की प्रस्तुतियों आदि के चलते दीर्घावधि में बनी यह छवि अंतत: संस्कृति का हिस्सा हो जाती है।
लेकिन साथ ही साथ इसके समानांतर एक नयी छवि भी बनती चलती है, जो दीर्घावधि में परंपरागत छवि का स्थानापन्न बनती है। इधर खासतौर पर राजनीतिक स्तर पर छवियां गढ़ी भी जाने लगी हैं, जो अस्थायी और फौरी लाभ के लिए होती हैं। उसके कुछ अंश बेशक दीर्घकाल तक बचे रहते हैं, जो बीच-बीच में उभरकर आते रहते हैं। पर मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभावी बनने के बाद ही ऐसा होने लगा हो, ऐसा भी नहीं है। राजनीतिक स्तर पर यह कवायद इतनी नयी भी नहीं है। इतिहास में शासकों की जैसी छवियां हमें देखने को मिलती हैं, वे शायद ऐसे ही गढ़ी जाती रही होंगी।
बहरहाल, क्या ऐसा है कि हरियाणवी पुरुष की तरह हरियाणवी महिला का जिक्र आने पर ऐसी ही कोई छवि उसकी भी सामने आती हो? वैसे ही जैसे बंगाली औरत का जिक्र आने पर उसकी एक शिक्षित,गरिमामय, प्रेम के लिए समर्पित लेकिन मानिनी और कभी अपने प्रेम और कभी अपने परिवार के लिए त्याग करनेवाली और उसके लिए न्यौछावर हो जानेवाली औरत की परंपरागत छवि सामने आती है। यह काफी हद तक शरतचंद्र जैसे साहित्यकारों के साहित्य में महिला पात्रों की छवियों से बनी छवि है, जिसे सिनेमा ने भी काफी पुख्ता किया है। लेकिन इसके साथ ही बंगाली औरत की एक दूसरी छवि भी है – एक लड़ाका, जुझारू और क्रांतिकारी औरत की छवि, जो स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े पैमाने पर उसकी भागीदारी से बनी और जिसके चलते चिटगांव विद्रोह की नायिकाएं कल्पना दत्त तथा प्रीतिलता बद्दार और दूसरी क्रांतिकारी महिलाएं इस छवि का प्रतीक बनी।
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही जन आंदोलनों में बंगाली महिलाओं की बराबर की भागीदारी रही है और इस भागीदारी ने उसकी एक राजनीतिक रूप से जागरूक महिला की छवि भी बनायी है। पर ऐसा भी नहीं है कि बंगाली औरत अपनी छवि के मुताबिक शिक्षित, समर्पित, क्रांतिकारी और राजनीतिक रूप से जागरूक महिला ही है, उसकी एक शोषित तथा पीडि़ता की भी छवि भी है। एक बेबस औरत की छवि भी है। मसलन आज ह्युमन ट्रैफिकिंग (औरतों-बच्चों की खरीद-फरोख्त) का शिकार हो रही और देह व्यापार में धकेली जा रही बालिकाओं में एक बड़ी संख्या बंगाली लड़कियों की है, जो एक मायने में बंगाली औरत की एक नयी छवि है। खुद हरियाणा में शादी के लिए बाहर से खरीद कर लायी जा रही लड़कियों में एक बड़ा हिस्सा बंगाली लड़कियों का है। बहरहाल, यह छवि अभी परंपरागत छवि के रूप में तब्दील नहीं हुयी है।
जब कभी एक दक्षिण भारतीय महिला का जिक्र आता है तो उसकी एक शिक्षित और कामकाजी या नौकरीपेशा औरत की छवि सामने आती है जो पढ़ी-लिखी होकर भी अपनी परंपरगत पोशाक में बनी रहती है, साड़ी पहनती है, जूड़े में फूल लगाती है, चाहे वह किसी बड़े वैज्ञानिक संस्थान में या किसी बड़े कार्पोरेट ऑफिस में ही काम कर रही हो, तो क्या ऐसी ही कोई छवि हरियाणवी औरत की भी सामने आती है? जैसे नर्स का जिक्र आने पर फौरन केरल की एक सफेद पोशाकवाली दुबली-पतली सावंली सी लडक़ी की तस्वीर सामने आ जाती है। क्या वैसी कोई तस्वीर हरियाणवी औरत की भी बनती है?
इस माने में बंगाली महिला या फिर दक्षिण भारतीय महिला की परंपरागत छवि जैसी कोई छवि हरियाणवी महिला की नहीं है। बल्कि इन छवियों में उसकी कोई झलक भी नहीं मिलती। इसकी वजह एक तो यह रही कि बंगाल और दक्षिण भारत के मुकाबले हरियाणा शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहा। हरियाणवी समाज में कायदे का मध्यवर्ग भी नहीं पनपा जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं। यहां न तो ऐसा कोई साहित्य ही रचा गया जैसा बंगाल और दक्षिण भारत में रचा गया जिससे वहां की महिलाओं की एक खास छवि बनकर निकली और न ही सिनेमा से उसकी कोई छवि बनी, जो कि बीसवीं सदी एक बहुत बड़ा माध्यम बनकर उभरा है।
हरियाणा में तो ले-देकर यहां के लोकगायकों की ही कुछ रचनाएं मिलती हैं, जो एक सामंती फ्रेमवर्क में ही यहां की महिला को पेश करती हैं। बंगला साहित्यकारों की तरह महिला की कोई नयी छवि नहीं गढ़ती। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण पुरुष के नजरिए से ही महिला का पक्ष सामने आता है। फिर शिक्षा के अभाव में हरियाणवी महिला वैसी कामकाजी तथा नौकरीपेशा भी नहीं रही जैसी दक्षिण भारतीय महिला रही है।
साहित्य के अलावा सिनेमा में भी हरियाणवी महिला की ऐसी किसी छवि का कोई प्रतिबिंबन नहीं मिलता। एक तो मुंबई सिनेमा में बंगाली लेखकों की अनेक रचनाओं का फिल्मांकन हुआ, जिसकी एक वजह लेखकों-निर्देशकों की एक बड़ी जमात का बंगाली होना भी रहा है। फिर वह साहित्य भी बहुत ही समृद्घ रहा है। इसके अलावा बंगाल तथा दक्षिण भारतीय राज्यों में एक समृद्घ क्षेत्रीय सिनेमा रहा है, जिसने वहां की क्षेत्रीय कहानियों और जनजीवन को कहीं ज्यादा विश्वसनीय ढ़ंग से पेश किया।
हरियाणा को यह सौभाग्य नहीं मिला। न तो बॉलीवुड में हरियाणा केंद्रित फिल्में बनी और न हरियाणा का क्षेत्रीय सिनेमा उतना प्रभावी रहा। हरियाणवी क्षेत्रीय सिनेमा की दो-एक फिल्मों को ही इस माने में प्रतिनिधि माना जा सकता है जिनमें एक अश्विनी चौधरी की ‘लाडो’ है जिसमें पति के प्रति अपने सारे प्रेम और शादी-ब्याह की संस्था के प्रति अपने पूरे कमिटमेंट के बावजूद एक औरत किसी अन्य व्यक्ति के प्रेम में पड़ जाती है और उससे गर्भवती हो जाती है।
इस फिल्म में उसी संबंध की सामाजिक तथा व्यक्तिगत और भावात्मक जद्दोजहद को दिखाया गया है। लेकिन यहां पूरे रचनात्मक संसार-साहित्य, नाटक और इस माने में सांग, फिल्म आदि-में यह ऐसी अकेली रचना थी और एक अकेली रचना से किसी छवि का निर्माण नहीं होता, वह अपवाद ही बनकर रह जाती है। इसलिए ‘लाडो’ भी हरियाणवी महिला का सिंबल नहीं बन पाती।
बहरहाल, बंगाली या दक्षिण भारतीय महिला की छवि को अगर छोड़ भी दिया जाए तो हिंदी हार्टलैंड में ही अभी बुंदेलखंड की औरत की एक नयी छवि गुलाब गैंग के रूप में सामने आयी। बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश में फैला हुआ एक अत्यंत पिछड़ा हुआ इलाका है, जो हाल-फिलहाल के दिनों में अपने बरसों के सूखे, अकाल जैसी स्थिति, भुखमरी और पलायन और इस सबके चलते राजनीतिक सरगर्मी के कारण काफी चर्चित रहा है।
इसी बुंदेलखंड में महिलाओं का एक गुलाब गैंग बनकर उभरा जो महिलाओं के एक थोड़े दबंग किस्म के और सामाजिक मुद्दों पर महिलाओं के पक्ष में हस्तक्षेप करनेवाले संगठन के रूप में चर्चित हुआ है। बल्कि मीडिया में गुलाब गैंग इतना चर्चित रहा कि उस पर बॉलीवुड में एक फिल्म भी बन गयी। इस गुलाब गैंग ने अपना ‘खबर लहरिया’ के नाम से एक अखबार भी निकाला है। क्या हरियाणवी महिला की ऐसी कोई छवि है?
हरियाणवी महिलाओं का ऐसा कोई विद्रोही संगठन सामने नहीं आया है। अलबत्ता पिछले कुछ अर्से से हरियाणा में जनवादी महिला समिति नामक एक संगठन जरूर चर्चित रहा है जो विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर हस्तक्षेप करता रहा है और खासतौर से जो ऑनर किलिंग के मसले पर खाप जैसी ताकतवर संस्था से टकराने में भी नहीं हिचका है। पर जनवादी महिला समिति एक विचारधारा विशेष का अनुसरण करनेवाला संगठन है। उसमें वह धूमकेतुनुमा चमक भी नहीं, जो मीडिया के एक हिस्से को आकर्षित करती रही है।
फिर हरियाणा के आस-पड़ोस को ही अगर देखें तो पंजाबी महिला की एक अलग छवि है। हालांकि हरियाणा वृहत्तर पंजाब का ही हिस्सा रहा है। पर पंजाबी महिला की छवि हरियाणवी महिला को अपने अंदर नहीं समेट पाती। दोनों बहुत ही भिन्न है। पंजाबी महिला की परंपरागत छवि तो हीर की, सोहनी की, सीरीं की छवि है जो लोकलाज के पार जाकर प्रेम में न्यौछावर हो जानेवाली, उसके लिए अपना बलिदान देनेवाली औरत है।
पंजाब के बुल्लेशाह और वारिस शाह जैसे सूफी कवियों और गायकों ने पंजाबी महिला की इस अमर छवि का निर्माण किया है। क्या ऐसी कोई छवि हरियाणवी औरत की है? हालांकि हीर-रांझा का किस्सा वारिस शाह के किस्से से इतर यहां के लोकगायक और जोगी भी गाते रहे हैं। फिर नल-दमयंती, लीलो-चमन, सरवर-नीर, सुलतान-निहालदे और ऐसी ही अनेक प्रेमकथाएं यहां के लोकगायकों ने भी गायी हैं। पर हरियाणवी औरत की वह छवि नहीं बन पायी, जो पंजाबी लोकाख्यानों के चलते पंजाबी औरत की बनी।
फिर थोड़े हल्के अंदाज में देखा जाए तो पंजाबी औरत की छवि एक नृत्यातुर औरत की छवि भी है, जो शादी-ब्याह से लेकर किसी भी मौके पर गिद्दा डालने को उत्सुक पायी जाती है, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे गुजराती महिला डांडिया खेलने को तैयार रहती है। इस छवि को खासतौर से मुंबइया फिल्मों ने गढ़ा और पुख्ता किया। हालांकि सारे मुंबइया फिल्मी प्रयासों के बावजूद करण जौहर की फिल्मों की करवा चौथवाली छवि पंजाबी औरत की अभी भी नहीं बन पायी है।
लेकिन पंजाबी औरत की छवि एक खाती-खिलाती जट्टनी की छवि ही नहीं है, एक लड़ाका औरत की छवि भी है और यह छवि भी स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी भागीदारी के चलते ही बनी, जैसे बंगाली औरत की बनी। फिर सिखी की बहादुरी तथा खुलेपन ने भी इस छवि को पुख्ता किया।
अलबत्ता आज पंजाबी औरत की एक छवि एक बेबस, लाचार औरत की छवि भी है,एक एन आर आइ दूल्हों द्वारा परित्यक्ता औरत की छवि भी है। क्या इनमें से कोई भी छवि हरियाणवी महिला की है? एक खाती-खिलाती जट्टïनी की पंजाबी औरत की छवि में बेशक एक झलक हरियाणवी औरत की भी देखी जा सकती है। लेकिन हरियाणवी औरत की एक लड़ाका औरत की छवि अभी नहीं बन पायी है। फिर पंजाबी औरत की तरह आधुनिक रहन-सहन को भी इतना आगे बढकऱ उसने गले नहीं लगाया है। आधुनिकता और पश्चिम ने उसे अभी उस हद तक नहीं लुभाया है कि दुष्परिणामों की चिंता छोड़ वह विदेश जाने की ललक से भरी हो।
फिर क्या हरियाणवी औरत की छवि हरियाणा के एक दूसरे पड़ोसी राज्य राजस्थान की औरत की छवि जैसी है। राजस्थानी औरत की मध्यकालीन छवि बेशक जौहर करनेवाली औरत की छवि रही हो लेकिन दिवराला सती कांड के वक्त उसकी छवि एक लाचार औरत की भी बनी, जो अभी भी पुरुष की मध्यकालीन सोच के सामने बेबस है। यूं उसकी छवि हमेशा घूंघट में रहनेवाली, रंगीन ओढऩी और रंग-बिरंगी पौशाक में सजी-धजी, गीत गाते हुए मेले-ठेलों में जानेवाली या फिर दूर-दूर से पानी ढ़ोकर लानेवाली औरत की छवि है। यह वह छवि है जो पहले किशनगढ़ शैली और बूंदी शैली की पेंटिगों में या शेखावाटी की हवेलियों की चित्रकारी से बनी थी और अब सूरजकुंड के मेले में मिलनेवाली सस्ती किस्म की पेंटिगों से बनती है।
यह मुख्यत: सामंती व्यवस्था के तहत बनी औरत की छवि है, जिसमें खेत-खलिहानों में खटती औरत कहीं नहीं है। पर क्या हरियाणवी महिला की ऐसी कोई छवि है? जहां तक सामंती जकड़बंदी का सवाल है बेशक हरियाणवी महिला भी उसका तकरीबन उतना ही शिकार है पर इसके साथ ही वह खेत-खलिहान में खटती औरत भी है, जो आज पुरुष के मुकाबले कहीं ज्यादा परिश्रम कर रही है।
कई बार जब हम सरकारी फंक्शनों और यहां तक कि स्कूल-कालेज के फंक्शनों में बालिकाओं को रंगबिरंगी चूनडिय़ों और भारी-भरकम घाघरों के साथ नृत्य पेश करते हुए देखते हैं तो लगता है कि हां हरियाणवी महिला की छवि कुछ-कुछ राजस्थानी महिला की छवि से मिलती जुलती है।
पर फिर गिद्दा डालती पंजाबी औरतों की परंपरागत पोशाक में भी लंबा कुर्ता और लहंगा शामिल है तो क्या यह मान लिया जाए कि उसकी थोड़ी छवि पंजाबी महिला से भी मिलती है।
लेकिन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया तो वार-त्यौहार छोडि़ए, वोट मांगने भी रंगीन चूनड़ी ओढकऱ निकल जाती हैं, जिससे साबित होता है कि वह राजस्थानी औरत की एक परंपरागत और लुभावनी छवि है, जिसे विदेश में शिक्षा प्राप्त एक महिला नेता अपने राजनीतिक हित के लिए भुनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन ऐसी कोई कोशिश हरियाणा में किसी महिला नेता ने नहीं की और इससे यही साबित होता है कि यह हरियाणवी महिला की कोई ऐसी परंपरागत और लुभावनी छवि नहीं है।
हरियाणा के गुडग़ांव, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ के दक्षिणी सीमावर्ती जिलों को अगर छोड़ दिया जाए-जहां रंगीन चूनड़ी और लहंगा-कमीज अभी भी काफी हद तक बड़ी उम्र की महिलाओं की परंपरागत पोशाक बनी हुई है, तो ऐसी कोई छवि हरियाणवी महिला की उभरकर नहीं आती। कम उम्र की लड़कियां और युवतियां इसमें कतई शामिल नहीं हैं। इसी तरह से सिरसा-हिसार के पश्चिमी सीमावर्ती जिलों को छोड़ दिया जाए जहां खासतौर से बिश्नोई समाज की महिलाएं अभी भी परंगरागत राजस्थानी पोशाक पहनती हैं, बाकी हरियाणा में यह पोशाक नहीं रही है। यहां तक कि हरियाणा की उम्रदराज महिलाएं भी सलवार-कमीज में ही रहती हैं।
तो कम से कम पहनावे से तो हरियाणवी महिला की कोई ऐसी छवि नहीं उभरती है, जिसे हरियाणवी महिला की छवि कहा जाए। जैसे पंजाबी औरत की छवि गिद्दा की पोशाकवाली औरत की छवि नहीं है, जैसे राजस्थानी औरत की छवि वहां की महिला मुख्यमंत्री द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान धारण की जानेवाली परंपरागत पोशाकवाली औरत की छवि नहीं है, जैसे गुजराती औरत की छवि डांडिया की पोशाक में रहनेवाली औरत की छवि नहीं है या फिर महाराष्टिï्रयन औरत की छवि लावणी नृत्य की पोशाक पहननेवाली औरत की छवि नहीं है वैसे ही हरियाणवी औरत की छवि भी रंगीन चूनड़ी और भारी-भरकम घाघरा पहनने वाली औरत की छवि नहीं है।
फिर भी ‘न आना इस देश लाडो’ नामक, टी आर पी के मानदंड से, बेहद लोकप्रिय हुए टी वी सीरियल की अम्माजी उर्फ भगवानी सांगवान को क्यों घाघरे-कमीज और ओढऩीवाली महिला के रूप में पेश किया गया। क्यों? क्या हरियाणवी महिला की एक परंपरागत छवि को भुनाने के लिए। उस सीरियल के थीम को अगर फिलहाल छोड़ दिया जाए, जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे और अभी सिर्फ पहनावे की ही बात की जाए तो असल में परंपरागत सोच को दर्शाने के लिए परंपरागत पहनावे का इस्तेमाल एक तरह से प्रतीकात्मक भी होता है।
पर सवाल अब भी वही है कि हरियाणवी औरत की छवि क्या है? बल्कि खासतौर से आज मीडिया में उसकी छवि क्या है? क्या उसकी छवि वही घूंघट में रहनेवाली औरत की छवि है जैसा कि अनेक समाजशास्त्रीय अध्ययनों में अभी तक दिखाया जाता रहा है। आइए थोड़ी इसकी पड़ताल की जाए।
बात थोड़ी पुरानी है। अस्सी का दशक समाप्त हो रहा था। तब तक न तो विश्वीकरण की प्रकिया शुरू हुयी थी और न ही सूचना तकनीक ने इस तरह से जनजीवन को अपनी चपेट में लिया था। टी वी चैनल तो खैर थे ही नहीं। न वेबसाइटें शुरू हुयी थी और न ही सोशल मीडिया था। अंग्रेजी और हिंदी की परंपरागत पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थी। परंपरागत छवियां टूटती तो खैर हमेशा ही रही हैं पर उनके टूटने की प्रक्रिया इतनी तेज नहीं हुई थी।
यह उन्हीं दिनों की बात है कि अचानक ही तमाम पत्र-पत्रिकाएं पामेला बोर्डेस नामक एक खूबसूरत माताहारी टाइप की युवती के सेक्स स्कैंडल के किस्से-कहानियों से पट गयी थी। ब्रिटेन के टैबलायड्स में छाने के बाद भारत की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में इस स्कैंडल के व्यापक ब्यौरे प्रकाशित होने लगे थे। यह स्कैंडल इतने बड़े आयाम का था कि ब्रिटिश संसद हिल गयी थी। अनेक सांसद और नेता इस स्कैंडल की चपेट में आ गए थे।
यह महिला कौन थी? पामेला बोर्डेस नामक इस युवती का असली नाम पामेला चौधरी था। पत्र-पत्रिकाओं में ही प्रकाशित हुए ब्यौरों से पता चला कि वे हरियाणा की रहनेवाली थी। उनके पिता सेना में अधिकारी थे। वे 1982 में मिस इंडिया बनी थी। दिल्ली के प्रतिष्ठिïत लेडी श्रीराम कालेज में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। बहरहाल, उस सेक्स स्कैंडल के बाद उनके प्रोफाइल में भारी बदलाव आया। आज वे एक प्रतिष्ठिïत फोटोग्राफर हैं।
हरियाणा के पंरपरागत समाज से निकली एक लडक़ी का इस तरह से सेक्स सिंबल बन जाना, क्या परंपरागत हरियाणवी महिला की छवि से किसी तरह के शिफ्ट का संकेत था? हालांकि वे उस तरह के परंपरागत हरियाणवी समाज में पली-बढ़ी नहीं थी और न ही उन्होंने उस तरह की शिक्षा पायी थी। वैसे भी हरियाणवी समाज से निकले फौजी अफसरों के बच्चे कम से कम अपने रहन-सहन और आचार-व्यवहार में तो काफी आधुनिक हो ही जाते हैं। यहां आधुनिक होने से अर्थ पश्चिमी रहन-सहन और आचार-व्यवहार को अपनाने से ही है। हरियाणवी समाज का यह एक बेहद अलग-थलग द्वीप है।
इसलिए पामेला बोर्डेस को एक परंपरागत हरियाणवी महिला की छवि में आए किसी शिफ्ट की तरह से नहीं देखा गया। उन्हें किसी भी माने में हरियाणवी युवती का प्रतिनिधि नहीं माना गया। बल्कि इस मायने में वे तो भारतीय युवती का भी प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। पामेला बोर्डेस को हरियाणवी युवतियों की तरह अपनी पहचान बनाने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा था। यह एक आइसोलेटिड केस था, जो किसी भी माने में हरियाणवी औरत से नहीं जुड़ता था।
हालांकि उसके फौरन बाद ही विश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई और एक के बाद एक अनेक भारतीय सुंदरियों द्वारा विश्व सुंदरी का खिताब जीतने के चलते अंतर्राष्टीय मीडिया में भारतीय नारी का एक तथाकथित आधुनिक नारी के रूप में जबर्दस्त एक्सपोजर हुआ। लेकिन यह विश्वीकरण की जरूरत थी।
और जैसे पामेला बोर्डेस को हरियाणवी महिला तो छोडि़ए, भारतीय महिला के सिंबल के रूप में भी नहीं देखा गया वैसे ही फिल्म स्टार मल्लिका सहरावत को भी हरियाणवी महिला के सिंबल के रूप में नहीं देखा गया। जबकि मल्लिका सहरावत भी हरियाणा की रहनेवाली हैं, जिनका असली नाम रीमा लांबा बताया जाता है। उन्होंने भी दिल्ली में शिक्षा हासिल की।
पर बॉलीवुडीय फिल्मों में और मीडिया में उनकी छवि एक सेक्सी नायिका की छवि है।
हरियाणवी युवती का प्रतिनिधि उन्हें नहीं माना गया वैसे ही जैसे फिल्म एक्टर रणदीप हुड्डा को हरियाणवी युवा की छवि का प्रतिनिधि नहीं माना जाता है।
इसी तरह पिछले दिनों मिस इंडिया बनी झज्झर के कासनी गांव की रहनेवाली अदिति भी हरियाणवी युवती का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वे भी एक फौजी अफसर की बेटी हैं और उनकी शिक्षा भी बाहर ही हुयी है। इस माने में वे भी हरियाणवी समाज के उस अलग-थलग से द्वीप की नागरिक हैं, जिसका जिक्र हम ऊपर कर आए हैं।
बहरहाल सवाल अब भी वही है कि आखिर मीडिया में हरियाणवी महिला की छवि क्या है? प्रिंट मीडिया में हरियाणवी महिला की छवि पर बात करने से पहले आइए फिल्म और टेलीविजन जैसे दृश्य माध्यमों में उसकी छवि को लेकर थोड़ी बात कर ली जाए। फिल्मों की जहां तक बात है तो हिंदी सिनेमा, जिसे बॉलीवुडीय सिनेमा या मुंबई सिनेमा कहा जाता है, की बात करने से पहले अगर हरियाणा के क्षेत्रीय सिनेमा की बात की जाए तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जिस माने में क्षेत्रीय सिनेमा को उस क्षेत्र के जनजीवन को प्रस्तुत करना चाहिए उस माने में यह एक बेहद कमजोर सिनेमा रहा है। हरियाणा के क्षेत्रीय सिनेमा की दो ही उल्लेखनीय फिल्में रही हैं-एक ”सांझी’’ और दूसरी ”लाडो’’। ये दोनों ही फिल्में दो भिन्न धरातलों पर औरत के संघर्ष की कहानी है।
”सांझी’’ जहां जर-जमीन-जोरू के परंपरागत विषय पर बनी फिल्म है जिसमें नायिका के पति का कत्ल हो जाता है। यह कत्ल कोई और नहीं बल्कि उसकी जमीन पर नजरें गड़ाए बैठे उसके करीबी संबंधी ही करते हैं। पति के कत्ल के बाद वह अपनी जमीन और अपनी अस्मिता दोनों को बचाने की लड़ाई लड़ती है, जो एक सामान्य कथानक है। यह फिल्म न तो हरियाणवी महिला की कोई नयी छवि गढ़ती है और न ही परंपरागत छवि को कोई उदात्त रूप देती है।
इसके विपरीत ‘लाडो’ हरियाणवी महिला की उस परंपरागत छवि को तोड़ती है। इस फिल्म की नायिका विवाहेत्तर संबंध से गर्भवती होती है। लेकिन लोकलाज के चलते न तो वह उसे छुपाती है और न ही अपने गर्भ को गिराती है, बल्कि अपने विवाहेत्तर संबंध को स्वीकार करती है। वह सामाजिक मर्यादा के खिलाफ विद्रोह करती है और अपनी एक नयी पहचान को मनवाने के लिए लड़ती है। पर यह एक ऐसी महिला की कहानी है जिसे हरियाणवी महिला का प्रतिनिधि चरित्र नहीं कहा जा सकता। अपने सारे अनूठेपन और अपनी सारी बोल्डनेस के बावजूद इस फिल्म की नायिका हरियाणा जैसे पिछड़े समाज में वहां की नारी का प्रतिनिधि चरित्र नहीं है।
क्योंकि यथार्थ जिदंगी में हम देखते हैं कि हरियाणवी महिला इतनी बोल्ड नहीं हुयी है कि ऐसे मामलों में अपने परिवार या समाज से लड़ जाए। यहां तो महिलाएं परंपरागत मूल्यों से बंधी होने के कारण इस कदर मजबूर होती हैं कि बलात्कार के आरोपियों के परिवारों की महिलाएं और कई बार तो खुद आरोपियों की पत्नियां भी उनके बेकसूर होने की लड़ाई लड़ती नजर आती हैं। निश्चित रूप से फिल्म का कथानक बोल्ड है और परंपराओं की जकड़बंदी को तोड़नेवाला है लेकिन हरियाणवी महिला की परंपरागत छवि को बदल पाने की ताकत इस चरित्र में फिर भी नहीं है।
रही मुंबइया फिल्में तो हरियाणवी जनजीवन को विषय बनाकर इन दिनों फिल्में तो काफी बन रही हैं, पर उनमें हरियाणवी महिला का कोई भी प्रतिनिधि चरित्र नहीं है सिवाय दो-एक फिल्मों में उसकी थोड़ी-बहुत झलक देखने के। इनमें एक फिल्म है ”गुड्डू रंगीला’’ और दूसरी है ‘एन एच-10’ जिसमें हरियाणवी युवतियां प्रेम करती है, घर-परिवार और समाज का विरोध होने के बावजूद अपने प्रेमी के साथ शादी करती हैं और अंत में खापों की हिंसा का शिकार होती हैं। यह आज की उस हरियाणवी युवती का थोड़ा यथार्थवादी चित्रण है, जो प्रेम करने और अपनी पसंद के लड़के को जीवन साथी बनाने की लड़ाई लड़ रही है। लेकिन इन दोनों ही फिल्मों में ऐसी युवती का ऐसा कोई मजबूत चरित्र सामने नहीं आता, जिसे हरियाणवी युवती का प्रतिनिधि चरित्र कहा जा सके।
हरियाणवी पृष्ठïभूमि को ही लेकर एक तीसरी फिल्म है ”तनु वेड्स मनु रिटन्र्स’’, जो काफी उल्लेखनीय है। इस फिल्म की नायिका कुसुम सांगवान उर्फ दत्तो एक तरह से आज की हरियाणवी युवती का प्रतिनिधित्व करती है। यह काफी मजबूत चरित्र है। वह एथलिट है। काफी दबंग है और यहां तक कि छेड़छाड़ करनेवाले लड़कों को पीटने का भी दम रखती है। वह प्रेम करती है। उस प्रेम के लिए संघर्ष करती है और सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने निर्णय खुद लेती है।
टेलीविजन धारावाहिकों में जिस तरह पंजाबी या गुजराती या इधर भोजपुरी पृष्ठïभूमि को लेकर धारावाहिक बने, उतने बड़े पैमाने पर हरियाणवी पृष्ठभूमि को लेकर धारावाहिक नहीं बने। हरियाणवी पृष्ठïभूमि को लेकर बना एक ही धारावाहिक उल्लेखनीय है और वह है ‘न आना इस देश लाडो।’ हालांकि एक और काफी लोकप्रिय हुए धारावाहिक ”एफ आइ आर’’ की नायिका चंद्रमुखी चौटाला हरियाणवी पृष्ठभूमि वाली एक दबंग पुलिस अफसर है। वह धड़ल्ले से हरियाणवी बोलती है। वह कुछ-कुछ उसी छवि को पुख्ता करती है जो दिल्ली में हरियाणवी पृष्ठïभूमि से आनेवाले पुलिसकर्मियों की छवि है। बेशक वह भ्रष्टï नहीं है। आखिर नायिका है। लेकिन उस धारावाहिक की पृष्ठïभूमि हरियाणवी नहीं थी। वहां हरियाणवी जनजीवन की कोई झलक भी नहीं थी और इसलिए उसकी नायिका भी हरियाणवी युवती का प्रतिनिधि चरित्र नहीं है।
लेकिन ‘न आना इस देश लाडो’ धारावाहिक के शुरूआती एपिसोड्स की पृष्ठïभूमि और उनका चिंत्राकन हरियाणवी जन-जीवन की थोड़ी झलक जरूर दिखाते हैं। यह धारावाहिक कन्या भ्रूण हत्या के विषय को लेकर बनाया गया था, जैसा कि उसके नाम से ही पता चलता है। यह एक तथ्य है कि निजी मनोरंजन चैनलों के आने के बाद धारावाहिकों का, व्यवसायीकरण के भारी दबाव में जितनी तेजी से फिल्मीकरण हुआ, उसकी मार से यह धारावाहिक भी नहीं बचा और इसलिए अतिश्योक्तियों और अतिरंजनाओं से भरपूर रहा। फिर भी कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को लेकर बनाए गए इस धारावाहिक की अहमियत इस माने में है कि इसने एक बहुत ही मौंजू और बोल्ड विषय को चुना। इसके साथ ही बेशक धारावाहिक की मुख्य पात्र एक महिला थी, फिर भी परिवार में महिलाओं के दमन और शोषण को प्रमुखता से दिखाया गया था। बेशक थोड़े अतिरंजित रूप में ही दिखाया गया।
जैसा कि पितृसत्तात्मक समाज में होता है परिवार की मुखिया के महिला होने के बावजूद वह उन्हीं प्रतिगामी और दमनकारी मूल्यों को आगे बढ़ाती है, जो ऐसे समाज में परंपरागत रूप से चले आ रहे होते हैं और उन मूल्यों के पोषक होते हैं। इस में जैसे ”एन एच-10’’ फिल्म की महिला सरपंच अपवाद नहीं है जो अपनी झूठी इज्जत के लिए अपने बेटों और परिवारीजनों से अपनी ही बेटी और उसके प्रेमी का कत्ल करवा देती है वैसे ही ‘न आना इस देश लाडो’ की नायिका भगवानी भी अपवाद नहीं है। बल्कि वह उन प्रतिगामी और दमनात्मक मूल्यों की संरक्षक और वाहक बनती है। आश्चर्य नहीं कि इसी वजह से वह न सिर्फ अपने परिवार बल्कि पूरे गांव की अगुवाई करती है और जब वह इन मूल्यों को छोडऩे की कोशिश करती है और उसके चरित्र में बदलाव आता है तो उससे वह नेतृत्वकारी भूमिका छिन जाती है।
हरियाणवी समाज में प्रमुखता से जड़ें जमाए बैठे इन पितृसत्तात्मक प्रतिगामी और दमनकारी मूल्यों को बेशक थोड़े अतिरंजित रूप में दिखाने के बावजूद यह कहा जा सकता है यह धारावाहिक उसी अंदाज में हरियाणवी समाज के प्रतिनिधित्वकारी महिला चरित्रों को सामने लाता है जैसे ‘बालिका वधु’ नामक धारावाहिक राजस्थानी जनजीवन और वहां के महिला चरित्रों को शुरू में सामने लाने की कोशिश कर रहा था, फिर चाहे वह भी उतने ही अतिरंजित रूप में उन्हें सामने ला रहा था। इस माने में यह कहा जा सकता है कि हरियाणवी महिला की एक प्रतिनिधि छवि भगवानी और दबी-कुचली अन्य महिला चरित्रों के रूप में इस धारावाहिक में देखी जा सकती है।
तो क्या हरियाणवी महिला की छवि यही है? कई बार खबरिया टेलीविजन चैनलों पर ऐसे अनेक दृश्य देखने में आ जाते हैं जो उपरोक्त छवि को पुख्ता ही करते हैं। मसलन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ या कई बार तो बलात्कार तक के मामलों में छेड़छाड़ करनेवाले लड़कों व बलात्कारियों के पक्ष में उनके परिवार और क ई बार तो गांव की औरतें भी खड़ी हो जाती हैं। कई बार ऐसे मामलों में भी वे पुरुषों के साथ खड़ी दिखाई देती हैं, जो कुल मिलाकर महिलाओं के हित में जानेवाले नहीं होते।
इसी तरह खबरिया चैनलों पर इस तरह की खबरें भी देखने को मिल जाती हैं कि महिलाएं खासतौर से आरक्षण जैसे मुद्दों पर पुरुषों के साथ खड़ी होती हैं। बहुत बार तो उन्हें ह्यïूमन शील्ड के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है। पर इससे यह धारणा बनाना कि उनमें जुझारूपन आ रहा है, गलत होगा। क्योंकि सामाजिक मुद्दों पर उनकी ऐसी कोई भागीदारी नहीं होती है। इसलिए दृश्य माध्यमों के जरिए हरियाणवी महिला की कोई छवि बनाने से पहले हमें यह देखना होगा कि दृश्य माध्यमों में हरियाणवी महिला का छिटपुट चित्रण ही हुआ है जिसके आधार पर किसी निष्कर्ष तक पंहुचना उचित नहीं होगा।
पर अगर मोटे तौर पर देखा जाए तो प्रिंट मीडिया में भी हरियाणवी महिला के यही दो रूप प्रमुखता से सामने आते हैं जिनमें एक रूप कन्याभ्रूण की हत्या में उसके समान सहभागी होने का है और दूसरा रूप परिवार या समाज में ऑनर किलिंग में उसकी मूक सहमति और कई बार सक्रिय सहभागिता का है। ये पितृसत्तात्मक मूल्यों के पोषण के ही दो रूप हैं और मोटे तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
हरियाणा में लिंगानुपात कभी भी आदर्श नहीं रहा और हरियाणवी समाज कभी भी कन्याओं के जन्म के प्रति ज्यादा संवेदनशील नहीं रहा। कन्या के जन्म को लक्ष्मी के आगमन, जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है, के रूप में कभी नहीं देखा गया। इसलिए पुत्र होने पर बजायी जानेवाली थाली, कन्या के जन्म पर कभी नहीं बजायी गयी और न ही कभी कन्या का कुआंपूजन हुआ और न ही दशोटन।
इस फिनोमिना को कन्याओं के नामकरण के रूप में और ज्यादा बेहतर ढ़ंग से समझा जा सकता है। हरियाणा में कन्याओं के नाम धापा, भतेरी, संतोष, रामभतेरी आदि इसीलिए रखे जाते थे कि जो हो गयी सो बहुत है और कन्या नहीं चाहिए। और निश्चित रूप से ऐसे नाम लाडो,प्यारी जैसे नामों से ज्यादा ही होते थे। बल्कि सारे लाड़-प्यार के बावजूद वह ‘मरज्याणी’ तो हमेशा ही रही। लाड़ लड़ाते हुए उससे यही कहा जाता रहा है कि बस अब तू मर जा। उसे हमेशा आर्थिक बोझ और सामाजिक सम्मान पर होनेवाले संभावित खतरे के रूप में देखा गया। हरित क्रांति पूर्व के हरियाणवी किसान समाज में तो लडक़ी का मूल्य चुका कर शादियां करने या फिर आटा-बाटा प्रथा के जरिए शादियां करने का प्रचलन भी काफी रहा है।
लेकिन हरित क्रांति के बाद समाज के पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चल पड़ने और सत्तर-अस्सी के दशक के बाद तो कन्या भ्रूण की हत्या ने एक हत्यारी मुहिम का ही रूप ले लिया। सामंती मूल्यों के चलते कन्या के जन्म को परिवार की इज्जत को कम करने या घटानेवाली परिघटना के रूप में शायद पूरे भारतीय समाज में ही देखा जाता रहा है।
ऑनर किलिंग भी कन्या भ्रूण हत्या से ही जुड़ा हुआ एक दूसरा फिनोमिना है, जो अब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीमाओं के पार जाकर इधर बिहार-बंगाल तक और उधर तमिलनाडु तक दस्तक दे रहा है।
लेकिन हरियाणवी महिला की इन दो पहचानों-जिन पर काफी कुछ लिखा जा चुका है और काफी समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी हुआ है – से जुड़ी एक पहचान यह भी है कि कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ भी और ऑनर किलिंग के खिलाफ भी हरियाणवी महिला लगातार लड़ती रही है। इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि पी सी पी एन डी टी एक्ट में संशोधन हुआ है और ऑनर किलिंग के खिलाफ तो प्रेम विवाह करनेवाले और अंतर्जातीय शादी करनेवाले जोड़ों के संघर्ष की अनगिनत कहानियां ही हैं और जिन्हें मीडिया का भी काफी कवरेज हासिल हुआ है।
ऑनर किलिंग के खिलाफ जैसी कड़ी लड़ाई हरियाणवी युवतियों ने लड़ी,वह सचमुच बहादुरी की मिसाल है और शायद ही किसी अन्य राज्य में ऐसी अथक लड़ाई लड़ी गयी हो। हरियाणवी युवतियों ने तो जैसे खापों से हार न मानने की ठान ही रखी है। इतने बड़े पैमाने पर हुयी हत्याओं के बावजूद प्रेम-मोहब्बत और अपनी पसंद के लडक़े से ही शादी करने का सिलसिला रुका नहीं। इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि कन्या भ्रूण हत्या और ऑनर किलिंग फिल्म और टेलीविजन धारावाहिकों के विषय बने। क्योंकि इससे पहले हरियाणवी समाज का ऐसा कोई विषय कभी सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया है, जो हरियाणवी महिला की पहचान से जुड़ा हो।
इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि आज अखबारों में इस तरह की खबरें भी पढऩे को मिल जाती हैं कि बेटी पैदा होने पर उसका कुंआ पूजन हुआ। और इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि सरकार को बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रम चलाने पर मजबूर होना पड़ा।
बहरहाल, दृश्य माध्यमों को अगर छोड़ दिया जाए तो कम से कम प्रिंट मीडिया में तो हरियाणवी महिला की बड़ी विविध छवियां सामने आ रही है, जो पॉजिटिव हैं, रचनात्मक हैं और प्रेरक हैं।
हाल के वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि आम हरियाणवी महिला को इतना जबर्दस्त एक्सपोजर मिला है। उसकी यह विविध छवियां कुछ-कुछ वैसे ही सामने आ रही हैं जैसे कभी बंगाली महिला की विविध छवियां सामने आयी थी-प्रेम करनेवाली, त्याग करनेवाली, आंदोलनकारी, क्रांतिकारी, शिक्षा क्षेत्र में अग्रणी आदि-आदि।
उत्तर भारतीय किसी भी अन्य राज्य में शायद ही वहां की महिला की ऐसी विविध छवियां सामने आ रही हों। यह छवियां घंूघट में रहनेवाली उसकी परंपरागत छवि से पूरी तरह जुदा और बिल्कुल भिन्न हैं। इन छवियों में वह सिर्फ कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ ही नहीं लड़ रही है। वह सिर्फ खाप पंचायतों की बर्बरीयत से ही नहीं जूझ रही है बल्कि वह जीवन के दूसरे अनेकानेक क्षेत्रों में भी अपनी काबलियत का धड़ल्ले से प्रदर्शन कर रही हैं।
हरियाणवी महिला अपनी परंपरागत छवि का खोल उतार कर आगे बढ़ चुकी है। यह सही है कि परंपरागत हरियाणवी महिलाएं जिनमें नयी पीढ़ी की औरतें भी शामिल हैं, अभी भी सामाजिक रूढिय़ों का शिकार हैं और उनमें उन रूढिय़ों को तोड़नेे के साहस और इच्छा शक्ति की कमी है। जैसे कोई साल-डेढ़ साल पहले ही हुए हरियाणा विधानसभा चुनावों के समय का एक वाकया है। उस समय अखबारों में ही प्रकाशित एक वाकए के अनुसार हरियाणा के एक पूर्व एवं दिवंगत मुख्यमंत्री के परिजन और करीबी रिश्तेदार एक दूसरे के खिलाफ चुनाव मैदान में उतर रहे थे। नॉमिनेशन के वक्त अचानक उनकी दो बेटियों में से एक बहन ने दूसरी को टोकते हुए हुए कहा-ऐ ओला कर ले, तेरा जेठ आवै है।
जब राजनीतिक रूप से इतने आगे निकले हुए परिवार की बहुएं ही नहीं, जिन पर सामाजिक रूढिय़ों को अपनाने का ज्यादा दबाव नहीं होता है, बल्कि बेटियों का सामाजिक व्यवहार ही ऐसा रूढि़वादी हो तो अंदाज लगाया जा सकता है कि यह जकडऩ कितनी मजबूत होगी। इससे यह भी पता चलता है कि सिर्फ सत्ता के लिए की जानेवाली राजनीति कोई मूलगामी बदलाव नहीं ला सकती।
हरियाणवी समाज के अभी भी रूढि़वादी समाज बने रहने, महिलाओं के कमोबेश उन्हीं रूढिय़ोंं में बंधे होने के बावजूद इन्हीं सारी रूढिय़ों, प्रतिगामी और दमनकारी पितृसत्तात्मक सामंती मूल्यों के बीच हरियाणवी महिला एक भारी जद्दोजहद से अपने लिए जगह बनी बना रही है और उसका विस्तार कर रही है। यही वजह है कि उसके प्रोफाइल में भारी बदलाव आ रहा है। वह असली नायिकाओं के रूप में सामने आ रही है। सरकारी अचीवर्स की लिस्ट से अलग हरियाणवी महिला अपने बीच से अचीवर्स की एक नयी सूची तैयार कर रही है।
इनमें अगर एकतरफ लफंगों के खिलाफ लड़नेवाली रोहतक सिस्टर्स हैं जिन्होंने सारी जातिवादी गोलबंदियों, सारे सामाजिक दबावों, सरकार-पुलिस और प्रशासन की सारी उदासीनता के बावजूद अपने साथ छेडछाड़ करनेवाले बदमाशों से हार नहीं मानी और उन्हें न्याय के कटघरे में खड़ा किया तो दूसरी ओर हरियाणा की महिला खिलाड़ी हैं, एथलीट हैं, पर्वतारोही हैं, शिक्षा में आगे निकल रही लड़कियां हैं, नौकरीपेशा महिलाएं और अन्य कामगार स्त्रियां हैं।
अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में जितने मेडिल हरियाणा की लड़कियों ने जीते, उतने मेडल शायद ही किसी भी अन्य राज्य की लड़कियों ने जीते हों। फिर कुश्ती जैसे खेलों में तो हरियाणवी लड़कियों का पूरा दबदबा है। हाल ही में संपन्न हुए ओलंपिक में भारत ने जो मैडल जीते, उनमें से एक विजेता, हरियाणा की साक्षी मलिक है, जिसने कुश्ती में ही मैडल जीता है। फिर बलाली बहनें हैं। बबिता फोगाट और विनेश फोगाट ने इस ओलंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था। हालांकि चोटिल होने की वजह से विनेश वैसा प्रदर्शन नहीं कर पायी जैसी कि उससे उम्मीद की जा रही थी। ये पांचों बहनें विभिन्न प्रतियोगितायों में नाम कमाने के बाद अब प्रो-रेसलिंग की विभिन्न टीमों में हैं। जिनका मुबाबला टीवी प्रसारण में देखने को मिला।
इन्हीं फोगाट बहनों और उनके पिता महावीर सिंह को लेकर आमिर खान अभिनीत बायोपिक फिल्म ”दंगल’’ आ रही है। एक अन्य बहुत सफल रही हिंदी फिल्म ”सुलतान’’ नायिका भी पहलवान है। इसका नायक पहलवान है और पहलवानी इस पहलवान लड़की के इश्क में पड़कर ही सीखता है। इस नायिका का पिता भी पहलवान है।
कुश्ती के क्षेत्र की अन्य प्रमुख महिलाओं में गीतिका जाखड़, पूजा ढांडा, निर्मला बूरा, कविता चहल, सुमन कुंडु आदि अनेक नाम शामिल हैं। पहले जहां मास्टर चंदगीराम की पुत्री प्रियंका कालीरमण जैसी एक आध महिला पहलवान का नाम सुनने में आता था, जिन्हें टी वी के रीयलिटी शो ”बिग बॉस’’ में देखने का मौका लोगों को मिला था, वहीं अब ऐसी खिलाडिय़ों की एक पूरी नयी फसल सामने आ रही है। ये सब लड़कियां बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से संबंध रखती हैं।
कुश्ती के अलावा दूसरे खेलों में भी हरियाणा की महिलाएं जोरशोर से आगे आ रही हैं। इनमें एथलिट निर्मला श्योराण तथा सीमा आंतिल, हाकी खिलाड़ी नवजीत कौर, दीपिका ठाकुर, मोनिका मलिक, पूनम मलिक, रानी रामपाल, सविता पूनिया, तैराक शिवानी कटारिया, थ्रो बाल खिलाड़ी ममता चौहान और शूटर अनिता देवी हैं। भारतीय हाकी टीम की कप्तान रही प्रीतम सिवाच हैं और ऐसे ही अनेक नाम हैं।
खिलाडिय़ों की तरह ही पर्वतारोही लड़कियों की भी एक नयी फसल सामने आ रही है। इनमें रेवाड़ी के गूजर माजरी गांव की रहनेवाली दो बहनें सुनीता सिंह चौकन और रेखासिंह चौकन शामिल हैं। सुनीता ने जहां एवरेस्ट फतेह की है, वहीं रेखा ने तंजानिया की सबसे ऊंची चोटी पर झंडा लहराया है। वे दोनों बहनें भी अत्यंत साधारण परिवार से हैं, जिनके पिता जौहरी सिंह बी एस एफ से रिटायर हुए हैं। पूर्व पीढ़ी की पर्वतारोही संतोष यादव भी इसी रेवाड़ी क्षेत्र की रहनेवाली है और उन्होंने भी एवरेस्ट फतेह किया था।
काफी पहले मशहूर कहानीकार तथा उपन्यासकार मत्रैयी पुष्पा ने हरियाणा के पुलिस ट्रेनिंग सेंटर मधुबन में रहकर वहां पुलिस की नौकरी में आयी कुछ साहसी बालिकाओं की सेक्सेस स्टोरियां लिखी थी। ऐसी हरियाणा की कितनी ही महिलाएं पुलिस की नौकरी करते हुए शांति, शक्ति तथा सुरक्षा की प्रतीक बनी हुयी हैं।
इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में, लेखन में और अभिनय और गायन में, टी वी की एंकरिंग में, पत्रकारिता में हरियाणवी महिला पूरी दृढ़ता के साथ आगे बढ़ रही हैं। ”न आना इस देश लाडो’’ की नायिका अम्माजी अर्थात मेघना मलिक हरियाणा की सोनीपत की रहने वाली और यही पली-बढ़ी हैं। यह वे क्षेत्र हैं जिनसे हरियाणा अभी तक अनजान माना जाता था। ऐसी महिलाओं का समय-समय पर मीडिया में जिक्र आता रहता है। ये सब ग्लैमर की दुनिया के बाहर के अचीवर्स हैं।
इनमें वे मेहनतकश महिलाएं भी शामिल हैं जो अकेले दम अपनी मेहनत से तमाम विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में अपने परिवारों को पाल रही हैं और अपने बच्चों को काबिल बना रही हैं। इन्हीं सबके चलते कहा जा सकता है कि हरियाणा की महिला के प्रोफाइल में जबरदस्त बदलाव आया है। अब वे घूंघट में सिर्फ घर तक सिमटी औरत नहीं है। अब वह अपनी मेहनत से और अपने बूते नए आयाम तलाश कर रही है।
परंपरागत छवियां लंबी अवधि में बनती हैं। लेकिन इन छवियों के समानांतर ही कुछ नयी छवियां भी बनती चलती हैं जो कालांतर में उनका स्थानापन्न बनती है। हरियाणवी महिला की हमेशा घूंघट में रहनेवाली परंपरागत छवि अभी हो सकती है, लेकिन उसके समानांतर उसकी नयी छवि बन रही है जो कालांतर में उसका स्थानापन्न होगी।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 93 से 98