हरियाणा में पंजाबी भाषा -डा. हरविन्द्र सिंह

भाषा विमर्श


‘पंजाबी’ शब्द से तात्पर्य पंजाब का निवासी होने से भी है और यह पंजाब-वासियों की भाषा भी है। पंजाब की यह उत्तम भाषा ‘गुरमुखी’ लिपि में लिखी जाती है।1 पंजाबी भाषा की वर्णमाला जो शारदा और टांकरी से निकली है इसमें गुरुओं के मुख-वाक्य गुरमुखों ने लिखे, जिस कारण नाम ‘गुरमुखी’ प्रसिद्ध हुआ। पंजाब प्रदेश की शुद्ध भाषा इन्हीं अक्षरों में लिखी जा सकती है। कई लेखकों ने लिखा है कि गुरमुखी अक्षर गुरु अंगद देव जी ने रचे हैं, परन्तु यह भूल है। श्री गुरु अंगद स्वामी ने सिर्फ प्रचार किया है। गुरु नानक देव जी की लिखी वाणी ‘पट्टी’ जो राग आसा में है, उसके पाठ से यह संशय दूर हो जाता है कि पैंतीस अक्षरों की वर्णमाला उस समय मौजूद थी और ‘ड़ाड़ा’ अक्षर, जो बिना पंजाबी के और किसी भाषा में नहीं (उस समय तक), ‘पट्टी’ में दिखाई पड़ता है।

जब हम शारदा व टांकरी के अक्षरों से गुरमुखी के अक्षर मिलाते हैं, तो बहुत सी शक्लें आपस में मिलती हैं। गुरमुखी अक्षर समयानुसार अपना स्वरूप बदलते रहे हैं।2

कुछ विद्वान इस मत से अवश्य अपनी सहमति व्यक्त करते हैं कि पैंतीस अक्षरों (पैंती अक्खरी-पंजाबी वर्णमाला का पंजाबी नाम) का वर्तमान क्रम जरूर गुरु अंगद देव जी की देन है। यह एक आम धारणा है कि गुरमुखी लिपि का निर्माण गुरु अंगद देव जी ने किया। श्रद्धालुओं/अनुयायियों का विचार यह भी है कि गुरु के पावन मुख से निकली होने की वजह से इसका नाम गुरमुखी पड़ा। यह एक अटल सच्चाई है कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब को गुरमुखी लिपि में ही लिखित स्वरूप दिया गया है। परन्तु श्री गुुरु ग्रंथ साहिब की समस्त वाणी को पंजाबी मानना तथ्यों से मुंह मोड़ना होगा। इस महान ग्रंथ में पंजाबी के साथ-साथ अनेकों और भारतीय आर्यन भाषाओं के साहित्य को भी संग्रहित किया गया है। लिपि में सुधार कर इसको पावन गुरुवाणी और गुरुमत साहित्य के योग्य बनाने में श्री गुरु अंगद देव जी के योगदान की भरपूर प्रशंसा करनी बनती हैै।

अनेक विद्वानों के शोध ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुरमुखी लिपि गुरुओं से पहले मौजूद थी। इसके अनेक अक्षर गुरुकाल से पहले ही निश्चित स्वरूप ग्रहण कर चुके थे। वाणी तो अवश्य किसी महान् व्यक्ति के मुख से उच्चरित होती है, परन्तु लिखित माध्यमों-लिपि चिन्हों-के संबंध में ऐसा नहीं होता। लिपि मुख से नहीं निकलती। इसलिए ऐसा मानना कि गुरुमुख से निकली होने के कारण इस लिपि का नाम गुरमुखी है, उचित नहीं। गुरमुख व्यक्तियों ने गुरुमत साहित्य को लिखित स्वरूप देने के लिए जिस लिपि का प्रयोग किया, उसका नाम गुरमुखी पड़ गया, यह तर्क सार्थक लगता है।3

गुरमुखी, शाहमुखी और देवनागरी लिपि में लिखी जा रही इन्डो-आर्यन भाषा परिवार से संबंधित पंजाबी भाषा को भारतीय पंजाब, देश के अन्य क्षेत्रों, पाकिस्तान के निवासियों और अन्य बहुत सारे देशों में रह रहे लोगों ने अपनी बोल-चाल की भाषा में स्वीकृत किया है। लगभग चौदह करोड़ लोगों की यह भाषा विश्व में बारहवें स्थान पर है। पाकिस्तान में पंजाबी बोलने वालों की संख्या 6 करोड़ से ऊपर (कुल आबादी का 44.15 प्रतिशत) है। भारत में तीन करोड़ से ज्यादा लोग पंजाबी बोलते हैं। लाहौर और अमृतसर के क्षेत्रों में बोली जाती माझी उपभाषा को माणक पंजाबी भाषा का दर्जा हासिल है।पोठोहारी, झांगी, पहाड़ी, शाहपुरी, हिंदकी, मलवई, दोआबी, पुआधी, डोगरी, मुलतानी/सरायकी, धानी इत्यादि पंजाबी की और उपभाषाएं हैं। वर्तमान में भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ इंग्लैंड, कनाडा, यूएई, अमेरिका, सऊदी अरब, हांगकांग, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, म्यांमार, फ्रांस, इटली, थाईलैंड, जापान, मॉरीशस, सिंगापुर,  ओमान, लीबिया, बहरीन, कीनिया, आस्ट्रेलिया, तनजानिया, कुवैत व जर्मनी समेत लगभग पच्चीस देशों में इस भाषा को बोला जा रहा है। इन देशों में इस भाषा के प्रफुल्लित होने का मुख्य कारण पंजाबियों द्वारा वहां के बहुराष्ट्रीय सभ्याचारों के साथ सकारात्मक संवाद सृजत करना है। उन देशों में पंजाबी भाषा को ज्ञान-विज्ञान और बाज़ार की आवश्यकतानुसार प्रयुक्त किए जाने के सार्थक प्रयास हुए हैं। बहुत सारे देशों में पंजाबी भाषा के अध्ययन-अध्यापन के विशेष प्रबंध भी किए गए हैं। इस भाषा के बारे में शोध संबंधी परियोजनाएं भी बहुत से देशों में क्रियान्वित की गई हैं।

भारत में इस भाषा की दशा व दिशा संतोषजनक नहीं है। देश-विभाजन के उपरान्त पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब में खींची गई विभाजन रेखा ने इस भाषा के विकास-रुख को उलट मोड़ देने में भूमिका अदा की है।

पंजाब और चंडीगढ़ में इसको प्रशासनिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। यहां इसकी लिपि गुरमुखी है। दिल्ली में पंजाबी प्रशासनिक दर्जे वाली भाषाओं में एक है। हरियाणा में भी पिछले कुछ अर्से से पंजाबी को राज्य की दूसरी भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। हरियाणा में बहुत सारे पंजाबी इसे लिखते वक्त गुरमुखी के स्थान पर देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं, परन्तु इसे शैक्षणिक/शैक्षिक क्षेत्रों में स्वीकार्यता हासिल नहीं है।

भाषायी विभाजन के आधार पर भारतीय पंजाब को जब (1 नवम्बर 1966) तीन प्रांतों पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के रूप में अलग-अलग कर दिया गया, तो हरियाणा में इस भाषा की तस्वीर का रंग और भी बेरंग हो गया। हरियाणा के विशेष संदर्भ में बात करते हुए इस तथ्य की ओर ध्यान देना और भी जरूरी बन जाता है कि हरियाणा में पंजाबी भाषी होना और पंजाबी बिरादरी/भाईचारे से संबंधित होना, मूलत: भिन्न पहलू हैं। भाई काहन सिंह नाभा की  पंजाबी के बारे में यहां शुरू में दर्ज परिभाषा इस संदर्भ विशेष में खरी नहीं उतरती। पाकिस्तान की धरती से दर-बदर होकर हरियाणा में आकर बसे पंजाबी भाईचारे को यहां की स्थानीय मानसिकता ने कभी भी स्वीकृत नहीं किया, बल्कि इस बिरादरी के प्रति विशेष दूरी बनाए रखते हुए बेगानगी का व्यवहार भी अपनाए रखा है। यह बिरादरी भी अहीर, अरोड़ा, बणिया, भाटिया, ब्राह्मण, महाशा, गुज्जर, कलाल, खाति (तरखान), आहलूवालिया, कम्बोज, खत्री, लबाणा, जट्ट, राजपूत, सैणी, सूद इत्यादि बिरादरियों में बंटी हुई है। इनसे आगे और भी उप दर्जे-बन्दियां विद्यमान हैं।

पंजाबी भाषी और पंजाबी बिरादरी के साथ भावुक रूप से जुड़े वह लोग जो पंजाबी जुबान और पंजाबी साहित्य के प्रति समर्पित हैं। उनका व्यवहार भी हरियाणवी जीवन-शैली, हरियाणवी संस्कृति और हरियाणा में बस रहे अन्य लोगों के मानसिक अन्त: द्वंद्धों/अन्त: विरोधों और संबंधों के प्रति उदासीन ही रहा है। दोनों पक्षों की एक-दूसरे के प्रति उदासीनता ने हरियाणा में बहु-सभ्याचारों के आपसी संवाद के हालात पैदा ही नहीं होने दिए। सिक्ख पंजाबी, नामधारी सिक्ख, हिन्दू पंजाबी, रिफ्यूजी/शरणार्थी या पाकिस्तानी के लक़ब से संबोधित किए जाने वाले यह पंजाबी अलग-अलग दायरों में बंटे/सिमटे हुए हैं। इनके सामने बुनियादी संकट अपनी आत्म-पहचान का है। यह अपने-अपने धार्मिक दायरों में सिमटे रहने, पंजाबियत की मुख्यधारा के संकल्प के साथ जुड़े रहने या किसी सांझा हरियाणवी पंजाबी-शैली को सृजत करने जैसे अन्त: द्वंद्वों का शिकार  यह पंजाबी खण्डित मानसिकता के  संताप को भोग रहे हैं।

तथ्यों का तथ्य यह भी है कि हरियाणा की धरा पर रचा जा रहा पंजाबी साहित्य पंजाबियत की मुख्यधारा के प्रति तो हल्की सी सहमति व्यक्त करता प्रतीत होता है, परन्तु इसमें से हरियाणवी मिट्टी की महक वाला सार/वस्तु मूलत: गायब है। हरियाणा अंदर रचे जा रहे साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य मानने वाली पंजाबी साहित्य की मुख्यधारा ने भी इसे नज़रअंदाज किया हुआ है।

हरियाणा पंजाबी साहित्य की स्थापना हुई है, पंजाबी में अकादमी ने ‘शब्द बूंद’ नाम की मासिक पत्रिका शुरू की है और राज्य में पंजाबी को दूसरी भाषा का दर्जा भी हासिल है, परन्तु इसका हरियाणा में पंजाबी भाषा की स्थिति, इसके अध्ययन-अध्यापन पर कोई जादूई प्रभाव पड़ा हो, ऐसे कोई प्रमाण सामने नहीं आ पा रहा है। कुछ एक साहित्यकारों को इसका प्रतिफल अवश्य मिला है। सभी सम्मानित साहित्यकारों के बारे में कोई अति सरलीकृत राय तो नहीं बनाई जा सकती, परन्तु यह जरूर कहा जा सकता है कि यदि पहले कुछ नामवर साहित्यकार नजरअंदाज होते  जा रहे हैं, तो अब कुछ एक अनाधिकृत भी इन सम्मानों पर अधिकार जताते हुए देखे जा सकते हैं।

हरियाणा में रचित पंजाबी साहित्य अपनी भिन्न एवं विलक्षण हरियाणवी पहचान बनाने में असमर्थ रहा है। हरियाणा का पंजाबी साहित्यकार स्थानीय हरियाणवी सरोकारों के प्रति उदासीन रहा है। वह हिन्दी, उर्दू या हरियाणा प्रांत के और भाषाओं के साहित्यकारों से संवाद सृजित किए जाने के प्रति सचेत नहीं हो पाया।

शैक्षणिक क्षेत्रों में भी पंजाबी शिक्षकों को ऐसे ही खतरों एवं चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। शिक्षक को हर समय उसकी नौकरी खतरे में होने का डर ही बना हुआ हो तो उसके लिए अध्यापन एवं चिंतन जैसे मुद्दों का गौण हो जाना स्वाभाविक जान पड़ता है। सकारात्मक सुखद शैक्षणिक वातावरण का निर्माण न हो सकना, आवश्यक साधनों/संसाधनों की अल्पज्ञता, पाठ्य-पुस्तकों एवं उच्च स्तरीय समीक्षात्मक ग्रंथों की कमी भी अध्ययन एवं अध्यापन के रास्ते में बड़ी बाधा है।

हरियाणा के अधिकांश विद्यालयों में पंजाबी विषय की पढ़ाई का विशेष प्रबंध नहीं है। यही मुख्य वजह है कि घरेलू पंजाबी पृष्ठभूमि का विद्यार्थी भी महाविद्यालय में आकर भी पंजाबी भाषा को हिन्दी के जरिए ही सीखने का प्रयास करता है। यह परिस्थितियां अत्यंत शोचनीय व दयनीय हैं। उसकी बोली, उसकी शैली, उसके उच्चारण का खण्डित होना स्वाभाविक है। पंजाबी भाषा या पंजाबी साहित्य के प्रति ऐसे विद्यार्थी का व्यवहार सहज नहीं हो सकता।

हरियाणा के कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अलावा किसी और विश्वविद्यालय मेें पंजाबी विभाग ही नहीं है। दो सौ से भी अधिक निजी/सरकारी सहायता प्राप्त/अद्र्धसरकारी/सरकारी महाविद्यालयों में  पंजाबी विषय नहीं पढ़ाया जाता। प्राथमिक/मिडल/उच्च/हायर सैकेण्डरी विद्यालयों में भी बहुत कम में पंजाबी विषय के अध्यापन का प्रबंध है।

हरियाणा मेंं पंजाबी अध्ययन-अध्यापन की एक बड़ी समस्या/चुनौती यह भी है कि एक ही कक्षा में अलग-अलग भाषायी/उपभाषायी व अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थी मौजूद रहते हैं। जो शब्द-जोड़ों के वास्तविक पंजाबी सार-तत्व को समझने से असमर्थ होते हैं। उदाहरण के तौर पर ‘संग-संघ’ शब्द समूह का जिक्र किया जा सकता है। पंजाबी पृष्ठभूमि वाला विद्यार्थी इसके अर्थ ‘शर्म-गला’ के रूप में करेगा और गैर-पंजाबी पृष्ठभूमि वाला इनको ‘गैल-गैल जाना व यूनियन या संगठन’ के रूप में ग्रहण करेगा।

पंजाबी भाषा को अन्य विषयों की पढ़ाई का माध्यम बनाए जाने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। विज्ञान, तकनीक, दर्शन, सूचना प्रोद्योगिकी, मैडिकल, इंजीनियरिंग, स्पोर्टस इत्यादि की पढ़ाई का इस भाषा में कोई प्रबंध नहीं है। बाज़ार या मंडी की आवश्यकताओं से भी इसको जोड़ा नहीं गया है। किसी भी भाषायी प्रबंध को जिन्दा रखने के लिए ऐसे प्रयास अनिवार्य हैं।

हरियाणा में पंजाबी भाषा के विकास के लिए सरकारी संरक्षण की सख्त अनिवार्यता है।  इसके लिए सभी पंजाबियों को और कौमियतों/बिरादरियों/भाईचारों/अन्य भाषाओं के साहित्यकारों/चिंतकों/बुद्धिजीवियों के साथ जुड़कर सार्थक संवाद का सृजन करते हुए बहु-कौमी सांझा सभ्याचार निर्मित करने के लिए ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। इससे अन्य भाषाओं की समृद्धि व विकास के रास्ते भी खुलेंगे और सुखद परिस्थितियां निर्मित होंगी और ऐसे में ही पंजाबी भाषा हेतु सुखद वातावरण का सृजन संभव हो सकेगा। स्वस्थ और सचेत कोशिशों से ही हरियाणा में पंजाबी भाषा से जुड़े प्रश्नों के स्थायी समाधानों की तलाश की जा सकेगी।

संदर्भ :

  1. भाई काहन सिंह नाभा कृत महान कोश, पृ. 793
  2. वही, पृ. 418-419
  3. डा. एस.एस. जोशी, ‘गुरमुखी लिपि अते पंजाबी भाषा’, खोज पत्रिका, अंक 56, सितम्बर 2002

 
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 87-88

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