हरियाणा में  दलित दशा, उत्पीड़न व प्रतिरोध – डा. सुभाष चंद्र

सामाजिक न्याय


पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा में दलित उत्पीड़न के जघन्य कांड हुए हैं जिस कारण हरियाणा का समाज राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय रहा है। हरियाणा का समाज तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। दलित उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं तो दलित वर्ग की ओर से तीखा प्रतिरोध भी हो रहा है। परंपरागत उत्पादन व सामाजिक संबंधों में बदलाव आ रहा है। दलित उत्पीड़न के मुद्दे, स्परूप व चरित्र और प्रतिरोध  के माध्यम से इस परिदृश्य को समझा जा सकता है।

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भारत में तीन हजार से अधिक जातियां है। सामाजिक दर्जे पर सबसे निम्न स्थान पर स्थित 779 जातियों को भारतीय संविधान की धारा 341 के अनुसार अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखा गया है। हरियाणा में 37 जातियों को इस श्रेणी में स्थान दिया गया है।

1 आदि धर्मी  2 बाल्मीकि, चुड़ा, भंगी  3 बंगाली 4 बराड़, बुराड़, बेराड़  5 बटवाल  6 बौरिया, बावरिया 7 बाजीगर  8 भांजड़ा 9 चमार, जटिया चमार, रेहगर, रैगर, रामदासी, रविदासी, बलाही, बटोई, भटोई, भांबी, चमार-रोहीदास, जाटव, जाटवा, मोची, रामदासिया  10 चनाल 11दागी  12 दराईं  13 ढेहा, ढाया, ढेह  14 धानक  15 ढोगड़ी, ढांगड़ी, सिग्गी  16 डुमना, महाश्य, डूम  17 गगड़ा 18 गंधीला, गंधील, गोंडोला  19 कबीरपंथी, जुलाहा  20 खटीक  21 कोरी, कोली  22 मारीजा, मरेछा  23 मजहबी, मजहबी सिक्ख,  24 मेघ  25 नट, बादी 26 ओड 27 पासी 28 पेरणा 29 फड़ेड़ा  30 सांहाई  31 सांहल  32 सांसी, भेड़कूट, मनेश, 33 सांसोई 34 सपेला, सपेरा  35 सरेड़ा 36 सिकलीगर, बडिय़ा 37 सिरकीबंद

2011 की जनगणना के अनुसार हरियाणा की अनुसूचित जातियों की जनसंख्या हरियाणा की जनसंख्या का  20.5  प्रतिशत है। पंजाब के साथ लगते जिलों में अनुसूचित जातियों की संख्या का प्रतिशत सबसे अधिक है। हरियाणा के फतेहाबाद जिले की कुल जनसंख्या का लगभग 27 प्रतिशत अनुसूचित जातियों से है, इसके बाद सिरसा जिले की कुल जनसंख्या का 26 प्रतिशत भाग व अंबाला जिले की 25 प्रतिशत भाग अनुसूचित जाति से संबंधित है।

अनुसूचित जातियों में चमार जाति की जनसंख्या सबसे अधिक है। अनुसूचित जातियों की कुल जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत अकेली चमार जाति से है। इसके बाद 20 प्रतिशत बाल्मीकि जाति  तथा 12 प्रतिशत धानक जाति की संख्या है। अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या का 82 प्रतिशत भाग तो इन तीन जातियों से है, शेष 18 प्रतिशत अन्य जातियों से है।

चुनाव-प्रणाली में संख्या का महत्त्व है, विशेष तौर पर राजनीतिक शक्ति हासिल करने में। सत्ता व शक्ति की दृष्टि से विशेषत: राजनीतिक तौर पर ये तीन जातियां ही शक्तिशाली हैं। अनुसूचित जातियों में इन्हीं की चर्चा होती है, वर्चस्वी शक्तियों की टकराहट व संघर्ष भी मुख्यत: इन्हीं के साथ है। उत्पीड़न के मामले भी अक्सर इन्हीं के साथ होते हैं, जिसकी जड़ में इनकी हो रही बेहतर स्थिति है, जो परम्परागत तौर पर शक्तिशाली वर्गों को कतई स्वीकार नहीं है।

दलित समुदाय एकरूप व एक पहचान वाला समुदाय नहीं है। उसमें कोई समानता है तो सिर्फ यही कि वर्चस्वी शक्तियां उनको अछूत व निम्न मानती हैं। समूचे दलित समुदाय की कोई अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं, बल्कि वह स्थानीय वर्चस्वी सांस्कृतिक मूल्यों से ही परिचालित होता है।

आधुनिक समाज में शिक्षा की विशेष भूमिका है, क्योंकि शिक्षा हासिल करके परम्परागत पेशों को बलने की संभावना बनती है। डा. भीमराव आम्बेडकर के आन्दोलनों का हरियाणा के दलितों पर भी पड़ा। उन्होंने भी शिक्षा को प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि दलित समाज की शिक्षा में भागीदारी अपेक्षाकृत कम है,  लेकिन शिक्षा प्राप्त करने की ललक सबसे अधिक है। शिक्षा की ओर बढ़ता रूझान आशाजनक है।

दलित जातियों के विद्यार्थी बड़े उत्साह से स्कूलों में प्रवेश लेते हैं, लेकिन अपनी घरेलू परिस्थितियों के कारण स्कूल छोड़ देते हैं। डॅ्राप आउट में साधनहीन गरीब अनुसूचित जाति के बच्चों का बाहुल्य होता है।

आरक्षण की व्यवस्था ने दलितों के एक हिस्से को लाभ पहुंचाया है, जिसकी वजह से दलितों में मध्यवर्ग पनपा है।  यद्यपि जातिगत पक्षपात की मानसिकता के कारण दलितों को आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिलता। आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं सरकारें उनको घोषित करती हैं, लेकिन भर्ती नहीं करती। कुछ स्थान तो ऐसे हैं जहां आरक्षण की व्यवस्था पूरी तरह से लागू नहीं है।

वर्ण-व्यवस्था में दलितों को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया और सम्पति, ज्ञान व सत्ता के अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इसलिए अधिकांश जनसंख्या के पास सम्पति के नाम पर कुछ नहीं है। दलितों के बहुत छोटे हिस्से के पास जमीन है, अधिकांश दलित कृषि श्रमिक हैं। खेतीहर मजदूरों की स्थिति काफी कुछ खेती पर निर्भर करती है, खेती के स्वरूप में भारी बदलाव हुए हैं, किसान और मजदूर के संबंधों में बदलाव आया है। खेती का अधिकतर काम मशीन से करने के कारण मजदूरों को साल में केवल 60 से 70 दिन तक ही काम मिलता है, शेष दिनों में खाली जैसा है। खेती के परम्परागत स्वरूप में दलित जातियों का रोजगार अधिकांश सहायक का था, लेकिन तकनीक के विकास ने उनको अप्रासंगिक बना दिया है।

दलितों को शैक्षिक-सामाजिक दृष्टि से पिछड़े होने तथा भू-स्वामियों पर आर्थिक निर्भरता के कारण सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक उत्पीड़न सहन करना पड़ता है। यदि वे कथित ‘मर्यादा’ ‘परम्परा’ का त्यागकर बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा करते हैं तो उनको वर्चस्वी समाज जाति के नाम पर गाली देकर, सार्वजनिक रास्ते रोक कर, परम्परागत पेशों-धन्धों से इनकार करने पर पीट कर, अन्तरजातीय विवाह आदि के कारण अत्याचार करते हैं।

डा. भीमराव आम्बेडकर ने समाज में घटित दलित उत्पीड़न की घटनाओं का ब्यौरा प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के अम्बाला जिले की दुखेड़ी की घटना को भी शामिल किया, जो दलित उत्पीड़न की ‘परम्परा’ की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।

हरियाणा में पिछले कुछ वर्षों से दलितों पर अत्याचार एवं उत्पीड़न की घटनाओं में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। इस उत्पीड़न की जड़ में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कारण हैं। हरियाणा में दलित उत्पीड़न की दिल दहला देने वाली घटनाएं घटित हुई हैं। जिन मामलों ने समाज को हिलाकर रख दिया उनकी ओर संकेत करना यहां उचित होगा।

  • झज्जर जिले के रतनथल गांव में दो दलित लड़कियों के साथ बलात्कार के बाद हत्या करके खेत में फेंक दिया गया। दलित परिवारों को सवर्णों ने चुप रहने के लिए इतना आंतकित कर दिया कि उन्हें मजबूरन चुप्पी साधनी पड़ी।
  • 20 मई 1995 को जीन्द जिले के पड़ाना गांव में दलित लड़की के साथ बदले की कार्रवाई के तौर पर दिन दहाड़े सामूहिक बलात्कार किया गया। इस लड़की का ‘दोष’ यह था कि वह उस बालिग दलित भाई की बहन थी, जिसने और सवर्ण जाति की लड़की ने अपनी इच्छा से विवाह था।
  • जुलाई 2002 में झज्जर जिले के तलाव गांव में सवर्ण जाति की लड़की ने गांव से भागकर दलित जाति के लड़के से अपनी मर्जी से विवाह कर लिया। बाद में लड़की को वापस गांव में लाकर हत्या कर दी गई तथा केस में दलितों को फंसाया गया। इससे परेशान होकर एक दलित महिला व पुरुष ने आत्महत्या कर ली और कइयों को गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
  • 15 अक्तूबर, 2002 को झज्जर जिले में दुलीना पुलिस चौकी के पास पांच दलितों की पीट पीट कर हत्या कर दी थी। इन पर आरोप लगाया कि ये गौ-हत्या में शामिल थे। इनको भीड़ ने पुलिस चौंकी दुलीना में पुलिस हिरासत से निकाल कर मारा।
  • कैथल जिले के हरसौला गांव में 10 फरवरी, 2003 को 270 दलित परिवारों को पीट-पीट कर गांव से खदेड़ दिया। 6 फरवरी को दलित भजन गा रहे थे। उच्च जाति के लड़कों ने बाधा डालने की कोशिश की। दलितों ने उसे भगा दिया तो उच्च जाति के लड़के लाठियों के साथ आए।  10 फरवरी को गांव के उच्च जाति के लोगों ने दलितों की बस्ती पर हमला बोल दिया और दलितों की महिलाओं, बच्चों व बुजुर्गों समेत पीट-पीटकर गांव से खदेड़ दिया। जान बचाने के लिए लोग कई मील तक पैदल भागते हुए आए और कैथल शहर में आकर शरण ली।
  • सोनीपत जिले के गोहाना कस्बे में दलितों की बस्ती फूंक दी गई, जिसमें पूरी बस्ती जलकर खाक हो गई और दलितों के घर में घुसकर तोड़-फोड़ की गई।
  • करनाल जिले के महमूदपुर गांव में संत रविदास प्रतिमा का जूलुस निकालने पर दलितों को पीटा तथा गांव से भगा दिया।
  • भिवानी जिले के लुहारी जाटू गांव में दलित दुल्हे के घोड़ी पर चढऩे के कारण दलितों को बुरी तरह से पीटा गया।
  • रोहतक जिले के पहरावर गांव के सरपंच कर्ण सिंह का अपहरण कर लिया गया। गांव का एक धड़ा सरपंच पर 20 एकड़ शामलात जमीन एक संस्था को दान में देने के लिए दबाव डाल रहा था, तो दूसरा न देने के लिए।
  • रोहतक जिले के गांधरा गांव में दलित महिला सरपंच को बालों से पकड़कर गली में घसीटा व पीटा गया। गांव के दो वर्चस्वी जातियों के गुटों में एक का पक्ष लेने के लिए उसे शिकार बनाया गया।
  • महम के नजदीक खरकड़ा गांव में दलित महिला को पिस्तौल की नोक पर अगवा करके बलात्कार किया। उसके परिवार को समझौता करने को मजबूर किया गया और दोषी के विरूद्ध कोई मुकद्दमा दर्ज नहीं हुआ।
  • मार्च 2006, रोहतक जिले के फरमाणा गांव में प्रवेश करने से रोकने के लिए दलित बस्ती के चारों ओर दीवार खड़ी कर दी।
  • मार्च 2010 में भिवानी जिले के लढ़ाणी गांव में गांव में प्रवेश पर विवाद हुआ। जिसमें उच्च जाति का एक व्यक्ति मारा गया। 150 दलित परिवार गांव से पलायन करने के लिए मजबूर हुए।
  • अप्रैल 2010 में हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में 18 दलितों के घरों को जला दिया। 18 साल की शारीरिक रूप से अपंग युवती व उसके पिता को जिंदा जला दिया गया।
  • मार्च 2012 में पंचकुला जिले के बतौड़ गांव में ग्राम पंचायत के राजस्व में हेरा फेरी का विरोध करने पर दलितों पर हमला किया गया।
  • अप्रैल 2013 में कैथल जिले के पबनावा गांव में दलित लड़के व उच्च जाति की लड़की के अपनी इच्छा से विवाह करने पर दलित बस्ती पर हमला।
  • फरवरी 2015 में हिसार जिले के गांव दौलतपुर में घड़े से पानी पीने पर दलित युवक का हाथ काट दिया।
  • कुरुक्षेत्र जिले के भुस्तला गांव में दलित जाति के लड़के की घुड़चढ़ी निकालने पर हमला।

दलित उत्पीड़न की घटनाओं की लम्बी सूची है, जिसके भिन्न भिन्न कारण हैं।  इन घटनाओं में निरंतर बढौतरी हो रही है। यद्यपि मुख्यधारा की पार्टियों के दलित नेता इन मामलों को उठाने में अपनी पहचान नहीं बना पाये, क्योंकि सत्ता में भागीदारी के लिए ये वर्चस्वी लोगों पर ही निर्भर हैँ। इसीलिए दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर स्थानीय व उच्च स्तर का नेतृत्व या तो मूकदर्शक बना रहता है या फिर समझौतावादी रुख के साथ उत्पीड़कों के साथ ही होता है। लेकिन यह रेखांकित करने की बात है कि कुछ मामलों में दलितों ने राजनीतिक व कानूनी तौर पर जिस तरह अपनी लड़ाई लड़ी उससे यही साबित होता है कि वे शोषण व उत्पीड़न को सहन नहीं करेंगे।

दलित समाज पर उत्पीड़न में बढ़ोतरी के कारण केवल सांस्कृतिक परंपराओं में नहीं, बल्कि समाजार्थिकता में हैं। जिस पर एक नजर डालना अप्रासंगिक नहीं होगा।

खेती के कारोबार में दलित जातियों की विशेष भूमिका थी। जजमानी प्रथा में  दस्तकारों व श्रमिकों को कितने ही काम उसको बेगार में करने पड़ते थे। जजमानी प्रथा में किसान-जमींदार की खेती में सहायक दस्तकार, कारीगर व श्रमिक तक बंटे हुए थे। यद्यपि मालिक व नौकर दोनों को अपनी पसंद का मालिक व नौकर नहीं मिलता था, लेकिन परस्पर निर्भरता की स्थितियों में दोनों एक-दूसरे की जरूरत भी थे। बेशक रिश्ते बराबरी के नहीं थे, इनमें मालिक और नौकर के संबंधों की गूंज थी, पर घृणा व नफरत यहां नहीं थी। श्रम का शोषण करने के लिए ऊंच-नीच के संबंध जरूर थे।

उत्पादन की नई तकनीक ने परस्पर निर्भरता को कम किया तथा श्रम के लिए एक विस्तृत बाजार खुला, जिसने भू-स्वामी व दलित-श्रमिक के संबंधों को बदला। श्रम के खुले बाजार ने श्रमिक की मोल-भाव की क्षमता व श्रम की स्वतन्त्रता को बढ़ावा दिया। नई परिस्थितियों को जितनी तेजी से दलित-श्रमिक ने ग्रहण किया, भू-स्वामी वर्ग ने नहीं किया, उसकी नजर में दलित-श्रमिक अभी भी सामाजिक दृष्टि से हेय तथा आर्थिक तौर पर उसका बंधुआ व उसकी नीति-नियमों का अनुपालन करने वाला था। भू-स्वामी वर्ग की सामन्ती सोच तथा दलित-श्रमिक में उत्पन्न मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता व बराबरी की इच्छा ही दलित-उत्पीड़न का कारण बनी। दलित-श्रमिकों द्वारा अपनी मजदूरी बढ़ाने या परम्परागत कार्य करने से इन्कार करने के फलस्वरूप भू-स्वामियों द्वारा उन्हें खेतों में न घुसने देना, पशुओं के लिए चारा न लेने देना, मजदूरी पर न बुलाना आदि कार्रवाइयों में दलित-उत्पीड़न दिखाई दिया।

खेत मजदूर अपनी मेहनत का उचित दाम मांगने लगे, जिससे किसानों और खेत मजदूरों के बीच सम्बन्धों में वैमनस्य बढ़ा। भूमि विवाद, वित्तीय लेनदेन पर विवाद, काम करवाने के बाद मजदूरी न देना, जबरदस्ती काम करवाना, अनुसूचित जाति के व्यक्ति की फसल लूटना या नष्ट करना, घास काटने पर मार पीट करके अपमानित करना आदि ऐसे कार्य कारण हैं, जिन पर दलितों को उत्पीड़न सहन करना पड़ता है।  मजदूरों में बराबरी के व्यवहार की चाह ने परम्परागत आचार संहिता पर प्रश्नचिन्ह लगाना शुरू किया।

‘सामाजिक परम्परा व मर्यादा’ के उल्लघंन के नाम पर कमजोरों को प्रताडि़त करना असल में पनप रहे नए संबंधों की ओर संकेत करता है, जो वर्चस्वी शक्तियों को स्वीकार नहीं है। सामाजिक बहिष्कार व बंदी जैसी सामूहिक सजा देना इसी का एक रूप था।

उत्पीड़न के मुद्दे बदले हैं तो उसके तौर-तरीके भी बदले हैं। अब खेतों में दलितों पर बंदी या बहिष्कार जैसे कदम कभी-कभार ही सुनने में आते हैं, क्योंकि इनसे अब उनको विवश नहीं किया जा सकता। दलित पूर्णत: भू-स्वामी पर निर्भर नहीं हैं, उन्होंने वैकल्पिक धंधे की तलाश कर ली है।

दलितों की सत्ता में हिस्सेदारी व स्वतंत्र निर्णय भू-स्वामी वर्ग को रास नहीं आता। राजनीतिक शक्ति हासिल करने तथा इसे प्रयोग करने में संघर्ष स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। चुनाव प्रणाली में राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए वोटों का बहुत महत्त्व है। दलितों की वोट प्राप्त करने के लिए उनको डराना-धमकाना, धन का लालच देकर वोट खरीद लेना, उनको वोट न डालने देना या किसी विशेष राजनीतिक पार्टी को वोट डालने के लिए मजबूर कर���ा, सवैंधानिक शक्तियों को प्रयोग न करने देने के लिए उन पर अत्याचार किया जाता है।

उच्च जाति की लड़कियों द्वारा दलित जाति के लड़कों से अपनी इच्छा से विवाह करने पर दलित लड़कों की हत्या तक की जा चुकी है। गौर करने की बात है कि सवर्ण जाति के लोग इस पर गर्व करते हैं व हत्यारों को सम्मानित करते हैं।

स्वयंभू पंचायतों का चरित्र  दलित-विरोधी है। ‘गांव की मर्यादा’ का मतलब यहां वर्चस्वी लोगों की दाब-धांैंस कायम रहने से है, ‘गांव की इज्जत’ का मतलब वर्चस्वी लोगों के अहं की तुष्टि से है। ‘गांव की इज्जत’, ‘मर्यादा की रक्षा’, ‘परम्परा का सम्मान’ का मतलब यहां चली आ रहे रिवाजों-प्रथाओं की अनुपालना है। ‘सम्मान’, ‘इज्जत’, व ‘मर्यादा’ की इस परम्परागत अवधारणा में दलितों को वर्चस्वी लोगों के आदेशों को मानना तथा अपने अपमान को ही स्वाभिमान समझना आदि गैर-बराबरी की अनेक प्रणालियां  व संरचनाएं शामिल हैं।

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जब कोई दलित मानवीय गरिमा हासिल करने के लिए संघर्ष करता है तो ‘गांव की मर्यादा’ के रक्षकों की भुजाएं फड़कने लगती हैं और ‘मर्यादा’ का दलित विरोधी चेहरा स्पष्ट तौर पर प्रकट हो जाता  है। अनेक ऐसे मामले हो चुके हैं, जिनमें दलितों को सरेआम अपमानित किया जा चुका है। दलित-उत्पीड़न के संगीन अपराधों में शामिल लोगों को जाति-पंचायतें सम्मानित करती हैं व उनके बचाव पक्ष में आती हैं। झज्जर जिले के दुलीना में पांच दलितों की पीट पीट कर हत्या करने वाले अपराधियों को बचाने के लिए बड़ी बड़ी पंचायतों का आयोजन किया, जो सामाजिक न्याय की आवाज उठाने वालों को एक चेतावनी देने की भाषा में बात करती थी। फरवरी, 2005 में सोनीपत जिले के गोहाना कस्बे में दलितों की बस्ती जलाने वाले अपराधियों को बचाने के लिए भी जाति विशेष की महा पंचायतें आयोजित की गईं, तथा अपराधियों को बचाने के लिए राजनीतिक दबाव बनाया गया।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 70 से  72

 

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2 thoughts on “हरियाणा में  दलित दशा, उत्पीड़न व प्रतिरोध – डा. सुभाष चंद्र

  1. Aap ne jo bhi likha hai …..Us mea 80% JUTH hai ….Ye main es liye nhi kah rha ki main kisi visesh Jati se hu ….Balki sach Ye hai ki GENERAL cast pe juthe FIR karvai jatii hai Dalit Utpidan k naam par ……Or fir aap jaise log aa jate hai Baat ko fer badal kar k likhne ……jo Ghatna aap ne batai un mea se jyada tar Media ki Help se banai gai hai …jin mea Mamla kuchh or hota hai or Dikhaya kuchh or jata hai ….

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