सामाजिक न्याय
अपने निर्माण के पचास वर्षों के दौरान हरियाणा राज्य का तीव्र आर्थिक विकास हुआ है। विकास के माप हेतु निर्मित सूचकांक के विभिन्न सूचकों को इस राज्य के संदर्भ में देख कर हम खुश हो सकते हैं, लेकिन ठीक इसी समय राज्य के लैंगिक विकास सूचकांक, लैंगिक समानता सूचकांक के विभिन्न सूचकों को देखकर हमारी सारी खुशी समाप्त हो जाती है।
सातवें दशक के अंतिम तथा आठवें दशक के शुरूआती वर्षों में हरियाणवी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व्यवस्था में कई स्तरों पर तेजी से बदलाव हुए। इन बदलावों से महिलाएं भी अछूती नहीं रही। कई मामलों में यह बदलाव महिलाओं के लिए सकारात्मक थे।
कृषि क्षेत्र के अधिशेष ने हरियाणवी कृषक समाज को उपभोक्तवादी संस्कृति अपनाने का अवसर मुहैया कराया। नई स्थितियों में कृषि हरियाणवी समाज की नई चाहतों को पूर्ण करने में सक्षम न थी। परिणामत: कृषि क्षेत्र में उत्पन्न अधिशेष का निवेश शहरों में व्यवसाय तथा अन्य कृषि कार्यों के साथ बच्चों की शिक्षा में किया जाने लगा। परिवार के सर्वाधिक योग्य संतान को डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, मैनेजर तथा अन्य आधुनिक पेशा अपनाने पर जोर दिया जाने लगा। बदलाव की उपरोक्त प्रक्रिया से प्रथम दृष्टया महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन नहीं दिखाई देता। बावजूद इसके महिलाओं की स्थितियां भी बदल रही थी। निसंदेह बदलाव की गति धीमी थी। लड़कियों का शिक्षित होना स्वीकार्य हो रहा था। आठवें दशक के शुरूआती वर्षों तक लड़कियों का स्कूल जाना सामान्य हो चुका था। बाद के वर्षों में शिक्षा हेतु लड़कियों को परिवार से दूर शहरों में भी भेजा जाने लगा। उनके लिए सम्मानजनक शहरी जीवन की कल्पना की जाने लगी।
1991 में भारत सरकार द्वारा अपनायी गई उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण की नीतियों ने सम्पूर्ण राष्ट्र समेत हरियाणवी सामाजिक-सांस्कृतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। नयी बाजार व्यवस्था में कृषि अर्थव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं थी। निजी तथा असंगठित क्षेत्रों में उपलब्ध रोजगार की जो प्रवृति थी, उसने श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया। श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी ने जातीय-वर्गीय तथा लैंगिक संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव किए।
जीविकोपार्जन हेतु कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भरता की समाप्ति, शिक्षा से प्राप्त आत्मविश्वास तथा बेहतर जीवन की चाह ने पारम्परिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रति अवहेलनात्मक दृष्टिकोण पैदा किया। पारम्परिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रति अवहेलनात्मक दृष्टिकोण को वर्चस्वशाली पुरुष समाज द्वारा चुनौती को की तरह स्वीकार किया गया और विभिन्न तरीकों से कमजोर होते पितृसत्तात्मक मूल्यों को पुन:स्थापित करने की कोशिश की गई। जाति पंचायत द्वारा प्रेमी युगल को दिए जाने वाले शारीरिक दण्ड/मृत्यु दण्ड को इस आलोक में देखा जा सकता है।
स्त्रियोंं की संख्या यद्यपि इस राज्य में औपनिवेशक काल से ही पुरुषों की तुलना में कम रही है। विभिन्न जनगणनाओं से स्पष्ट होता है कि राज्य का लिंगानुपात सदैव नकारात्मक रहा है। अलग राज्य के निर्माण के साथ आई समृद्धि, छोटा परिवार की भावना तथा लिंग जांच संबंधी आधुनिक तकनीक की सर्व सुलभता ने कन्या भू्रण हत्या की भयावह स्थिति पैदा की है।
राज्य में घटते लिंगानुपात के अध्ययनों में घटते लिंगानुपात के कारणों के तौर पर मुख्य रूप से इज्जत, दहेज प्रथा, धार्मिक रीति-रिवाज, वंश वृद्धि की चाह, पुत्र प्रधानता, पुत्र मोह इत्यादि कारणों को चिन्हित किया गया है। निसंदेह घटते लिंगानुपात में इनकी भूमिका रही है। बावजूद इसके पूर्व की भांति वर्तमान में कन्या भ्रूण हत्या के पीछे यही मुख्य कारण नहीं रह गए हैं।
बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों व आर्थिक व्यवस्था के साथ कन्या भ्रूण हत्या के कारक भी बदले हैं। ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ की भावना घटते लिंगानुपात में असरकारक भूमिका अदा कर रही है। अकारण नहीं है कि शिक्षित, सम्पन्न, उच्च जाति के परिवारों में अशिक्षित-गरीब निम्न जाति के परिवारोंं की तुलना में कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृति अधिक पायी जा रही है।
वर्तमान समय में सम्पूर्ण देश की निगाह स्त्री प्रश्रों को लेकर हरियाणा की तरफ है। जाति पंचायत के निर्णय, कन्या भ्रूण हत्या, विभिन्न रूपों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा, जातिय वर्चस्व की लड़ाई में दलित स्त्रियों के शरीर को बतौर औजार इस्तेमाल करने की प्रवृति इत्यादि विमर्श के केंद्र में हैं। उपरोक्त विषयों पर प्रचूर अकादमिक लेखन मौजूद है।
परिवार का ढांचा बदल रहा है। स्त्री-पुरुषों की पूर्व निर्धारित भूमिका बदल रही है। स्त्री-पुरुषों के संबंध बदल रहे हैं। मुख्यधारा के अकादमिक विद्वानों और नारीवादी विद्वानों ने इन विषयों पर कम ध्यान दिया है। थोड़े-बहुत जानकारी पत्रकारिता की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं।
महिलाओं की स्थिति में आए परिवर्तन तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार की योजनाओं के लिए आवश्यक है कि बदलते सामाजिक-सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्थितियों के संदर्भ में महिलाओं की स्थितियों का मूल्यांकन करें।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 69