हरियाणा में स्कूली शिक्षा दशा और दिशा- अरुण कुमार कैहरबा

अरुण कुमार कैहरबा

निश्चय ही बच्चे के सर्वांगीण विकास, देश व समाज के विकास और दुनिया भर में मानवीय मूल्यों की स्थापना में शिक्षा की अहम भूमिका है। शिक्षा देने वालों और शिक्षा की दिशा तय करने वालों के दर्शन और उद्देश्यों से शिक्षा का स्वरूप तय होता है। हर समय की तरह शिक्षा के केन्द्रों पर कब्जा करने के लिए बड़ी-बड़ी शक्तियां संघर्ष कर रही हैं। वित्तीय पूंजी, साम्प्रदायिक और जाति की ताकतें अपने विचार का फैलाव करने के लिए शिक्षा को काबू में रखना चाहती हैं। इसीलिए वे बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में निवेश कर रही हैं। यह निवेश पैसे का भी है और विचारों का भी है।

सहिष्णुता, मानवता, तार्किकता और सामूहिकता जैसे मूल्यों को ऊंचा उठाने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा की जरूरत है। बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की जिम्मेदारी सरकार की ही होनी चाहिए। यह हर एक बच्चे का बुनियादी अधिकार है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 भी इसकी गारंटी देता है। लेकिन पर्याप्त प्रबंध नहीं किए जाने के कारण कानून कागजों में सिमटता दिखाई दे रहा है।  सरकारें पूंजीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए अपनी इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं।

हरियाणा में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के प्रभाव में जनशिक्षा को आघात पहुंचा है। आज शिक्षा गरीब और अमीर दो तबकों में असमान रूप से बंट गई है। सम्पन्न वर्ग पैसा खर्च करके जैसी चाहे शिक्षा प्राप्त करे और सरकारी स्कूल गरीबों के स्कूलों में बदलते जा रहे हैं। इन स्कूलों की स्थितियों से गरीब अभिभावक बेहद आहत हैं। लेकिन रोजी-रोटी के चक्कर में उलझे अभिभावकों के पास अभिव्यक्ति का कोई मंच नहीं है। यदि वे कुछ कहें भी तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। सम्पन्न और निर्धन के बीच स्कूली शिक्षा की खाई समाज को कैसी घोर विषमता तक ले जाएगी। इसके बारे में सोचने के लिए सरकारों के पास कोई सोच-समझ दिखाई नहीं दे रही है। लेकिन इस दिशा में स्वैच्छिक प्रयास भी बेहद छिटपुट नजर आते हैं।

ऐसा नहीं है कि शिक्षा के फैलाव के लिए कुछ ना किया गया हो। अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से हरियाणा में शिक्षा के फैलाव के लिए किए गए प्रयास उल्लेखनीय हैं। आर्थिक एवं सांख्यिकी विश्लेषण विभाग हरियाणा द्वारा जारी हरियाणा इकोनोमी से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 1966 में मान्यता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों की संख्या 4449 थी, जोकि 2009-10 में बढ़ कर 13073 हो गई। माध्यमिक स्कूल 1966-67 में 735 थे, जोकि 2009-10 में 3476 हो गए। उच्च एवं वरिष्ठ माध्यामिक स्कूलों की संख्या 597 से 6013 हो गई। इसी प्रकार से पहली से पांचवीं कक्षा में पढऩे वाले विद्यार्थियों की 1966 की 8.11 लाख संख्या 2008-09 में बढकऱ 18.48लाख, छठी से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों की संख्या 2.47लाख से 11.45 लाख, नौवीं से 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों की संख्या एक लाख से 11.32 लाख हो गई। इसी तरह कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या और उनमें पढऩे वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी। स्कूलों की ही बात करें तो उनमें सुविधाओं का विस्तार भी हुआ। सरकारी स्कूलों में बच्चों के बैठने के लिए कमरे बनाए गए। स्कूल भवन में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की जरूरतों को देखते हुए रैंप और विशेष शौचालय बनाए गए। बच्चों को तकनीकी शिक्षा देने के लिए एजूसेट लगाए गए। कम्प्यूटर लैब बनाई गई। शिक्षा के साथ कौशल विकास का समावेश किया गया। अध्यापकों की तैनाती की गई। लेकिन बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप अभी भी संसाधनों और सुविधाओं की कमी है। नियोजन की कमजोरियों और कुप्रबंधन के कारण भी स्कूली शिक्षा की स्थिति संतोषजनक नहीं है।

स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते निजी स्कूलों ने सरकारी स्कूलों को कड़ी टक्कर दी है। सरकारी स्कूल देखरेख की कमी, अध्यापकों व मानव संसाधनों के अभाव, सामूहिक प्रयासों की कमी और सरकारी उपेक्षा के कारण निजी स्कूलों से पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं। अप्रशिक्षित अध्यापकों और मोटी फीस के बावजूद अभिभावकों में निजी स्कूलों की तरफ रूझान बढ़ रहा है। निजी स्कूलों की बसें गांव-गांव से उच्च जातियों और सम्पन्न परिवारों के बच्चों को ढोकर ले जाती हैं।

अधिकतर निजी स्कूलों के पास ना तो खेल के मैदान हैं, ना ही बच्चों की संख्या के अनुकूल बड़ा प्रांगण। कमरों के आकार छोटे हैं। कइ अध्यापकों के पास बुनियादी प्रशिक्षण नहीं है। स्कूलों के मालिक और प्रबंधकों की मुनाफाखोरी अलग से आफत है। अधिकतर निजी स्कूलों में पढ़ा रहे प्रशिक्षित और गैर-प्रशिक्षित अध्यापकों का मानदेय इतना कम है कि वे मुश्किल से गुजारा कर पाते हैं। तमाम पहलुओं के बावजूद समय का यथार्थ यही है कि निजी शिक्षा संस्थान लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार द्वारा भी उन्हें संरक्षण दिया जा रहा है। जबकि सरकारी स्कूलों की उपेक्षा हो रही है।

अब मूल सवाल यह है कि शिक्षा की इस विषमता का हमारे समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। शिक्षा के सामाजिक सरोकारों की घोर उपेक्षा हो रही है। शिक्षा अपने मूल सार से अलग होकर दिखावे और शक्ति का साधन बनती जा रही है। सम्पन्न वर्ग लाखों रूपये की डोनेशन और भारी फीस चुका कर अपने बच्चों को पढ़ा रहा है। उसकी देखादेखी मध्यमवर्ग और निम्र मध्यमवर्ग ने भी घोड़े दौड़ा रखे हैं।  निम्र मध्यमवर्ग में यह भी रूझान देखने में आ रहा है कि छोटी कक्षाओं में वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं और छठी के बाद जब फीस व खर्चे आसमान छूने लगते हैं तो अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने लगते हैं।

प्राथमिक शिक्षा की दयनीय स्थिति

सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए था, उसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा हो रही है। प्राथमिक शिक्षक अपनी पाठशाला में जिम्मेदारियों के निर्वहन में अपने आप को बिल्कुल अकेला पाता है। अपने विद्यार्थियों से काटने और अभिभावकों की अपेक्षाओं से दूर करने के लिए के लिए पूरी योजनाएं तैयार की गई हैं। पहली बात तो यह कि दिल्ली व चंडीगढ़ के विपरीत हरियाणा में विभाग द्वारा राजकीय स्कूलों के बारे में समग्र रूप से नहीं सोचा जाता है। टुकड़ों में सोचे जाने के कारण टुकड़ों में ही स्कूल खोले गए हैं। एक-दो कमरों के मकान के ऊपर राजकीय प्राथमिक पाठशाला लिख दिया और वहां एक-दो अध्यापक तैनात कर दिए तो हो गया स्कूल। अब अध्यापक को बच्चों को दाखिल करना है। उसे विभिन्न प्रकार के लिपिकीय कार्य करने हैं। मिड-डे-मील का सिलैंडर और खाद्य सामग्री खरीदनी है। स्कूल की सफाई करनी-करवानी है। आदेश मिलने पर बच्चों की पढ़ाई छोड़ कर सर्वेक्षण करना है। पोलियो की दवाई पिलानी है। जनगणना करनी है। चुनाव करवाने हैं। बीएलओ के रूप में घर-घर जाकर वोट बनानी है।

पाठशाला के इकलौते शिक्षक को भी स्कूल समय में अधिकारी द्वारा बुलाई गई बैठक में पहुंचना है। डाक जमा करवानी है। स्कूल में कमरा, चारदिवारी, रसोई या भवन का अन्य कोई भाग मंजूर होने पर अध्यापक को इंजीनियर और ठेकेदार बन जाना होगा। ईंट-भट्ठे पर जाकर ईंटों का रेट पूछना और ईंटें मंगाना उसकी जिम्मेदारी है। सीमेंट, सरिया, बजरी, मजदूर और मिस्त्री का प्रबंध करके काम शुरू करवाना और पूरा करने का काम उसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। निर्माण के छोटे-छोटे सामान की रसीद इकट्ठा करना, बिल बनाना और फिर अनुदान का हिसाब भी उसे ही देना है। अनुदान मंजूर करते समय ईंट, बजरी, सीमेंट के निर्धारित मूल्य यदि बढ जाएं तो इसमें विभाग क्या कर सकता है। बढे हुए मूल्य के अनुसार सामग्री खरीद कर कम मूल्य के बिल बनने चाहिए। नुकसान की भी सारी जिम्मेदारी उसी की होगी। स्कूल में एक-एक कमरा मंजूर होगा। उन कमरों का आकार-प्रकार भी अलग हो सकता है। एक-एक करके शौचालय बनाए जाएंगे। कभी पानी की टंकी आएगी और कभी कोई दीवार। इस तरह से निर्माण कार्य भी निरंतर चलते रहने वाले हैं। ये सारे गैर-शैक्षणिक कार्य अति महत्वपूर्ण हैं। इनकी उपेक्षा होने पर कोई भी आफत आ सकती है। हां बच्चों की पढ़ाई ना होने पर कोई असर नहीं होगा। सरकार, अधिकारियों और विभाग का यह प्रत्यक्ष संदेश है, जिसमें पढऩे-पढ़ाने की क्रियाएं सबसे निचले पायदान पर आती हैं। ऐसा लगता है जैसे विभाग को अध्यापक की जरूरत नहीं है, बल्कि ऐसे महामानव की जरूरत है, जोकि सभी काम एक साथ कर सके। पढऩे-पढ़ाने के अलावा।

आज भी बहुत बड़ी संख्या में प्राथमिक पाठशालाएं एक या दो अध्यापकों द्वारा चलाई जा रही हैं। इन पाठशालाओं में लिपिकीय कार्य के लिए लिपिकों की सेवाएं, चपड़ासी और सफाई कर्मचारी जैसे अन्य सहयोगी कर्मचारी मिलने चाहिएं ताकि अध्यापक अपने मूल काम के साथ न्याय कर पाए। दिल्ली और चंडीगढ़ में देखने में आया है कि वहां स्कूल का पूरा भवन तैयार किया जाता है। भवन तैयार करने की जिम्मेदारियां अध्यापकों के सिर पर नहीं हैं। स्कूल का पूरा भवन, जिसमें कक्षा-कक्ष, पानी, प्रकाश, शौचालय सहित सभी प्रकार की व्यवस्था करके भवन स्कूल को सुपुर्द किया जाता है। स्कूल का मुखिया भवन लेते समय श्याम पट्ट सहित सभी जरूरी चीजें देखता है और फिर भवन स्कूल का हिस्सा बन जाता है।

अध्यापकों के मामले में भी हरियाणा के स्कूलों में अव्यवस्था का आलम है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार छात्र-शिक्षक अनुपात आज तक पूरा नहीं है। शिक्षक को गैर-शैक्षणिक कार्य सौंपते समय बच्चों की परवाह नहीं की जाती। प्रसूति अवकाश सहित शिक्षकों के अवकाश के वक्त स्कूल में वैकल्पिक व्यवस्था तक नहीं होती है। शिक्षा विभाग के नियमों के अनुसार छात्रों की संख्या के अनुसार शिक्षक देने का प्रावधान किया गया है। हरियाणा की अधिकतर राजकीय प्राथमिक पाठशालाओं में एक कक्षा के पास एक अध्यापक नहीं है। बच्चों की संख्या के अनुसार अध्यापक के प्रावधान के कारण एक-एक अध्यापक के पास दो से पांच कक्षाओं को पढ़ाने की जिम्मेदारी है, जिससे सभी बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दिया जा पाता। जहां निजी स्कूलों में एक कक्षा पर कम से कम एक अध्यापक अवश्य होता है। चित्रकला, थियेटर, नृत्य जैसी अभिरुचि कक्षाओं के लिए अलग से अध्यापकों की सेवाएं ली जाती हैं। वहां प्राथमिक स्कूलों में इन स्थितियों के बारे में सोचा भी नहीं जाता है। अपने स्कूलों से लगातार कम होते बच्चों को देखना प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों की नियति बन गई है।

प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में एक यह भी तथ्य है कि निजी स्कूल में जहां नर्सरी, एल.के.जी. व यू.के.जी. पढऩे के बाद बच्चा पहली कक्षा में पहुंचता है, वहीं राजकीय पाठशाला में पहली कक्षा में ही बच्चा दाखिल होता है। निजी स्कूल में चार-पांच वर्षों की पहली कक्षा में बेहतर बुनियाद लेकर आगे बढ़ता है, वहीं सरकारी स्कूल में पहली कक्षा में ही उसे हिन्दी, अंग्रेजी, गणित का बुनियादी ज्ञान अर्जित करना होता है। पहले ही बताया जा चुका है कि यह जिम्मेदारी भी ऐसे शिक्षक के कंधों पर है, जिसे शिक्षक कम, मल्टी-पर्पज कर्मचारी अधिक माना जाता है। शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक कार्यों के बोझ से वह लदा हुआ है। अभिभावकों की तंग सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण उनका सहयोग भी निरीह शिक्षक को नहीं मिल पाता है।

सरकारी स्कूलों में गुणात्मक प्राथमिक शिक्षा के लिए आंगनवाड़ी व्यवस्था का दुरूस्त होना भी जरूरी है। जबकि आंगनवाडिय़ों की हालत प्राथमिक पाठशालाओं से भी बदतर है। सामाजिक विषमताओं और आर्थिक तंगहाली की मार झेल रहे समुदायों व परिवारों के बच्चे ही इनमें आते हैं। आंगनवाड़ी वर्करों को अनेक प्रकार के काम करने पड़ते हैं। गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की देखरेख, उनका पोषाहार, महिलाओं और बच्चों का टीकाकरण, विभिन्न कार्यों के लिए सर्वेक्षण और रिकार्ड का रखरखाव सहित अनेक कार्यों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है। यहां भी बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी  निचले पायदान पर आती है। आंगनवाड़ी वर्कर बेहद कम वेतन पाती हैं। ऐसी स्थितियों में आंगनवाड़ी अध्यापिकाएं बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा की तरफ ध्यान नहीं दे पाती हैं। आंगनवाडिय़ां बच्चों के लिए पोषाहार के केन्द्रों के तौर पर ही जानी जाती हैं। प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए इस महत्वपूर्ण कड़ी का मजबूत होना जरूरी है।

प्राथमिक शिक्षा के दौरान एक बड़ा सवाल भाषा का है। दुनिया में संभवत: भारत ही एकमात्र देश होगा, जहां पर नन्हें बच्चों पर दो-दो भाषाएं सीखने का बोझ लाद दिया गया है। देश में भी इस मामले में हरियाणा ने पहली कक्षा से बच्चों को हिन्दी के साथ अंग्रेजी पढ़ाने की शुरूआत की। भाषा के क्षेत्र में यह प्रयोग निजी स्कूलों की देखादेखी किया गया। हालांकि निजी स्कूलों में भी पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक कक्षाओं में दो भाषाएं पढ़ाए जाने की आलोचना हो रही थी। इससे बच्चों का स्वाभाविक विकास और रचनात्मक क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है। भाषाएं सोचने-विचारने और अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। अपने आप में भाषा ध्येय नहीं हो सकती। मातृभाषा में बच्चा सहज महसूस करता है। मातृभाषा बच्चे की कल्पनाशीलता, विचारशीलता, रचनाशीलता को नई उड़ान देती है। छोटे बच्चे को अपने परिवेश में संवाद स्थापित करना है। उसके पास अपनी भाषा की मजबूत धरोहर होगी तो बड़ा होकर भले ही वह कितनी भाषाएं सीख ले। लेकिन नन्हें बच्चे के लिए भाषा को बोझ बनाना कतई उचित नहीं है।

सुविधाओं और अध्यापकों की किल्लत से जूझ रहे अधिकतर सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी ने पहले से घिसट-घिसट कर चल रही शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को चौपट कर दिया है। अंग्रेजी और हिन्दी के बीच झूलते बच्चों की स्थिति- ‘न घर के रहे, ना घाट के’ वाली हो गई है। हम अंग्रेजी के मोह में अपनी जबान के शिक्षण के साथ भी अन्याय कर रहे हैं। यही कारण है कि विभिन्न निजी संस्थाओं द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण में हरियाणा के प्राथमिक स्कूलों में बच्चों का अधिगम स्तर काफी कमजोर पाया गया है।

समय-समय पर कितने ही आयोग और कमेटियों ने बच्चों पर किताबों का बोझ कम करने की सिफारिशें की हैं, लेकिन अंग्रेजी के आगे वे सारी सिफारिशें कमजोर साबित हुई हैं। हरियाणा के शिक्षा विभाग को अध्यापकों में मुरली महकमा कहा जाता है। जहां पर अधिकारी अपने तुगलकी प्रयोगों की मुरली बजाने में लगे रहते हैं। बच्चों का अधिगम स्तर लगातार रसातल को जाने की चर्चाओं के बीच अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से बाहर निकाल रहे हैं। अध्यापक और सुविधाएं देने की बजाय हमारी सरकारें शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयोग करने के दावे ठोंक रही हैं।

उच्च प्राथमिक शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा के बाद उच्च प्राथमिक शिक्षा में अंतर यह आता है कि स्कूल में विषयों की संख्या बढ़ जाती है। प्राथमिक कक्षाओं में आमतौर पर एक शिक्षक कक्षा के सभी विषय पढ़ाता है, लेकिन छठी से आठवीं तक उच्च प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापक कालांश के अनुसार अपना विषय पढ़ाता है। इन तीन कक्षाओं (छठी से आठवीं)में बच्चे हिन्दी, अंग्रेजी, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान, गणित सहित दो वैकल्पिक विषयों को मिलाकर सात विषय पढ़ते हैं। बहुत से स्कूलों में विद्यार्थियों के पास ड्राईंग का कोई विकल्प नहीं है। ड्राईंग एवं पेंटिंग एक बहुत ही महत्वपूर्ण कलात्मक विषय है। यह विषय बच्चों को कल्पना करने और कल्पनाओं में रंग भरने के लिए प्रेरित करता है और रचनात्मकता को उभारता है। कलाकार शिक्षक के बिना यह उद्देश्य पूरा होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अधिकतर उच्च माध्यमिक स्कूलों में ड्राईंग शिक्षक नहीं हैं और जहां पर हैं उन्हें स्कूल प्रशासन द्वारा बहुत ही हल्के में लिया जाता है। दिसंबर, 2015 में विभाग से ही प्राप्त आंकड़ों के अनुसार ड्राईंग अध्यापक के हरियाणा में कुल 4597 पदों में 1624 पद रिक्त हैं। दूसरा वैकल्पिक विषय संस्कृत व पंजाबी भाषा है। हरियाणा में पंजाबी भाषा को दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया है। प्रदेश में बहुत बड़ी आबादी की मातृभाषा ही पंजाबी है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पंजाबी पढ़ाने के लिए स्कूलों में शिक्षक ही नहीं हैं। संस्कृत शिक्षक हैं तो केवल संस्कृत विषय पढऩा बच्चों की मजबूरी है। हरियाणा के कुछ पंजाबी भाषी गांव में भी बच्चों को जबरन संस्कृत पढ़ाई जा रही है, जबकि लोग कई बार स्कूल में पंजाबी अध्यापक नियुक्त करने की मांग कर चुके हैं। यही हाल उर्दू का भी है।

प्रदेश के उच्च माध्यमिक स्कूलों में हिन्दी भाषा की भी घोर उपेक्षा हो रही है। शिक्षा विभाग ने संस्कृत अध्यापक के पद को प्रथम पद घोषित किया है, जिनके ऊपर हिन्दी पढ़ाने की जिम्मेदारी भी डाल दी गई है और स्कूलों से हिन्दी शिक्षक के पद ही समाप्त कर दिए गए हैं।

हर विषय की तरह हिन्दी विषय की भी अपनी गरिमा और प्रकृति है। मनमाने ढ़ंग से संस्कृत को हिन्दी भाषा की मां घोषित करते हुए ऐसा किया गया प्रतीत होता है, जबकि विद्वान इस तर्क को पूरी तरह से खारिज करते हैं। वास्तव में तो हिन्दी भाषा के विकास का एक क्रम रहा है। अपभ्रंश और अवह_ भाषा से खड़ी बोली या मानक हिन्दी का विकास हुआ है। यदि संस्कृत और हिन्दी एक-सी भाषाएं होती तो संस्कृत और हिन्दी अध्यापक प्रशिक्षण की अलग-अलग व्यवस्था ना होती। यदि एक विषय का अध्यापक दूसरे विषय को पढ़ाएगा तो फिर अपने विषय के साथ न्याय कैसे कर पाएगा। लेकिन प्रदेश के अधिकतर माध्यमिक स्कूलों से हिन्दी शिक्षक का पद समाप्त कर दिया गया है।

मौलिक शिक्षा विभाग ने यही हाल गणित विषय के साथ किया है। विज्ञान अध्यापक पर गणित विषय पढ़ाने की जिम्मेदारी डाल दी गई है। प्रदेश के दो हजार से अधिक उच्च माध्यमिक स्कूलों में एक भी ऐसा स्कूल नहीं है, जहां पर सातों विषय पढ़ाने के लिए सात अध्यापक हों। पहली से आठवीं कक्षा तक की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 ने सुनिश्चित किया है। बिना अध्यापकों के यह अधिकार किस तरह से सुनिश्चित हो पाएगा।

स्कूल प्रबंधन कमेटियों की दशा

शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 21 के तहत स्कूलों के विकास में जनसहभागिता बढ़ाने के लिए स्कूल संचालन एवं महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन कमेटियों के ऊपर डाली है। स्कूल प्रबंधन कमेटी में 75प्रतिशत भागीदारी विद्यार्थियों के अभिभावकों की होती है। कमेटी का अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष भी इन्हीं अभिभावकों में से बनाया जाता है। प्रत्येक दो वर्ष में प्रबंधन समिति का पुनर्गठन करना होता है और महीने में एक बार समिति की बैठक भी अनिवार्य होती है। प्रबंधन कमेटी के पदाधिकारियों एवं सदस्यों के चुनाव में यदि लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाई जाए तो अभिभावकों एवं समाजसेवियों के सहयोग से स्कूलों को आनंददायी शिक्षा के  केन्द्र बनाया जा सकता है। अभिभावकों को अपने गाँव-बस्ती के बच्चों की जानकारी होती है। सभी बच्चों के नामांकन और उपस्थिति में उनका अहम योगदान हो सकता है। यदि कुछ बच्चों का स्कूल में नामांकन नहीं हो पाया है। नामांकन के बावजूद बच्चे स्कूल नहीं पहुँच पा रहे।  घरेलू झगड़े, बीमारी, नशा, पलायन या किसी अन्य कारण से किसी बच्चे की पढ़ाई बाधित हो रही है, तो स्कूल प्रबंधन समिति के सदस्य इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए बच्चों की पढ़ाई के रास्ते की बाधा को दूर कर सकते हैं।

स्कूल में अध्यापकों की कमी होने पर समिति गाँव के ही पढ़े-लिखे युवाओं के सहयोग से बच्चों की पढ़ाई को होने वाले नुकसान को कम कर सकती है। अध्यापकों की उपस्थिति की निगरानी कर सकती है। यदि अध्यापक निजी ट्यूशन करते हैं या निजी मुनाफे के लिए अपने कत्र्तव्य पालन में चूक करते हैं, इस दशा में भी समिति कदम उठा सकती है। यदि स्कूल में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को दाखिल करने में आनाकानी की जा रही है या उनके नामांकन के बावजूद उनकी पढ़ाई के समुचित प्रबंध नहीं किए गए हैं, तो अधिकारियों से मिलकर विशेष बच्चों की पढ़ाई के विशेष प्रबंध करवाए जा सकते हैं। स्कूल में लड़कियों के लिए संवेदनशील माहौल प्रदान करने में भी समिति का सकारात्मक दखल हो सकता है। मिड-डे-मील योजना के सफल क्रियान्वयन में समिति सदस्य अपना योगदान कर सकते हैं। स्कूल विकास की योजना को अंतिम रूप देना और विभाग से प्राप्त बजट के अनुसार सही प्रकार से उसका क्रियान्वयन करना भी स्कूल प्रबंधन समिति के अधिकार एवं दायित्व में शामिल है।

विभिन्न स्कूलों में आज भी पीने के पानी और शौचालय की समुचित व्यवस्था नहीं है। कहीं चारदिवारी टूटी हुई है। कहीं स्कूल की भूमि का सदुपयोग नहीं हो रहा है। जमीन होने के बावजूद खेल का मैदान नहीं है। कहीं स्कूल की भूमि पर अतिक्रमण की समस्या है। इन सभी समस्याओं के समाधान और नई पहलकदमियों में स्कूल प्रबंधन समितियां अहम योगदान कर सकती हैं। लेकिन व्यवहार में ऐसा होता हुआ कम दिखाई देता है। अधिकतर अध्यापक एवं स्कूल मुखिया स्कूल में किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते हैं। इस कारण वे ऐसे अभिभावकों को प्रबंधन कमेटी का प्रधान एवं सदस्य बनाते हैं, जो कि उनके सामने कुछ ना बोलें और वे मनमाने ढ़ंग से अपना काम कर सकें। यहीं पर स्कूल विकास के ऐतिहासिक अवसरों पर रोक लग जाती है।

दुनिया में होने वाले बड़े-बड़े परिवर्तन, देश की आज़ादी की लड़ाई और विभिन्न गांवों में स्कूल बनाने के लिए जन सहयोग के उदाहरण हमें शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए प्रेरित कर रहे हैं। समाज ने सामूहिक प्रयासों से बड़े-बड़े स्कूल व कॉलेज बनाए हैं। लेकिन अब लोग अपने कदमों से पीछे हट रहे हैं। अपने गाँव के सरकारी स्कूल को बचाने व बढ़ाने की बजाय निजी स्कूलों की तरफ दौड़ रहे हैं। विद्यालय की बजाय देवालय बनाने, बढ़ाने, आलीशान बनाने में समाज अपनी सामूहिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहा है। समाज की ऊर्जा को शिक्षा की दिशा में मोड़ने में स्कूल प्रबंधन समिति अपने योगदान को निभाए तो सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जा सकती है। लेकिन इसके लिए ऐसे सक्रिय अभिभावकों को प्रबंधन समिति में आगे आने के लिए प्रेरित करना होगा, जोकि बदलाव के वाहक बनें और उनके साथ मिलजुल कर कार्य करना स्कूल मुखियाओं और अध्यापकों की जिम्मेदारी बनती है।

मिड-डे-मील की स्थिति

भोजन और शिक्षा का गहरा संबंध है। पंजाबी कहावत है कि ‘पेट ना पईयां रोटियां ते सब्बे गल्लां खोटियां।’ सरकारी स्कूलों में बहुत बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण और रक्त-अल्पता के शिकार हैं। मजदूर, घुमंतु और बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करने वाले परिवारों के बच्चे अक्सर भूखे पेट स्कूल में आते हैं। ऐसे में शिक्षा से भी पहले उनके पेट की भूख शांत करना और पोषण का प्रबंध करना बेहद जरूरी है। बच्चों को स्कूलों की तरफ आकर्षित करने, उनका नामांकन बढ़ाने, स्कूलों में बनाए रखने, उपस्थिति बढ़ाने और उन्हें पोषाहार प्रदान करने के लिए मिड-डे-मील योजना शुरू की गई थी। मिड-डे-मील योजना बिना जाति, लिंग, सम्प्रदाय के भेदभाव के सभी को इक_े बैठकर भोजन खाने का मंच प्रदान करती है। योजना बच्चों में खाना खाने की अच्छी आदतों के विकास में भी मील का  पत्थर साबित हो सकती है। मार्च, 2008 में इस योजना का विस्तार पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक कर दिया गया। लेकिन इस योजना के क्रियान्वयन के लिए बुनियादी ढांचे और सुविधाओं का विकास अभी तक नहीं हो पाया है।

पहली बात तो यही कि स्कूल में भोजन बनाने के लिए रसोई की जरूरत है। जितने बच्चों के लिए भोजन बनाया जाना है, उसी हिसाब से रसोई का आकार-प्रकार भी उपयुक्त होना चाहिए। लेकिन प्रदेश के सभी स्कूलों में मिड-डे-मील तैयार करने के लिए बिना इस बात का ध्यान रखे, एक ही आकार की रसोई स्वीकृत की गई। 20-30 विद्यार्थियों वाले स्कूल और सैंकड़ों बच्चों वालों स्कूल में एक ही आकार की रसाई  उद्देश्य पूरा नहीं करती है। कई स्कूलों की रसोई में तो खाना बनाने के लिए बर्तन भी रखे नहीं जा सकते। इतनी बड़ी संख्या में भोजन खाने के लिए रसोई के साथ ही बड़े कमरे या हाल, फर्नीचर, बर्तनों, बर्तन धोने के लिए सिंक सहित सभी सुविधाएं चाहिएं। भोजन परोसने, बर्तन धोने, खाना बनाने आदि कामों के लिए मानव संसाधन की भी जरूरत है। लेकिन बच्चों की संख्या के अनुसार मिड-डे-मील वर्कर की नियुक्ति करके बाकी सारी जिम्मेदारी अध्यापकों पर डाल दी गई है। मिड-डे-मील के लिए खाद्य सामग्री खरीदने, सिलैंडर आदि का प्रबंध करने में अध्यापकों की व्यस्तता के कारण अध्यापक का मूल काम बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। बच्चों के लिए बैठ कर मिड-डे-मील खाने की अच्छी व्यवस्था नहीं होने के कारण आम लोगों में मिड-डे-मील के बारे में नकारात्मक धारणाएं पैदा हो रही हैं। कुछ लोग तो सरकारी स्कूलों पर गरीब परिवारों के बच्चों का मजाक उड़ाने तक का आरोप लगाते हैं। जितनी बड़ी योजना उस हिसाब से प्रबंध अधूरे होने, रसोई का आकार छोटा होने, अनाज के रखरखाव की व्यवस्था नहीं होने, समय पर अनाज की सप्लाई नहीं होने, अध्यापक के ऊपर सारी जिम्मेदारी होने, गैस-सिलैंडर व ब्रांडेड सामग्री की खरीद, हाथ व बर्तन धोने की समुचित व्यवस्था नहीं होने, स्कूल प्रबंधन कमेटी की ही तरह मिड-डे-मील को लेकर बनाई गई कागजी कमेटी और मिड-डे-मील वर्करों के नाममात्र मानदेय सहित अनेक कारणों से योजना पर तरह-तरह के सवाल उठाए जाते हैं। तो भी प्रबंधकीय खामियों के कारण योजना को खारिज करना कतई उचित नहीं है। इस योजना को कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के छात्रावासों की तर्ज पर रसोई व भोजन खाने के लिए बड़े हॉल और फर्नीचर आदि का सभी स्कूलों में प्रबंध होना चाहिए। यह योजना शिक्षा की प्रक्रियाओं में सहायक बने, बोझ नहीं। इसके लिए जरूरी है कि योजना के प्रबंध से अध्यापकों को बरी कर दिया जाए। मिड-डे-मील वर्करों को सम्मानजनक मानदेय दिया जाए तो ही वे मन लगाकर काम कर सकेंगे। मौजूदा ढ़ाई हजार रूपये मानदेय भी उन्हें समय से ना मिलने की शिकायतें आती रहती हैं। मिड-डे-मील के लिए सामग्री की सप्लाई करने की जिम्मेदारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गांव में खुली सस्ते राशन की दुकानों और सिलैंडर के लिए गैस-एजेंसी की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

डीटीएच एवं एजूसेट शिक्षा

सरकारी स्कूलों के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए समय-समय पर अनेक प्रयोग किए गए। विद्वानों द्वारा प्रसारित किए जा रहे कार्यक्रमों को डीटीएच व एजूसेट के जरिये स्कूलों के बच्चों तक पहुंचाने के लिए करोड़ो रूपये की लागत से स्कूलों में सिस्टम लगाए गए। कार्यक्रम प्रसारण की समय सूची देखकर अध्यापक अपने बच्चों को ये कार्यक्रम दिखाए तो वह अपने शिक्षण को रूचिपूर्ण बना सकता है। इसका प्रयोग करके स्कूल में कम शिक्षक भी हों तो बच्चों की सीखने की प्रक्रिया को सुचारू रखा जा सकता है। स्कूलों में एजूसेट व डीटीएच सिस्टम चोरी की घटनाओं को देखते हुए चौकीदार नियुक्त किए गए। इन चौकीदारों को एक हजार रूपये प्रतिमाह मानदेय दिया जाता है, जो कि कई-कई महीनों तक नहीं मिलता है। चौकीदार स्कूल में रखे गए टेलीविजन व बैटरी की तो रक्षा कर सकते हैं। लेकिन सिस्टम का प्रयोग करके बच्चों के शिक्षण-अधिगम का प्रबंध तो अध्यापकों को ही करना है। यह भी ठीक है कि अध्यापक कम हैं, लेकिन ऐसे में भी उपाय तो करना ही है। देखने में आया है कि करोड़ों रूपये का यह सिस्टम पूरी तरह से ठप्प पड़ा है। स्कूली शिक्षा विभाग के रहनुमा भी इस बारे में मौन साधे हुए हैं, जैसे सिस्टम लगाना भर उनका ध्येय हो, चलाना नहीं।  स्कूलों में कहीं टेलीविजन खराब हैं, कहीं बिजली का प्रबंध नहीं है। कहीं पर रखी गई बैटरियां पुरानी पड़ चुकी हैं।  तकनीकी शिक्षा का पूरा सिस्टम चौपट है।

उच्च एवं वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षा

मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत पहली से आठवीं कक्षा तक के बच्चों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। लेकिन ज्यों ही बच्चा आठवीं पास करके नौवीं कक्षा में प्रवेश करता है तो उसे विभिन्न प्रकार के शुल्क देने पड़ते हैं। इन सारे फंडों के शुल्क गरीब परिवारों पर भारी पड़ते हैं। दलित, घुमंतु समुदाय, पिछड़ी जातियों, बीपीएल परिवारों के बच्चे और विशेष आवश्यकता वाले बच्चे प्राय: ये शुल्क अदा करने में सक्षम नहीं होते। फीस नहीं भरने के कारण बच्चों के नाम काट दिए जाते हैं और वे अपनी पढ़ाई पूरी किए बिना ही घर बैठ जाते हैं। स्कूल छोड़ चुकी लड़कियों को दोबारा स्कूल में लाने के लिए बहुत बार अभियान चलाने की बातें होती हैं, लेकिन नाम कटने के मुख्य कारण को समाप्त करने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता।  बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की बात करने वालों को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह भी एक तथ्य है कि जिनके पास सामथ्र्य है, वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। उसमें भी लैंगिक भेदभाव के कारण लड़कियों को सरकारी स्कूलों में भेजा जाता है। हालांकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए बहुत से उपाय करने की जरूरत है, ताकि निजी स्कूलों के विद्यार्थी भी सरकारी स्कूलों की तरफ आकर्षित हों। लेकिन यह कदम तो एकदम जरूरी बनता है कि विशेष वर्गों के बच्चों और सभी लड़कियों को 12वीं तक पूरी तरह से शुल्क रहित मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाए। यही नहीं पहली से आठवीं कक्षा की शिक्षा की तरह बच्चों को किताबें भी मुफ्त दी जानी चाहिएं। किताबों का यह बोझ तब और अधिक बढ़ जाता है जब पाठ्य पुस्तकों के साथ-साथ गरीब अभिभावकों को कुंजियां भी खरीदनी पड़ती हैं। ये कुंजियां बेहद महंगी होती हैं। इन्हें खरीद पाना हर बच्चे के बूते में ही नहीं होता है।

अध्यापकों और प्राध्यापकों की कमी स्कूलों की सबसे बड़ी दिक्कत है। कईं स्कूलों में तो वर्षों से कईं विषयों के प्राध्यापक नहीं हैं। इस मामले में बहुत से लड़कियों के स्कूलों की स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। कई स्कूलों में विज्ञान संकाय इसलिए शुरू नहीं हो पाता क्योंकि वहां पर सभी विज्ञान विषयों के प्राध्यापक पूरे नहीं होते। प्राध्यापक पूरे नहीं होने पर या तो विद्यार्थियों को विज्ञान की पढ़ाई छोड़ कर कला संकाय में आना पड़ता है या फिर निजी स्कूलों का रूख करना पड़ता है।

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन एवं पुरानी परीक्षा पद्धति

रट्टा पद्धति को बढ़ावा देने वाली परंपरागत लिखित परीक्षाएं बच्चों के विकास में बोझ बनी हुई थी। यह परीक्षाएं विद्यार्थियों की बहुमुखी प्रतिभा का नोटिस नहीं लेती थी और पाठ्यचर्या को कागजी खेल बना देती थी। खामियों को देखते हुए शिक्षाविदों ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन को अपनाने की पक्षधरता की। ऐसा मूल्यांकन जो लगातार चले, जिसमें बच्चों और विद्यार्थियों के बीच गहरा रिश्ता बने और बच्चों के सर्वांगीण विकास को लक्षित करे। कोई बच्चा खेल में बहुत अच्छा हो सकता है। कोई गाने-बजाने में और विज्ञान में। हम किसी भी व्यक्ति को परीक्षा में उसके द्वारा प्राप्त किए गए अंकों से नहीं जानते, उनकी प्रतिभा से जानते हैं। तो फिर शिक्षा और परीक्षा को अंकों का खेल या अधिकाधिक अंक हासिल करने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा बनाने की बजाय उसकी खूबियों और रचनात्मक प्रतिभा के विकास और मूल्यांकन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। तभी बच्चे, समाज, देश और दुनिया का भला हो सकता है।

शिक्षा के उच्च लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए शुरू की गई सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन प्रणाली को आज बिना आजमाए ही नकार दिया जा रहा है। शिक्षा विभाग द्वारा व्यापक मूल्यांकन का ना प्रचार किया गया और ना ही इसे लागू करने के लिए तैयारी की। पहले से ही विभिन्न प्रकार के गैर-शैक्षणिक कार्यों के बोझ से दबे अध्यापकों को इस बारे में प्रशिक्षित भी नहीं किया गया। शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लागू करने के बाद पुरानी परीक्षा पद्धति को तिलांजलि दे दी गई और नई पद्धति की उपेक्षा की गई।

पुरानी परीक्षा पद्धति का महिमामंडन करने का शोर शिक्षा में सुधार करने की बजाय शिक्षकों को सबक सिखाने के उद्देश्य से ज्यादा मचाया जा रहा है। आक्रामक ढ़ंग से पुरानी परीक्षाओं को लागू किया जा रहा है। इसी का नतीजा है कि पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए भी मासिक परीक्षाओं का प्रावधान कर दिया गया है।  अब शिक्षा का अधिकार अधिकार अधिनियम में संशोधन की बातें हो रही हैं, ताकि आठवीं कक्षा में बोर्ड की परीक्षाएं हो सकें। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में मूल्यांकन लगातार चलने वाला काम है। हर एक अध्यापक इसे अपना अभिन्न कार्य मानता है।

बंद रहती हैं पुस्तकालयों की किताबें

प्रदेश के हरेक स्कूल में पुस्तकालय की अवधारणा को साकार करने के लिए पुस्तकें होती हैं। उच्च एवं वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में तो पुस्तकालय के  लिए कमरा व अलमारियों तक की व्यवस्था है। हर वर्ष पुस्तकें खरीदने के लिए अनुदान भी आता है और पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए पुस्तक मेले भी आयोजित किए जाते हैं। जिसमें विभिन्न प्रकाशक अपनी पुस्तकें लेकर पहुंचते हैं और स्कूलों के मुखिया व पुस्तकालय इंचार्ज वहां से अपने बच्चों के लिए पुस्तकों की खरीद करते हैं। प्राथमिक स्कूलों में भले ही पुस्तकालय के  नाम पर कमरा व फर्नीचर आदि ना हो, लेकिन उत्साही अध्यापक चाहें तो एक कामचलाऊ पुस्तकालय बना सकते हैं। जिनसे बच्चों को उनके स्तर एवं रूचि के अनुकूल किताबें दी जाएं। उनमें पढऩे की संस्कृति का विकास हो। प्राथमिक स्कूलों में नन्हें बच्चों के लिए हाल ही में एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित चित्रों वाली बरखा सीरीज की किताबें भेजी गई। कुछ अध्यापक इन पुस्तकों का काफी अच्छा  प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन अधिकतर स्कूलों की पुस्तकें संदूक या अलमारी की शोभा ही बढ़ाती हैं।

इसका कारण यह है कि जब अध्यापक में स्वयं ही पुस्तकें पढऩे की लालसा नहीं होगी। तो वे बच्चों में पुस्तक पढऩे के संस्कार कैसे पैदा कर पाएंगे। अधिकतर अध्यापकों को तो हमेशा इस बात का भय लगा रहता है कि कहीं पुस्तकें फट ना जाएं या फिर गुम ना हो जाएं। इस डर से वे बच्चों को पुस्तकें दिखाने के लिए भी नहीं देते।

वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में तो पुस्तकालय के नाम पर कमरे या हाल का निर्माण भी किया गया है, लेकिन वहां पर पुस्तकालय नहीं होता है। विभाग ने भी कभी इन पुस्तकालयों की सुध नहीं ली है। होना तो यह चाहिए कि कम से कम वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में पुस्तकालय विज्ञान की पढ़ाई किए हुए युवाओं को नियुक्त करके उन्हें पुस्तकालयों का कार्यभार सौंपा जाए। मानव संसाधनों की कमी और अध्यापकों पर अधिक कार्यभार और रूचि के अभाव के कारण स्कूल शिक्षा के संवेदनशील संस्थानों की तरह कम एक सरकारी कार्यालय की तरह ज्यादा चलते हैं।

विज्ञान एवं कम्प्यूटर की प्रयोगशालाओं का प्रयोग

स्कूलों में बहुत से उत्साही विज्ञान अध्यापक अपनी प्रयोगशालाओं में बच्चों को प्रयोग करके सीखने के अवसर प्रदान करते हैं। लेकिन बहुत से स्कूलों में विज्ञान प्रयोगशालाओं की स्थिति पुस्तकालयों जैसी ही है। प्रयोगशालाओं में रखे उपकरण अलमारियों में ही धूल फांकते रहते हैं। निजीकरण की व्यवस्था के तहत 3000 से अधिक स्कूलों में खोली गई कम्प्यूटर प्रयोगशालाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। इन प्रयोगशालाओं में कम्प्यूटर अध्यापक और लैब सहायक की तैनाती का जिम्मा सरकार ने निजी कंपनियों को सौंपा। बहुत ही कम वेतन में कम्प्यूटर अध्यापकों और लैब सहायकों से काम लिया गया। नाममात्र का मानदेय भी यदि एक साल तक ना दिया जाए तो इस स्थिति को समझा जा सकता है।

यदि आज की स्थिति की बात करें तो राजकीय स्कूलों में खुली प्रयोगशालाओं को चलाने के लिए ना तो कम्प्यूटर अध्यापक हैं और ना ही लैब सहायक। डिजीटल इंडिया के दावों के बीच कम्प्यूटर प्रयोगशालाएं अक्सर बंद रहती हैं। हजारों स्कूलों में सत्र 2016-17 के दौरान कम्प्यूटर प्रयोगशालाएं खुली भी नहीं हैं।

शिक्षा के साथ कौशल विकास का समावेश

विभिन्न आयोगों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 ने माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण और बच्चों को उत्पादक कार्यों से जोडऩे की सिफारिशें की हैं। ऐसा करने से विद्यार्थियों में काम की संस्कृति का भी विकास होता। समय-समय पर ऐसे प्रयोग भी किए गए। स्कूलों में निर्माण कार्यों के लिए संयत्र लगाए गए। लेकिन इस नीति को लंबे समय तक जारी नहीं रखा गया। कई स्कूलों में पुराने उपकरणों के अवशेष आज भी दिखाई दे जाते हैं।

प्रदेश के लगभग एक हजार स्कूलों में दो-दो कौशलों को सिखाए जाने का प्रबंध किया गया है। इस योजना की भी सबसे बड़ी खामी यही है कि अनुदेशकों की नियुक्ति का जिम्मा निजी कंपनियों को दिया गया है। जिससे अनुदेशकों में हमेशा भय बना रहता है। दूसरे, विभिन्न कौशल सीख रहे विद्यार्थियों के लिए विभाग द्वारा अंग्रेजी माध्यम में ही पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं। इन पुस्तकों को बहुत से विद्यार्थी पढ़ भी नहीं पाते हैं। इससे यह समझ नहीं आ रहा है कि विभाग कौशल विकास करना चाहता है या अंग्रेजी सिखाना। जो किताबें अनुदेशक भी ठीक से ना पढ़ पाएं, ऐसी किताबों को विद्यार्थियों के ���िए आखिर क्यों प्रकाशित किया जा रहा हैं। जब विद्यार्थियों द्वारा हिन्दी माध्यम की पुस्तकें देने की मांग उठाई जाती है तो टका सा जवाब यही होता है कि ये पुस्तकें हिन्दी में छापी ही नहीं गई हैं।

भिन्न प्रकार से योग्य बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा

वैसे तो हमारा समाज अनेक प्रकार की संकीर्णताओं के जाल में फंसा हुआ है। आज 21वीं सदी में भी लैंगिक आधार पर लड़कियों के साथ, जाति के आधार पर दलितों, घुमंतु कबीलों और पिछड़ा वर्ग के साथ और साम्प्रदायिक आधार पर अल्पसंख्यकों के बच्चों के साथ भेदभाव के अनेकानेक मामले समय-समय पर सामने आते रहते हैं। लैंगिक रूप से संवेदनशील और जातीय संकीर्णताओं और भेदभाव से मुक्त वातावरण की समाज और स्कूल में जरूरत है। लेकिन भिन्न प्रकार से योग्य बच्चों के लिए मुसीबतें कई गुणा बढ़ जाती हैं। कई बार तो परिजन ऐसे बच्चों को छुपाए रहते हैं। उनकी पढऩे की जरूरत एवं क्षमता पर भी कम ही यकीन किया जाता है।

सामान्य स्कूलों में ऐसे बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा की नितांत आवश्यकता है। सामान्य स्कूलों में विशेष बच्चों को समावेशी शिक्षा प्रदान करने के लिए अध्यापकों और सहपाठियों का अभिमुखीकरण समावेशी समाज बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा। लेकिन साथ ही स्कूलों में तमाम प्रकार की ढ़ांचागत एवं मानसिक बाधाओं को समाप्त करना होगा और सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। स्कूलों में बनाए गए विशेष शौचालयों की बात करें तो वे अधिकतर अध्यापकों द्वारा ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं, बच्चों द्वारा कम। जिन स्कूलों में बड़ी संख्या में विशेष आवश्यकता वाले बच्चे हैं, वहां पर उनके लिए विशेष शिक्षकों की नियुक्ति की तरफ तो ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। ना ही स्कूलों के ढ़ांचागत विकास के लिए ही कोई प्रबंध किए गए हैं। हां खण्ड स्तर पर एक स्कूल में एक समावेशी संसाधन कक्ष जरूर विकसित किया गया है। इस कक्ष में अलग-अलग दिक्कतों की विशेषज्ञता वाले विशेष अध्यापकों की तैनाती भी की गई है। खण्ड स्तर पर तैनात ये विशेष अध्यापक विशेष बच्चों का सर्वेक्षण, मेडिकल कैंप, अभिभावकों के परामर्श शिविर, विशेष खेलों के आयोजन सहित कुछ गतिविधियों का संयोजन एवं संचालन तो कर पाते हैं, लेकिन विशेष बच्चों के शिक्षण के लिए ठोस उपाय तो हो ही नहीं पाते हैं।

यह सर्वविदित है कि जो छात्र-अध्यापक अनुपात सामान्य बच्चों का होता है। वह विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का नहीं हो सकता। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए व्यक्तिगत शैक्षिक योजना बनाई जाती है। इसमें फीजियो थेरेपी, स्पीच थेरेपी, म्यूजिक थेरेपी, ब्रेल लिपि, ओरियेंटेशन एवं मोबिलीटी, संकेतक भाषा सहित अनेक कौशलों के विकास की जरूरत हो सकती है और उसी तरह से अलग-अलग विशेषज्ञताएं रखने वाले व्यक्ति भी जरूरी हैं। लेकिन समावेशी शिक्षा के सपने को साकार करने के लिए पांच से दस विशेष बच्चों पर कम से कम एक विशेष अध्यापक की नियुक्ति होना तो बेहद अनिवार्य है। साथ ही फीजियो-थेरेपी, स्पीच थेरेपी सहित अन्य सहायक सेवाओं के लिए भी विशेषज्ञों की तैनाती होनी चाहिए। प्रदेश के स्कूलों में दिल्ली की तर्ज पर हर एक स्कूल में एक विशेष अध्यापक अनिवार्य रूप से नियुक्त करना चाहिए ताकि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की विशेष जरूरतों और विशेष दिक्कतों पर ध्यान दिया जा सके।

पहली से आठवीं कक्षा के बीच भले ही बच्चों का नाम ना काटा जाए, लेकिन विशेष आवश्यकता वाले बहुत से बच्चे पहली कक्षा में दाखिला लेने के बाद आठवीं शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं। या तो उनके अनुकूल स्कूलों में माहौल की कमी है या फिर उन्हें कक्षाओं में बोझ माना जाता है।  ऐसे में रोज-रोज अपमान झेलने से बच्चे या उनके अभिभावकों को स्कूल से विदाई लेना बेहतर लगता है। आठवीं के बाद नौवीं से बारहवीं तक विशेष आवश्कता वाले बच्चों की पढ़ाई को जारी रखने की दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। यदि मंद मानसिक विकास वाले बच्चों पर भी उनके सहपाठियों जैसी परीक्षाएं थोंपी जाएंगी तो यह विशेष बच्चों के मानवाधिकार का सरासर उल्लंघन ही तो होगा। विशेष बच्चों को जरूरत अनुसार दसवीं और बारहवीं की बोर्ड की परीक्षाओं से छूट मिलनी चाहिए।

अध्यापक प्रशिक्षण

अध्यापक शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार है, जिन्हें बच्चों के मन-मस्तिष्क में पैठकर उनके सर्वांगीण विकास की योजना पर अमल करना होता है। अध्यापन कर्म लठमार कार्य नहीं है, जैसा कि दिखता और दिखाया जाता है। यही कारण है कि अध्यापकों के गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण की भी जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 में जिला स्तर पर प्राथमिक शिक्षकों के लिए जिला शैक्षिक एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाईट) खोले जाने का प्रावधान किया गया था। इस समय प्रदेश में 21 डाईट, 2 खण्ड अध्यापक शिक्षा संस्थान और दो राजकीय मौलिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं। एक समय में खण्ड स्तर पर अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान खोलने की योजना सरकारी स्तर पर बनी थी, लेकिन बाद में सरकार की दिशा निजीकरण की तरफ मुड़ गई। इस समय प्रदेश में गिने-चुने ही सरकारी बी.एड. कॉलेज हैं।

निजी क्षेत्र में चल रहे अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों के मालिकों एवं प्रबंधकों का एकमात्र ध्येय पैसा कमाना है। यहां पर पैसा फेंक कर तमाशा देखा जा सकता है। बिना कक्षाएं लगाए और शिक्षण अभ्यास करवाए ही डिग्रियां बांटी जा रही हैं। निजी संस्थानों में प्रशिक्षण एक दिखावा और छलावा बन कर रह गया है। यह स्थिति सभी को पता है, लेकिन सरकारी स्तर पर स्थिति में बदलाव के लिए कोई प्रयास नहीं हो रहा। इसका कारण यह है कि अधिकतर प्रशिक्षण संस्थान एवं कॉलेज नेताओं या रसूखदार लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं। अध्यापकों के प्रशिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाए बिना स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को कैसे बढ़ाया जा सकता है?

सेवा पूर्व प्रशिक्षण की तरह सेवाकालीन अध्यापक प्रशिक्षण की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं है। यहां भी अध्यापकों के प्रशिक्षण का जिम्मा एक बारगी तो निजी कंपनियों या कम प्रशिक्षित लोगों को देने की कोशिश की गई। अध्यापकों की प्रशिक्षण कार्यशालाएं नाम लेवा होती हैं, जिनमें टाईमपास ज्यादा किया जाता है। उत्साही, प्रयोगशील और उच्च शिक्षित अध्यापकों को अध्यापक प्रशिक्षण कार्यशालाओं का जिम्मा देकर स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की हित में सकारात्मक माहौल एवं मानसिकता बनाई जा सकती है।

बच्चों और अध्यापक का संबंध

स्कूलों में विविध सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं। सामाजिक बदलाव के लिए उनमें अपार क्षमताएं और संभावनाएं हैं। अध्यापक का बच्चों के साथ आत्मीयतापूर्ण जीवंत संबंध जीवन की कंटीली-पथरीली राहों में उनका सहारा बन सकता है। लेकिन ये संबंध रूढ़ मान्यताओं, परंपरागत मूल्यों और कठोर नियमों पर आधारित होते हैं। इन नियमों में बच्चों के मन-मस्तिष्क की संभावनाओं का ध्यान नहीं रखा जाता, बल्कि स्कूल में अनुशासन व व्यवस्था बनाए रखने का ख्याल किया जाता है। अध्यापक पाठ्यक्रम को शीघ्र पूरा करवाने व परीक्षा की तैयारी करवाने की भागदौड़ में इतना अधिक व्यस्त रहता है कि वह पाठ्यक्रम के विषयों को जीवन के साथ जोड़ने, क्रियाओं के द्वारा समझने-समझाने, बच्चों की जिज्ञासाओं के संसार को समझने, आगामी प्रश्नों से रूबरू होने के अवसरों से वंचित रह जाता है। बच्चों के साथ यांत्रिक और ऊपरी संबंधों के कारण अध्यापक सीखने और आत्मविकास के अवसरों को खो देता है।

अध्यापक और विद्यार्थी के संबंधों का सबसे पीड़ादायक पहलू शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सजा का प्रयोग है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद सजा और शिक्षा पर चला विमर्श आज उल्टी दिशा में दौड़ पड़ा है।  अधिकतर अध्यापकों की भावनाओं के अनुकूल सजा को शिक्षा का अहम हिस्सा बताया जा रहा है।  उन्होंने अपने डंडे उठा लिए हैं। सजा का और भले ही जो प्रभाव हो, इससे बड़ी संख्या में बच्चे स्कूलों से दूर चले जाते हैं। डर में बच्चे ना तो स्कूल में अपनी रचनात्मकता और क्रियाशीलता का विकास कर सकते और ना ही बाहर। डंडे के डर से स्कूल छोड़ कर गए बच्चे बड़े होकर कैसे नागरिक बनेंगे, इसके बारे में भी विचार किया जाना चाहिए।

अध्यापक बच्चों को लताड़ने-फटकारने, दुत्कारने और भगाने की प्रवृत्ति को त्याग कर उनके साथ बराबरी के मानवता भरे संबंध बनाकर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को और अधिक आनंददायी बना सकते हैं। बेहतर संबंधों पर आधारित शिक्षा से बच्चे और अध्यापक दोनों रोमांचकारी अनुभवों से गुजरता हुआ पाएंगे।

हरियाणा में स्कूली शिक्षा विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझ रही है। अध्यापकों, मानव संसाधनों और सुविधाओं की कमी एक बड़ी समस्या है। शिक्षा पर निवेश में लगातार कटौती के रूझान दिखाई दे रहे हैं। शिक्षाविद लंबे समय से शिक्षा का बजट बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। कल्याणकारी राज्य की धारणा के अनुरूप जिम्मेदारियों से सरकारें लगातार भाग रही हैं। लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा के लिए निजी क्षेत्र के रहते हुए भी शिक्षा और स्वास्थ्य की मजबूत संस्थाओं व संस्थानों का होना बेहद जरूरी है।  लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों के आधार पर ही शिक्षा के ढ़ांचे को मजबूत बनाए जाने की जरूरत है। शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को और अधिक जवाबदेह और जनपक्षधर बनाकर हम सभी बच्चों को गुणात्मक शिक्षा प्रदान कर सकते हैं।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 54 से 61
 

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