कच्चे रास्तों का धनी-धोरी – अमित मनोज

जिमाड़ों में हमारी खास रूचि हो गई थी। स्कूल में पढ़ाते हुए हम और चीजों की बजाय खाने-पीने में ही ज्यादा ध्यान देते। आस-पास के जिमाड़ों में हम सहर्ष शामिल होते और दूर के जिमाड़ों में भी निमंत्रण मिलने पर किराये की गाड़ी से पहुंच जाते। हममें से पीने वाले साथी इस तरह की स्वतंत्रताओं का बड़ा फायदा उठाते और पूरे रास्ते पीते हुए चलते। पीने वालों के लिए ऐसी जगहों पर हाजिरी भरना ही काफी होता और हम शाकाहारी लोगों के लिए हाजिरी के साथ-साथ भर पेट खाना भी जरूरी होता। असल में पीने वाले और मांसाहारी लोग हम शाकाहारियों को बहुत हल्का समझते और जब-तब बात होने पर वे हमारे साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते। सामूहिक पार्टियों में बराबर का हिस्सा देने के बावजूद हमारे हिस्से अधिक कुछ न आता। हमें थोड़ा बहुत ठंडा, फ्रूटी या सलाद उनके साथ मिल जाता और इसे हम बहुत बड़ी बात मानते। तब पीने वाले लोग बड़े खुश होते कि उन्होंने न पीने वालों को अपने में मिलाकर काफी फायदा उठा लिया।
एक दिन हम न पीने वाले शाकाहारियों ने एक तरकीब निकाली। हमने साफ कह दिया कि यदि मांसाहारी मुर्गा खाएंगे तो हम भी अपनी पसंद का कुछ मंगवाएंगे। यदि वे दारू पीएंगे तो हम उतने ही मूल्य का कोई पेय पदार्थ पीएंगे। फिर होता यह कि एक मुर्गे के उन्हें दो-ढाई सौ खर्च करने पड़ते तो हमारी पसंद का भाव भी दो-ढाई सौ रुपये किलो से कम न होता। यूं बराबर खिंचने पर हम तो खुश होते पर वे मायूस। इसलिए कि अब सामूहिक पार्टियों का खर्च हजार से ऊपर ही आता जो और दिनों छह-सात सौ पर ही रुका रहता। मांसाहारियों से हमें फिर कोई शिकायत नहीं रही और हम शाकाहारी भी सामूहिक पार्टियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।
बहुत बार हम स्कूल में ही पार्टी का आयोजन करते। करतार भाई गजब की पनीर वाली सब्जी बनाता और हम देसी घी के साथ मेसी रोटी खाते तो बस खाते ही रह जाते। बर्फी या गुलाब जामुन भी साथ में होते तो खूब मजा आता। एक बार एक नई मैडम ने आकर हमारी इस तरह की सामूहिक पार्टियों में ‘अइयां-कुतइयां’ मिला दी जिसका सहयोगी हमारा ही एक साथी बना हुआ था जो किसी भी बात पर सामने वाले की बेइज्जती के लिए बहुत जोर से हंसता था और वह हंसी किसी को भी इस तरह चुभती कि दोस्ती लगभग-लगभग दुश्मनी में बदल जाती। इस तरह न जाने कितने साथी नाराज हो उससे अलग-थलग रहने लगे और वह साथी स्कूल की एकमात्र मैडम के साथ गप्प लड़ाने में अपनी बहुत बहादुरी समझने लगा। इससे हुआ यह कि नई मैडम के प्रचार भाषणों से बचने और उससे चिढ़ के कारण स्कूल में सामूहिक पार्टियों का आयोजन बंद कर दिया और हमने सबकी इच्छा से स्टेट हाइवे पर स्थित एक होटल चुन लिया जो स्कूल से पूरा पच्चीस किलोमीटर दूर था। नैतिकता के नाते हम उस अध्यापक को भी साथ ले जाने लगे। होटल में हम अपनी पसंद के व्यंजन मंगाते और मजे से खाते। अगले दिन हमारी पार्टी का आंखों देखा हाल वह साथी ही मैडम को सुनाता और मैडम की जीभ ललचाती। साथी किसी भी तरह मैडम के नजदीक रहना चाहता और इसीलिए उसने चुगली-चाटे का सारा डिपार्टमेंट बड़ा राजी हो संभाल लिया था। फिर भी हम इकट्ठे थे और लगातार अपनी पार्टियों का आयोजन कर रहे थे। इधर-उधर के जिमाड़ों में भी राजी-राजी जा रहे थे।
स्कूल मिडिल था और सबसे बड़ी बात यह थी कि यह मेन रोड से हटकर था। यही स्कूल अगर ओन-रोड होता तो हमारी मौज-मस्ती इतनी नहीं होती। ओन-रोड पर जब मर्जी कोई अफसर मुंह उठाकर आ जाता है। डांट भी सुनो और नखरे भी सहो। अगले दिन अखबार में भी पढ़ो कि फलां-फलां स्कूल में इतने अध्यापक गैरहाजिर पाये गए। अखबार में नाम पढ़ इन अफसरों को बड़े मजे आते हैं। कुछ तो घूमते ही इसलिए रहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा उनका अखबार में नाम छपे और इलाके के मास्टरों में उनके नाम की इतनी दहशत फैल जाए कि डरता मास्टर क्लास से बाहर ही न जाए। पर, अफसर मास्टरों को जानते नहीं। सरकारी को तो बिलकुल नहीं।
ऐसा नहीं है कि हमने कभी पढ़ाया नहीं। प्राइवेट स्कूल में बहुत पढ़ाया है जी। उस समय तनख्वाह भी कितनी कम थी और मैनेजमेंट वाले पूरा दिन तानकर रखते थे। महीने वाले दिन जो रुपल्ली देते थे वो तो घर जाते-जाते खर्च हो जाया करती थी। फिर महीने भर उधार-सुधार चलती और किसी तरह जीवन की गाड़ी आगे चलती।
यह तो शुक्र हुआ कि हम लोग जैसे-तैसे सेट्टिंग करके इस शिक्षा विभाग में चार चांद लगाने आ गए। शुरू में आये तो क्या सपने थे। मैं अपनी बताऊँ तो विश्वास नहीं होगा आपको। जिस दिन ज्वाइन किया था यह कसम खायी थी कि पूरी ईमानदारी से काम करूँगा। हालांकि (यह बताने की बात नहीं है, पर धीरे से बता देता हूँ कि मुझे भी लगने के लिए मेरी मां को अपने कुंडल तक गिरवी रखने पड़े थे।) मेरी यह कसम छह महीने बाद ही टूट गयी जब मैंने देखा कि हमारे स्कूल में पढ़ाने की कोई परम्परा ही नहीं है। प्राइमरी हो या मिडिल, दोनों में एक से बढ़कर एक हैं। हमारे हैडमास्टर एक बुजुर्ग टाइप व्यक्ति हैं या कहिये कि बुजुर्ग ही हैं जो इलाके में भैसों के एक बड़े सौदागर के रूप में प्रसिद्ध हैं। पत्नी उनकी बहुत पहले हैडमास्टर साहब के किसी और से प्रेम-प्रसंग के बारे में पता लगने के कारण यह दुनिया छोड़कर जा चुकी। तब से हैडमास्टर साहब का दिन कहीं और ही उगता-छुपता है। नयी-नयी भैंस देखने के पीछे वे जरुरतमंदों को भी तलाशते रहते हैं। इसीलिये ऐसा होता कि हैडमास्टर साहब किसी किसी के यहां रात-वात को भी भैंस देखने चले जाते। यह हमें अगले दिन बड़ी आसानी से पता चल जाता। हम स्कूल में पहुँचते तो हैडमास्टर साहब नीम की दातुन करते हुए स्कूल में मिलते वहीं टंकी पर नहाते और वहीं अपने सफ़ेद कुर्ते को दोबारा धोकर पहनते। घंटे भर में गीला हुआ कुरता ऐसा हो जाता कि वह पहना जा सके। सर्दियों में धोने-वोने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ती थी कि हैडमास्टर साहब को सर्दियों में सर्दी बहुत लगती थी और इसलिए न तो वे सर्दी में कोई परेशानी उठाना चाहते थे और न ही वे रोज-रोज अपने कुर्ते को बदलने में विश्वास करते थे।
हैडमास्टर साहब की खाने-पीने की स्टाइल बड़ी जबरदस्त थी। रोटी खाए तो उन्हें महीनों-महीनों हो जाते थे। सुबह चलते तो एक फौजी मग्घा दूध का मारकर चलते और स्कूल पहुँचने से पहले वे नांगल सिरोही के कन्हैया लाल की चाय की दुकान पर एक किलो दूध गर्म करवाते। पाव बर्फी तुलवाते और गुनगुने दूध में ओला-सोला कर उसे एक ही सांस में पी जाते। तब हैडमास्टर साहब अपने कुर्ते को थोड़ा ऊपर करके पेट पर हाथ फेरते और जोर से डकार मारते। फिर वे घड़ी देखते और स्कूल की ओर सरकना शुरू करते।
स्कूल में हम लोग भी हैडमास्टर साहब के पहुँचने तक एक-एक चाय पी चुके होते। बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव अपना सारा ध्यान मिड-डे-मील में लगा देते। स्कूल में एक मिड-डे-मील ही था जो बहुत कुछ कमाकर देता था। चाय का सारा खर्चा मिड-डे-मील में ही एडजस्ट किया जाता था। कई-कई बार मिड-डे-मील के मामले में अध्यापकों के सिर भी फूट जाते थे और एक बार तो मिड-डे-मील को लेकर स्कूल के सारे मास्टरों की पंचायत भी हुई थी। उन दिनों मिड-डे-मील का चार्ज मुरारी लाल जी के पास था और यह पूरे साल भर से उन्हीं के पास था। यह अघोषित और अलिखित प्रस्ताव था कि मिड-डे-मील में जितनी भी राशि बचेगी, उसमें एक बड़ी पार्टी के अलावा स्कूल का भी कुछ काम किया जायेगा। मुरारी लाल जी बारह महीने से कमा ही रहे थे। उनकी तरफ खूब बेईमानी को छुपाने के बाद भी पूरे एक लाख रुपये निकलते थे। स्कूल के दो कमरों की छतें न जाने कितने दिनों से टपक रही थीं और यह सोचा गया था कि मिड-डे-मील के पैसों से इस बार स्कूल के चार कमरों की छतें ठीक करवाई जाएंगी। दो छतों के रुपये ऊपर से आये थे जिसे तीन-चार महीने पहले ही ठीक करवा दिया गया था। बावजूद इसके वे छतें फिर से टपकने लगी थीं। छत का काम शेर सिंह जी ने करवाया था और सारा स्कूल क्या गांव भी जानता है कि उन छतों में मसाला तक ठीक से न लगा था। कायदे से छत का काम हैडमास्टर साहब की देख-रेख में होना था, पर हैडमास्टर साहब ने शेरसिंह जी पर तरस खाते हुए दस हजार बचाकर एकमुश्त बचाकर देने को कह सारा काम-धाम शेरसिंह जी को सौंप दिया था। शेरसिंह जी की यह बदकिस्मती थी कि जिस दिन छत के लिए ठेके में मिस्त्री को तैयार किया, उनका एक्सीडेंट हो गया था और घर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उनकी भैंस की ताज़ा बियाया पाड़ा कुछ देर पहले ही मरा है। यही नहीं भैंस का एक थन भी खराब हो गया है जिसमें से दूध ही नहीं निकलता। तब शेरसिंह जी की घरवाली ने उनको सलाह दी थी कि आप स्कूल की बेईमानी में ना पड़ो। बेईमानी की कमाई सबको हजम नहीं होती जी।
शेर सिंह जी अपना सा मुंह लेकर रह गए। घरवाली की बात उनको ठीक भी लगी। दूसरे ही क्षण लगा कि स्कूल में क्या जवाब देंगे। सब कहेंगे–निभा ली जिम्मेवारी। बात तो सब बना लें। काम करें तब पसीना आता है। बिना हड्डी की जीभ को तो जब मर्जी देकर मार लो !!
शेर सिंह जी ने फिर एक चालाकी चली। सोचा कि सांप भी मर जायेगा और लाठी भी न टूटेगी। अगले दिन स्कूल की छुट्टी के बाद रमेश सुखसहायक को रोक लिया, जो बजरंगबली का भगत था। तब रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने पानी का जग भरकर कसम खायी थी कि स्कूल की छत डलवाने में वह कोई भी बेईमानी नहीं करेगा। एक तो वह बजरंग बली का भक्त है और हर मंगलवार बाबा के बणी वाले मंदिर पैदल जाता है। यही नहीं पूरे गांव में न जाने कितनी बार वह बाबा के सत्संग करवा चुका और भक्तजनों की कृपा के रूप में इक_े हुए दसों हज़ार सिक्कों को वह कब से संभालकर रखे हुआ है। उसकी ईमानदारी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन सिक्कों को वह हर महीने के पहले मंगलवार को गिनता है और हमेशा पूरा पाता है। इसके अलावा भी यह स्कूल उसके गांव का स्कूल है और यह भी कि उसके बाबा ने इस स्कूल की नींव रखने वाले मिस्त्री को पहला हुक्का अपने घर से लाकर पिलाया था।
‘कैसी बात करता है रमेस! तुझपे बिस्वास ना होता तो मैं तेरे को थोड़ी न कहता।’ शेरसिंह जी ने रमेश के लम्बे-चौड़े बयान को रोकते हुए कहा।
तब का दिन था। शेरसिंह जी तो घर पर आराम से अपनी भैंस के खराब हुए थन को ठीक करने में लगे रहे और उधर स्कूल में रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने जाने क्या किया, क्या न किया। सावन की पहली बारिश में ही कमरे की छतों ने रामजी के सामने हाथ जोड़ लिए कि बस अब और रहने दो।
शेरसिंह जी क्या कहते। वे रमेश सुखसहायक की तरफ देखते भी तो रमेश दूर से ही हाथ जोड़ लेता-‘मन्ने कुछ ना करो जी। सीमेंट ही खराब आयगी आग्गा सी।’
तब मास्टरों की ही घरेलू पंचायत ने मिड-डे-मील के धनी-धोरी मुरारी लाल जी की तरफ देखा था। मुरारी लाल जी ने बड़ी ही शालीनता से कहा था-‘वे पूरी कोशिश करेंगे कि मिड-डे-मील में थोड़ा और बचे, लेकिन मैं हिसाब का पक्का आदमी हूँ और तय मानक से ज्यादा बेईमानी करने में असमर्थ हूं।’
सबने इस बात पर चुप्पी लगा ली। जानते थे कि थोड़ा सा बोलते ही लठ उठ जायेंगे। दूसरा जो भी बोलेगा उसे ही मिड-डे-मील का चार्ज पकड़ा दिया जायेगा और तब कोई कितना ही फूंक-फूंक कर कदम धर ले, मिड-डे-मील की दलाली से बच नहीं पायेगा।
एक दिन मामला थोड़ा अलग खिंच गया। दो कमरों की आई ग्रांट में तीन मास्टर और रम गए। जब से जेबीटी की इंटर्नशिप वाले आये हैं, प्राइमरी मास्टरों को काम थोड़ा कम हो गया। हैडमास्टर साहब के लिए खाली मास्टरों को संभालना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा था। हैडमास्टर साहब को हमेशा डर लगा रहता कि जब भी वे गांव में कोई भैंस देखने जाएँ, पीछे बचे मास्टर पता नहीं कब कोई दूसरी भैंस देखने चले जाएँ। तब बदनामी सारी की सारी हैडमास्टर की होगी।
यह सही भी था। तीनेक साल पहले इसी स्कूल के एक मास्टर ने आठवीं की लड़की को सवाल समझाते हुए हाथ पकड़ लिया था, तब लड़की के साथ वाली लड़की ने उस लड़की के घर जाकर बताया तो उस मास्टर की इतनी पिटाई हुई थी कि वह खून थूकता बदली करवा के भागा था। तब से हैडमास्टर साहब स्कूल के मामले में थोड़ा हिसाब बरतने लगे थे। उनका यह पक्का हिसाब था कि ‘मास्टर को जो कुछ करना हो, अपने स्कूल में नहीं करना चाहिए। गंद खाने के लिए भतेरी दुनिया पड़ी है’।
बावजूद इसके नए-नए आये मास्टर बात समझने को तैयार ही नहीं होते। अलबत्ता तो क्लास में जाते ही नहीं, जाते तो ठीक उस वक्त जब इंटर्नशिप वाली कोई युवा कन्या क्लास में बच्चों को होमवर्क दे रही होती। तब क्लास का असली इंचार्ज कुर्सी खींचकर भावी अध्यापिका के पास बैठा-बैठा बच्चों की कापियों में दिया जाता होमवर्क देखता जाता और न जाने कब वह इस देखने वाले समय में युवा मैडम से ऐसी संगति बिठा लेता कि फिर सुबह आये बच्चे होमवर्क के रूप में क्या लेकर घर जाते, खुद ही स्थायी अध्यापक और भावी अध्यापिका नहीं जान रहे होते। कुछ इतने शर्मीले होते कि इंटर्नशिप वालों के आने के बाद एक दिन भी क्लास में नहीं जाते और सारा दिन अखबार में छपी वर्ग पहेली को इस तरह भरते जैसे कि उनसे बुद्धिमान दूसरा मास्टर इस धरती पर तो कम से कम है ही नहीं।
एक दिन बारिश बहुत तेज आ गई। तब स्कूल में पूरे ढाब के ढाब भर गए। मौसम की नजाकत को देखते हुए शेरसिंह जी ने पकौड़ों का नाम ले दिया। फिर क्या था सुखलू मास्टर ने रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीको गांव की दुकान से आलू-प्याज, बेसन-हरी मिर्च लाने का ऑर्डर दे दिया। रमेश ने पहले पैसों की मांग की तो सुखलू मास्टर ने बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव की तरफ देखा। बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादवने सबको सुनाते हुए सुखलू मास्टर को कह दिया-‘कमाए तो दुनिया और पैसों के लिए मेरी तरफ देखो।’ यह ‘कमाए’ और ‘दुनिया’ शब्द स्कूल पर बड़े भारी पड़े। मुरारी लाल जी को लगा कि यह तो सीधा-सीधा उन्हीं को टारगेट किया गया है। या तो वे दरी पर आराम से लेटे थे। बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  के बोलते ही उठ कर बैठ गए और छूटते ही बोले-‘कमाने के लिए कालजा चाहिए। जो मूसी तक को मारने में घबराए, वो क्या घंटा कमाएगा।’ ‘घंटा’ शब्द यहां भी चुभने वाला था और यह तो सीधा-सीधा बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  को लगा कि उन्हीं के लिए बोला गया है।
बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  बोले-‘तुम तो शुरू से ही बेईमान रहे हो। पिछले स्कूल में भी तुमने क्या किया था, जानता हूँ।’
‘क्या जानते हो, बताओ न। क्या किया था मैंने, पता तो चले मुझे भी।’ मुरारी लाल जी तुनककर बोले।
‘बस मेरा मुंह मत खुलवाओ,  मिड-डे-मील का नाज किस बनिये के यहां बेचकर आते थे, बता दूँगा तो नीचे से धरती निकल जायेगी।’ बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  ने उंगली तानते कहा।
‘…   …  … …’ मुरारी लाल जी कुछ बोलते,बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव ने और छौंक मार दिया-‘और यहांभी तुमने कौनसी कम कसर घाल रखी है। स्कूल के ही खाए बैठे हो लाखों रुपये…’
बस फिर जो सीन बनना था, वह किसी भी फिल्म से कम न था। पिटे तो नहीं, बाकी कसर रही नहीं। साइंस और एसएस मास्टर तो चाह रहे थे कि सिर-विर और फूट जाए तो मजे आ जाएँ। इससे बढिय़ा मजा तो पकौड़ों में भी नहीं आता।
आवाज़ सुनकर प्राइमरी ऑफिस के इर्द-गिर्द बच्चे इक_े हो गए। मिडिल से रामप्रकाश सर और स्कूल की एकमात्र मैडम कविता बहनजी भागे आये। हैडमास्टर साहब उस वक्त थे नहीं। वे गांव में एक दिन पहले ही बियाई भैंस देखने गए थे। बच्चों के साथ-साथ इंटर्नशिप वाले तीनों-चारों भावी अध्यापक और अध्यापिकाएं भी ऑफिस की ��रफ आ गए थे। पीटीआई जसपाल ने यह देखा तो बच्चों को ऑफिस से बाहर निकल कर डंडा दिखाते हुए बोल दिया-‘जाओ छुट्टी हो गई …’
बच्चों का क्या था। स्कूल में लड़ाई कोई नयी बात थोड़े न थी। वार-त्यौहार मास्टरों को लड़ना भी शोभा देता है। स्कूल में मास्टर नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा। अब बच्चे पढ़ते कहां हैं जो वे पढाएं। नहीं तो मास्टरों में कोई कमी थोड़े ही है। सारे के सारे बड़ी-बड़ी डिग्रियां लिए बैठे हैं। बच्चे बस्ता लादे पहले ही तैयार थे। छुट्टी का नाम सुनते ही गेट की तरफ भाग पड़े-‘छुट्टी …’
भागना रोज का था, पर हाय रे किस्मत! भागते-भागते दो बच्चे एक-दूसरे से उलझकर गिर पड़े और क्या था कि पकौड़ों का मजा किरकिरा हो गया। दोनों बच्चों का सिर फूट गया। एक के थोड़ी ज्यादा लगी थी। दूसरे की भी सारी शर्ट खून से भर गयी थी। शेरसिंह जी और एसएस मास्टर तेज भागकर बच्चों के पास गए और दूसरे साथियों की मदद से हल्की-हल्की आती बारिश के बीच भागकर नांगल सिरोही के सरकारी अस्पताल में लेकर गए।
हैडमास्टर के पास कैसे यह खबर पहुंची। मास्टरों के लड़ने की खबर गांव में पहुंचाई तो पहुंचाई किसने। हैडमास्टर साहब पायजामा संभाले स्कूल में आये। उनका सांस चढ़ा हुआ था और उनके साथ गांव के ही दो-तीन जने थे। उनमें से सबसे कम उम्र वाला आदमी गांव की सरपंच का पति था। वह हमेशा सरपंच की ही भूमिका में रहता था। सब कहते भी उसे ‘सरपंच’ ही थे। हैडमास्टर साहब बहुत चिंतित हुए। सरपंच और दूसरे लोगों को कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी को खीजते हुए कहा-‘रमेस, पाणी पिया पहल्यां।’ रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी गांव का चौधरी था। सरपंच पति दलित जाति से था। तब यह कैसे हो सकता था कि रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी सरपंच पति को पानी पिला दे।
–‘खुद पीओ उठ कै न’, रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी ने सीधे बोल दिया।
हैडमास्टर साहब पहले ही स्कूल के पंगों से दुखी थे, इसलिए बात को आई गई कर बरामदे में से भाग रहे एक बच्चे को रोका। पहले उसे इस तरह भागने के लिए डांटा। फिर उसे पानी लेने को कहा।
‘इभी गयो ही थो मैं। जाता ही दिलबाग की काल बियाई भैंस की पूंछ कै  हाथ लगायो ही थोक् आणकी लड़ाई की खबर पहुंचगी। इतनी बड़ी उम्र कां नै लड़तां शर्म तो कती ना आवै।’ हैडमास्टर ने सरपंच पति की ओर मुखातिब होते कहा।
‘और यो तो थम सौ गुरुजी। नहीं तो आं स्कूल म्हं लीलाराम जिसा कांड रोज होवीं।’ सरपंच पति ने साथ आये आदमी की तरफ देखते हैडमास्टर साहब को कहा।
‘मैं भी योई सोचूं, मेरा बिना आं स्कूल नै कौन समालैगो।’
थम तो गुरुजी कदे सीं ठाठी रह्या सो। हामनै भी तो थम ही पढ़ाया करया करै था। मेरो तो दिमाक ही ना चाल्यो गुरुजी। र्आ मैं तो थारी सेवा म्हं ही लाग्यो रह्या कर थो। मन्नै तो बालक भी थारा कनै घाल राख्या सीं। थारी बोहडिय़ा तो बोल्ली अक पराईवेट म्हं बालक पढ़ावांगा। सरकारी स्कूल म्हं तो मास्टरां नै पढ़ानू छोड़ दियो। आजकाल तो गरीब सी गरीब भी पराईवेट म्हं पढ़ावै से। फेर थम तो गांव का सरपंच सो। मैं ही नाटग्यो। थारा सी बढिय़ा कुण पढ़ा सकै से गुरुजी।’
हैडमास्टर साहब के दिमाग में या तो दिलबाग की भैंस की दूध भरी ऊंडी घूम रही थी। या अब अपने चेले और सरपंच पति की ये बातें घूमने लगी। -सही तो कहती है सरपंचनी। इब कित पढ़ाई सीं मास्टर। खुद उन्हें ही कितने साल हो गए क्लास में गए। आठ साल से तो यूँ का यूँ याद है। घरवाली मरे पाछे एक दिन भी तो क्लास में जाकर नहीं देखा। कितने बच्चे आये, कितने गए, गुरुजी को अब याद कहां था। वे तो रोज कोई न कोई भैंस दिमाग में लिए स्कूल में घुसते और कोई न कोई भैंस दिमाग में लिए घर भीतर बड़ते। अब उनका सारा ध्यान भैंसों की खल और बिनौलों  में लग गया। कभी उनके सवाल समझाने का तरीका इतना शानदार होता था कि बच्चे को घर जाकर दोहराने की जरुरत नहीं होती थी।
उन दिनों दो ही मास्टर होते थे पूरे स्कूल में और क्या मजाल की कभी कोई छुट्टी ली हो। दोनों में इतना तगड़ा कम्पीटिशन होता था कि पूछो ही मत। न जाने दोनों जनों ने कितने विद्यार्थियों का दाखिला जवाहर नवोदय विद्यालय में करवाया था। और वजीफा तो ब्लॉक में सबसे ज्यादा गुरुजी के स्कूल के बच्चों को ही मिलता था। तब यह स्कूल जिले के टॉप टेन स्कूलों में आता था। बीच के दस सालों को छोड़ दिया जाए तो गुरुजी की सारी उम्र इसी स्कूल में ही कटी है। दस साल बाद प्रमोट होकर आये तो सीनियर होने के नाते स्कूल के इंचार्ज बन गए और सबके लिए ‘हैडमास्टर साहब’ बन गए।
–सही तो कह रहा है लक्खा। पिछले दस सालों से गुरुजी ने पढ़ाया ही कहां है। और गुरुजी ने ही कहां, अब पढ़ा ही कौन रहा है। सबके सब मास्टर तो निन्यानवे के फेर में पड़े हुए हैं। कभी किसी क्लास में सौ-सौ बच्चे होते थे। आज पूरे स्कूल के इतने नहीं ठहरते। कुछ स्कूलों में तो आठ-आठ, दस-दस बच्चे रह गए हैं। जब से सुरीना राजन ने शिक्षा के बदलाव के लिए कम बच्चों वाले स्कूलों को एक-दूसरे में मर्ज करने की पॉलिसी बनाई है, बहुत से मास्टरों और गांवों की नींद ही उड़ गयी है। अब सबको खतरा है। किसी तरह नौकरी बची रहे। मास्टरों के हाल देखकर ही तो अनपढ़ लोगों तक ने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना शुरू कर दिया।
–सही तो हो रहा है। मेरे जैसे की नौकरी तो जैसे-तैसे पूरी हो जायेगी। ये जवान बालक क्या करेंगे। सारे अभी से निठल्ले बैठना सीख गए हैं। सोच रहे हैं गुरुजी। योगेश को देख लो। सारे दिन बहाने मारता रहता है। पिताजी बीमार है। मां बीमार है। सुबह आता है और या तो गुडगांव एमएलए के यहां बैठा रहता है या फिर नारनौल प्रोपर्टी बिल्डर के यहां। कहता है दोस्त है वह बिल्डर उसका। झूठा। एक नम्बर का। थूकते हैं गुरुजी। यह भूलकर कि कोई उनके पास बैठा हुआ है। खुद करोड़ रुपये फंसा रखे हैं। लोगों के किल्ले बिकवाता है और मोटा कमीशन मारता है। जब भी कहता हूं -साहब दो महीने और दे दो, दो महीने और दे दो…दो के जाने कितने महीने हो गए। सुधरता नहीं। साला…
हैडमास्टर साहब के मुंह से गाली निकली तो सरपंच पति लक्खा ने कहा-‘क्या हुआ गुरुजी! ठीक तो सै सबकिमी।’
हैडमास्टर साहब ने बैठने की थोड़ी सी अपनी पोजीशन बदली। फिर सोच में डूब गए।
–सबका ध्यान मिड-डे-मील और झूठी पर्ची लगाने में रहता है। एक-आध मास्टर नया-नया आकर पढ़ाने लगता है। बड़ी-बड़ी बातें करता है। फिर दो-एक साल बाद क्या होता है उसे कि वह सबसे ज्यादा कामचोरी और हरामखोरी करने लगता है। जब से यह मोबाइल चला है, सारे दिन अंगूठे के सहारे जाने क्या करता रहता है। कभी कभी लगता है। अंगूठा घिस तो नहीं जायेगा। अलबत्ता तो क्लास में जाते नहीं। जाते हैं तो पढ़ाते नहीं। पढ़ाते भी होंगे तो चार बार तो फोन को छेड़-छेड़ कर देखेंगे कि किसी का कुछ लिखा आ तो नहीं गया।
प्राइमरी के दो बच्चे पानी लेकर आये तो हैडमास्टर साहब आज के स्कूल में लौटे। थोड़ी देर बैठे। फिर एक जने को निर्देश देकर कुछ सोचते हुए सरपंच पति लक्खा और दूसरे आदमियों के साथ गांव की ओर ही निकल गए।
अगले तीन दिनों तक हैडमास्टर साहब स्कूल में आये नहीं। पास के गांवों में ताज़ा बियाई भैंस देखने गए थे। इसी बीच किसी की सलाह पर हैडमास्टर साहब ने अपने ही गांव के एक चमारों के लड़के को आधी बंटाई में रेवड़ लाकर दिया था, ताकि दो पैसे आते रहें और अपनी लड़की की शादी में बिना किसी की परवाह किये ढंग की चार पहियों वाली गाड़ी दे सकें। बकरियां संभाले भी उन्हें कई दिन हो गए थे, नहीं तो हैडमास्टर साहब स्कूल से बेइंतहा प्यार करते थे।
हैडमास्टर साहब के नहीं आने से स्कूल के कई जने निराश से ही हो गए थे। तीन दिन तक अपने मन का कर पाने में उन्हें दिक्कत महसूस हो रही थी। हैडमास्टर साह�� के सामने कितने सारे उलटे-सीधे सुझाव वे देते तो उनकी भी आत्मा ठंडी होती और उन्हें भी लगता कि उनका भी योगदान इस स्कूल के निर्माण में है।
मुरारी लाल जी मारे अपमान के क्लासों में नहीं जा रहे थे। उन्होंने मोनीटर को बुलाकर कह दिया था…’थोड़ा क्लास देख लेते। मेरी तबीयत खराब है।’
‘समझ गया गुरु जी।’-मोनीटर कहकर क्लास की तरफ भागा था और जब क्लास में जाकर मोनीटर ने गुरु जी का सन्देश सुनाया तो गलती से काम न करने वाले विद्यार्थी उछल पड़े थे। मुरारी लाल जी पढ़ाने वाले मास्टरों की श्रेणी में आते थे। वे पढ़ाते भी थे, पर जब से उनको मिड-डे-मील का चार्ज दिया गया, सारे दिन हिसाब-किताब में ही उलझे रहने लग गए। तब उनका क्लास में जाना धीरे-धीरे कम होता गया और वे कटमा क्लास लेने के आदी हो गए।
स्कूल के दो ग्रुप बन गए थे। एक में बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव के समर्थक थे जो सत्ता में परिवर्तन चाहते थे। दूसरे में मुरारी लाल जी थे जिनके पास स्कूल की सत्ता थी। मिड-डे-मील के अतिरिक्त सालाना दस और पन्द्रह हजार की ग्रांट को एडजस्ट करने की जिम्मेदारी जिस मास्टर की थी, वह भी मुरारी लाल जी का खास था और इसलिए उनकी दोस्ती फेविकोल के जोड़ की तरह बहुत मजबूत दिखने वाली दिखती थी।
चौथे दिन हैडमास्टर साहब अपनी टांट खुजाते स्कूल में प्रविष्ट हुए तो मास्टरों के चेहरे खिल गए। आज दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। हैडमास्टर साहब भी मन में करके आये थे कि वे खातों की अदला-बदली कर देंगे ताकि स्कूल की शांति बनी रहे और उनका भैंस-वैंस देखने का धंधा आराम से चलता रहे। इस तरह के लड़ाई-झगड़े हुए तो यह स्कूल तो अफसरों का अड्डा ही बनकर रह जायेगा और आकर कोई भी कह देगा कि हैडमास्टर साहब आपके होते हुए भी स्कूल डिस्टर्ब होता है तो इसका तो राम ही रुखाला है।
हैडमास्टर साहब आये तो ग्राउंड में इधर-उधर झुण्ड बनाये खड़े बच्चे भाग कर क्लासों में घुस गए। एकाध मास्टर जो क्लास में अपने मोबाइल के साथ दिखायी दे रहा था, हैडमास्टर साहब के आने से थोड़ा उधर देखा, फिर नए खरीदे मोबाइल से अपनी सेल्फी लेने में व्यस्त हो गए। इंटर्नशिप वाले एक-दूसरे से लगातार संपर्क में आते दिख रहे थे और इन दिनों भावी अध्यापिका प्यार की ऊँची-ऊँची पींगें मचका रही थी। भावी अध्यापक और भावी अध्यापिका के बीच और बातों के अलावा इस पर चर्चा अधिक होती थी कि क्लास का इंचार्ज उसके पास कुर्सी डालकर बैठ जाता है और पढ़ाने बिल्कुल नहीं देता। कहता है – इस गांव के कौन-सा अफसर बनेंगे। भावी अध्यापक इस मामले में नयी-नयी दोस्त बनी भावी अध्यापिका के साथ था और उन दोनों ने क्लास इंचार्ज सुरेश मास्टर की शिकायत हैडमास्टर साहब से करने की सोच ली थी। भावी अध्यापिका इस बात से बहुत खुश थी कि संकट के समय में उसके साथ भी कोई है।
हैडमास्टर साहब आज भी एक किलो दूध और पाव भर बर्फी घोलकर पीकर आये थे। कुर्सी पर उनके बैठने के स्टाइल से ही लग रहा था कि हैडमास्टर साहब कहीं सीधे भैंस देखकर आ रहे हैं। उनकी आंखों की पुतलियों में रात की नींद साफ-साफ झलक रही है और पलकों के किनारों पर लगी पीली पपडिय़ां कुछ ज्यादा ही दिखायी दे रही हैं।
हैडमास्टर साहब ने आते ही पहले अपने हफ्ते भर से छूटे खानों में हाजिरी मारी। यह अप्रोच रोड का ही सुख था कि कई-कई दिनों तक रजिस्टर छुआ तक न जाता था। बाकी मास्टर भी रजिस्टर से इतना परेशान इसलिए नहीं रहते थे कि सबने अपने-अपने हिसाब से हाजिरी लगाने का सरल सा रास्ता ढूंढ रखा था। ज्यादातर लोग हस्ताक्षर न करके सीधा-सीधा अपना नाम रजिस्टर के खाने में मांडते थे। इसका एक फायदा यह होता कि खुद के कभी-कभी न आने पर दूसरा विश्वासपात्र और शुभचिंतक मास्टर भी वैसे का वैसा नाम मांड दिया करता। कुछ लोग अंग्रेजी के दो अक्षर लिखने में ही अपने खाने को पूरा समझते थे। जैसे अभिषेक कुमार जी हमेशा ‘्र ्य’ और नरेंद्र कुमार जी हमेशा ‘हृ्य’ लिखते थे। छुट्टी-वुट्टी के लिए पूरी दरियादिली इसलिए थी कि छुट्टी-वुट्टी के मामले में सब मेच्योर थे। जानते थे कि एक मास्टर आदमी छुट्टी की ही बेईमानी कर सकता है। इसलिए छुट्टी-वुट्टी को लेकर कोई भी इश्यू बनाना मूर्खता है और यह मास्टर वर्ग के लिए तो बेहद शर्म की बात है।
यह बात अलग है कि एक दफा इसी स्कूल में छुट्टी का बहुत बड़ा इश्यू बन गया था। बात यह थी कि स्कूल में रहकर ही अपनी आगे की पढाई करने वाले अभिषेक कुमार जी को जब-तब छुट्टी चाहिए ही होती थी। अभिषेक कुमार जी नियम के अनुरूप छुट्टी लिखकर रजिस्टर में छोड़ जाते और अगले दिन आने पर या तो छुट्टी की अर्जी फाड़कर खाने में ्र्य मांड देते या ओन रिकार्ड लगी जरूरी छुट्टी को एक बटा दो लिखकर आधे खाने में अराइवेल और डिपार्चर के समय हृ्य, हृ्य मांड देते। एक दिन हुआ यह था कि किसी बात पर अभिषेक कुमार जी और नरेंद्र कुमार जी में मनमुटाव हो गया। हैडमास्टर साहब कहीं भैंस और अधबंटाई में दिए अपने रेवड़ को देखने गए थे और स्कूल का चार्ज एसएस मास्टर जगदीप बोहरा के पास था। अभिषेक कुमार जी हमेशा की तरह छुट्टी रखकर अपने दूसरे साथी और बोहरा जी को बोलकर गया था कि ‘कोई आ जाए तो देख लेना’। बोहरा जी ने अभिषेक कुमार को निश्चिन्त करते हुए कहा था कि ‘तू मौज कर यार। हाम रह्या न। कहीं नहीं मोर चुगता इस स्कूल को। जा आराम से जा।’ अभिषेक कुमार जी की आंखों में आंसू आ गए थे बोहरा जी का उनके प्रति प्रेम देखकर।
अगले दिन अभिषेक कुमार जी की जिन आखों में आंसू थे, शोले भड़क रहे थे। हुआ यह था कि अभिषेक कुमार जी की आंखों में न केवल छुट्टी लग गयी थी, बल्कि पूरे खाने में ‘पूर्ण आकस्मिक अवकाश’ लिख दिया गया था। अभिषेक कुमार जी इस बात पर भड़क गए थे कि आज तक किसी सरकारी मास्टर के खाने में ‘पूर्ण’ शब्द नहीं लिखा गया तो यह उसी के खाने में क्यों। बोहरा जी ने तो गरमा-गरमी में अभिषेक कुमार जी को खुद के निर्दोष होने की कहकर नरेन्द्र कुमार जी की तरफ इशारा कर दिया था जिसके साथ स्कूल का एकमात्र स्थायी सुखसहायक रमेश उर्फ भगतजी शामिल था।
अभिषेक कुमार जी उबल ही रहे थे कि नरेंद्र कुमार जी का स्टाफ रूम-कम-ऑफिस में आना हुआ। तब रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने आग में घी डालने का काम किया और सीधे नरेंद्र कुमार जी की तरफ मुंह करके कहा-‘नाराज सीं अभिषेक जी।’
‘तो मैं क्या करूं’-नरेंद्र कुमार जी बोले।
‘तुम्हारी ही तो करतूत है यह’-अभिषेक कुमार जी सीधे नरेंद्र कुमार जी से मुखातिब होकर बोले।
‘मेरी क्यूं है। हैडमास्टर बोहरा जी थे उस दिन। और चुरडिय़ा क्यों उठते हैं। कोई नहीं आएगा तो छुट्टी तो लगेगी ही।’ नरेंद्र कुमार जी एक सांस में कह गए।
या तो बोहरा जी चुप बैठे थे और सोफे पर पसरे आधी-आधी आंखें बंद कर साइंस मास्टर राममेहर की तरह राम के नाम लेने में लगे थे। नरेंद्र कुमार जी से अपना नाम सुनते ही तुनककर बोले-‘मैंने क्या अपने आप लगाई थी छुट्टी। तुम और यह रमेश तड़के से गैल लग रहे थे कि अभिषेक आएगा तो एक बटा दो कर लेगा। इसलिए स्कूल में सबके साथ बरोबर का ब्यौहार होणा चाहिए। सबके सब यहां सरकारी दामाद हैं। ना कोई छोट्टा और ना कोई बड़ा।’
बड़ा हंगामा होते-होते रहा। स्कूल में सबकी छुट्टियों पर लगाम कस दी। फिर मास्टरों की धड़ाधड़ छुट्टियां लगने लगी तो सबके पसीने आ गए। इस तरह की लड़ाई में तो सबका ही नुकसान है, यह सबको समझ में आ गया। स्कूल की एकमात्र मैडम कविता ने भी इस विषय पर पहली बार अपना मुंह खोला था। कविता मैडम सलाई-बुनाई में बहुत निपुण थी और गर्मियों-सर्दियों में क्रोशिया या सलाई लेकर कुछ न कुछ बुना करती थी। मैडम का कहना था कि बुनाई उसका शौक है और वह इसके बिना रह ही नहीं सकती। स्कूल में नारी का सम्मान करते हुए सबने यह छूट दे दी कि मैडम को कम से कम डिस्टर्ब किया जाए। जाने कब किस पर कृपा हो जाए और मैडम उसके नाप के घरे अपनी सलाइयों में डाल ले। तब मैडम अपने दो पीरियड रो-पीटकर लेती और स्टाफ रूम-कम-ऑफिस में एक सिंगल सोफे पर बैठी सलाई-बुनाई के काम को अंजाम देती रहती।
छुट्टी को लेकर बोहरा जी भी परेशानी में थे। पिछले ही महीने दो पूरी-पूरी छुट्टियां लग गयी थीं। सरकारी मास्टर के लिए छुट्टियांतो ब्रह्मास्त्र की तरह होती हैं और यही एक पूँजी। बोहरा जी के ही दखल से चार-पांच मास्टरों की छोटी सी बैठक में यह तय किया गया कि छुट्टी-वुट्टी के मामले में सबको एक रहना पड़ेगा। सबकी नजर में तो मास्टर दुसमन बना हुआ है। हाम आपस में भी बना कर नहीं रखेंगे तो बहुत मुश्किल होगी। बोहरा जी आगे कहते—हमारा तो टेम किसी तरह पास होग्या। फिर वे हमारी तरफ इशारा कर कहते—इन बाळकां का क्या होगा ? तब सबने बोहरा जी की बात का समर्थन किया और नरेंद्र कुमार व अभिषेक कुमार के बीच के विवाद पर विचार करते हुए बोहरा जी ने ही यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि अभिषेक कुमार जी के खाते में लिखे गए ‘पूर्ण आकस्मिक अवकाश’ में ‘पूर्ण’ शब्द पर सफेदा लगा कर इस बात को यहीं रफा-दफा किया जाए। रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने यह सुनते ही तुरंत हैडमास्टर साहब की मेज की ऊपर वाली दराज से व्हाईट फ्ल्यूड निकाल और शुभ काम को मानते हुए स्कूल की सलाई-बुनाई में व्यस्त एक मात्र मैडम से ‘पूर्ण’ शब्द पर भाईचारे का सफेदा लगाकर यह बताने का प्रयास किया कि नफरत में कुछ भी तो नहीं धरा है। इसी बात पर नरेंद्र कुमार जी ने अभिषेक कुमार जी से हाथ मिलाया और भविष्य में ऐसी कोई गलती न होने की तसल्ली दी। रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी ने बोहरा जी के दिए सौ रुपयों को स्कूल के ग्राउंड में खेल रहे बच्चे को देकर देस्सा की दुकान से चिल्ड ठंडा लाने का आदेश दिया। आदेश की पालना के लिए बच्चा दौड़ता हुआ गया तो रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीको लगा कि उसके गांव की नयी पीढ़ी कम से कम नालायक तो नहीं ही है।


                स्टाफ बड़ा था तो कुछ न कुछ होता ही रहता था। कभी कोई रूठ जाता तो कभी कोई। हर बार बोहरा जी को हैडमास्टर साहब के स्कूल में न रहने के कारण मध्यस्थता करनी पड़ती। बोहरा जी आज भी मानते हैं कि वे नहीं होते तो इस स्कूल का भविष्य बहुत बुरा होता। बोहरा जी ‘चिड़ी भिड़ाऊ’ और ‘झगड़ा मिटाऊ’ दोनों ही भूमिकाओं को बड़े अच्छे से निभा लेते थे। मास्टरी के अतिरिक्त उनका मुख्य काम ब्याज पर रुपये देना था और यह काम उनके लिए पुश्तैनी था। वे कहते भी थे कि उन्होंने अपने पिता के बोहरेपने के काम को इतना आगे बढ़ाया है कि स्वर्ग से भी वे उनके लिए आशीष देते होंगे। स्कूल में भी बोहरा जी अक्सर ब्याज के हिसाब-किताब में लगे रहते थे। कई बार तो ब्याज पर रुपये उठाने वाले लोग स्कूल में ही आ जाया करते। बोहरा जी ऐसे लोगों को कभी निराश नहीं करते और अपने इस समाज सेवा के काम को पूरी ईमानदारी से निभाते। बोहरा जी अपनी एक जेब से रुपये और दूसरी से प्रनोट निकालकर आने वाले को तुरंत संकट से उबारते।
लड़ने-वड़ने की खबरें बच्चे अपने घर पहुंचाते तो स्कूल में आये कुछ पागल टाइप अभिभावकों को बोहरा जी और शेरसिंह जी ही समझा-बुझाकर वापिस भेजते।
स्कूल के दिन धीरे-धीरे खराब होने लगे थे। गांव के लोगों का आना-जाना बढ़ गया था जो स्कूल के किसी भी मास्टर को पसंद नहीं था। गांव के लोग ताका-झांकी कुछ ज्यादा ही करने लगे थे। शिक्षा के मंदिर में यह सब शिक्षा के पुजारियों को खटकने लगा था। वैसे भी दिनों-दिन बच्चों की संख्या कम हो रही थी। इसके लिए भी सरकार की खराब नीतियों का ही होना था। आधार पहचान तक के लिए तो ठीक था, पर इससे ज्यादा उसके उपयोग की क्या जरुरत थी। जाने किस मूर्ख ने यह सलाह दी थी कि बच्चों की यूनिक आईडी जारी कर उसे आधार के साथ जोड़ दिया जाए। अब क्या तो स्कूल में इतने बच्चे थे कि मिड-डे-मील में पूरे हजार रुपये दिन के बच जाते थे। फर्जी बच्चों के नाम का राशन तो कभी बनाना ही नहीं पड़ता था। बल्कि कभी-कभी स्टोर में गेंहू-चावल का स्टॉक इतना बच जाता था कि मुरारी लाल जी को बीच-बीच में कई-कई बार कट्टे के कट्टे उठवाकर हिसाब मिलाना पड़ता था।
आधार से पहले बच्चों के नामों में कोई समस्या नहीं थी। हमारे खुद के बच्चों के नाम भी किसी न किसी क्लास में लिखे हुए थे। हमारे बच्चे शहर के नामी स्कूलों में पढ़ते थे और कभी भूले-भटके हमारे साथ स्कूल पिकनिक की तरह आते थे। गांव के आधे से ज्यादा बच्चे स्कूल का रंग-ढंग देखकर शहर और आस-पास के प्राइवेट स्कूलों में पढऩे जाते थे। गांव में हम कभी गए ही नहीं। जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सरकारी स्कूल में पढ़ाने का गांव वालों को भी बहुत फायदा था। सरकारी स्कूल में मिलते एससी-बीसी के वजीफे से वे आधे साल की फीस पटा देते और आधी मजदूरी कर या अन्य संसाधनों से चुकाते। हमें यह फायदा था कि स्कूल में सारी की सारी पोस्टें बची रहें और मिड-डे-मील से बचे रुपयों को स्कूल के भले के लिए खर्चते रहें। ज्यादा बच्चों के होने से राशन बनाने वाली महिलाओं को भी मजा आता था। महीने के भले ही उन्हें हजार-आठ सौ रुपये का मेहनताना मिलता था, पर इसके अलावा वे जान-बूझकर इतना पकाती थी कि बच्चों और मास्टरों के खाने के बाद भी खूब बचा रहे। मिड-डे-मील वर्कर तब खुश होतीं और अपने साथ लायी बाल्टियों को ऊपर तक भरकर ले जातीं और जाते ही अपनी भैंसों की लहास में पड़े तूड़े में मिला देतीं। भैंसें बहुत खुश होतीं और कांता मिड-डे-मील वर्कर के अनुसार–सरकारी राशन खाने वाले दिन उसकी भैंस आध सेर दूध फालतू देती है। सरकार की यह योजना तो चोखी है।
एसएमसी (स्कूल मैनेजमेंट कमेटी) के पास इतना वक्त होता नहीं था कि वह कभी स्कूल आकर कुछ देखती। एसएमसी के सारे के सारे लोग ऐसे थे जिनके पास असल में स्कूल आने के लिए समय ही न था। दो-तीन मिस्त्री थे और कुछ ऐसी महिलाएं थीं जिन्हें अपना नाम तक ठीक से लिखना नहीं आता था। पढ़ी-लिखी के नाम पर रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी के छोटे भाई की बहू ही थी जो पूरे पांच पढ़ कर आई थी। इसे रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीके कहने से ही हैडमास्टर साहब ने रखा था। रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीने शुरू वाले दिन ही अपने छोटे भाई की बहू से कह दिया था -‘ए, जब भी स्कूल सीं कोई कागज आवै, आंख मींच कै नै साइन कर दिइये।’ छोटे भाई की बहू ने घूंघट काढे-काढे हाथ जोड़ यह जता दिया था—’जेठ जी, जो थारी इच्छा!!’
रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी के छोटे भाई की बहू अब तक स्कूल का हर कागज बिना कुछ कहे साइन करती थी। वह पार्टटाइम स्वीपर-कम-पिअन के हाथ से रजिस्टर ले आराम से पढ़ती थी और चेहरे पर बिना कोई भाव लाए सुंदर से हस्ताक्षर रजिस्टर पर टांक देती थी। बीच में कुछ ऐसा हुआ कि रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी और उसके छोटे भाई में गांव की ही फिरनी को लेकर एक विवाद हो गया। हालांकि बाद में वह मिट भी गया, दोनों घरों की औरतों के दिलों के तार ठीक से नहीं जुड पाये। आज फिर हैडमास्टर साहब के कहने पर पार्ट टाइम स्वीपर-कम-पिअन सविता के घर गया। सविता जैसे इंतजार ही कर रही थी। सविता ने पहली बार पूरा रजिस्टर उलट-पुलटकर देखा। सविता बड़बड़ाने लगी—शर्म ही नहीं आती। एक ही बात को कितनी बार लिखेंगे।
वह रजिस्टर चौक में लेकर आ गयी और पार्ट टाइम स्वीपर-कम-पिअन को देते हुए बोली—’स्कूल में कह देना। पेशाबघर की दीवार ठीक से चिणवा लो। हर साल गिर जाती है। इबकी बार तो साइन कर री सूं, आगा सीं मेरो नाम काट दियो।’
पार्टटाइम स्वीपर-कम-पिअन सविता को अब तक यूँ ही समझता था। आज उसे समझ आई कि वह तो बम है जी बम, न जाने कब फूट जाए। उसने कुछ नहीं कहा और चुपचाप रजिस्टर लेकर हैडमास्टर साहब के पास आ पूरा किस्सा सुनाने लग गया। हैडमास्टर साहब के माथे पर चिंता की खूब सारी लकीरें अंकित हो गयी। वो मान रहे थे कि इतने बरसों तक इस गांव में पढ़ाने का कोई फायदा जैसे उन्हें हुआ ही नहीं।
–‘रमेश, तेरी बोहडिय़ा नै भी जबान आगी। आज साइन करण सीं ही नाटगी।’ हैडमास्टर साहब ने ग्राउंड से अभी-अभी स्टाफ रूम-कम-ऑफिस में घुसे रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी से कहा।
–‘जी इब कोन्या मान्नै वा मेरी। दूसरी बदल ल्यो…’, रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी ने बड़ी मासूमियत से कहा।
हैडमास्टर साहब भी समझ गए कि अब स्कूल के अच्छे दिन गायब हो गए और बुरे दिन आने शुरू हो गए और इसीलिये उन्होंने ऊपर से दबाव के कारण फर्जी बच्चों के नाम कटने से मात्र एक तिहाई विद्यार्थियों के बाकी रहने को बचाए रखने के लिए स्कूल की एकमात्र मैडम की तरफ देखकर कहा-‘बहण जी, थम भी किमी करो, नहीं तो रह्या-पह्या बालक भी टूट ज्याइंगा…’
बहनजी पर पहली बार हैडमास्टर साहब के कहे का असर हुआ और उन्होंने नए सत्र की शुरुआत में ही कुछ नया करने को लेकर एक हवन करवाने की घोषणा कर डाली। यही नहीं हवन वाले दिन उन्होंने क्रोशिया -सलाई को हाथ तक न लगाया और कक्षा-कक्षा घूम कर बच्चों को घी और समिधा लाने को इतना प्रेरित किया कि अगले दिन सब बच्चों के हाथों में कटोरियां दिख रही थीं, जिसमें कुछ न कुछ था जो बहनजी को प्रफुल्लित कर रहा था। सारे स्कूल की नयी-पुरानी, साबुत-फटी दरियां बिछाकर बहनजी ने यह सिद्ध कर दिया था कि मन से कोई काम कर लो, परिणाम उसका अच्छा ही होता है। स्कूल में जोर-जोर से पढ़े गए मंत्र बता रहे थे कि बहनजी की पढाई-लिखाई गुरुकुल में हुई है। बावजूद इसके बहनजी के हर काम को ‘ढोंग’ समझने वाले दो-तीन मास्टर प्राइमरी की तरफ बैठ हंसी-ठठ्टा फोड़ते रहे और इधर बहनजी ‘हे यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए, छोड़ देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए’ जोर-जोर से गाती रही। सुना कि उस दिन तीन हजार के लगभग रुपये इक_े हुए जिन्हें रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने अपने पास रख लिए थे और अभी तक किसी के कहने से लौटाए नहीं थे। एक दिन जब ज्यादा ही पूछा तो उसने बजरंगबली के सिक्कों वाली थैली में मिला देने की बात कहकर सदा के लिए पल्ला झाड़ लिया था। जिस पर एक-दो मास्टरों के ज्यादा ही एतराज करने को लेकर रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजीने इतना बुरा मान लिया था कि उसने स्कूल के एक बेहद गोपनीय मामले को उछालकर गांव के पंच और लम्बरदार टाइप के लोगों को स्कूल में लाकर बैठा दिया था। तब से हैडमास्टर साहब ने हवन के पैसे लौटाने की बात रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी की आत्मा पर छोड़ दी थी। इतना सुनने पर अगले दिन ही रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी ने सबके बीच में आ हजार-हजार के तीन नोट हैडमास्टर साहब की छाती पर मार दिए थे। जिससे सर्व सम्मति से स्कूल के लिए स्थायी हवन कुंड और गर्मियों में पक्षियों के पानी के लिए सिकोरे खरीदने के लिए प्रस्ताव पास किया। इसी अनौपचारिक बैठक में मुरारी लाल जी से मिड-डे-मील का पिछला बकाया लगभग एक लाख रुपया हैडमास्टर साहब को देने का फैसला हुआ था। फैसले के साथ ही हैडमास्टर साहब को मुरारी लाल जी द्वारा दिए जाने वाले एक लाख रुपये में एक तगड़ी झोटी (भैंस) दिखायी देने लगी थी।
मिड-डे-मील के हिसाब-किताब के सारे कच्चे-पक्के रजिस्टर बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव को सौंप दिए थे जो बूथ लेवल ऑफिसर के काम के साथ उनके लिए अतिरिक्त प्रभार की तरह था। बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव बूथ लेवल ऑफिसर वाला काम बड़े चाव से करते थे और इसके लिए उन्हें सालाना पांच हजार रुपये मिलते थे जिसे वे किसी पुरस्कार से कम नहीं समझते थे। बूथ लेवल ऑफिसर लिखा काला बैग वो हमेशा अपने साथ रखते थे और ससुराल तक अपने अफसर होने का प्रचार कर चुके थे।
एक बार गांव के ही एक आदमी ने बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव पर मायके गयी उसकी बहू के फर्जी साइन कर वोट बनाने का दबाव दिया जिसे बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  ने पूरी तरह -‘फर्जी काम नहीं करता’ कहकर अस्वीकार कर दिया था। उस आदमी ने पूरे गांव में बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव की दादागिरी का प्रचार किया और यह भी कहा –बूथ लेवल ऑफिसर हमारे गांव की महिलाओं के मुंह देखने में राजी रहता है। इसलिए बिना मुंह देखे वह किसी बहु-घोटली का बोट नहीं बनाता।
बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव ने भी इस बात का डटकर मुकाबला किया और एसडीएम जो चुनाव का बड़ा अफसर था, के सामने बहुत अच्छे ड्राफ्ट की चिट्ठी देकर यह सिद्ध कर दिया कि अभी भी बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव जैसे ईमानदार मास्टर हरियाणा के सरकारी स्कूलों में मौजूद हैं। एसडीएम साहब ने मामले की तफ्तीश करवाई कि बिना कैंडीडेट की मौजूदगी के वोट बनवाने वाले आदमी को स्कूल आकर बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव से सबके सामने माफ़ी मांगनी पड़ी। तब से बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव ‘बूथ लेवल ऑफिसर’ लिखे बैग को अपनी देह से अलग करके नहीं चलते थे।
स्कूल में बच्चों की लगातार घटती संख्या हमारे लिए संकट पैदा करने वाली थी। अपने-अपने गांवों के निकट और अप्रोच रोड से इतनी दूर, गांव के बिना किसी दखल वाला, इससे बेहतर स्टेशन हमें नहीं मिलने वाला था। इस स्कूल में कितनी मौज की, यह हमीं जानते हैं। फर्जी नाम काटने के बाद अब हमारे पास जरूरतमंद और गरीब लोगों के ही बच्चे बचे थे। ये ऐसे लोग थे जिनके लिए अपना पेट तक भरना मुश्किल था। स्कूल में दाखिले के बहाने बच्चे तो कम से कम भर पेट भोजन कर ही लेते थे। ज्यादा डला होने के कारण कभी-कभी मां-बाप को भी पौष्टिक भोजन खाने को मिल जाता था।
स्कूल के दाखिले बढ़ाने के लिए हमारी भी ड्यूटी लगी थी कि हम गांव में चक्कर लगाकर आयें। गांव में हम दाखिला फार्म लेकर घूमते। लोगों से बात करते। लोग हमारे मजे लेते। कई-कई हमें घेरने की कोशिश भी करते। उनके सवाल बड़े मौजूं होते। पर हम बचने की कोशिश करते। लोगों की बातें तो ठीक ही थीं। पर ऐसे ही किसी की मान लें तो सरकारी स्कूल के मास्टर फिर कौन कहेगा हमें। कुछ जगह हम बोलते तो कुछ जगह खुद को दबता हुआ देखकर आगे सरक जाते। धर्मेश और मैं चुप-चुप गांव की गलियों में घूमते।
उस दिन धर्मेश ने मुझसे कहा था-‘एक बात बताऊँ, सुशील !’
‘बता !’-मैंने कहा था।
‘लोग कहते तो ठीक ही हैं।।।’-धर्मेश ने धीरे से मेरे कान में कहा था।
‘हां, यार पढ़ाते-वढ़ाते तो हम सच में नहीं हैं।’—मुझे भी कहना पड़ा था।
‘असल में सबने सरकारी स्कूलों को सिर्फ चमार-धानकों के बच्चों का स्कूल मान लिया है। देखते नहीं जब शेरसिंह जी क्लास में पढ़ाते हैं तो बोहरा जी क्या कहते हैं—रै, इतणु मत पढ़ाया कर शेरसिंह आणनै। कितै ये अफसर बणी ना। जै इ पढग़ा तो आपणलां को कित नम्बर।’—धर्मेश ने कहा तो मुझे समझ में आया।
‘…  … …’—मैं धर्मेश को लेकर सोच रहा था कि वह सब चीजों का कितना ध्यान रखता है।
‘मुझे तो स्थिति बड़ी नाजुक लग रही है।’—धर्मेश ने चिंता जताते कहा।
‘कैसे ?’—मैंने हैरानी से पूछा।
‘सरकारी स्कूलों के इतने बच्चे टूट रहे हैं कि ज्यादातर गांवों के स्कूल तो बंद ही कर दिए जायेंगे।’—धर्मेश ने खुलासा किया।
‘हां, कई गांवों में ऐसा हो गया है।’—मैंने सच को स्वीकारते हुए कहा।
‘सुरीना राजन ऐसा शिकंजा कसने वाली है कि बच्चू याद रखोगे।’—धर्मेश ने मुझे डराते हुए कहा।
‘क्या कर रही है वह ?’—मैंने जानना चाहा।
‘शिक्षा में आमूल चूल परिवर्तन। रिटायर होने से पहले ही ऐसा कुछ कर जायेगी कि जो मास्टर पढ़ाएगा नहीं, उसकी छुट्टी तय है।’—धर्मेश ने भविष्य की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘…  … …’—मेरे पास बोलने को कुछ था ही नहीं। मैं तो भविष्य में खोया हुआ था। पांच साल पहले तो लगा ही हूँ। घर के जेवर बेच और मंत्री से सेटिंग करके। यहां से हटने के बाद किसी और काम के लायक भी नहीं रहूँगा।
‘भविष्य में देखना। सरकारी मास्टर यदि नहीं सुधरे तो भीख मांगते दिखा दूँगा मैं। साईकिल लिए गांव की गलियों में हमारी तरह घूमते फिरेंगे-बाळक पढ़वा लो! बालक पढ़वा लो !! फिर कोई गली से बाहर निकलेगा। मोल भाव करेगा और घर के बाहर बिठा अपने बच्चे का कोई मुश्किल टॉपिक क्लीयर करने को कहेगा। बच्चा संतुष्ट होगा, जब मां-बाप मास्टर को सौ-पचास रुपये एहसान करते हुए देंगे। मास्टर अपनी किताबें-सिताबें समेटते अगले घर को चल देगा—बालक पढ़वालो ! बालक पढ़वालो !!’…  …’ धर्मेश ने मुझे गणित समझाते कहा।
‘…  … …’ मैं अब भी चुप था…’चल, कुछ एडमिशन करते हैं…’ धर्मेश ने विषयान्तर करते कहा तो मेरा कांपना थोड़ा कम हुआ।
नदी के पाट के साथ एक कच्ची पोली थी। तीन लड़कियां पोली में खेलती बाहर से साफ-साफ दिख रही थी। पोली में एक चारपाई भी डली थी, जिस पर कोई चादरओढ़कर सोया हुआ था। हम दोनों चारपाई के नजदीक पहुंचे। हमने देखा तीन छोटी-छोटी बच्चियां थीं, जिसमें से सबसे बड़ी हाथ में किताब लिए कुछ पढ़ रही थी। दो अन्य वहीँ बैठी गुड्डे-गुडिया का खेल खेल रही थी।
धर्मेश ने किताब पढ़ रही लड़की को कहा—’बेटे! पापा हैं ?’
लड़की ने चारपाई पर सोये हुए आदमी की तरफ इशारा किया तो हम समझ गए थे कि यह उनका पापा ही है।
‘बेटे ! जगाओ पापा को। बोलो कि सरजी आये हैं।’—धर्मेश ने ही कहा।
‘पापा अभी सोये ही हैं सरजी’—बच्ची ने बड़े सम्मान और प्यार से कहा।
‘स्कूल कौन से में पढ़ते हो बेटा !’—मैंने पूछना चाहा।
‘ब्राईट फ्यूचर में सरजी’—बच्ची ने उसी आवाज़ से कहा।
‘गुड। वैरी गुड।’—मैंने फिर कहा।
‘जगाओ बेटा! एक बार। पापा को जगाओ !!’—धर्मेश ने बच्ची से फिर कहा।
बच्ची ने हमारा कहना मान चारपाई की तरफ मुंह कर आवाज़ लगाई—’पापा ! ओ पापा !!’
बच्ची के कहने में न मालूम क्या जादू था कि पापा उठ कर बैठ गया।
हमने उसे ‘नमस्ते’ की। उसने नमस्ते का कोई जवाब नहीं दिया।
उसने हमसे एक ही सवाल पूछा-‘सरकारी स्कूल सी सो ?’
हमने बड़ी शान से कहा—’हांजी। हांजी।’
इतना सुनना था कि वह आदमी फिर से चादर तानकर सो गया। हमने फिर कुछ कहा तो वह मुंह ढके-ढके तुनककर बोला—’जाओ यार! टेम कोन्या।’
हमारे लिए उसका यह कहना और इस तरह बात करना किसी तमाचे से कम न था। मैं कुछ बोलता कि धर्मेश ने मुझे इशारे से चलने को कहा। रास्ते में मैंने धर्मेश से कहा भी -‘इससे बड़ी बेइज्जती मेरी आज तक नहीं हुयी।’
‘अभी शुरुआत है। लोग जाग रहे हैं। हमने अपनी छवि ठीक नहीं की तो ऐसे ही टकरायेंगे।’—धर्मेश ने समझाते हुए कहा—’और स्कूल में किसी के सामने मत बोलना। इस आदमी ने हमारी ऐसी बेइज्जती की है कि खुद को आइना देखते शर्म आएगी।’
‘इसीलिए मैं कहता हूँ कि एक दिन ये गरीब-गुरबा लोग उठकर ही बिगड़ चुकी व्यवस्था को यहां-वहां से ठीक करेंगे।’—धर्मेश ने एक और सच मुझसे कहा।
सही में स्कूल के बुरे दिन चल रहे थे। अच्छे दिन सच में कहीं दुबक गए थे। अखबार में नाम छपने की कसर बाकी थी, वह भी बीईओ साहब के आने से पूरी हो गयी। न जाने बीईओ साहब को किसने सूचना दे दी थी कि हमारे स्कूल में सुबह के समय पर पहुंचना थोड़ा हो ही नहीं पाता है। सबके पास इतने काम होते हैं न जी कि लेट होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।
बीईओ साहब पहुंचे तो सिर्फ एक मास्टर और रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी थे। मास्टर जी असेम्बली के पीछे खड़े थे और रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी बच्चों को ‘साबधान ! बिसराम!’ करवा रहे थे। रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी भले ही सुखसहायक के पद पर थे, पर पहनावे में तो हैडमास्टर साहब को भी परे बिठाते थे। बीईओ साहब को लगा ही नहीं कि रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी सुख सहायक की छोटी सी पोस्ट को सुशोभित कर रहा है। उन्होंने रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी से उनकी क्वालिफिकेशन पूछी तो रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीने शर्माते हुए आठ पास बताया। बीईओ साहब ने रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजीको कोम्प्लिमेंट देते हुए कहा—’दसमी होते तो आज बाब्बू होते।’ रमेश सुख सहायक उर्फ भगतजी ने इस सबको ‘किस्मत का खेल’ बताया और बीईओ साहब के लिए दो-तीन बच्चों को मिड-डे-मील की रसोई में चाय बनाने भेज दिया। बच्चे आधे घंटे बाद धुंआ-धोलिया कर चाय बनाकर ले आये जिसे बीईओ साहब ने गर्म-गर्म ही सुड़क-सुड़क कर पी लिया। तब तक कुछ मास्टर-वास्टर आ गए थे, जो बीईओ साहब को देखकर सकपका गए थे।
मास्टर हाथ जोड़ने लगे कि इस बार-इस बार माफ कर दिया जाए, भविष्य में कोई गलती नहीं होगी। बीईओ साहब ‘सब मास्टरों का एक सा हाल है। पढ़ा कर कोई खुश ही नहीं है’ जैसा बहुत कुछ सुनाते हुए लेट आये मास्टरों को बख्शने का एहसान कर रहे थे और अध्यापक हाजिरी रजिस्टर के अभी तक न आये आधे के लगभग मास्टरों के खानों में प्रश्नवाचक चिह्न लगा एक महान कार्य को अंजाम दे रहे थे।
बीईओ साहब के पता नहीं क्या ध्यान में आया उठ कर बरामदे में चल दिए। दो-चार जने पीछे-पीछे हो लिए। रमेश सुखसहायक तो ऐसे चल रहा था जैसे स्कूल का हैडमास्टर वही हो। बीईओ साहब जिस क्लास में घुसे, वह शोर बहुत मचा रही थी। कोने वाली इस क्लास के दो दरवाजे थे। दूसरा दरवाजा पेशाबघरों की तरफ खुलता था, जहां सब पेशाबघरों में ताला लगा हुआ था। मास्टरों वाला पेशाब घर ठीक-ठाक था। बच्चे बदबू से बचने के लिए चार फीट की चहारदीवारी कूद कर साथ लगते खेतों में पेशाब करने का आनंद उठाते तो गुरु जी लोग भी कभी-कभी गपियाने को लेकर एक-दो खेतों को क्रॉस कर आराम से मुक्ति का सुख भोगकर आते।
बीईओ साहब क्लास में घुसे तो बच्चे घबरा से गए थे। मोनिटर ने तो जान लिया था कि आज खैर नहीं। यह क्लास बूथ लेवल आफिसर सुधीर यादव जी की थी जो रोज की तरह आज भी स्कूल में आते-आते लेट हो गए थे। ऐसे वक्त में तो खास तौर से उनकी बाइक पंचर हो जाया करती थी।
बीईओ साहब ने पूछा—’किसकी क्लास है यह ?’
बीईओ साहब पुराने मास्टर रहे हुए हैं। आवाज़ में उनकी आज भी कड़कपना है। एक बच्चा बहुत धीरे से बोला—’सुधीर सरां की।’
बीईओ साहब ने इधर-उधर देखा तो रमेश सुखसहायक उर्फ भगतजी बीच में बोल पड़ा—’जी, फोन आयो थो उणको। रास्ता म्हं सीं। मोटरसायकल पिंचर व्ह्यगी।’
रमेश सुखसहायक ने झूठ बोला था, पर इस सफाई के साथ कि बीईओ साहब को कुछ लगे ही ना कि यह झूठ भी बोल सकता है। रमेश खुश था कि उसने झूठ को सच की तरह बोला। इसी बात को भुनाकर वह बूथ लेवल आफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादव से सौ का एक नोट झटक लेगा।
बीईओ साहब न आने वालों के खाने में प्रश्नचिह्न लगा चुके थे, इसलिए बीईओ साहब ने बात को न बढ़ाते हुए विषयान्तर करते पूछा-‘मोनीटर कौन है क्लास का ?’

                मोनीटर बने बच्चे का मुंह लाल था। उसकी शर्ट के सारे बटन टूटे हुए थे और बाल बड़े-बड़े थे। एक बाजू आधी ऊपर थी और गर्दन पर ढेर सारा रेत लगा हुआ था। लग ही रहा था कि कुश्ती-वुश्ती करके आया है। मोनीटर को लग गया कि वह गया काम से। पढऩे में उसका जरा भी जी न लगता था। बूथ लेवल आफिसर सुधीर यादव ने मोनीटर भी उसको इसलिए बनाया हुआ कि उनके न रहने पर क्लास को कंट्रोल में रखे। अब यही फंस गया बेचारा। सुधीर यादव जी कितना नाराज होंगे !!
‘ये बटन कहां से तुड़वा लिए?’—बीईओ साहब ने पूछा तो सारी क्लास हंस पड़ी। बटन कोई लगे हुए थे जो तुड़वा लिए। जब से देखा तब से तो उसका यही भेस देखते आये हैं।
बीईओ साहब थोड़ा खीज से भी गए थे। अफसर हैं आखिर। ऐसे पांचवीं क्लास तक के बच्चे हँसेंगे तो कर लिया उन्होंने तो औचक निरीक्षण !
‘चल एक छोटा सा सवाल बता तू’—बीईओ साहब अपने पुराने मास्टर वाले रूप में आ गए।
मोनीटर और घबरा गया। आज तो उसकी खैर नहीं।
‘भारत का परधानमंत्री कौन है ?’—बीईओ साहब ने पहला सवाल पूछा,
मोनीटर खुश हो गया। इस सवाल का जवाब तो उसे आता है। तपाक से बोला—’अटल बिहारी बाजपेयी।’
साथ खड़े साइंस मास्टर ने माथे पर हाथ मारा। अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यकाल तो कब का खत्म हो चुका। गधा कहीं का!
और तो और बीईओ साहब ने पूरी क्लास से जितने प्रश्न पूछे उनमें से सत्तर प्रतिशत गलत थे। हैरानी तब हुयी जब क्लास के सही में होशियार बच्चे ने ‘फ्यूचर’ की स्पेलिंग सुनाने में गड़बड़ कर दी।
बीईओ साहब बहुत नाराज हुए। उन्हें आज ही किसी ‘अरजेन्ट’ मीटिंग में जाना था, इसलिए वे बड़बड़ाते हुए स्कूल से बाहर निकल गए।
अगले दिन बीईओ के आने पर चर्चा हुई। प्रश्नचिन्ह लगे खानों वाले मास्टरों ने विधायक-सिधायक के यहां फोन कर पहले ही मामला फिट कर लिया। स्कूल के योगेश जेबीटी मास्टर को यूं ही छूट नहीं मिली हुयी थी। विधायक के वे यूं ही इतने बरसों से तलवे नहीं चाट रहे थे। स्कूल पर संकट आये और बीईओ की इतनी हिम्मत कि वह योगेश जेबीटी मास्टर के रहते किसी भी मास्टर का स्पष्टीकरण भेज दे। जेबीटी मास्टर योगेश का मुख्य काम तो प्रोपर्टी डीलिंग का ही है। मास्टरी तो उनके लिए टाइम पास है। नारनौल में ‘मास्टर प्रोपर्टी’ वाली बड़ी सी बिल्डिंग के वही मालिक हैं। जिले से लेकर नीमराणा और जयपुर तक के शहरों में उनकी साझेदारी है। खुद इसी शहर के एक बड़े धंधे में वे विधायक जी के साथ मिले हुए हैं। बीईओ के आने के आधे घंटे बाद ही स्कूल के मास्टरों ने सारा मामला योगेश जी के संज्ञान में ला दिया था। यह संयोग ही था जिस मीटिंग में बीईओ साहब गए हुए थे उसे विधायक द्वारा ही ली जानी थी। योगेश वहीँ बैठा था। योगेश  विधायक के सामने ही बीईओ साहब को कह दिया था—’बीईओ साहब, आज सुबह वाले स्कूल का क्या मामला है। आपको पता नहीं मुख्यमंत्री की रैली है और सारे मास्टर उसी में व्यस्त हैं।’
बीईओ साहब विधायक के सामने ही बैठे हुए थे। अपने ऑफिस में होते तो कुछ बोलते भी। योगेश और विधायक के संबंधों को वे जानते ही हैं। पिछली दफा जब मेवात में पटक दिए गए थे तब योगेश ने ही उन्हें महेंद्रगढ़ में लाने की सिफारिश की थी, नहीं तो बीईओ साहब को पता लग जाता कि औचक निरीक्षण होता क्या है। बीईओ साहब की खिसियानी हंसी देखने लायक थी। विधायक जी के सामने हकलाते हुए बोले—’कुछ नहीं सर, वह तो इधर आ रहा था तो सोचा…कुछ रिकार्ड के लिए भी… आप तो जानते ही हो सर…’
विधायक ने बीईओ की हालत देख ली थी। उन्हें और कुछ बोलना उचित ही नहीं लगा। वे बीईओ को कुछ और ही आदेश देने में तल्लीन हो गए और बीईओ साहब ‘जी सर…जी सर…’ करते अपनी डायरी में स्पीडली उसे नोट करने लगे।
उधर यही चर्चा थी कि बीईओ चाहते हुए भी किसी का बाल नहीं पाड़ सकता। विधायक की एक मान के तो न देखे। विधायक को देखकर तो डीईओ तक पेशाब कर देता है। इस बीईओ की तो औकात ही क्या है।
बावजूद इसके बूथ लेवल आफिसर सुधीर यादव जी की क्लास में बहुत बड़ा पंगा हुआ और पुलिस केस होते-होते बचा। सुधीर यादव जी ने और मास्टरों से प्राप्त रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए सीधे मोनीटर को जाकर पूरे दो घंटे तक मुर्गा बना दिया और मां-भैण की गालियांदेते हुए क्लास के सही में होशियार बच्चे को नीम की ताज़ा तोड़ी कामची से इतना मारा कि बच्चा बेहोश हो गया। यही नहीं गिरने की वजह से एक डेस्क का कोना उसके माथे पर लगा जो तुरंत टिटोले के रूप में उभर आया। बूथ लेवल आफिसर सुधीर यादव जी के लिए यह सब अप्रत्याशित था। उनका हाई हुआ बीपी तुरंत नॉर्मल हो गया और वे बेहोश हुए बच्चे को देखकर घबरा गए।
उनकी क्लास में यह तीसरी बड़ी घटना थी जिसने सुधीर यादवजी को पुलिस के मामले में जाते-जाते बचाया था। इससे पहले भी वे एक बच्चे का अंगूठा तोड़ चुके थे। एक मामले में तो उन्हें बच्चे के मां-बाप को ‘पैसा हाथ का मैल है’ मानते हुए दस हज़ार रुपये देकर पीछा छुटाना पड़ा था।
सुधीर यादवजी समझ गए। गलती तो फिर से हो गयी। भागकर बोहरा जी को बुलाकर लाए। बोहरा जी ने आते ही बच्चे को पहचान लिया। बोले—’चंदू बावरिया को सै यो तो। बिना पैसां ना सुल्टैगो यो मामलो।’
सुधीर यादवजी ने मामला कैसे भी सुल्टाने का दबाव बोहरा जी पर दिया। बोहरा जी ने पानी मंगवा कर बेहोश हुए लड़के पर छींटे मारे और उसे नांगल सिरोही डॉक्टर के पास ले जाकर कमजोरी के नाम पर एक-दो ग्लूकोज के डब्बे और बच्चे को पटाने के नाम पर दो लाइनदार कापियां खरीद कर दी तथा बच्चे को रास्ते में ही एक जगह बाइक रोककर अपने मां-बाप को यह कहने को कहा कि उसे किसी ने मारा नहीं है और यह टिटोला उसे चक्कर आने के कारण डेस्क पर गिरने से हुआ है। बच्चे ने सुधीर यादवजी के कान पकड़कर ‘सॉरी’ बोलने और आंखों में आये आंसुओं को देखकर माफ करने के अंदाज की तरह वैसा ही करने को कहा। वह तो स्कूल के दूसरे नालायक बच्चों की वजह से चंदू बावरिये को पता लग गया जिसे बूथ लेवल आफिसर सुधीर यादवजी और ब्याज पर पैसे का लेन-देन करने वाले बोहरा जी ने पांच हजार देकर पटा लिया। सुधीर यादवजी ने अपने कहे अनुसार बोहरा जी को नारनौल के एक नए खुले होटल में जोर की पार्टी दी, जिसे बूथ लेवल आफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादवजी ने अगले ही महीने मिड-डे-मील के खाते में एडजस्ट किया।
बीईओ के इस तरह आने से मास्टरों को बहुत नागवार गुजरा था। यह तो सुधीर यादवजी थे जो पूरे मामले को संभाल गए, नहीं तो कोई गरीब मास्टर वह भी बिना किसी लाभ वाले चार्ज के साथ होता तो कैसे गुजर होता। यह कोई बात हुई कि बीईओ साहब बिना बताए स्कूल में आ जाते हैं। औचक निरीक्षण में ‘औचक’ का इतना लाभ नहीं उठाना चाहिए कि अफसर का जब मन करे, चल दे। इस तरह के औचक निरीक्षणों से न केवल मास्टरों का मनोबल गिरता है, बल्कि स्कूल भी लगातार डिस्टर्ब होता है। अत: औचक निरीक्षण को तत्काल प्रभाव से बैन कर देना चाहिए।
आमतौर पर तो बीईओ साहब के औचक निरीक्षणों की सूचना इधर-उधर से मिल जाया करती थी। पड़ौसी स्कूलों के साथी अध्यापक एसएमएस या फोन करके जब सूचना देते थे तो पूरा स्कूल अलर्ट हो जाता। ‘फरलो’ पर गए अध्यापकों की छुट्टियां रजिस्टर में लिख-लिख कर रख दी जाती और रजिस्टर के तमाम खानों को अद्यतन कर दिया जाता। बच्चों को लगाकर पूरा स्कूल साफ़ करवा दिया जाता और कोई भी क्लास तब खाली न छोड़ी जाती। पेशाब घरों के बंद पड़े ताले खुलवा दिए जाते और बच्चों को कहकर पानी की दो-दो चार-चार बाल्टियां गंदे हुए पेशाब घरों में उड़ेल दी जाती। विद्यार्थियों की चप्पलें कमरों के बाहर एक कतार में निकलवा दी जाती ताकि बीईओ साहब आयें तो खुश हो जाएँ कि यह स्कूल अनुशासन में कितना अग्रणीय है।
एक बार उड़ती हुई सूचना पर ऐसी ही तमाम तैयारियों के बावजूद बीईओ साहब नहीं आये तो पूरा स्कूल बहुत नाराज हुआ था। अध्यापकों ने इसे धोखा बताया था और जीवन के एक दिन ‘खराब’ किये जाने के आरोप में बीईओ साहब को मां-भैण की चुनिन्दा गालियां सुननी पड़ी थीं। अध्यापकों ने यह महसूस किया था कि यदि ऐसे ही दो-चार बार उन्हें बीईओ के औचक निरीक्षण के नाम पर स्कूल की पूर्व तैयारियां करनी पड़ गयी तो उनका न जाने कितना नुकसान हो जायेगा।
इसी उठापटक और गांव के दिनों-दिन बढ़ रहे दखल से हमारी मौज-मस्ती बहुत प्रभावित हो रही थी। वजह थी कि बहुत दिनों से सामूहिक पार्टी का सूत नहीं बैठा था। ब्याह-शादियां चल तो रही थीं, पर इक_ा कायक्रम बन ही नहीं पाया। मिड डे मील की रोटी-सब्जी जरूर पसारा मांड-मांड कर खाने से हम बोर हो गए थे। मिड डे मील हमारे लिए जन्मसिद्ध अधिकार की तरह था। बच्चों को मिले, न मिले। इससे हमें कोई मतलब नहीं। बच्चों की सरकार सोचे। हमें तो पेट भरने से मतलब था।
एक का न्यौता आता तो एक आध उसके साथ चला जाता। जैसे कोई स्कीम हो। एक के साथ एक फ्री।
स्टाफ सैक्रेटरी ने स्कूल के बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव को मिले कलैंडर में जाने कितने निशान लगा लिए थे। जिमाड़ों के। शुरू में तो प्राइमरी ऑफिस के ब्लैकबोर्ड पर आगामी जिमाड़ों की सूची दर्ज कर देते थे और यह भी कि किस वार को कौन-सा अध्यापक क्या खिलाए-पिलाएगा। बाद में रोज-रोज का चक्कर छोड़ते हुए स्कूल के ही पार्ट टाइम स्वीपर कम पिअन कम दुकानदार की ड्यूटी लगा दी थी कि रोज वह बारह बजे दिन के हिसाब से निर्धारित चीजें जरूर भेज दे। एक दिन बीईओ ने अपने औचक निरीक्षण के दौरान ब्लैकबोर्ड पर लिखी ये तारीखें देख ली थीं तो पूछा था—’ये क्या लिखा है। कौन सी टेबल है यह और ये क्या कोड वर्ड लिख रखे हैं। हममें से कोई क्या बोलता। पहले ही ऑफिस में झुण्ड बनाकर बैठे होने पर डांट खा चुके थे। ऊपर से यह पोल खुल गई तो बाहर और पता लग जाएगा कि स्कूल में हम क्या गुल खिलाते हैं। ये बीईओ साहब भी ऐसे ही थे। अपने निरीक्षणों को बढ़ा-चढ़ाकर अखबार में छपवाते थे। हम डर गए थे कि कहीं हमारी भी इस तरह की बातें अखबार में आ गईं तो गांव से बाहर भी सबको पता लग जायेगा कि स्कूल में हम पढ़ाते-वढ़ाते नहीं। हमने राम-राम किया कि बीईओ साहब स्कूल से चले जाएँ। उनके जाते ही हमने डस्टर से ब्लैकबोर्ड पर छपी सारी तारीखें मिटा दी। यह मानकर कि जान बची लाखों पाए।
पार्ट टाइम स्वीपर कम पिअन कम दुकानदार हमारी सब चीजों पर रुपया-दो रुपया फालतू वसूल करता, जिसका हममें से कई जने विरोध कर देते तो कई यह भी समझाते कि हम उसके पैसे कई-कई दिनों में देंगे ताकि ब्याज के चक्कर के कारण वह हमसे महंगा लगाकर भी कुछ वसूल न सके। यह राजी हो लेगा। उसी दिन मुझे समझ में आया था कि बूथ लेवल ऑफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादव छह-छह महीनों में उसके रुपये क्यों देते हैं।

                स्कूल के ही एक साथी जय प्रकाश ने अपने लड़के की शादी की तारीख बहुत पहले तय कर ली थी और उसी दिन हमने बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादवजी के लाये हुए कलैण्डर पर तारीख को लाल पैन के गोल दायरे में इस तरह कैद कर दिया था कि दूर से ही वह नजर आ जाए और हम हमेशा यह याद रखें कि इस दिन एक खास जिमाड़ा है।
रात चांदनी थी और चांद पूरा गोल था। सड़क पर चलते हुए गाड़ी की तेज रोशनी में चांदी-सी रोशनी दिख नहीं रही थी। हमारी मण्डली के बाहर के कुछ साथी न जाने के बहाने लगा रहे थे तो सोचा कि उन्हें मौके पर ही पकड़-पकड़ कर लाया जाए। कोई कहता कि मैं बाहर हूं या कहीं और तो हम गाड़ी लेकर वहीं पहुंच जाते। कई रुपये देने में आना-कानी कर रहे थे तो बूथ लेवल ऑफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादवजी की तरफ से उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि इस ट्रिप का सारा खर्चा किसी मास्टर की जेब से नहीं लगेगा। इसकी एक-एक पाई मिड-डे-मील के उचंती खाते से की जायेगी। तब कुछ लोगों को लगा कि बूथ लेवल ऑफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादवजी मुरारी लाल जी से बहुत बेहतरीन आदमी हैं। यदि शुरू से ही मिड-डे-मील का चार्ज सुधीर यादवजी के पास होता तो यह स्कूल अब तक बहुत तरक्की कर लेता।
बावजूद इसके कुछ जाने से नाकस-मौलिया कर रहे थे। पर हम न जाने वाले का कोई बहाना न सुनते और गाड़ी में जबरदस्ती उसे इस तरह बिठाते जैसे भागे हुए अपराधी को पुलिस बिठाती है। पूरे दो घंटे लग गए थे हमें इक_ा होने में। कहिये कि इक_ा करने में। पर जब चले तो मजे आ गए। ड्राइवर ने नए-पुराने गानों का बेहतरीन कलैक्शन बजाना शुरू किया तो फिर मौज-मस्ती बढ़ती गई। कई जने अपने को बाराती रंग में रंगने को बीयर-वीयर पीकर चले थे तो कई अपने शाकाहारीपने को बचाए रखने के लिए हल्दीराम के चना क्रेकर को फांक रहे थे।
बारात राजस्थान में दूर स्थित एक गांव की ढाणी में जानी थी। रात की चांदनी में रेत का दृश्य कुछ अलग ही आभास देता है। जांटी के पेड़ों के झुरमुट तरह-तरह की आकृतियां बना हमें लुभा-से रहे थे। कच्चे रास्तों के आजू-बाजू रेत के हल्के-हल्के टीले जैसे किसी सभ्यता के गवाह बने हुए हों। चांद ऊपर ही आसमान में था पर हम सब उसे भूल रहे थे। फिल्मी गानों की तेज आवाज हम न पीने वालों को भी पीने वालों के साथ मदमस्त कर रही थी। सबका मन कर रहा था कि गाड़ी को किसी खेत में रोककर ठंडी-ठंडी रेत पर जाकर थोड़ी देर नाचा जाए। टोकने की देर थी कि सब उतरकर नाचने लगे। घंटे भर नाचकर फिर से गाड़ी में सवार हुए तो हमारे शरीर थक से गए थे। हम लेकिन खुश थे। ऐसी थकान हमें अरसे बाद नसीब हुई थी।
सड़क का रास्ता बहुत दूर से था तो हम कच्चे रास्तों से होकर जा रहे थे। बारात में शामिल होने। एक गांव से दूसरा गांव जैसे एक मंजिल से दूसरी मंजिल। रात चांदनी न होती तो लगता जैसे किसी गुफा में जा रहे हैं। भीतर ही भीतर। जैसे निकलने का कोई रास्ता न हो। रेत पर भी हमारी गाड़ी मजे से चल रही थी। चल क्या रही थी, बल्कि उड़ रही थी। गांव के लोगों को पीछे छोड़ते हुए, जिसे हम कोई उपलब्धि मान रहे थे। हममें से कई जने गांव वालों पर इस तरह ऊल-जलूल टिप्पणी कर रहे थे जैसे हम बहुत बड़े रईस हैं। हमें इन पीछे छूटते पिछड़े ग्रामीणों से कुछ भी तो लेना-देना नहीं था। इस वक्त हम शानदार गाड़ी में सवार थे और खूब सारी धूल उड़ाते बेफिक्र हुए चल रहे थे।
गानों के बीच-बीच में ही कोई चुटकुला-वुटकला सुनाता तो हम सब किलकी मारकर हँसते। अब हम स्कूल में नहीं थे और यहांकुछ भी बोल सकते थे। शर्माना बोलने वाले पर निर्भर था। श्लील-अश्लील की कोई सीमा नहीं थी। मजाक में तरह-तरह के मुद्दे उछाले जाते और हम जोर से ठट्ठा फोड़ते ।
अंधेरा बढ़ गया था, पर गाड़ी की रफ्तार वही थी। हम फुल मस्ती में थे और सफर का पूरा मजा ले रहे थे कि अचानक हमारी गाड़ी रेत में फंस गईं। ड्राइवर जितनी रेस देता, गाड़ी उतनी ही रेत में धंसती। यह हुआ तो आखिर हुआ क्या। हमारी सब हंसी-खुशी मिनटों में गायब हो गई। ड्राइवर ने चल रहे मदमस्त गाने बंद कर दिए। करतार भाई भी अपने होश में आ गया और तीन-चार दूसरे साथी भी जिन्होंने एक-एक बीयर और चढ़ा ली थी और तीसरी-चौथी का ढक्कन खोलने वाले थे। गाड़ी के यूं अचानक रुकने से सारा मजा किरकिरा हो गया था। पूरे सफर में एक बार भी न बोलने वाले ड्राइवर ने बार-बार रेस देकर गाड़ी को रेत से निकालना चाहा, पर उसकी चलीनहीं। पहली बार वह सकुचाते हुए बोला-‘धक्का लगाना पड़ेगा सर जी।’ हम सब जैसे आसमान से पटक दिए गए हों। …धक्का लगाना पड़ेगा। ऐसा सपने में भी न सोचा था। …हम कोट-वोट पहने लोग धक्का लगाएंगे। गुस्सा आया ड्राइवर पर…जान-बूझ कर फंसा दी होगी साले ने। गुस्सा रेत पर भी आया और सरकार पर भी।
–‘…रेत था तो सरकार ने सड़क क्यों नहीं बनवाई। …कहां सोती हैं सरकारें। …पब्लिक क्या राजमार्गों पर ही चलती है।’
–‘…कच्चे रास्तों का भी तो कोई धनी-धोरी होना चाहिए न।’
धक्का लगाना था तो लगाना ही था। ड्राइवर ने दो एक कोशिशें और की, पर गाड़ी रेत में ही धंसती गई। धक्के के सिवाय हमारे पास कोई विकल्प न था और हम बेमन से गाड़ी की खिड़कियां खोल नीचे उतर गए। ज्यादा खराब माजणा उनका हो रहा था जिन्होंने पैग-वैग लगाए हुए थे। हालांकि इस संकट में वे अपने को बहुत मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहे थे, पर हमें पता था कि सबसे ज्यादा वही डरे हुए थे। चांद की चांदी-सी रोशनी में दूर तक कोई रोशनी नहीं दिखाई दे रही थी। या तो दूर तक कोई गांव नहीं था या उस वक्त लाइट नहीं थी कि कोई गांव हमें दिखता।

                गाड़ी से उतरे तो ही पता चला कि यहां कितना रेत है। हमारे पांव रेत में धंसे हुए थे और हम रेत से घिरे थे। बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादवजी ने थोड़ी हिम्मत दिखाई, बोले–‘चलो, सारे मिलकर धक्का लगाते हैं। इतने आदमी हैं हम।’ कुछ ने मन से कुछ ने बेमन से कहा-‘हां।’ कुछ का पता ही नहीं चल रहा था कि उन्होंने हां कहा कि ना।
ड्राइवर ने गाड़ी से बाहर आ पिछले टायरों के नीचे से थोड़ी रेत को निकाला ताकि लीक साफ रहे और धंसी हुई गाड़ी निकल जाए। वह जल्दी-से रेत निकाल सीट पर जाकर बैठ गया और हमें गाड़ी के आगे जाकर धक्का लगाने को कहा। हम तीन-चार जने गाड़ी के बोनट के आगे खड़े हो गए और दूसरे साथी भी यथा जगह गाड़ी के हाथ लगाए हुए थे। ड्राइवर ने अपनी पोजीशन संभाली तो हमने भी धक्का लगाना शुरू किया। गाड़ी थोड़ा ड्राइवर के जोर से, थोड़ा हमारे जोर से पीछे को चली। हमारे जी में जी आया। लगा कि अब हम गाड़ी को खराब रास्ते से निकाल देंगे। हमने फिर से एक-दो-तीन करके जोर लगाया। पर कोई बात नहीं बनी ड्राइवर ने भी पूरी कोशिश की। लेकिन गाड़ी फिर फंसने लगी और हम धूल में सने लोगों का उत्साह ढीला होने लगा। हमारा सारा मजा निकल गया।
ड्राइवर ने होर्न दे फिर हमें गाड़ी के पीछे जाने को कहा ताकि गाड़ी थोड़ी-सी आगे को सरक जाए और वह तेजी से उसे बैक कर ले। हम सब जने गाड़ी के पीछे और दायें-बायें लग गए। गाड़ी जरा-भी न सरकी। अब हम गाड़ी के दोनों तरफ जा-जाकर कोशिश करने लगे और असफलता से निराश होने लगे। हमारे आस-पास इतना रेत उड़ रहा था कि चांद तक हमें धुंधला नजर आने लगा। साथी लोग थक गए थे और पेशाब-बीड़ी के बहाने इधर-उधर होने लगे थे।
चिंता हमारे चेहरों पर अधिक थी। हम होश में थे और ऐसी स्थिति को देख भयभीत थे। सुनसान इलाके में कब क्या हो जाए। हमारे कपड़े-वपड़े सब रेत से सन गए थे। लग ही नहीं रहा था कि हम वे बारात के लिए पहनकर आए हैं। धूल हमारे चेहरों पर भी जम चुकी थी। गाड़ी की हैडलाइटों में धूल के कण हमारे बालों,आखों की पुतलियों व भौहों पर साफ देखे जा सकते थे। मुझे रह-रह कर छींके आ रही थीं। तय था कि सांस के साथ धूल भीतर जाने लगी थी और हम इधर-उधर हो अपने को धूल से बचाने का प्रयास कर रहे थे।
ड्राइवर ने हारकर गाड़ी बंद की तो सब कुछ जैसे शांत-शांत सा हो गया। रेत और चांद का संगम देखने लायक था। रेत के समुद्र में हमारी नाव ऐसी फंस गई थी कि हम न घर के थे न घाट के। पानी की भी एक दो बोतलें थीं जिन्हें हमने कब का पी लिया था। करतार भाई ने अपनी मंडली के साथ दारू की बोतलें ले बोनट के पास खड़े हो-होकर पैग बनाने शुरू किए। भाई ने बोतल और शराब से भरे गिलासों को बोनट पर जचा दिया और साथियों के साथ एन्ज्वॉय करने लगा। उसे पता था कि चिंता करने वाले हम लोग बहुत हैं।
बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव को हैडमास्टर साहब एक साइड में ले गए और अश्लील इशारा करते हुए बोले-‘और चाल्लो बरात म्हं ।’
विजय मुस्कराए भर ही थे कि हैडमास्टर साहब ने इस कार्यक्रम की योजना बनाने वाले एक मास्टर पर ही जातिसूचक टिप्पणी कर दी–‘खातीड़े के चक्कर में आओगे तो ऐसा ही होगा।’
यह किसी और को सुनाई न दिया। देता तो रेत में रेत का रंग कुछ अलग ही देखने को मिलता। कोई कुछ न बोल रहा था। सबको मालूम था हैडमास्टर साहब और एक-दो दूसरे मास्टरों में जातिवाद कहां तक घुसा हुआ है। यह समय बोलने का था भी नहीं। पहले हमें गाड़ी की समस्या से जूझना था। रेत से गाड़ी न निकली तो हम कहीं के न रहेंगे और भूखे पेट बिन बिस्तरों के रेत पर ही सोना पड़ेगा। सुना था कि रेत वाले इलाकों में ऐसे-ऐसे सांप होते हैं जो आदमी की छाती पर आकर बैठते हैं तो उसे सांसों ही सांसों में पी जाते हैं। ऐसे समय में हमें सारी वे बातें याद आ रही थीं जो रेत की थी और बहुत खतरनाक भी। खतरनाक भी और डरावनी भी। गनीमत यह थी कि रात चांदनी थी और चांद सिर के ऊपर दोपहर के सूरज की तरह आसमान में टंगा था। रात अंधेरी होती तो हमें कुछ न दिखता। तब भी नहीं जब हम सब अपने-अपने मोबाइलों की टॉर्चें जला लेते। हमें भूख सता रही थी और लग रहा था कि आज की रात इस रेत के समुद्र में ही गुजारनी पड़ेगी। हम न तैर सकने वाले नाविक थे और हमारी नाव बीच मंझधार में फंसी हुई थी।
ड्राइवर और हम सबके चेहरों पर चुप्पी छा गई थी। बोले तो कोई क्या बोले। हमने अपना-अपना पूरा जोर लगा लिया था, लेकिन उससे पार नहीं पड़ रही थी और हम मंजिल तक पहुंचने वाले आधे रास्ते में ही लडख़ड़ाकर गिरने वाले थे। हम सब अपने-अपने मोबाइलों से दोस्तों को सूचित कर चुके थे, पर कोई हमारी मदद नहीं कर पा रहा था। कइयों ने तो फेसबुक पर स्टेटस तक अपडेट कर दिए थे। दोस्त मदद के नाम पर बस हमें लाइक कर रहे थे। ऐसे समय हमें खीज हो रही थी कि अपने बाल नोच लें…यहां जान को बनी है और दोस्तों को लाइक सूझ रहा है। साले खुद फसेंगे तो पता चलेगा।
‘ऐसे कब तक खड़े रहेंगे…’ मैं बूथ लेवल ऑफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादवजी को बोला।
‘फिर क्या करें।’ …वे बोले।
‘गाड़ी तो निकालनी ही पड़ेगी। कोई ट्रैक्टर-व्रैक्टर नहीं मिल जाए कहीं से…’
सुधीर यादवजी हंसे-‘ठीक कहते हो सुशील। ट्रैक्टर भी साथ ले आते।’
‘तुम यार हंसते बहुत हो। मेरी बातों को कभी गंभीरता से भी लिया करो।’
‘बुरा मान गए सुशील जी। गांव पीछे देखो तीन-चार किलोमीटर दूर छोड़कर आए है। कौन जाएगा वहां।’
मैनें तुरंत कह दिया–‘कैसी बात करते हो यार। मैं जांऊगा। एक जना और मेरे साथ भेज दो।’
‘पैदल जाना पड़ेगा। रेत में से। जा पाओगे।’
‘हां, जाऊंगा।
मैंने अपने साथ धर्मेश को लिया और हम गांव जाने के लिए पैदल ही चल पड़े।
रात चांदनी थी और दूर से गांव एक धब्बे की तरह दिख रहा था। दसेक का टाइम था। गांव में सोता पड़ा हुआ था। कुत्तों के भौंकने की आवाजें लगातार तेज होती जा रही थीं। हमारे कदम फुर्ती से उठ रहे थे। कोई ट्रैक्टर वाला ढूंढना था जो हमारी फंसी हुई गाड़ी निकाल दे। कुत्ते हम अजनबियों के पीछे पड़ गए और किसी तरह हमने उनसे अपने को बचाया। हम संभलकर चलने लगे। जाने कब कोई कुत्ता पिंडी दबोच ले और हमें लेने के देने पड़ जाएं।
धर्मेश ने अपने मोबाइल की टॉर्च जलाई हुई थी…कोई कुत्ता भौंकता तो वह उसकी आंखों में मार जोर से ‘तोह् तोह्’ कहता। कुत्ता टॉर्च की रोशनी से दूर भाग जाता।
सामने गांव नजदीक ही दिख रहा था। पेड़ों के झुरमुट से अंधेरे का गुच्छा सा बना हुआ था। हम आगे बढ़े तो पहली बिल्डिंग दिखी। बिल्डिंग बड़ी थी। उसका गेट आधा बंद था। आधा खुला। भीतर तक खाली सा बड़ा मैदान।
‘स्कूल लगता है मेरे को तो’—धर्मेश ने अंदाजा लगाया।
बात को पुख्ता करने के लिए आधे खुले और आधे बंद गेट की थम्बियों पर मोबाइल की टॉर्च की रोशनी फेंकी तो हल्के-हल्के लाल रंग में दिख रहे ‘शिक्षार्थ’ जैसे शब्द दिखायी दिए।
धर्मेश ने कहा—’यहांभी वही सब कुछ है। न जाने कब पेंट करवाया होगा और यह आधा गेट जाने कब से टूटा पड़ा होगा। मास्टरों के पास फुर्सत कहां है जो स्कूलों पर ध्यान दें। महीने वाले दिन तनख्वाह उनके खातों में जानी चाहिए, फिर सब अपनी ऐसी-तैसी कराएं।’
धर्मेश शुरू हो चुका था। मैंने ही उसे याद दिलाया—’भाई अपनी गाड़ी फंसी हुई है। ट्रैक्टर लेकर चलना है। पहले वह देखते हैं…’
‘वह तो फंसेगी ही…’—धर्मेश ने कहा तो मैं कुछ समझा नहीं और उसके साथ आगे को बढ़ गया।
सर्दी थी और लोग घरों के भीतर सोए हुए थे। गांव जिस तरह से शांत था, लग रहा था सोए हुए उसे काफी वक्त हो गया हो। गांव के लोगो में जल्दी सोने की आदत है। लाइट-वाइट भी नहीं थी। गलियों में चांद की वजह से कच्चे-पक्के मकानों की परछाइयां कई तरह की आकृतियां बनाए हुए थीं। गांव में हमें कोई दिख नहीं रहा था कि उससे कुछ पूछते। हम सूनी गलियों में घूम रहे थे। गांव छोटा ही दिख रहा था। ढाणी टाइप।
गली के मोड़ पर एक कुत्ता फिर भौंका। मैंने उसे ‘तोह् तोह्’ कहकर चुप किया।
धर्मेश ने कहा-‘ऐसे कब तक चलते रहेंगे। किसी को जगा कर पूछ लेते है कि ट्रैक्टर किसके यहां मिलेगा। नहीं तो चक्कर ही काटते रहेंगे।’
मैंने गर्दन ���े इशारे से ही हां में हां मिलाई और एक घर के दरवाजे के लटके कड़े को जोर-जोर से बजाया। कोई आवाज़ नहीं आई। धर्मेश ने भी फिर से वही क्रिया दोहराई। इस बार बात बन गई। भीतर से कोई आवाज़ आई। हम जान गए कि हमारी आवाज़ सुन कोई जाग गया है। अधेड़ उम्र का एक आदमी हाथ म्हं टॉर्च लेकर आया और दरवाजा खोल हमसे पूछा—’कुण सै भाया…इतणी रात म्हं…’
‘बराती हैं हम। दूर गांव जाना है। रेत में हमारी गाड़ी फंस गई…’ मैं बोला।
‘ट्रैक्टर चईए। हां… घणु रेत सै उत। या नरेगा के चाल्ली। सारो नास कर दियो। इतनु सूणो रास्तो रेत गेर कै खराब कर दियो। सरंपच कै समझ ना आवै। तीन महना सी यो ही हाल सै। थाम चाल्लो मेरे साथ। मैं चाल्लूं ट्रैक्टर आला कनै…’ हमारे जी में जी आया। अब हमारी गाड़ी निकल जाएगी और हम बारात में चले जाएंगे। भूख कब से हमें सता रही थी।
‘जी बाबा जी।’—मैंने कहा।
उस आदमी ने हमें ऊपर से नीचे कई बार घूर कर देखा। बोला—’के काम करो भाया।’
‘हम पढ़ाते हैं। स्कूल में। हरियाणा से हैं।’—मैं उत्साहित था कि किसी ने हमसे हमारा परिचय भी पूछा।
‘…थे मास्टर सो।’—अधेड़ उम्र का वह आदमी यह कहकर थोड़ा हंसा।
मेरे समझ में उसकी हंसी का अर्थ बिल्कुल न आया। मैं कुछ बोलता कि धर्मेश ने मेरा हाथ दबा दिया। उसके हाथ दबाने को मैं समझ गया कि अब कुछ बोलना नहीं है। बस ट्रैक्टर का जुगाड़ करना है।
अधेड़ उम्र का आदमी चद्दर की बुक्कल मार हमारे साथ चल पड़ा। वह हमारे आगे-आगे था और दो गलियां पारकर एक बड़े से मकान जहां कुछ-कुछ लाइटें भी जल रही थीं, के सामने रुक कर हेल्ले मारने लगा।
‘भाया गिरवर… ओ भाया गिरवर…सांकळ खोल्लो…’
कोई आवाज न आने पर उसने बड़ा-सा दरवाजा खटखटाया और फिर कहा- ‘भाया गिरवर…ओ भाया गिरवर…सांकळ खोल्लो…’
भीतर से आवाज आई…’कुण सै…’
‘मैं सूं भाया…झोल्लू…… सांकळ खोल्लो…’
कुछ देर बाद सांकल खुली। एक आदमी आया और बोला-‘के हुयो झोल्ल…इतणी रात…’
‘ये बाहर गांव का सीं। सरकारी मास्टर। बरात म्हं जाणु थो आणनै। गाड़ी फंसगी तालियां आला रास्तै। रेत म्हं…ट्रैक्टर ले चाल्लो भाया…’
‘मास्टर सीं ?’—गिरवर ने हैरानी से इस तरह पूछा जैसे मास्टर होना कोई गुनाह हो।
फिर उसने बोलना शुरू किया—’रोज उत कोई न कोई गाड़ी फंसी रह सै। सरपंच की इसी-तिसी हुई थी। मैं नाट्यो थो…सरपंच बणतां ई सब चौधरी बण ज्या सैं। नू नही कै गाम का कहं और आदमी सीं बी सलाह ले ल्यां।’ कहता हुआ वह दरवाजा पूरा खोल भीतर गया और पांच-सात मिनट बाद ट्रैक्टर को स्टार्ट कर बाहर ले आया।
हम चारों ट्रैक्टर पर लद लिए और चांद की चांदनी में फंसी हुई गाड़ी की ओर चल पड़े।
पहली बार गांव की चुप्पी टूटती-सी लगी।
ट्रैक्टर अपनी गाढ़ी पीली रोशनी फेंकता चल रहा था और हम इत्मीनान से चांद और चांदनी को निहार रहे थे।
ट्रैक्टर की लाइटें और आवाज वहां रह रहे साथियों में भी आशा जगा रही थी। हमारे नजदीक पहुंचते ही इधर-उधर अलसाए साथी हरकत में आ गए। वे समझ गए थे कि ट्रैक्टर में हमीं लोग बैठे हैं।
ट्रैक्टर रुका। हम नीचे उतरे। गिरवर भी ट्रैक्टर से नीचे आ फंसी हुई गाड़ी का मुआइना करने लगा। गाड़ी रेत में फंसी थी। यह पांच-सात सौ फीट का टुकड़ा था जो खतरनाक था। उसके आगे रास्ता ठीक था जो दो किलोमीटर बाद एक पक्की सड़क में जाकर मिल जाना था। गिरवर ने गाड़ी को आगे निकालना उचित समझा। वह ट्रैक्टर पर चढ़ा और खेतों के बीच से उसे निकाल गाड़ी के आगे खड़ा किया।
गिरवर ट्रैक्टर से उतरा। गाड़ी को चारों ओर से देखा। बोनट काफी धंसा हुआ था। धक्का लगाने से बात नहीं बनती। वह आगे की ओर नीचे बैठ गया और रेत को बाहर निकालने लगा। आगे थोड़ी सी जगह हुई तो उसने साथ आए झोल्लू को कहा—’ट्रैक्टर म्हं सीं रस्सा दिइये।’
झोल्लू ने ट्रैक्टर के बॉक्स को खोल एक रस्सा निकाला और उसे गाड़ी व ट्रैक्टर के बीच कसकर बांध दिया। गिरवर ट्रैक्टर पर चढ़कर उसे आगे करने लगा। गाड़ी टस से मस नहीं हो रही थी। कोई बड़ी रुकावट थी जो समझ नहीं आ रही थी। गिरवर ने फिर प्रयास किया। रस्सा तन-तन कर रह जाता। लगता था थोड़ा और खिंचा तो टूट ही जाएगा और वही हुआ। इस बार गिरवर ने रेस थोड़ी और तेज दी तो रस्सा झटके से टूट गया। ट्रैक्टर एकदम से आगे दौड़ा।
हम चिल्ला उठे—’रस्सा टूट गया…’
देख गिरवर ने भी लिया था कि रस्से के दो टुकड़े हो गए। उसने ट्रैक्टर को बैक किया और रस्से के टूटे हुए सिरे को उठाकर देखा…इस रस्से से कोई बात नहीं बननी थी।
तब गिरवर ने झोल्लू को कहा—’झोल्लू तू नू कर…सतवीरा का कुआ पै जाअ लाव लिया…नाट्टै तो मेरी बात करवा दिइये फोन पै…’
झोल्लू गिरवर के बताए कुएं की ओर चला गया। गिरवर ने तब तक गाड़ी के पिछले टायरों के नीचे से खूब सारा रेत निकाल दिया। कस्सी नहीं थी तो गिरवर ने अपने हाथों को ही कस्सी बना लिया।…तभी उसे मालूम हुआ कि एक टायर के नीचे बड़ा सा पत्थर फंसा था। पत्थर ही गाड़ी को आगे नहीं सरकने दे रहा था।

                गिरवर ने पत्थर के चारों ओर से थोड़ी और मिट्टी निकाली और हमारे में से एक साथी के सहयोग से पत्थर को पांव के कांटे की तरह बाहर निकाल दिया। उसने चारों टायरों के आगे खालियां बना दी ताकि गाड़ी निकलने में कोई दिक्कत न हो।

                गिरवर के चेहरे पर तसल्ली थी…कि गाड़ी निकल जाएगी।
…अब झोल्लू का इंतज़ार था।
कुछ देर बाद झोल्लू आता हुआ दिखा तो हमें चैन मिला। उसके सिर पर भारी भरकम लाव थी। हम सब झोल्लू की हिम्मत ही मान रहे थे जो अकेला लाव ले आया।
गिरवर ने झोल्लू के साथ मिलकर लाव ट्रैक्टर और गाड़ी के बीच कई लड़ कर बांध दिया।
तब झोल्लू ने कहा—’ईब राम को नाम ल्यो भाया गिरवर…’
गिरवर ट्रैक्टर पर चढ़ा। उसने स्टेरिंग और रेस-ब्रेक को चुचकारा। तीन-चार बार रेस दबाकर ट्रैक्टर को जैसे दौड़ जीतने के लिए तैयार किया…ट्रैक्टर बेताब था और गिरवर भी…
गिरवर ने तब क्लिच दबाकर पहला गियर डाला और थोड़ी रेस दे ट्रैक्टर को आगे किया। इस बार गाड़ी हिली ही नहीं, ट्रैक्टर के साथ दूर तक गई। हम देख रहे थे गाड़ी एक सयाने बच्चे की तरह ट्रैक्टर के पीछे-पीछे दौड़ रही है।
हमारे चेहरों पर मुस्कान थी। झोल्लू और गिरवर भी खुश थे कि उन्होंने अनजान राहगीरों की फंसी हुई गाड़ी बाहर निकाली।
गाड़ी को गिरवर ने सेफ रास्ते तक पहुंचा दिया। उसके आगे रास्ता खराब नहीं था। गिरवर और झोल्लू ने बंधी हुई लाव खोल उसका बड़ा सा घेरा बना ट्रैक्टर पर रख दी।
हम हैरान थे कि इस गलाकाटू समय में अभी भी गिरवर जैसे लोग हैं।
हम गिरवर के आगे नतमस्तक भी थे। हमें नहीं पता था कि गिरवर के गांव का नाम क्या है। हम सब तकनीक से लैस थे और असहाय। किसी के स्मार्ट फोन में ऐसा कोई फार्मूला नहीं था कि हम रेत में फंसी हुई गाड़ी को बाहर निकाल पाते।

                हमने बूथ लेवल ऑफिसर कम मिड-डे-मील इंचार्ज सुधीर यादव जी के मार्फत हैडमास्टर साहब को कहलवाया- ‘कुछ दो भी इन्हें। इतनी दूर से आए हैं ये।’
सब साथियों ने इस बात का समर्थन किया। हैडमास्टर साहब थोड़ा कंजूस थे। सारा ध्यान उनका भैसों के खरीदने-बेचने में रहा है। भैसों के लिए वे कितना भी खर्च कर सकते हैं। एक खुद पर खर्च करने में देर नहीं लगाते। अच्छा और मोटा खाते हैं। इस वक्त भी वो यह सोच रहे थे कि बरात में पहुँचते ही बीस-तीस काजू की कतलियों की तो खैर नहीं होगी।
हैडमास्टर साहब ने बूथ लेवल ऑफिसर सुधीर यादव  के कहने पर पांच सौ का एक नोट निकाल गिरवर को देना चाहा। गिरवर ने हाथ जोड़ लिए। बोला-‘थम ठीक सीं पढ़ा लिया करो गुरुजी। सरकारी स्कूलां म्हं इब गरीबां का बालक ही पढ़ी सीं। म्हारो मेहनतानों ऊमें ही आ ज्यवैगो…थारी चाल्लै तो म्हारला मास्टरां नै बी कहकै जाइयो। ‘कख’ ना पढ़ा कै दीं। इतणा मास्टर सीं। सारा का सारा एक जिसा…’
गिरवर के बोलने से हम सन्न थे। उसने जैसे हमें आइना ही दिखा दिया हो।
हम डिजिटल इंडिया के भीतर एक पिछड़े गांव में खड़े थे जहा ंगिरवर और झोल्लू जैसों को गूगल, मेल, फेसबुक, ट्विटर जैसे नामों के बारे में कुछ नहीं पता था, बावजूद इसके जो अच्छे से अच्छे पढ़े-लिखों को पाठ पढ़ाना जानते थे।

                चांद वैसे ही आसमान में टंगा था, पर इस बार वह हमारी आंखों में बुरी तरह चुभ रहा था।

(इस कहानी का किसी भी जिंदा या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी को इसमें अपना चरित्र दिखायी देता है तो वह महज एक संयोग होगा।)
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (अंक8-9, नवम्बर2016 से फरवरी 2017), पेज- 5 से 19

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