साखी – बैस्नों भया तो क्या भया, बूझा नहीं विवेक।
छापा तिलक बनाई करि, दुविधा लोक अनेक।।
टेक – पंडित छाण पियो जल पाणी, तेरी काया कहां बिटलाणी1।
चरण – वही माटी की गागर होती, सौ भर के मैं आई।
सौ मिट्टी के हम तुम होते, छूती कहां लिपटाणी2।।
न्हाय धोय के चौका दीना, बहुत करी उजलाई।
उड़ मक्खी भोजन पे बैठी, बूढ़ी तब पंडिताई।।
छप्पन कोटि यादव गलि-ग्या, मुनि जन शेष अठ्ठासी।
तैतीस कोटि देवता गलि-ग्या, समदर3 मिल गई माटी।।
हाड़4 झरी-झरी5, चाम6 झरी-झराी, मांस झरी दूध आया।
नदियां नीर बहि कर आयो, रक्त बूंद पशु सरया7।।
जल की मछली जल में जन्मी, सावड़8 कहां धोवाई।
कहे कमाल में पूछूं पंडित, छूती9 कहां से आई।।