कविता
वनों की ओर जाना ही
नहीं होता
बनवास
जब भी
अकेलापन करता है
उदास
ख्यालों के
कुरंग नाचते हैं
चुप्पी देती है ताल
उल्लू चीखते हैं
बिच्छू डसते हैं
नाग रेंगते हैं
आस-पास
हम
अपने भीतर के जंगल में
पलों में
वर्षों का
भोग लेते हैं
बनवास।
पंजाबी से अनुवाद : पूरन मुद्गल व मोहन सपरा
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज -21