कविता
गली-बाजारों में/निकलती है भीड़
कभी इस ओर से
कभी दूसरे छोर से
हाथों में बर्छे लिए
और त्रिशूल उठाए-
‘अकाल’ ‘हरहर’ महादेव के जयकारों से
कांपती है हवा
दानवता अपने पंजों से धूल उड़ाती
मानवता सहमी खड़ी
धमाकों की आवाज से
वातावरण में घुटन भर गई
परिंदे असमय अपने घरों को लौट आए
देखते हैं, घोंसलों से नीचे गिरे अपने बच्चों को!
सिर में भर गया है बारूदी धूआं
चीर-चीर गए अंतडिय़ों और कलेजे को
लोहे के कंटीले-नुकीले टुकड़े
कबूतर की गुटरगूं दम तोड़ गई
बिल्ली की जकड़न में
लहू के ताल में तैर रही है जिंदगी
मांस का लोथड़ा बनकर!
मैं सोचता हूं-
घर जाकर क्या कहूंगा-
कौन-कौन मरे?
सिर वाले के सिर पर केश नहीं
सिरहीन के गले में नहीं है जनेऊ-
राम सिंह या गोबिंद राम?
मेरे लहू सने हाथ देखकर
यदि नौवें बाबे ने पूछा-
ये किस के लहू से रंगे हैं
तो मैं कैसे कहूंगा-
‘तुम्हारे ही लहू से’
पर बाबा पूछेगा ही क्यों
वह जानता है
उसका ही कोई सहजधारी या सिक्ख पुत्तर
शैतान की बलि चढ़ा है।
फिर सोचता हूं-
बाबा अपने महान कर्म के आसन पर
और मैं
अपने ‘महाधर्म’ की खूनी-धरती पर
कैसे एक-दूसरे से आंख मिलाएंगे?
पंजाबी से अनुवाद : पूरन मुद्गल व मोहन सपरा
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज -21