कविता
तुमने ठीक ही कहा है-
जब हम तोड़ नहीं पाते
अपने इर्द-गिर्द की
अदृश्य रस्सियों के
अटूट जाल,
तब हम
दार्शनिक हो जाते हैं।
कहीं एकांत में
लोकगीत
नहीं रचते-गाते
मंत्र जपते पढ़ते हैं,
बंद कमरों में छिपकर
शब्दों के हथियार घड़ते हैं,
सिद्धांतों के घोड़ों पर सवार
स्वयं से लड़ते
स्वंय ही जीतते-हारते
और इस तरह
सच्ची-झूठी लड़ाई से
यथार्थ का किला
जीत लेते हैं।
तुमने ठीक ही कहा है
मेरे मन-मस्तिष्क
और हाथ-पैरों के बीच
कोसों का फासला है
शायद
मैं
दार्शनिक हो गया हूं।
पंजाबी से अनुवाद : पूरन मुद्गल व मोहन सपरा
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज -20