हेल्ली-महल चबारे  देक्खे – कर्मचंद केसर

हरियाणवी गजल

हेल्ली-महल चबारे  देक्खे।
छान-झोंपड़ी ढारे देक्खे।
तरसें सैं किते बूंद-बूंद नैं,
चलते किते फुहारे देक्खे।
गरमी-सरदी कदे मींह् बरसै,
कुदरत तिरे नजारे देक्खे।
होणी सै बलवान जगत म्हं,
राजे हाथ पसारे देक्खे।
सूरज नैं हड़ताल करी तो,
हमनै दिन म्हं तारे देक्खे।
मां बिन गूंगे की कुण जाणैं,
करकै बोह्त इशारे देक्खे।
गफलत म्हं मार्या था कुत्ता,
लक्खी से बणजारे देक्खे।
चुरमा-खांड, कसार गुलगले,
खाकै  शक्कर पारे देक्खे।
गजब हुस्न के चमकै लाग्गैं,
तिरछे नैन कटारे देक्खे।
खावैं सैं किते खोस-खोस कै,
लाग्गे किते भण्डारे देक्खे।
बालकपण-सी मौज नहीं सै,
लेकै बोह्त नजारे देक्खे।
गीत गावती झूलण ज्यां थी,
मिरगां कैसे लारे देक्खे।
पह्लां जिसे न रह्ये गाभरू,
ब्याहे और कुंवारे देक्खे।
मतलब की दुनिया म्हं ‘केसर’
दुसमन बणते प्यारे देक्खे।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर- अक्तूबर 2016), पेज- 53
 
 

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